वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 19
From जैनकोष
जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे ।
सम्मद᳭दंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ।।19।।
(32) शील के परिवारभूत गुणों का निर्देश―यह शीलपाहुड ग्रंथ है, इसमें आत्मा के शील का वर्णन है । आत्मा का शील मायने स्वभाव । जो सहज अनादि अनंत है उस शील की बात कह रहे हैं कि उस शील के परिवार कौन-कौन से हैं? तो पहले कहते हैं (1) जीवदया―जो स्व और पर परजीवों में राग करता है वह शीलवान है । वास्तविक दया क्या है कि जिस मिथ्या भ्रम में दुर्विचार में जीव फँस रहे हैं वह विकार हटे और जैसा शुद्ध स्वरूप है उस स्वरूप में अपना उपयोग लगायें तो वे पुरुष जीवदया के सच्चे पालनहार हैं । जीवदया शील का परिवार है । ऐसे कौन-कौन गुण हैं जो आत्मा के स्वभाव को प्रकट करते हैं, बढ़ते हैं, उनका जिक्र चल रहा है । जीवदया शील के परिवार का है । (2) इंद्रिय का दमन―इंद्रियविषयों में प्रवृत्ति न जाये और उन विषयों से विरक्ति रहे, उन पर दमन रहे तो ऐसा इंद्रियदमन भी शील का परिवार है । शील मायने आत्मा का स्वभाव, स्वरूप । (3) सत्यवृत्ति―सच बोलना, किसी प्राणी की जिसमें हिंसा हो ऐसे वचन न बोलना, तो यथार्थ बोले जाने वाले यथार्थ वचन ये शील के परिवार है याने कैसे गुण होने चाहिए जो कि आत्मा के स्वभाव के विकास में मददगार रहें वही शील का परिवार है । (4) चोरी न करना―बिना दी हुई चीज ग्रहण न करना यह शील का परिवार है । (5) ब्रह्मचर्य से रहना, किसी भी परदेह की प्रीति न करना, अपने आपके स्वभाव की दृष्टि बनाये रहना यह ब्रह्मचर्य शील का परिवार है । (6) संतोष शील का परिवार है, जिसके संतोष नहीं, बाह्य पदार्थों में तृष्णा है वह कुशील है जिसके तृष्णा छूटे और संतोष रहता है तो वह शील का परिवार है । इसी प्रकार (7) सम्यग्दर्शन―यह तो शील का मुख्य परिवार है । जैसा आत्मा का वास्तविक स्वरूप है उस रूप से आपका अनुभव करना यह शील का परिवार है । (8) सम्यग्ज्ञान―जो पदार्थ जैसा है उसको उसी प्रकार जानना, विनाशीक को विनाशीक जानना, जो अपने से भिन्न है उसे भिन्न जानना तो यह यथार्थ ज्ञान शील का परिवार है । (9) सम्यक्चारित्र । (10) तपश्चरण―इच्छाओं का विरोध करना, इच्छाओं का दास न बनना, ऐसा जो पवित्र परिणाम है वह कहलाता है तप, यह भी शील का परिवार है । तो शील की दृष्टि से ही आत्मा की रक्षा है अर्थात् ज्ञानस्वभावमात्र हूँ ऐसी प्रतीति बनने में आत्मा की रक्षा है ।