वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 23
From जैनकोष
णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणुएसु दुक्खाइं ।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासता जीवा ।।23।।
(45) विषयासक्त जीवों को चारों गति के दुःखों का लाभ―जो जीव विषयों में आसक्त हैं वे नरकों में बड़ी वेदनाओं को पाते हैं तिर्यंच और मनुष्य भव में दु:खों को पाते हैं और देवगति में भी दुर्भाग्य को प्राप्त करते हैं, विषय मायने स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इन 5 इंद्रियों के विषयों का सेवना । जैसे अच्छा छूना, अच्छा स्वाद लेना, गंध लेना, रूप देखना, शब्द सुनना और एक विषय मन का है, नामवरी चाहना, कीर्ति चाहना । तो इन विषयों में जो आसक्त जीव हैं वे मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि मोक्ष का मार्ग तो अपने केवल आत्मस्वभाव की दृष्टि है किसी पर का ख्याल नहीं, पर का आश्रय नहीं किंतु विषयों से विकट कर्मबंध है, पराश्रित भावों से, विकारों में तो परपदार्थों का आश्रय है, जिससे परविषयों के आसक्त जीव चारों गतियों में दुख प्राप्त करते हैं ।
(46) विषयासक्त जीवों को पुरस्कृत नरकगति के दुःखों के लाभ का दिग्दर्शन―नरकों में वेदना है । पहले तो नरक में खुद जमीन ऐसी है कि उस पर रहने से वेदना होती है । बताया है कि हजार बिंदुओं के काटने से जितना दु:ख होता है उससे भी अधिक दु:ख नरक की भूमि में है, पर एक बात समझें कि उसही नरक भूमि पर देखने के लिए देव भी जाते हैं, किंतु देवों को दु:ख नहीं होता । जैसे किसी कमरे की फर्श में या भीत में बिजली का करेन्ट आ जाये तो उसको छूने वाले पर करेन्ट आयेगा, उसे दु:ख होगा, किंतु कोई रबड़ के चपल पहने हो जिसमें बिजली नहीं आती, उसे पहिनकर कमरे में जाये तो उसे तो करेन्ट न आयेगा । तो ऐसे ही समझिये कि नारकियों का वैक्रियक शरीर इस ढंग का है कि वहाँ भूमि के छूने से दु:ख होता है, किंतु देवों का वैक्रियक शरीर ऐसा है कि उस भूमि पर पहुंच जायें देखने के लिए, समझाने के लिए, किंतु उनको उस भूमि का कष्ट नहीं है । तो यह नारकियों के पाप का ही तो तीव्र उदय है कि जहाँ नरक की भूमि छूने से ही इतने कठिन दु:ख होते हैं । ये दु:ख तो हैं ही वहाँ अन्न जल जरा भी नहीं हैं, भूख प्यास इतनी तेज होती हैं नारकियों के कि बताया है कि सारे समुद्र का जल भी पी ले तो भी प्यास न बुझे या सारा अन्न भी खा जायें तो भी क्षुधा न मिटे, मगर वहाँ न एक बूंद जल है, न अन्न का एक दाना है । यहाँ तो मनुष्य लोग जरा-जरासी बात में कष्ट मानते हैं, यह भी हो, यह आवश्यकता पूर्ण नहीं हुई, पर यहाँ विवेक नहीं है । विवेक तो यह है कि जो भी स्थितियां आयें उन सबमें धैर्य रखें, अपना ज्ञान स्वच्छ रखें । हो तो हो, न हो तो न हो, बाहरी पदार्थों से पूरा तो नहीं पड़ता, मगर मनुष्य गम कहाँ खाते? तो यहाँ तो जरा-जरासी बात में विचार बनाते हैं, पर नरकों में जो जीव पहुंचता है उसकी बात तो देखो―चाह बहुत तेज, पर मिलता जरा भी नहीं । तो नरकगति में ऐसी तीन वेदना है, और भी देखो―वहाँ ठंड गर्मी बेहद पड़ती है, इतनी कि यदि यहाँ पड़े तो मनुष्य जीवित न रह सकें, इतनी तीव्र वेदना है वहाँ, मगर उनके शरीर के टुकड़े भी हो जायें, फिर भी वे मरते नहीं । वे टुकड़े फिर ज्यों के त्यों पारे की तरह मिल जाते । जो नारकी मरना चाहते हैं उनके तिल-तिल बराबर टुकड़े कर दिए जायें तो भी न मरे, नरकों में इतना तीव्र पाप का उदय है और फिर नारकी जीव एक दूसरे को देखकर तुरंत हमला करते हैं, मारते, छेदते, काटते, अग्नि में तपाते, करौत से काटते, बड़ी तीव्र वेदना भोगनी पड़ती है और फिर इसके अलावा तीसरे नरक तक असुर कुमार जाति के देव जाकर उन्हें भिड़ाते हैं कि कहीं वे शांत तो नहीं बैठे, ये लड़ते-मरते ही रहें, तो ऐसे कठिन दु:ख हैं नरकों में । उन नरकों की वेदना कैसे मिलती है? विषयों में आसक्त होने से । अब अपने आप पर घटा लीजिए कि हम विषयों में आसक्त होते हैं तो नरक के दु:ख भोगने पड़ेंगे ।
(47) विषयासक्ति के विवरण में विषयों का निर्देश―स्पर्शन के विषय में कठिन विषय है कुशील । ब्रह्मचर्य न रख सकना, कामवासना जगना, प्रवृत्ति करना, यह विषयों की आसक्ति है । रसना के विषय में है स्वाद पर लट᳭टू रहना, अच्छा स्वादिष्ट भोजन मिले उसी में उपयोग रम रहा है । अरे स्वादिष्ट खाया तो क्या, साधारण खाया तो क्या, घाटी नीचे माटी, गले के नीचे उतरा फिर उसका स्वाद वापिस आता है क्या? वहाँ सब बराबर है, लेकिन मोही जीव रस पर आसक्त हैं । बड़ा उद्यम करें, खर्च करें, कितने ही प्रयत्न कर-करके विषयों का भोग भोगते हैं । घ्राणेंद्रिय का विषय क्या? सुगंधित पदार्थ सूंघना । चक्षुरिंद्रिय का विषय है रूप देखना । यही रूप देखना और ज्यादह चित्त उमड़ता है तो सिनेमाघर में जाकर देखना । कर्णेंद्रिय का विषय है राग रागनी के शब्द सुनना, मन का विषय है नामवरी । ये सभी विषय एक से, एक कठिन हैं, जिस पर विचार करें वही विषय बुरा लगता है । मन का विषय तो बड़ा भयंकर है । न शरीर को जरूरत है न आत्मा को जरूरत है, पर यह मन नामवरी, कीर्ति की चाह में उलझा रहता है । मेरा नाम प्रसिद्ध हो, दुनिया के लोग मुझे जान जायें । अरे दुनिया के लोग क्या हैं और तुम क्या हो इसका सही ज्ञान तो बनाओ । जीव, कर्म और शरीर इन तीन चीजों का यह । पिंडोला है, मायारूप है । जो अनेक पदार्थों से मिलकर बना है वह मायारूप कहलाता है, क्योंकि वह सब बिखर जायेगा । उसका फिर उस रूप में अस्तित्व न रहेगा । जो कुछ भी दिखता है आंखों से वह सब मायारूप है । आप नाम लेकर सोच लीजिए, ये भीत, किवाड़, दरी, पत्थर आदि ये सब भी अनंत परमाणुओं से मिलकर बने हुए पिंड हैं, जो बिखर जायेंगे उनका अस्तित्व शाश्वत तो नहीं है, सब पर्याय रूप हैं, इसी तरह पशु-पक्षी, गाय, भैंस, मनुष्य आदिक जो कुछ भी दिखते हैं वे सब भी मायारूप हैं । तो मायामयी संसार में इस परमात्मस्वरूप भगवान आत्मा का क्या नाम? तो ये पंचेंद्रिय के विषय और छठा मन का विषय, इनमें आसक्त रहने वाले जीव नरकगति में जन्म लेते हैं और ऐसी वेदनायें सहते हैं ।
(48) विषयासक्त जीवों को पुरस्कृत कुमनुष्य तिर्यंच कुदेव जीवन के दु:खों के लाभ का वर्णन―मोही जीव विषयों के अनुरागवश तिर्यंच और मनुष्य में भी उत्पन्न होते हैं तो खोटे दीन दु:खी बनते हैं और विषयों की लालसा बनाये रहते हैं और उनको मिलते नहीं हैं । विषयों की प्रीति का बहुत भयंकर परिणाम है । कभी यह विषयासक्त जीव देवगति में उत्पन्न हो तो नीच देव होगा । देवों में भी यद्यपि आहार न करने का, न कमाने का शरीर में रोग न होने का तो आराम है, मगर मन तो उनका भी विकट है । नीच देव हो गए, जैसे आभियोग्य और किल्विषिक । आभियोग्य वे कहलाते हैं जिनको दूसरे देवों की आज्ञा से हाथी, घोड़ा, हंस, गरुड़ आदिक सवारी रूप में बनना पड़ता है । देखो कैसी कर्मलीला है, अगर कोई नीचा देव बिगड़ जाये कि हम नहीं बनते तो बताओ कोई दूसरा देव उसका क्या कर लेगा, क्योंकि वे देव मरते हैं नहीं आयु पूर्ण होने से पहले । उनको कोई शारीरिक रोग होता नहीं, उनके हाथ-पैर छिदते नहीं, हड्डी वहाँ होती नहीं जो कि मारने से टूट जाये, मगर उनमें इतनी हिम्मत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें, ऐसा ही उनका कर्मविपाक है कि जिस वाहन की आज्ञा दी उस वाहनरूप बनना पड़ता तो बताओ उसमें उनको मानसिक दुःख है कि नहीं ?....है । किल्विषिक देव याने चांडाल की तरह नीच माने जाने वाले देव । उनको सब लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं, वे तुच्छ देव हैं । तो देवगति में भी जन्म हुआ विषयासक्त पुरुष का तो नीच देव होता है । तो ऐसे विषयों में आसक्त जीवों को इस भव में भी आराम नहीं और परभव में भी उन्हें कठिन दु:ख होता है । इससे अगर अपना भला चाहिए हो तो विषयों से विरक्त रहना ही उत्तम है ।