वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 24
From जैनकोष
तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि ।
तवसीलमंत कुसली खपंति विसयं विस व खलं ।।24।।
(49) शीलवान कुशल पुरुषों द्वारा विषयविष का परिहार―जैसे धान्य दल गया, चावल और छिलका दोनों मिले हुए हैं या जैसे चावल या गेहूं की दाँय कर ली गई वहाँ खलिहान में और भुस व दाने इन दोनों का मेल है । अब जो किसान लोग हैं वे उन दानों को साफ करते हैं याने भुस उड़ाते हैं तो वह भुस या छिलका कहीं से कहीं चला जाये तो भी उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता, क्योंकि वे उसकी कुछ कीमत नहीं समझते, उन्हें तो प्रयोजन होता है चावल या गेहूं के दानों से, उनका ही वे संग्रह करते हैं, ऐसे ही जो विवेकी पुरुष हैं सो वे अपने आत्मा में देखते हैं कि सार चीज तो आत्मा का ज्ञानस्वरूप है, और बाकी शरीरकर्म कषायादिक छिलका भूसा, जैसे सब असार चीजें हैं तो उन्हें फेंकने में ज्ञानी विवेकी पुरुषों को कष्ट नहीं होता । जैसे तेल निकलने पर खली अलग कर दी जाती है, धान्य कूटने पर भुस अलग कर दिया जाता है, ऐसे ही ये पुरुष उन सब विषयानुरागों को फेंक देते हैं, दूर कर देते हैं । जो ज्ञानी हैं, तपश्चरण और शील से युक्त हैं वे इंद्रिय के विषयों को ऐसा फेंक देते हैं जैसे गन्ने में से रस निकालने के बाद उसका फोक फेंक दिया जाता है अथवा जैसे दवाइयों की जड़ें कूटने के बाद उसका रस निकालकर फोक फेंक दिया जाता है, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानस्वरूप को ग्रहण करते हैं और विकार भावों को, विषयानुरागों को अपने ज्ञान के बल से हटा देते हैं । ज्ञानी की दृष्टि में विषय ज्ञेयमात्र रहते हैं, जान लिया कि ये भी पदार्थ हैं, ये भी जीव हैं यह पुरुष है यह स्त्री है । वह तो मात्र ज्ञाता रहता है पर उसके विषय में विकारभाव, वासना उनके उत्पन्न नहीं होती ।
(50) विषयासक्त पुरुषों की कुवृत्ति का आधार विभ्रम―जो आसक्त पुरुष हैं वे इन विषयों में इन जड़ पदार्थों में सुख का ज्ञान करते हैं कि मुझको सुख यहीं से मिलेगा, विषयों में सुख मान रखा है तो उन विषयभूत पदार्थों का ही संग्रह करते हैं, उन पर ही लड़ाई करते हैं । जैसे कोई कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है तो उसे खून का स्वाद आता है, मगर किसका स्वाद है वह? जो सूखी हड्डी चबायी, उस सूखी हड्डी के चबाने से खुद के मुख के मसूड़ों से खून निकला उसका स्वाद आया और मानता है कि मेरे को हड्डी का स्वाद आया, ठीक इसी तरह से सब विषयों की बात समझिये । विषयों के भोगने में जितना भी आनंद आता है वह सुख आत्मा के आनंदगुण का विकार रूप है । कहीं सुख विषयों में से नहीं आया, बाह्य पदार्थों में से सुख नहीं निकला, सुख जो भी हुआ है वह आत्मा का सुख स्वरूप है, स्वभाव है, वहाँ से वह सुख पैदा हुआ है, मगर विषयों में आसक्त जीव मानता यह है कि मेरे को सुख मिला है तो इन विषयों से मिला है, इसलिए वह विषयों में प्रीति करता है, विषयों में आसक्त रहता है, लेकिन जो ज्ञानी पुरुष हैं उन्होंने समझा है कि ज्ञान में ही सुख है, ज्ञान में ही आनंद है अन्यत्र आनंद नहीं । कभी कोई पुरुष आराम से बैठा हो, किसी का ख्याल न आता हो, किसी पर क्रोध, मान, माया, लोभ न चल रहे हों, बड़े आनंद में घर के दरवाजे पर चबूतरे पर बैठा है, कुछ कर नहीं रहा, उससे कोई पूछता है कि कहो भाई कैसे बैठे? तो वह बोलता कि बड़े आराम में बैठे, बड़े सुख से बैठे । बताओ वहाँ वह किस बात का सुख भोग रहा? वह उस समय किसी परपदार्थ में आसक्त नहीं हो रहा, अपने आपके ज्ञानस्वरूप में चित्त रमे तो उसको आनंद जगता है । तो यह ज्ञानी पुरुष इन विषयविकारों को तुच्छ जानकर उनको अलग कर देते हैं और अपने सारभूत सहज
ज्ञानस्वभाव की ही उपासना रखते हैं ।