वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 25
From जैनकोष
बट्टेसु य खंढेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु ।
अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ।।25।।
(51) सर्वांगसुंदर होने पर भी शील के बिना अमनोज्ञ प्रतिभासित होने से शील की उत्तमता का परिचय―कोई पुरुष कितना ही सुंदर हो रूप में तो भी उसके यदि शील नहीं है, क्रोध अधिक करना, घमंड बगराना, छल-कपट करना, लोभ भी बहुत है, दूसरों को ठगता है, आत्मा के ज्ञान की दृष्टि ही नहीं है तो बतलाओ वह पुरुष भला लगेगा क्या? कोई कितना ही सुंदर हो, बलवान हो लेकिन शील नहीं है तो सब व्यर्थ हैं, वैसे ही व्यर्थ है । प्रयोजनवान तो शीलस्वभाव है । कैसे अंग सुंदर हुआ करते हैं उसका कुछ वर्णन इस गाथा में है । जैसे उन मनुष्यों के शरीर में कोई अंग तो गोल सुहावना लगता, जैसे हाथ गोल हों, पैर गोल हों, कुछ अंग टेढ़े सुहावने लगते, जैसे भुजा एकदम गोल हो तो सुंदर नहीं लगती, किंतु कहीं ऊँचा, कहीं नीचा हो, जैसे कि पहलवानों की भुजा का आकार, वह सुहावना कहलाता है, किसी के अंग सीधे हों, सरल हों तो सुहावने लगते हैं । तो यहाँ बतला रहे कि कैसे ही सुहावने अंग हों, मगर शील नहीं है तो सब बेकार हैं? उनकी कोई कीमत नहीं है । शील स्वभाव है आत्मा का । रूप प्रशंसनीय नहीं, किंतु आत्मा का शीलस्वभाव प्रशंसनीय है । कैसे ही अंग प्राप्त हों सबमें उत्तम तो शील है । शील मायने क्या? शांत रहना, कषाय न करना और अपने आत्मा के ज्ञानस्वभाव की दृष्टि रखना, यह शील कहलाता है । तो शील ही उत्तम है, शरीर के अंग उत्तम नहीं । शरीर के अंग क्या हैं? शरीर हाड़, मांस, मज्जा, चाम आदि का पिंड है, थोड़ा आकार या रूप का ही तो फर्क आ गया । तो रूप भी क्या? कुछ भी नहीं । एक दिखने मात्र की वस्तु है, तो कैसी ही सुंदरता हो, शरीर में, किंतु शील नहीं है तो वह भद्दा लगता है, इसलिए सब अंगों में, सारे शरीर में, सारे ही पिंड में उत्तम चीज मिली शील, आत्मा का ज्ञानस्वभाव ।