वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 8
From जैनकोष
जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा ।
छिंदति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ।।8।।
(15) विषयविरक्त ज्ञानभावनासहित तपस्वी संतों का चतुर्गतिबंधछेदन―जो पुरुष विषयों से विरक्त हैं और ज्ञानस्वरूप को जानकर ज्ञान की भावना से सहित हैं वे तपस्वीजन चारों गतियों के बंधन को काट देते हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं । मुख्य चिन्ह है कल्याण पाने वाले का, विषयों से विरक्त होना । जिसके हृदय में छूने, खाने, सूंघने, देखने, सुनने आदिक विषयों की वृत्ति में उमंग नहीं है और इन विषयों की वृत्ति को उपद्रव मानते हैं ऐसे विषयविरक्त पुरुष इस संसार के बंधन को काट देते हैं । विषयों से विरक्ति किसके होती है? जिसको यह श्रद्धा हो कि विषय परद्रव्य हैं । उन परद्रव्यों से मुझ आत्मा का कोई संबंध नहीं है, ऐसा यथार्थ जानकर जो अपने स्वरूप की ओर अभिमुख होता है वह पुरुष विषयों से विरक्त रहता है । दृष्टि जैसी मिलती है उसके अनुसार कार्य होता है । जिसमें पर को आत्मा मानने की धुन और आदत होती है वह विपत्तियों का ही उपाय बनाया करेगा और जिसको निरापद अपने ज्ञानस्वरूप का ज्ञान है वह पुरुष सन्मार्ग पर है और अपना कल्याण करेगा । तो विषयों से विरक्त होना इससे अंदाज लगता है कि कौन पुरुष कितना धर्ममार्ग में बढ़ चुका है । तो विषयों से जो विरक्त पुरुष है वह ज्ञान से जानता है और ज्ञान की भावना किया करता है । सो ऐसा विवेकी पुरुष तपश्चरण आदिक गुणों से युक्त होकर चारों गतियों के बंधन को तोड़ देता है । जानने वाला यह ज्ञान ही तो है । यह ज्ञान कहां से जगा, कैसे निकला, उसका क्या रूपक है, इसका परिचय जिन्हें हो गया उनको आत्मदृष्टि होती है । ज्ञान मेरा स्वरूप है । पहले मुझमें ज्ञान न था, अब आ गया, ऐसी बात नहीं होती । जब से जीव है तब ही से ज्ञानस्वरूप है । तो ऐसे अपने ज्ञानस्वरूप को जानकर यह ज्ञानभावना से सहित है । मैं ज्ञानमात्र हूँ अपने प्रदेशों में सर्वत्र ज्ञानप्रकाश ही निरखना, सो ऐसी ज्ञानभावनासहित पुरुष चारों गतियों के भ्रमण को छेद देते हैं । अब उनका संसार में जन्ममरण न होगा । दो एक भव ही होकर उनके कर्मबंधन ये सब टूट जायेंगे । तो जो पुरुष विषयों से विरक्त है, ज्ञान से जानकर ज्ञान की भावना से युक्त है वह ही पुरुष इस संसारबंधन को तोड़ सकता है । यह संसार महाजाल है, इससे अलग होना कठिन है । इसमें रहना कठिन है । संसार में रहने पर, उपयोग को जमाने पर इस जीव को आकुलता ही है, और जहाँ इस संसारभाव से उपेक्षा की, ज्ञान में ज्ञान का स्वरूप ही बन रहा हो, ऐसे पुरुषों को सन्मार्ग पर चलना बहुत आसान है । सो जो आत्मस्वरूप को जानता है और इसके फल में विषयों से विरक्त है और विषयविरक्ति के उपाय से जिसके ज्ञानभावना अधिक से अधिक बन रही है वह पुरुष उस ज्ञान के पूर्णविकास को पायेगा और अनायास ही जगत के तीन लोक तीन काल के सारे वैभव यहाँ प्रतिभासित होंगे । सो विषयविरक्ति को अपने जीवन में बहुत महत्त्व देना चाहिए । जितनी विषयों में प्रवृत्ति रहे, समझो उतने क्षण इस जीवन के बेकार हैं । विषयों से विरक्त होकर निज स्वभाव के अभिमुख रहे तो उसके समस्त दु:खों का क्षय होता है । सो इस गाथा में यह ही कहा जा रहा है कि विषयविरक्त पुरुष ही चतुर्गति के बंधन को तोड़ सकता है ।