वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 178
From जैनकोष
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्
तन्मूलां बहुभावसंततिमिमामुद्धर्तुकाम: समम् ।
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोंमूलितबंध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ॥178॥
1439- आत्मा के विकाराकारकत्व का विचार-
ऐसा विचार करके, कैसा विचार करके? जो कि इससे पहले कहा गया है, क्या कहा गया है? कि आत्मा अपने आपसे शुद्ध स्वभाव होने के कारण रागादिक रूप नहीं परिणमता, किंतु पर द्रव्य के सान्निध्य में और आचार्यदेव के शब्दों में परद्रव्यों के द्वारा ही यह शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिकरूप से परिणमाया जाता है, ऐसा यह एक वस्तुस्वभाव है। योग्य उपादान-अनुकूल परद्रव्य के सान्निध्य में ही अनुरूप विकाररूप से परिणमता है। इसको जो नहीं जानता वह अज्ञानी है और वह रागादिक भावों को अपना बनाता है, मैंने किया, इन रागादिक भावों का मैं कर्ता हूँ, इस तरह जान रहा, क्योंकि उसे निमित्तनैमित्तिकयोग की जानकारी नहीं और वह अपने आपको मान रहा कि मैं रागादिक का करने वाला हूँ। इस प्रकार जो अपने आपको रागादिकरूप कर रहा है, वह अज्ञानी जीव कर्मों से बँध रहा है और जो यह जानता है कि मैं तो शुद्धस्वभावरूप हूँ, मेरी जो शुद्ध परिणति है, हो सकती है उस ही रूप में परिणमने में मैं स्वयं समर्थ हूँ और पर निमित्त भी उसमें नहीं होता, स्वयं ही सब कुछ रहा। एक काल द्रव्य साधारण निमित्त है, उसकी प्रतिष्ठा यों नहीं की जाती कि न हो काल तो न परिणमे ऐसा व्यतिरेक नहीं मिलता। वस्तुस्वभाव को जो नहीं जानता वह अज्ञानी रागादिक को अपना बना रहा है और वह कारक होता है, सो वह कर्मविपाक से उत्पन्न हुए रागद्वेष, मोहादिक भावों से परिणमता हुआ अज्ञानी रागद्वेष, मोहभाव का कर्ता होता हुआ बँधता है, इसको अगर बहुत सीधी भाषा में बोलें तो राग होता है और होते हुए उस राग को जिसने अपना राग माना है अपना कर डाला है कि यह मेरा स्वरूप है, इस प्रकार जो राग में राग बनाये हैं उसको कर्ता बोलते हैं।
1440- करने के प्रयोग की व्यर्थता-
यह बात पहले कही थी कि केवल पदार्थ-पदार्थ की बात निरखी जाय तो करना नाम किसका? खुद-खुद में करता क्या? परिणमता है, खुद दूसरे को त्रिकाल कर सकता नहीं, इस कारण करना जो बोलते हैं, यह सब फालतू का व्यवहार है। अगर सही-सही वर्णन करें तो यों कर देंगे कि अमुक द्रव्य के सान्निध्य में अमुक पदार्थ इस रूप परिणम रहा, तब करने की बात कुछ न आयी। यह एक वातावरण है, जिसके होने पर ही यह जीव विकार करता है, जिसके न होने पर जीव विकार नहीं करता, मगर करने की बात चूंकि एक प्रसिद्ध शब्द हो गया सो न करे तब भी करना शब्द लगा दिया जाता है, पर कोई खुद में या पर में करता कुछ नहीं, परिणमन है सर्वत्र और इस ही परिणमन को कर्ता कहा जाता। तो इस दृष्टि से देखें तो अज्ञानी भी कहाँ कर्ता है, किसका कर्ता है, कैसे कर्ता है? अज्ञानी जीव के राग परिणमन होता रहता है। अच्छा, और बढ़कर कहो, रागपरिणमन में आसक्ति, मोह चल रहा है याने उस राग परिणमन से अपने को तन्मय मान रहा है, इसमें करने की बात क्या आयी? पर उस राग परिणमन में अपने को तन्मय मानने का नाम कर्ता कहलाता है। तो जो वस्तुस्वभाव को नहीं जानता वही यह कहता है कि मैं रागभाव का कर्ता हूँ।
1441- निमित्तनैमित्तिकयोग के परिचय में आत्मा के विकाराकारकत्व का परिचय-
देखना, अशुद्ध निश्चयनय यह बात बतलाता है कि यह संसारी जीव अपने रागादिक परिणामों का कर्ता है, मगर इसे निश्चय क्यों कहा गया है? इस कारण कि एक को ही देखकर बात कही जा रही है। अब यहाँ यह देखो कि इस व्यवहार ने उस अशुद्ध निश्चय के विषय से भी बढ़कर बात कही कि यह जीव रागादिक का कर्ता नहीं, किंतु यह तो उस वातावरण द्वारा परिणमाया गया है, परिणमा है, मगर वह अपने ही शुद्धस्वभावरूप है। यह रागादिक का कर्ता नहीं। प्रमाण से इस बात को और विशेषता से प्रमाणित किया जाता कि भाई ! ऐसे इस विपाक के काल में यह जीव अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिकरूप परिणम रहा है। सब उपदेशों में प्रयोजन एक लेना कि जिस प्रकार यह जीव शुद्धस्वभाव की ओर अभिमुख हो सके उस प्रकार परिचय प्राप्त करना है। सबका प्रयोजन एक है और उस प्रयोजन के नाते से जितने भी ज्ञानी पुरुष हैं उन सब ज्ञानियों के एक ही मार्ग है शुद्धस्वभाव को परखना, अखंड अंतस्तत्त्व का आलंबन लेना। एतदर्थ आवश्यक है स्वभाव का परिचय होना, कहीं एकदम साक्षात् परिचय हो जाय स्वभाव का, उसे कहते हैं परम शुद्धनिश्चयनय और कहीं अन्य उपदेशों द्वारा उस स्वभाव का निर्णय बनेगा याने परम शुद्ध निश्चयनय बनेगा उसके ये सब उपाय हैं। जितने भी समयसार में जहाँ जहाँ जो भी कथन हैं, सबको इस तरह से ही समझना कि जिससे सर्वविविक्त आत्मा का चैतन्यस्वभाव दृष्टि में आये। तो यह सब वस्तुस्वभाव नहीं जाना, उस जीव ने अज्ञानवश रागादिक भावों को अपना किया, अपना बनाया, अपना माना, यह मैं इसका कर्ता हूँ, सो जो विकार का कारक बनता है वह कर्म से बँधता है, किंतु जो अकारक है, वह कर्म से नहीं बँधता। यह सब तथ्य जिसके विचार में आया उसके एक निर्णय बनता कि यह आत्मा स्वयं ही अपने आपसे रागादिक भावों का कारक नहीं है। क्यों नहीं है, इसका कारण अब दूसरा बतला रहे।
1442- प्रतिक्रमणादि के द्वैविध्य के उपदेश से आत्मा के विकाराकारकत्व की सिद्धि-
अगर यह आत्मा अपने स्वभाव से रागादिक का कर्ता होता तो यह अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान इन दो के द्वैविध्य का उपदेश न दिया जाता। क्या मतलब? इनके दो-दो पने का उपदेश नहीं दिया जाता, क्या मतलब? अप्रतिक्रमण दो प्रकार के हैं- द्रव्य- अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण। द्रव्य-अप्रतिक्रमण-पूर्व काल में जो पदार्थ मिला था उस पदार्थ के प्रति पूर्व काल में राग किया था, वह तो बात हो गई, गई गुजरी, पर अज्ञानी के नहीं हुई गई गुजरी? किया था उसने राग, मगर उसका ख्याल करके वर्तमान में उसे गलती नहीं समझ रहा, वह उसकी गलती थी और यहाँ उसे भला समझ लेता है, मैंने ठीक किया था, यह हुआ द्रव्य अप्रतिक्रमण, जैसे अब भी तो जब कोई बात आ जाती, कोई चीज बनाया, निर्माण किया और किसी ने कुछ कहा कि आपने ठीक नहीं किया तो यह कहता है कि मैंने तो ठीक किया था। अरे ! जब किया था तब किया था मगर आज के भाव में पहले के उस संयोग को जो अच्छा समझ रहा है वह द्रव्य अप्रतिक्रमण कर रहा है, याने बात न चीत, बात तो गई गुजरी मगर त्रुटि को वर्तमान में सही समझ करके पापबंध कर रहा है, इसे कहते हैं द्रव्य-अप्रतिक्रमण। और, भाव प्रतिक्रमण क्या? उस द्रव्य-अप्रतिक्रमण के संबंध में याने उस बाह्य पदार्थ से राग करके जो हमने अपनी मौज मानी, जो विकार किया, जो प्रीति मानी, उस राग, प्रीति और मौज के प्रति आज ममता बनी, मैंने क्या मौज किया था उस उस बात में, उस-उस संग में मैंने कैसा मौज माना, कैसे मेरे आनंद के दिन थे, इस तरह उन भावों में जो पहले माने गए थे उनका स्मरण कर आज संस्कार बनाया जा रहा है, वासना की जा रही है कि मैंने वहाँ खूब मौज लूटा था। बड़ा अच्छा समय गुजरता था, यह हो गया भाव-अप्रतिक्रमण।
1443- द्रव्य-अप्रतिक्रमण व भाव-अप्रतिक्रमण के निमित्तनैमित्तिकपने का विश्लेषण-
द्रव्य व भाव अप्रतिक्रमण इन दो बातों में एक ध्यान दीजिए, कि भाव-अप्रतिक्रमण कब बना? पहले समय में जो अव्रत क्रिया की, पाप कार्य किया, पाप का साधन जोड़ा और उससे जो इसके पापभाव बने उन पापभावों का जो आज मौज माना जा रहा है कि मैने कैसा आनंद लूटा था, कैसा मेरा मौज चल रहा था, इस प्रकार का जो भाव-अप्रतिक्रमण बना याने भाव जो पहले भोगा था उन भावों को आज की वासना में उभाड़ा जा रहा है, यह समझिये नैमित्तिक काम हुआ और इसका आधार क्या रहा? द्रव्य-अप्रतिक्रमण। तो उन बाहरी पदार्थों का जो संबंध बना, उन संबंध की जो इच्छा की वह बात हो तो फिर इच्छा की इच्छा बनी। देखो सीधे, एक वर्तमान की बात ले लीजिए। कहते ना- राग हुआ और राग में राग हुआ तो राग में राग हुआ, इसका आधार तो राग था ना? राग न होता तो उस राग में राग कहाँ से होगा? जैसे यहाँ हम आप समझ सकते हैं ऐसे ही भूत की बात समझिये कि द्रव्य-अप्रतिक्रमण न होता तो भाव-अप्रतिक्रमण कहाँ ठहरता? तो इसमें यह बात दर्शायी गई है कि द्रव्य-अप्रतिक्रमण निमित्त हुआ और भाव-अप्रतिक्रमण नैमित्तिक हुआ, ऐसे इन दो बातों में जो निमित्त- नैमित्तिक की व्यवस्था बतायी है वह इस बात को सिद्ध कर रही है कि आत्मा रागादिक का अकारक है। किंतु, आत्मा की वे विकृत परिणतियाँ विशिष्ट विपाकवश होती हैं, इनमें फँसाव होना यह भी एक निमित्त-नैमित्तिक योग की बात है। आत्मा की और परवस्तु की जो परिणतियाँ हैं उनमें निमित्त-नैमित्तिक भाव हैं परंतु आत्मा में कारकता न बनाइये, क्योंकि आत्मा तो शुद्धस्वभावरूप है, उसके साथ अन्वय-व्यतिरेक नहीं बनता। जिसके साथ अन्वय-व्यतिरेक बने वहाँ लगाओ संबंध निमित्त-नैमित्तिक का। ऐसा जब यहाँ न देखा जा रहा है तो इसने यह निर्णय किया कि मैं आत्मा अकर्ता हूँ जो द्रव्य और भावरूप से अप्रतिक्रमण, अप्रत्याख्यान का उपदेश है वह द्रव्य और भाव में निमित्त नैमित्तिक भाव को प्रसिद्ध कर रहा है, और वहाँ निमित्त-नैमित्तिक भाव की सिद्धि ज्ञापन कर रही है कि आत्मा अकर्ता है।
1444- आत्मस्वभाव की विशुद्धता का दिग्दर्शन-
आत्मा स्वयं अपने स्वरूप से जैसा है उस स्वरूप में देखें तो सही, वहाँ कहीं विकार रखे हैं क्या? स्वभाव में विकार नहीं पड़े हैं, स्वभाव का परिणमन हो तो स्वभाव के अनुरूप होना चाहिए, उसका वह कर्ता कहलाया, मगर यहाँ विरुद्ध परिणमन चला तो स्वयं, मगर निमित्त हुआ परसंग ही। आत्मा ही विकार में निमित्त हो और विरुद्ध विकार परिणमन चले, उसका वहाँ निषेध किया, क्योंकि इसमें आत्मा नित्य कर्ता हो जायगा। तो परसंग ही उसमें निमित्त हैं, ऐसा कह करके पहले सिद्ध किया था कि आत्मा रागादिक का अकर्ता है, और अब दूसरी युक्ति से सिद्ध कर रहे हैं कि आत्मा रागादिक का अकर्ता है। अगर आत्मा रागादिक का कर्ता होता तो ये अप्रतिक्रमण, भाव –अप्रतिक्रमण, इनके कहने का अर्थ क्या? और ये दो जब कहे गए हैं तो इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादिक का कर्ता नहीं है, तब क्या युक्त रहा? परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिक भाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न कहा जाय तो यह उपदेश किया है कि द्रव्य- अप्रतिक्रमण कर्ता है और भाव-अप्रतिक्रमण कर्म है, यह उपदेश अनर्थक हो जावेगा। क्यों अनर्थक न होना चाहिए? क्योंकि शास्त्रों में लिखा, युक्ति से जाना, अनुभव से माना, यह उपदेश अनर्थक नहीं। इससे यह बात सिद्ध हुई कि आत्मा रागादिक का अकर्ता है। वह तो हो गया अनर्थक। और, यहाँ आत्मा को रागादिक भावों की उत्पत्ति में मान लिया निमित्त तो यह नित्य कर्ता हुआ, मोक्ष का अभाव हो जायगा। क्योंकि अनादि सिद्ध यह अपने स्वभाव से रागरूप परिणमता रहता है तो उस स्वभाव को कौन मेटेगा? स्वभाव है जब विकार का, तो निरंतर होता रहे, फिर उसका नाम विकार ही क्यों कहा? क्योंकि स्वभाव से चल रहा है, वह स्वभाव ही स्वभाव है, वह सब विकार है वह भी स्वभाव हो तो यह अवसर ही कैसे आयेगा कि ये विकार न रहें, तो स्वभाव से जब यह आत्मा अपने रागादिक विकार को करे, ऐसा माना जाय तो यह सदा कर्ता हो जायगा? अब जो बात यहाँ कही जा रही है कि परद्रव्य निमित्त हैं, रागादिक नैमित्तिक हैं, इससे यह बात लेना है कि यह आत्मा रागादिक का कर्ता नहीं है। देखो, जब ऐसा मानें कि आत्मा अपने आपसे राग करने वाला है तो फिर राग से छुटकारा मिलना कठिन है। ये दोनों ही बातें सदा हैं सो राग को करता ही रहेगा। और, ऐसा माना जाय कि कोई पर पदार्थ आत्मा में रागादिक परिणति करता है तो सदा होता रहेगा राग, क्योंकि दूसरा पदार्थ गम क्यों खायेगा कि मैं कुछ इसको सुविधा दूँ। आत्मा राग परिणति न करे और निमित्त उसका कर्ता बने तो विकार कभी मिटेगा नहीं और उपादान स्वयं निमित्त होकर कर्ता बने तो विकार कभी मिटेगा नहीं। इस तरह यह उपदेश बताया कि कर्म विपाक का जब उदयकाल है, उदय आया तो उस उदय काल में, उस विपाक के सान्निध्य में यह जीव शुद्ध उपादान, स्वयं शुद्धस्वभाव को छोड़ता हुआ रागादिक रूप परिणम जाता है। परिणमा यह जीव ही, मगर उस वातावरण में यह राग विकाररूप में परिणमा।
1445- कर्मवेग की हीनता व अधिकता का कर्मगत कारण-
एक बात और करणानुयोग की जानें, जैसे कि पंडित टोडरमलजी ने एक प्रसंग में कहा कि नदी बह रही है, उसमें से कोई मनुष्य पार कर रहा है तो जहाँ उसका वेग कम हो वहाँ वह पौरुष करता है और उस नदी को पार कर लेता है। तो वेग क्या चीज है? वहाँ है जल का वेग, यहाँ है विभावों का वेग और दूसरा है कर्मविपाक का वेग। तो यह कर्मविपाक कैसे मंद-तीव्र वेग में आया करते हैं उस कर्म की बात सुनिये जरा। जीव ने एक समय में कर्म बाँधा। मानो बँधना तो है करोड़ों सागरों की स्थिति में, दृष्टांत में कुछ भी ले लो। मानो 100 वर्ष की स्थिति बाँधी और मानो कई करोड़ परमाणु बाँधे, बँधते तो हैं अनंत परमाणु, किंतु दृष्टांत मान लो, तो कई करोड़ परमाणु एक समय में उदय में न आयेंगे, फिर किस तरह आवेंगे? उन बद्ध परमाणुओं का आबाधाकाल, जैसे समझ लो, एक मिनट है तो उस एक मिनट को तो छोड़ दो। उस आबाधाकाल के बाद एक मिनट कम 100 वर्ष के जितने समय हैं उन प्रत्येक समयों में वे कई करोड़ परमाणु बँट जायेंगे। वह कहलाती है भिन्न-भिन्न निषेकों की स्थिति, तो बँटते कैसे हैं वे? उसकी गुण हानियाँ होती हैं। तो वहाँ एक मिनट कम 100 वर्ष के जितने समय हैं उन प्रत्येक समयों में वे इस प्रकार परस्पर परमाणु बँट गए। कौन बाँटने वाला है? सब प्रक्रिया में हो रही हैं, निमित्तनैमित्तिकयोग योग सर्वत्र दिखता है, कर्म के निमित्त से जीव में परिणमन हुए, केवल इसी को न देखना, जीव के भावों के निमित्त से कर्म में क्या गुजरता, यह भी एक योग है। अच्छा, तो वे बँधे तो हैं मगर पहले समय में परमाणु ज्यादह बँटते हैं, मिलते हैं, दूसरे समय में उससे कुछ कम फिर और कुछ कम होते होते अंत में, मायने 100 वर्ष के आखिरी समय में वे कर्म परमाणु बहुत कम मिले, पर अनुभाग का यह हाल है कि जहाँ अधिक परमाणु मिलते याने पहले समय में उसकी शक्ति कम है और कम कम जैसे पाते गए शक्ति बढ़ती गई और अंत में 100 वर्ष के आखिरी समय में जहाँ समझो 4-6 परमाणु हिस्से में हैं, परमाणु तो एक पुंज में अनंतानंत होते किंतु दृष्टांत के लिये यह सब कहा जा रहा है। अब वहाँ जो कम परमाणु के निषेक हैं, उनकी ताकत पूर्व से अनंत गुणी है। देखो, शायद इसी बात को परखा हो वैज्ञानिकों ने जिससे अणुबम खोज निकाला हो, एक परमाणु में कितनी शक्ति है इसका अंदाज उस एटम बम से भी हो जाता। यह तो हो गया प्रथम एक समय में जो कर्म बाँधे वे भविष्य में बँटे। अब उसके बाद के समय में भी यह प्रक्रिया हुई। उसमें भी मानो 100 वर्ष की स्थिति बाँधी तो उसके 100 वर्ष से एक समय अधिक पड़ा ना? वहाँ तक आबाधाकाल को छोड़कर सब समयों में कर्म बँध गए। बात वही, पहले ज्यादह फिर कम ऐसे ही अनेकों समयों के कर्मों के बंध के संबंध में समझना।
1446- कर्मवेग की हीनता का अवसर-
अब उदय की बात देखो। जो कर्म बाँधे थे, उनमें आज जो निषेक उदय में आ रहे हैं वे कब-कब के बाँधे आ रहे, उनकी संख्या कितनी है, उनका अनुभाग कितना है, और उन सबका अनुभाग जो अनुपात में बैठे वह उस एक क्षण की फलदानशक्ति है। जैसे 20 औषधियों को मिलाकर गोली बनाई तो उन औषधियों में प्रत्येक ओषधि की तासीर जुदी है, तेज और वेग जुदा-जुदा है, किंतु उन सबकी एक गोली बनने पर उनका जो अनुपात होगा उसके अनुसार रोगी को काम देगा। इस तरह के अनुभाग में जिस समय अनेक समयबद्ध एक समयोदयागत निषेक के अनुभाग की डिग्रियाँ कम होंगी उस समय में जीव पुरुषार्थ करके ज्ञानमार्ग में बढ़ लेता है। जैसे कि किसी नदी में से कोई पुरुष पैदल दूसरे पार जा रहा है अब नदी में वेग भी रहता है, तो जब उसमें वेग न हो तो ऐसी स्थिति में वह नदी को पार कर लेता है। तो अब आप सोचिये कि जो आज कर्म उदय में आ रहे हैं वे अनगिनते भवों पहले के हैं, और कदाचित् उन्हें अनंत भी कह दिया जाय तो कह सकते हैं किंतु उस अनंत का अर्थ अंतरहित नहीं है। अवधि ज्ञान के विषय से परे हो वह भी अनंत कहलाता है। अनंत 9 प्रकार के बताये गए।
1447- कर्मबंधन की पूर्वचिरकालता के परिचय का दिग्दर्शन-
देखिये, ऋषभदेव के समय में जो मारीचि था, जिसके बारे में यह उपदेश में आया; जब पूछा गया कि अपने कुल में तीर्थकर कौन होगा? तो उत्तर मिला की मारीचि तीर्थकर होगा। यह बात सुनकर उसे अहंकार आ गया और तब से लेकर चौथे काल के करीब अंत तक भ्रमण करता रहा वह। कितना काल व्यतीत हो गया? एक कोड़ाकोड़ी सागर, यह कितना होता है, उसके संबंध में तो पीछे बताया ही जा चुका है। उसमें बीच में मान लो 10 दिन के लिए भी वह लब्ध्यपर्याप्तक बन गया होगा या जो भव बताया ग्रंथों में तो अब दस दिन में कितने भव हो जायेंगे, एक श्वास में 18 बार जन्ममरण करें, एक नाड़ी उचकी तो इतने में 18 बार जन्ममरण हो जाता, तो एक अंतर्मुहूर्त में कोई 66336 बार के करीब में पड़ जाता है, अब एक घंटे में मान लो एक लाख हुए, इस तरह से 12 घंटे में हुए 12 लाख, एक-दिन रात में हुए 24 लाख, ऐसे दस दिन में ढाई करोड जन्ममरण हुए। अब मान लो 100 वर्ष तक रहे तो न जाने कितने ही बार जन्ममरण होगा। तो बात यह कह रहे हैं कि हमारे कितने भव पहले के बाँधे हुए कर्म आज स्थित हैं और उदयागत होते हैं। तो अब जो एक समय में उदय में आया है तो वह वह जो कभी किसी समय का बँधा, उसी तरह से प्रदेश का बँटवारा और अनुभाग का बँटवारा हुआ। अब एक समय में जो उदय में अनुभाग का अनुपात आया वह वर्तमान में विकार का निमित्तभूत है, इसी कारण तो कहते हैं कि अनुकूल निमित्त के सान्निध्य में नैमित्तिक कार्य होता है।
1448- दृष्टांतपूर्वक कार्य के निमित्तानुरूपत्व की सिद्धि और नैमित्तिकभाव के अस्वभावभावत्व की सिद्धि-
जैसे दर्पण के सामने कोई पीला कपड़ा रखा तो दर्पण में चित्र पीला आयगा। तो पीला स्वयं वह कपड़ा है, उसका सान्निध्य पाकर दर्पण ने अपनी स्वच्छता को त्यागकर पीले फोटोरूप में परिणमन किया है। हाँ, तो जो कर्मविपाक उदय में आया उसका प्रतिफल तो अनिवारित है। अब ज्ञानी की विजय इस बात में है कि वह रहस्य समझे कि यह विकार मेरे स्वरूप का नहीं है किंतु यह नैमित्तिक है। मैं इस विकार का कर्ता नहीं हूँ, जिसको ऐसा ज्ञान जगा है तो इस विशुद्ध परिणाम के सान्निध्य में बंधा आस्रव नवीन नहीं हो रहा है, वहाँ अबुद्धिपूर्वक कलुषता तो हुई, वह है विपाक प्रतिफलनरूप किंतु ज्ञानी ने उसे अपनाया नहीं है, इस कारण यह ज्ञानी कर्ता नहीं और संसार-प्रकृति का बंधक नहीं। जिसके सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम हुआ है उसको ऐसा स्पष्ट आत्मप्रतिबोध हुआ है कि वह अपने स्वभावभाव के अतिरिक्त किसी भी परभाव को अपना नहीं करता है, परभाव तो किसी आत्मा का स्वरूप नहीं है किंतु अज्ञानी ने मान्यता की कि यह मेरा है, इस कारण यह कर्ता कहा जाता है। जैसे मकान आपका तो नहीं है किंतु मान्यता में यह बात लायें कि यह मेरा है तो आप उसके कर्ता कहलाने लगते हो, ऐसे ही जो नैमित्तिक विभाव है वह जीव का स्वरूप तो नहीं है लेकिन उसे जो अपना करे तो वह कारक कहलाने लगता है।
1449- अप्रतिक्रमण द्वैविध्य विषयक उपदेश के अनुसार आत्मा के विकाराकारकत्व का चिंतन-
ज्ञानी जीव यह चिंतन कर रहा है कि यह आत्मा अपने आपसे स्वयं विकार को करने वाला नहीं है। कैसे जाना कि आत्मा विकार का अकारक है? आगम में यह उपदेश है कि परद्रव्य का त्याग न करना यह होता है निमित्त और विभावों का त्याग न करना यह होता है नैमित्तिक याने द्रव्य-अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण, तो जब वहाँ निमित्तनैमित्तिक की व्यवस्था ही है तो उससे यह सिद्ध है कि आत्मा रागादिक विकारों का करने वाला नहीं है। उसे यों समझ लीजिए कि ऐसे वातावरण में विकार हो जाता है, यह जीव अपने आपके स्वभाव से विकार को नहीं करता। तो यहाँ इससे प्रसिद्ध वह बात ले लीजिए- परवस्तु का त्याग न करना, मायने परवस्तु के बारे में इच्छा बनाये रहना, यह तो हुआ निमित्त और इच्छा विकार आदिक में अपनी रुचि करना, इसे अपना मानना, यह हुआ विभाव का अपनाना नैमित्तिक, यों परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है द्रव्य-अप्रतिक्रमण व भाव-अप्रतिक्रमण में। यह वह सिद्ध कर रहा कि जीव रागद्वेष का करने वाला नहीं है, और मोटी बात लो कि जैसे एक दृष्टांत दिया है कि धान के ऊपर का छिलका साफ न उतरा हो तो भीतर रहने वाले चावल में जो ललाई या पतली भूसी-सी रहती वह दूर नहीं की जा सकती, पहले धान के छिलका तो दूर हो, उसके बाद उद्यम करता है कूटने वाला कि वह चूर्ण जैसी भूसी भी दूर हो जाती है। इसी तरह बताया कि बाह्य परिग्रह का त्याग न किया तो अंतरंग मूर्च्छा –ममता, इन भावों का त्याग न किया जा सकता, इस ओर से तो नियम है और बाह्य परिग्रहों का ग्रहण करे, उसमें मन भावे और कहे कि बाहरी परिग्रह हैं, उनसे क्या संबंध हैं? अंतरंगभाव शुद्ध होना चाहिए, यह आत्मवंचना है। परद्रव्य निमित्त है और विभाव नैमित्तिक हैं, ऐसी जो बात कही गई है वह यह बात सिद्ध कर रही है कि आत्मा रागादिक का अकारण है। इस तथ्य की कई बातों से, कई उपायों से सिद्धि चल रही है, उसी को कह रहे हैं कि तभी तो यह बात बनी कि परद्रव्य ही आत्मा के रागादिक भावों का निमित्त हुआ, और जब ऐसा तथ्य है तो यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादिक का अकारक है।
1450- द्रव्यअप्रतिक्रमण व भाव-अप्रतिक्रमण के अन्वय-व्यतिरेक का दिग्दर्शन-
यहाँ यह बात भी जानना कि जीव निमित्तभूत द्रव्य का जब तक त्याग नहीं करता, प्रतिक्रमण नहीं करता, प्रत्याख्यान नहीं करता, तब तक विभावों का त्याग नहीं बनता, और जब तक उन भावों का त्याग नहीं बनता तब तक वह कर्ता ही है। जिसको अपने स्वरूप की न्यारी सुध नहीं है, और जो विभाव जगते हैं उनको वह स्वरूप मान रहा है, तो इसमें परिणमने का काम तो चल रहा है, पर विभाव परिणमन में ममता और तन्मयता आने से वह उसका कर्ता कहा जाता है। और इसी तरह यह भी मानना कि जिस समय निमित्तभूत द्रव्य का त्याग करता है, प्रत्याख्यान, प्रत्याक्रमण करता है उस ही समय वह नैमित्तिकभूत भावों का भी प्रतिक्रमण करता है, त्याग करता है और जब भावों का त्याग कर दिया याने उस रागादिक विकारों में, विभावों में जब इसने रुचि न रखी, उनसे निराला अपने को समझा, भाव-प्रतिक्रमण हुआ तो उसी समय यह जीव रागादिक का अकर्ता है, और इसका कारण यह दर्शाया गया है कि द्रव्य-अप्रतिक्रमण, भाव-अप्रतिक्रमण यों जो दो प्रकार का उपदेश है और उनमें भी द्रव्य-अप्रतिक्रमण कर्ता, भाव-अप्रतिक्रमण कर्म इस तरह का उपदेश है, इससे यह सिद्ध हुआ कि यह जीव रागादिक भावों का अकारक है।
1451- द्रव्य और भाव की निमित्तनैमित्तिकता के विषय में उदाहरण के लिये अध: कर्म व उद्दिष्ट का निर्णय-
अच्छा, द्रव्य और भाव में निमित्तनैमित्तिकपना बताया है, इसका कोई उदाहरण है क्या? समयसार में तो आचार्यदेव ने स्वयं उदाहरण दिया है कि देखो, जैसे अध:कर्म और उद्दिष्ट ये दो दोष हैं तो इनमें अध:कर्म और उद्दिष्ट का त्याग जो नहीं करता उसके बंधकभाव का त्याग न बनता तो ये परद्रव्य और नैमित्तिक भाव इनका उदाहरण बना ना ! भाव क्या है? अध:कर्म के मायने हैं कि अशुद्ध भोजन बनाना, हिंसा सहित भोजन बनाना, अमर्यादित भोजन, जैसी चाहे प्रवृत्ति करके, जैसे चौकी में घसीटकर बर्तन लाना, इस तरह भोजन बनाये गए का नाम है अध:कर्म, और भी बड़ी-बड़ी बातें ले लो, और उद्दिष्ट मायने केवल पात्र के लिए ही बनाया गया भोजन उद्दिष्ट है, इसका जब तक त्याग नहीं करता, तब तक भाव-प्रत्याख्यान नहीं होता। देखिये, उद्दिष्ट त्याग मायने क्या है? मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना, नवकोटिका विशुद्ध परिणाम होना, नवकोटि से आहार में सम्मिलित न होना, इसे कहते हैं उद्दिष्ट का त्याग। यह परिभाषा मुनि के ओर से है, और उद्दिष्ट मायने केवल मुनि के लिए ही भोजन बना दिया, स्वयं जैसा बनाते सो तो अलग है ही, अगर उसके लिए ही केवल अलग से चूल्हा, सिगड़ी आदि साधन पर बना दिया तो वह उद्दिष्ट भोजन है।
1452- उद्दिष्ट व अतिथिसंविभाग में अंतर-
अब ऐसा ध्यान दीजिए- उद्दिष्ट और अतिथिसंविभाग इन दो का अंतर देखो। अतिथिसंविभाग करना इस श्रावक का कर्तव्य है मायने अतिथि के लिए उसमें विभाग बनाना। मैं भोजन बना रहा हूँ, अतिथि का भी मैं विभाग बनाऊँगा, यह काम अतिथिसंविभाग में है, याने केवल अतिथि के लिए ही भोजन बनाकर उसे आहार कराना इसमें उद्दिष्ट का दोष है, जैसे कभी कोई अवसर ऐसा आता है कि कोई अचानक ही आहार के समय के अतिरिक्त मौके पर आ गया, मान लो दिन के दो ढाई बजे आ गया जबकि चौका संबंधी काम खतम हो चुका था, ऐसे मौके पर आ गया और उसके लिये ही मात्र बनाकर खिलाया जाय तो इसमें उद्दिष्ट का दोष है। और स्वयं चाहे रोज अशुद्ध खाता हो, पर एक दिन भी भाव करे कि मैं तो आज पात्रदान करूँगा, शुद्ध विधि से आहार बनाऊँगा और उसी जगह पर बनाये, सबके लिए बनाये, वहाँ फिर यह विभाग न बने कि इतना तो सबके लिए रसोई में ऐसा भोजन बना लो और अतिथि के लिए ऐसा अलग बना लो, ऐसा विभाग वहाँ न करे तो वह उद्दिष्ट न कहलायेगा। अतिथिसंविभाग में सोचा तो क्या है कि मैं अतिथि को आज पात्रदान करूँगा और उसके लिए भी बनाये, पर अपन सबके लिए वह अलग से न बनाये तो वह अतिथिसंविभाग है। इसका एक उदाहरण सुनिये। ऐसा भी नियम लेता है श्रावक कि प्रत्येक महीने के अंदर इस दिन मैं पात्रदान करूँगा, मायने वह रोज-रोज तो अशुद्ध खाता था अब उसने ऐसा सोच लिया अब मैं तीज को, या पंचमी को, या दसमी को, किसी भी दिन के लिए सोच ले, पात्रदान करूँगा तो ऐसे भाव से जो अतिथिसंविभाग करता है उसे युक्त कहा गया है। चाहे रोज नहीं कर रहा, उसने कोई एक दिन ही किया, वह अतिथिसंविभाग है। यदि केवल पात्र के लिये ही भोजन कोई बनाये तो यह है श्रावक के आश्रय का दोष। और वहाँ मुनिजन उस विषय को मन से, वचन से, काय से न करेंगे, न करायेंगे और न अनुमोदना करेंगे, न वचन से बोलेंगे, किसी तरह का विकल्प न रखेंगे तो उनका नवकोटि से विशुद्ध आहार बना और इसी के मायने है निरुद्दिष्ट भोजन। देखिये, यहाँ जो वर्णन चल रहा है वह यह चल रहा है उस जगह कोई और भी उदाहरण दे सकते थे, मगर यह ग्रंथ मुनियों ने बनाया है और प्रधानतया मुनियों के प्रतिबोध के लिए बनाया है, इसीलिए ऐसा दृष्टांत आना एक प्राकृतिक बात है।
1453- द्रव्य-अप्रतिक्रमण व भाव-अप्रतिक्रमण के निमित्तनैमित्तिकभूतपने का विवरण-
पुद्गलद्रव्य, जो निमित्तभूत है उसका त्याग न करता हुआ वह बंध-साधक नैमित्तिक भावों का त्याग नहीं करता। त्याग क्या है? मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से उसमें सम्मिलित न होना याने भावों से द्रव्य का त्याग है द्रव्य का प्रत्याख्यान। तब ही तो कोई बाह्य पदार्थ का त्याग कर दे फिर भी ममता का त्याग हो भी न सके, छोड़ दिया बाहरी चीज, पर ममता तो कहीं भी हो, चित्त में बसी रह सकती है। पुष्पडाल मुनि के संबंध में सुना होगा, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया, निर्ग्रंथ मुनि हो गये, जंगलों में रहने लगे, फिर भी उन्हें अपनी स्त्री की ममता उत्पन्न हुई। तो बाहरी पदार्थों को छोड़कर भी ममता का त्याग किया या नहीं किया, दोनों बातें संभव हो सकती, मगर बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हुये ममता का त्याग कर सके यह कभी संभव नहीं। यहाँ एक तरफ से नियम की बात समझना। और, इसी कारण यहाँ पर द्रव्यों को निमित्त कहा और तत्साधक भावों को नैमित्तिक कहा। यहाँ और कोई दूसरी बात कहने का प्रकरण नहीं है, किंतु यह जीव रागादिक भावों का कर्ता नहीं है, यह समझाने की मंसा है। तो जैसे यहाँ यह बात समझी गई कि ये परद्रव्य निमित्त और तद्विषयक भाव नैमित्तिक, इसी प्रकार सर्वत्र जानना। देखिये, दृष्टांत चलता है, मगर सब जगह विवेक करना होगा, यहाँ जो दृष्टांत दिया सो एकदम सामने तो यों नजर आ रहा कि यह बाह्य पदार्थों का दृष्टांत दिया गया, मगर उसमें यह ध्यान में लायें कि बाह्य पदार्थों का ग्रहण करने का भाव यह तो हुआ द्रव्य-अप्रतिक्रमण और उस भाव में अपने आपको रमा लेना यह हुआ भाव-अप्रतिक्रमण। यह बात कब घटित होती, जब विधिपूर्वक ही यह वर्णन चल रहा, यह बात ध्यान में लाते, और वैसे तो निमित्त-नैमित्तिक भाव में कर्मविपाक निमित्त है और प्रतिफलन या क्षोभ का परिणाम जीव का बना वह नैमित्तिक है, मगर आत्मा तो अपने आपमें उस रागादिक का अकारक है। ऐसा ध्यान क्यों दिलाया गया क्योंकि यह जीव अपने उस शुद्धस्वभाव को दृष्टि में ले, यह तो अकर्ता अभोक्ता है। यह तो अपने शुद्ध चैतन्यमात्र है, ऐसे शुद्ध स्वभावरूप में अपने आपकी जानकारी बनी।
1454- विभावों की पौद्गलिकता का सप्रयोजन वर्णन-
इस प्रसंग में एक बात और जानना। जैसे कहते हैं कि व्यवहार से ये रागादिक विकार पौद्गलिक है। उस व्यवहार का मतलब है विशिष्ट एकदेश शुद्ध निश्चयनय। समयसार की जो आचार्यजयसेनकृत टीका है उसमें जब यह पूछा गया कि शुद्धनिश्चय से ये विकार पौद्गलिक हैं, आत्मा के नहीं ठहराये, अशुद्धनिश्चय से आत्मा के हैं, तो उसी प्रसंग में बताया गया, विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय। देखिये, कितनी दुहरी तैयारी है, ऐसा चिंतन करने वाला भीतर में अपने आत्मस्वभाव को ऐसा सुरक्षित रखता है कि कोई इसमें धक्का न लगा सके, यह पूर्ण विशुद्ध दृष्टि में रहे, एक तो यह थी तैयारी, दूसरी बात कोई वहाँ पूछ ही रहा बार-बार अनुरोध ही कर रहा कि तुम्हें तो बताना ही पड़ेगा कि ये रागादिक विकार किसके हैं, जीव के हैं या पुद्गल के? तो जब इस स्थिति में है यह कि अपने शुद्धस्वभाव को वह अछूता रखें, उसमें कोई धक्का न लगाये, उसमें कोई कमी न आये, वह पूर्ण शुद्धस्वभाव दृष्टि में रहे तो उसके फल में रागविकार किसके हैं? ऐसा पूछने पर उत्तर दिया है कि ये राग-विकार पौद्गलिक हैं। यहाँ दूसरी बात यों समझिये कि जब मिथ्यात्व, कषाय, रागद्वेष सभी दो-दो प्रकार के कहे गए; जीव मिथ्यात्व, अजीव मिथ्यात्व, तो अजीव मिथ्यात्व के मायने वह मिथ्यात्व कर्म प्रकृति जिसमें मिथ्यात्व का अनुभाग पड़ा है। जैसे दर्पण के आगे कोई नीली वस्तु रखी हो तो उस वस्तु में स्वयं नील रूप पड़ा हुआ है, और फिर उसके सन्निधान में स्वच्छताविकार बन गया दर्पण में, ऐसे ही मिथ्यात्व प्रकृति में मिथ्यात्व अनुभाग पड़ा हुआ है उसके निज की गाँठ का, उसके विपाककाल में इस जीव में स्वच्छता का विकार बना, जो मिथ्यात्वरूप परिणत हो रहा है, तो ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि जीव तो शुद्ध स्वभावरूप है, वह रागादिक विकार का कर्ता नहीं है, राग का अकारक है, ऐसा कहकर ध्यान दिलाया गया है अपने विशुद्ध स्वभाव का। अपनी उपासना बनायें कि मैं विशुद्ध चैतन्यमात्र हूँ, इसमें कोई बात उठे, शुद्ध चैतन्य की तरंग उठे, अनुभवन बने तो शुद्ध चैतन्य का अनुभवन बने, मगर इसके अतिरिक्त याने इस चैतन्य तेज के अतिरिक्त जितने भी भाव हैं वे सब नैमित्तिक हैं, परभाव हैं उनको यह ज्ञान अपना नहीं करता, अपने को शुद्ध स्वभाव में निरख रहा है।
1455- समस्त धर्मकार्यों का प्रयोजन अंतस्तत्त्व का आश्रय-
एक प्रधान बात हर जगह समझना कि प्रयोजन को छोड़कर मंद पुरुष भी कार्य में नहीं लगते, तो जब हम कार्य में लगें, स्वाध्याय में, उपदेश में, तत्त्वविज्ञान में, तत्त्वपरीक्षण में लगें तो हम कभी भी अपना उद्देश्य न भूलें। अपना उद्देश्य है स्वभाव की दृष्टि होना, स्वभाव का आश्रय होना। बस यह बात जिस प्रकार प्राप्त हो उस प्रकार से उपदेश और चर्चा, धर्मादिक अन्य सब बातें-क्रियायें भी सब इसी मूल उद्देश्य को रखकर बन जायें कि मेरे को मेरे में विशुद्ध चैतन्यमात्र का अनुभवन बने। उसी के लिए यह सब उप्रकरण बंधाधिकार में अंत में कहा जा रहा है, तो इसका अर्थ यह रहा कि यदि समस्त परद्रव्यों का त्याग नहीं हुआ, तो उनके निमित्त हुए भावों को यह त्यागता नहीं है। अब दूसरी बात यह सोच रहा है ज्ञानी कि जो अध:कर्म है, जो उद्दिष्ट है वह पुद्गल का कार्य है, वह आत्मा का कार्य नहीं है, उसका कार्य तो मन, वचन, काय से कृत, कारित अनुमोदना के जो विकल्प बने, ये हैं, पर इसका भी निमित्त है, क्या? कर्मविपाक। जिस प्रकार का विपाक होता, वैसा ही प्रतिफलन होता है। मैं तो यह चैतन्यस्वभावमात्र हूँ, इस तरह अपने को परख रहा है, यह अध:कर्म और उद्दिष्ट पदार्थ इनके विषय में एक तत्त्वज्ञान पूर्वक विचार कर रहा है। इस तरह यह जीव सभी परद्रव्यों का त्याग कर देता है तब यह तन्निमित्तक शुभभावों का त्याग कर लेता। इसमें यह बात बतायी गई कि अपने को इन भावों में निरखें कि जैसा मैं अपने सत्त्व के कारण हूँ, केवल एक चैतन्य प्रकाशमात्र हूँ, यह दृष्टि में रहेगा तो बंध न बनेगा, और जहाँ इस दृष्टि से हटे शुद्ध स्वभाव की दृष्टि से च्युत हुए तो बाहरी पदार्थों में यह उपयोग लगायेगा, जैसा बाहरी पदार्थों का आश्रय किया वैसा इसके बंध चलेगा, सो बाहरी पदार्थों में लगना तेरे लिए लाभदायक नहीं है। तू तो अपने स्वरूप में बस, तेरा स्वरूप निर्विघ्न है। उसमें किसी तरह का अंतराय नहीं, जाप में, ध्यान में किसी भी जगह आत्मा पर दयाभाव रखकर कि मेरा जगत में कोई साथी नहीं, मैं अटपट विकल्प न करूँ, मैं अपने इस विशुद्ध निज तत्त्व को निरखूँ, उस स्वरूपमात्र अपने को मान लूँ, बस यह ही काम पड़ा है अपने आपको सुखी करने के लिए संतुष्ट रखने के लिए।
1456- आत्मा की परद्रव्यों से विविक्तता की प्रायोगिक भावना-
यह जीव उक्त प्रकार विचार करके समस्त परद्रव्यों से अपने को विविक्त निरखता है। सर्व पर से निराला यह मैं एक स्वतंत्र सत् हूँ, परिणमता रहता हूँ, परिणमे बिना एक समय भी नहीं रहता। और विकाररूप जब परिणमन होता है तो ऐसा ही यह अशुद्ध उपादान है कि अनुकूल वातावरण के सन्निधान में ही यह अपने में अपनी ही परिणति से विकाररूप परिणमता है, मगर यह चूंकि नैमित्तिक भाव है, परभाव है सो इसमें आत्मीयता नहीं करता, इसका ज्ञाता रहता है। यहाँ यह हो गया कि यह ऐसा ही संपर्कज भाव है कि ऐसी घटना में ऐसी बात बन गई, मगर यह मेरे स्वभाव की चीज नहीं। अपने को उससे अलग मानना है, इसके वास्ते आचार्यदेव कह रहे हैं कि अरे ! इन समस्त द्रव्यों को तू बल-पूर्वक त्याग कर, जानकर त्याग, उनसे हट, बाह्य से हट और भीतर में उसके प्रति प्रीति का भाव न रख। देखिये, परद्रव्यों के प्रति अगर प्रीति की उमंग रहती है तो यह तेरे लिए अनर्थकारी है। अरे ! परभाव ये तो आत्मा के विकार हैं, इनको करता हुआ तू अपने को बड़ा बुद्धिमान समझता है, तू तो इन परद्रव्यों को मूलत: त्यागकर, अपने में उठे हुए, चित्रित हुए इन परभावों का त्याग कर, इन परभावों से निराले अपने आपके विशुद्ध चैतन्यस्वरूप का अनुभव कर। बस यह ही बंध को मिटाने वाला भाव है। इसका इसमें वर्णन किया गया है।
1457- आत्मा के विकाराकारकत्व के परिचय का परिणाम निज शुद्धस्वभाव की अभिमुखता-
यह बंधाधिकार का उपांत्य कलश है। यहाँ प्रकरण और प्रयोजन यह है कि यह आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव को निरखे अर्थात् इसका जो अपनी सत्ता के कारण सहज भाव है चैतन्यमात्र, प्रतिभासमात्र, ऐसे उस स्वरूप को निरखें और उसमें मग्न होवे। इस प्रयोजन से यह वर्णन चल रहा है। यह आत्मा अपने विशुद्ध चैतन्यस्वभाव को देख सके उसके लिये पहले यह निर्णय बताया कि अपने आपको ऐसा निरखे कि मैं विकार का करने वाला नहीं हूँ, किंतु मैं स्वभावमात्र हूँ; और मैं विकार का करने वाला नहीं इसका निर्णय दो तरह से दिया, एक तो यह कि आत्मा अपने विकार का करने वाला नहीं, क्योंकि कर्मप्रकृति परद्रव्य के द्वारा ही यह विपरिणमा अर्थात् परद्रव्यों के सन्निधान में ही यह जीव अपने रागविकार रूप परिणम सका, इस कारण यह रागविकार का कर्ता स्वयं नहीं है। अर्थात् यह स्वयं समर्थ कारण नहीं कि केवल अपने आप अपने ही द्वारा अपना ही निमित्त करके बिना परसंबंध के भावों में रागविकार करे, ऐसा तो नहीं हो रहा। इसमें स्वभाव की दृष्टि करायी कि रागविकार करने का इसका काम नहीं है। दूसरी युक्ति दी कि जब द्रव्यअतिक्रमण और भावअतिक्रमण की व्यवस्था बताई गई है कि परद्रव्य निमित्त है और भाव नैमित्तिक है, द्रव्यअप्रतिक्रमण निमित्त है, भावअप्रतिक्रमण नैमित्तिक है, और इन दोनों में ही कर्तृकर्मत्व का उपदेश किया। द्रव्यअप्रतिक्रमण कर्ता, भावअतिक्रमण कर्म। तो यह उपदेश यह बात सिद्ध करता है कि जीव रागविकार का कारक नहीं है।
1458- स्वयं ज्ञानमात्र स्वभाव का निर्णय होने पर परद्रव्य के ही निमित्त से विभावनिष्पत्ति का तथ्य जानने के बाद ज्ञानी का परद्रव्य के परिहार का कृत्य-
उक्त दो युक्तियों से यह ध्यान में लिया ज्ञानी ने कि मैं शुद्ध ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, इसके जानने पर अब यह प्रतिबंध होना चाहिये कि उस परद्रव्य का त्याग करें, परद्रव्यों से उपेक्षा रखें, परद्रव्यों में उपयोग न फँसायें। अच्छा, यह भी कुछ-कुछ किया, मगर भली-भाँति न हो सका इसका कारण क्या? इसका कारण यह है कि परद्रव्यमूलक जो नाना प्रकार की भावसंततियाँ होती हैं उनको मूल से उखाड़ने का हमने अभी भीतर से ज्ञानबल का पौरुष नहीं किया। परद्रव्य हैं, इनका मैं कर्ता नहीं। इनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझमें नहीं, ये मुझसे अत्यंत निराले हैं। इनका आश्रय करके मैं अपने आपको संसार में भटकाता हूँ। इनका आश्रय छोड़े, बाहर से छोड़ें, भीतर से छोड़ें। जो बाहर से छोड़ने की बात है वह तो परद्रव्य के त्याग रूप है। जैसे चरणानुयोग में बताया है कि जो आश्रयभूत हैं उन वस्तुओं का परित्याग करें और अंदर से देखने के मायने है कि किसी भी परद्रव्य में हम ममता न लावें, उसका ख्याल न बनावें, उससे हित-अहित की बात चित्त में न लावें, तो इस प्रकार मूल से ही उन विभाव संततियों को उखाड़ने की आकांक्षा रख रहा है। यह उमंग हो तो उनके त्याग में फिर कोई दिक्कत नहीं। हाँ तो अंदर से, बाहर से परद्रव्यों का परिहार करते हुये यह आत्मा अब अपने भगवान आत्मा को प्राप्त कर रहा है।
1459- परद्रव्य का परिहार करने से हुई ज्ञानी को उपलब्धि-
पहले यह आत्मा विभावों में उलझा था, परद्रव्यों में उलझा था। अब इसकी उलझन इसने दूर की तो क्या पा रहा है अपने में कि बड़े अतिशय से उमड़ने वाले पूर्ण एक ज्ञान से युक्त आत्मा को पा रहा है। बाहर का विकल्प छोड़ा तो अंदर में क्या पा रहा? एक ज्ञानविलास में अनवरत रहने वाले अपने आत्मा को पाया। ऐसे अंतस्तत्त्व को पाकर यह भगवान आत्मा उन्मूलितबंध हो जाता है। बंध को उन्मूल कर दिया, उसकी जड़ तोड़ दी, बंध की जड़ अब न रही, क्योंकि बंध की जड़ क्या थी? स्वरूपसुध से च्युत होकर बाह्य पदार्थों में राग करने से बंध चल रहा था। अब वह संधि टूट गई। जीवभाव क्या है, और यह औपाधिक क्या है? सर्व रहस्य जान लिया गया। यहाँ निमित्त-नैमित्तिक योग की कथनी से अकर्तृत्व को प्रसिद्ध किया है कि आत्मा अकारक है, करने वाला नहीं है। यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से यह बात निरखी जा सकती थी कि आत्मा एक है और वर्तमान में वह अपने राग परिणाम को कर रहा है, पर अकारकत्व निरखना है जिससे कि आत्मा अपने विशुद्धस्वरूप को सुगमतया पा ले। उस अकारकत्व की प्रसिद्धि के लिये यह तथ्य बताया गया है। यह रागरूप स्वयं अपने आपसे नहीं परिणमता। परिणमता यह अवश्य है, मगर अपने आपसे नहीं परिणमता, पर-उपाधि के सन्निधान में यह अपना बल प्रकट कर पाता है, अतएव यह आत्मा अकर्ता है। शुद्ध स्वभाव को निरखने के लिये जो उपाय बताये गये हैं उन उपायों से मनन करके समस्त परभावों से निराले शुद्ध स्वभाव का अनुभव करना है। यह भगवान आत्मा, इसने बंध का उन्मूलन किया, सो यह आत्मा अपने आपमें स्फुरायमान होता, विकसित होता।
1460- अभूतपूर्व उपलब्धि-
संसार में अब तक इस जीव ने अपने आपके इस विशुद्ध स्वभाव को नहीं जाना, और जैसा अशुद्ध परिणम रहा उस ही रूप अपने को अनुभव किया। जो अपने को अशुद्ध परिणमनरूप अनुभव करे उसके अशुद्ध परिणमन की संतति चलती है, जो अपने को केवल सहज स्वभावरूप अनुभव करे उसके शुद्ध परिणमन की संतति चलती है। जो काम अब तक न किया गया हो वह काम जिस क्षण प्रकट हो, अपने शुद्ध स्वभाव की सुध प्रकट हो वह इसका एक नया दिन समझिये, नया दिवस, नया युग, नया वर्ष उसकी एक नई बात है। अब तक वह संसार और संसारमार्ग में था, अब वह मोक्षमार्ग में आ गया। आत्मा की उपासना, आराधना और कुछ ख्याल नहीं। हित में बाधक है कषाय, किसी भी प्रकार की कषाय बनती है तो वह बाधक है और उसमें भी धर्म के विषय में, धर्म के बहाने उस धर्म के रूप में कषाय जगती है वह अधिक बाधक है। घर में रहते हैं अनेक कषायें बन जाती हैं। हो गई कषाय तो वह नियमत: अनंतानुबंधी का रूप रख लेती है और वह भगवान आत्मा के मिलन में साक्षात् बाधक बनती है। इसमें धर्मप्रसंग में याने आत्मा के अनुभव के प्रसंग में सबसे प्रथम बताया है कि इसको इतना सरल यथार्थ द्रष्टा होना चाहिए कि समस्त जीव स्वरूपत: समान हैं, यह दृष्टि में हो और उस समानता के दृढ़ निर्णय के कारण किसी भी जीव में अनादर की बुद्धि न आये तब वह समता बनेगी, जिस समता के प्रसाद से आत्मा का अनुभव बनता है। सयाना, चतुर, बुद्धिमान वह कहलायेगा जो अपने आपके स्वानुभव का पौरुष बना ले।
1461- दृश्यमान के मोह में कर्म के साम्राज्य की निरंतरायता-
देखो, जो भी दृश्यमान हैं वे कोई रहेंगे नहीं, ये अपने काम में आयेंगे नहीं जिनका लक्ष्य रखकर हम रति की उमंग बनाते, अरति की उमंग बनाते ये कोई मददगार नहीं। यह केवल खुद ही अपने किए का फल पाता है। जैसे पार्श्वनाथ पुराण में पार्श्वनाथ भगवान के अनेक भव और उनके साथियों के भव दिखाये तो जहाँ नरकभव की बात दिखायी है वहाँ विवेकी जो नारकी है वे वहाँ विवेकी नारकी इस रूप से चिंतन करते हैं कि अहो ! जिसके लिए मैंने नाना पाप किये, कषाय किये वे अब कोई यहाँ साथ नहीं दे रहे, केवल खुद को ही यह भोगना पड़ रहा है, जिसको कुटुंब समझा, जिसको गोष्ठी समझा और उस रति के कारण कुछ से कुछ व्यवहार भी किया, दूसरों पर अन्याय हो जाय ऐसे भी व्यवहार बने, इस सब करनी का फल भोगने कोई दूसरा न आयगा। जिनके लिए ममता करके विकल्प बनाये वे कोर्इ भोगने न आयेंगे, भोगना इस खुद को अकेले ही पड़ेगा। देखिये- कर्मबंध, कर्मोदय यह एक जैसे यहाँ की चीज है, देखते हैं यह ठीक है, तथ्य है ऐसे ही कर्म की बात भी कोई कहने मात्र की नहीं है, वह पौद्गलिक कार्माण वर्गणाओं की परिणति है। जब विकारभाव जगा, रागद्वेष जगे तो उसके सान्निध्य में यह कार्मण वर्गणायें उस अनुरूप परिणत हो गई याने कर्मरूप बन गई, कर्मरहित दशा और कर्मत्वसहित दशा ये दो बातें कार्मणवर्गणा में होती रहती हैं। अब कर्मबंध हो गया, सत्ता में बना है। जब तक ये सत्ता में हैं तब तक उनका फल नहीं मिल रहा भले ही ये सत्ता में है, किंतु जो-जो उदय में आ रहे उनका ही फल प्राप्त हो रहा, पर सत्ता में रहने वालों का फल नहीं प्राप्त हो रहा, अर्थात् उनका उदयकाल आता है, विपाक होता है तो कर्म की बात वहाँ कर्म के ढंग से कर्म में बनती चली जा रही है। विपाककाल आया, जिस काल में विपाक होता है तो चूंकि यह आत्मा उपयोगस्वरूप है तो वह विपाक का प्रतिफलन वहाँ न आये यह नहीं हो सकता। विपाक का प्रतिफलन होता है यहाँ तो जीव जान-जानकर कषायों के आश्रयभूत को समझता है कि यह अमुक है, यह अमुक है। किंतु अंदर में बुद्धि-पूर्वक नहीं बन रहा प्रतिफलन, मगर ऐसा ही योग है कि वह विपाक का प्रतिफलन याने अँधेरा इस उपयोग में आता है।
1462- ज्ञानस्वच्छस्वभाव और आगंतुक प्रतिफलन के भेद के अभ्यासी की प्रगति-
कर्मविपाक के प्रतिफलन के काल में यदि यह अज्ञानी है तो इस मोही को उसमें आसक्ति होती है, उस रूप अपने को मानता है और ज्ञानी है तो वह प्रतीति में अपने स्वरूप को ही लिये हुये है और ज्ञाता-द्रष्टा रहता है, वह हो गई कषाय, वह हो गया विकल्प, यह मैं नहीं हूँ, इस तरह अपने को निराला रखता है। तो कर्तव्य यह है ना कि अपने स्वरूप का सही परिचय पायें और स्वरूप के अतिरिक्त जो भी भाव हों उन भावों को औपाधिक नैमित्तिक परभाव सर्व तरह से निर्णय करके उनसे उपेक्षा कर लें। इनमें लगने से मेरा हित नहीं है। सो स्वाध्याय द्वारा, अध्ययन-मनन द्वारा ऐसी एक अपनी भावनापुष्ट करें, मैं यह हूँ चैतन्यप्रकाशमात्र। बहुत विकल्प और निर्णय जब हुये, किये, उनके बिना भी काम नहीं चला, मगर जब निर्णय कर चुके और अपने सहज स्वरूप का अनुभव पा चुके तब उसकी ऐसी एक साधारण स्थिति रहती हैं कि जिसमें रहता हुआ यह भव्य आत्मा जब चाहे समय-समय में जरा दृष्टि की, स्वभाव को निरखा और उन संकटों को शांत कर दिया जो कर्मविपाकवश आया करते है। मैं ज्ञानमात्र हूँ...। ज्ञानी बाह्यविकल्पों से, पर पदार्थों से इस तरह अलग होता हुआ, जैसे मानो झटका देता हुआ, यह मैं नहीं, इस तरह एक छुटकारा सा करता हुआ यह अपने अंदर में निरखता है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ। थोड़ा सा यह कुछ विवाद में आ गया था, कर्मविपाक ऐसा ही आया और यह क्षोभ में आया, कोई विकल्प किया, कुछ परेशानी इसके आयी, कुछ परेशान सा बन रहा था, अब यह किसी भी समय जैसे ही अपने अविकार स्वरूप पर दृष्टि देता है वहाँ परेशानी का काम नहीं। और ऐसा ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का अनुभव यदि कुछ ही काल बना रहे, आज तो संभव नहीं, मगर जब भी संभव था, और की गई इस अविकार स्वरूप की अनुभूति बहुत काल तक जिसे कहते हैं योग्य अंतर्मुहूर्त तक अनुभूति रही, तो उसके फल में वह श्रेणी पर चढ़ गया, कर्म नष्ट हुये, केवली अरहंत बन गये, यह स्थिति सुगमतया शीघ्र आ जाती है। तो समझ लो एक बार स्व का अनुभव बनकर फिर चाहे कुछ काल न अनुभव बने तो स्मरण तो रहेगा। मैं यह हूँ इस ही स्मरण का ऐसा प्रताप है कि यह जीव अनेक अनर्थों से बच जाता है।
1463- मान्यतानुसार वृत्ति-
जो जैसा मानता है वैसी उसकी वृत्ति होती है। जो अपने को किसी का पिता समझता है तो उस समझ के अनुरूप भीतर में विकल्प चलते हैं, इसको यों पढ़ाना, यों होशियार बनाना, यों काम में लगाना, यह मेरा है, कितना अच्छा है..., उस रूप इसकी वृत्तियाँ चलती हैं। तब ही तो देखते ना कि कोई अच्छी चीज हाथ में आयी तो खुद न खा सकेंगे, पर बच्चों को खिला देंगे। उसमें ये बड़ा संतोष मानते खुश होकर कहते कि हमारी यह मौज अकारथ नहीं गई, किंतु हमारे बच्चे ने खाया। अब उन बच्चों के प्रति एक आसक्ति की बात तो देखिये, पहले समय में लोग जब साफा धोती पहना करते थे तो मानो कोई नया साफा अपने बेटे के लिए पहनने को लाये, कुछ दिन वह पहनले, कुछ पुराना-सा हो जाय तो उसे उसका पिता बाँधा करता था, तो एक प्रीति की बात देखिये इन अज्ञानी जीवों को कितनी आसक्ति बनी हुई है, करने न करने की आलोचना नहीं कर रहे, किंतु भीतर में जो यह बात पड़ी है कि बाकी जीव तो ये अजीव जैसे है, ये बहुत-बहुत चिल्लायें, दु:खी हो तो भी ये मोही जीव समझते कि ये दु:खी नहीं हो रहे, ये तो ऊपरी-ऊपरी रोकर नाटक-सा दिखा रहे। और, कभी खुद के बच्चे को जरा-सा सिरदर्द भी हो जाय या कोई छोटी-मोटी फुंसी भी हो जाय तो इसके इलाज कराने की बड़ी परवाह करते, उसके लिए बड़े चिंतित होते, अब यहाँ किसी को मना क्या करें ऐसा करने के लिए, परंतु एक भीतरी भाव की बात कह रहे कैसी कुछ भावों में ममता बस रही है। खैर, जिंदगी तो गुजर रही हैं, जीवन के जो क्षण गुजर गए वे वापिस नहीं आते, मरण के सम्मुख पहुँच रहे हैं और अपनी आदत को ये मोही जीव छोड़ते नहीं हैं।
1464- अपमानकारक घटनाओं में मोही के आत्मप्रशंसा की मान्यता की उमंग-
वे मोहीजन अपनी आदत से बाज नहीं आते, ये मोह करने वाले लोग बहुत बहुतसी बातें भी करते ज्ञान की, धर्म की, व्याख्यान की, पर इनके मोह करने की आदत नहीं छूटती। मेरा मकान, मेरा घर, मेरा कुटुंब इससे मेरी बड़ी महिमा है, इसे देखकर किसी की प्रशंसा करे कोई और कहे यह कि साहब आप इन्हें नहीं जानते, इन साहब का क्या कहना, इनके चार लड़के हैं, सो एक तो है मिनिस्टर, एक है डाक्टर, एक है कलेक्टर और एक है इन्स्पेक्टर। अब इस बात को सुनकर वह सेठ बड़ा खुश होता। वह यह समझता कि इसमें मेरी प्रशंसा की गई पर दी गई उसे गाली। कैसे, कि यदि उसमें कुछ गुण होते तो उसके गुणों की बात कही जाती जैसे ये सेठ जी बड़े दानी हैं, परोपकारी हैं, उदार हैं...। ये कोई बातें तो कही नहीं गई। वहाँ तो लड़कों के विषय में कहा गया कि इनके लड़के इतने ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर हैं, उसमें यह बात स्वयं ही बसी हुई है कि इन सेठ साहब के लड़के तो ऐसे-ऐसे बुद्धिमान हैं पर ये सेठ कोरे बुद्धू हैं, इनमें कोई कला नहीं, कोई गुण नहीं। और भी देखो जैसे किसी ने किसी के प्रति कहा कि इन सेठजी का क्या कहना हैं, इनके पास ऐसी हवेली है कि जिसे बस देखते ही बनता है, उसका मुख्य द्वार इतना सुंदर बना है कि जिसमें बड़े कलात्मक ढंग से चित्रकारी की गई हैं, उसके बनाने के लिए विदेशी कारीगर आये थे...। अब इन बातों को सुनकर सेठ बड़ा खुश होता, वह समझता है कि इसमें मेरी बड़ी प्रशंसा की जा रही है, पर दी जा रही उसे गाली। कैसे, कि यदि उस सेठ में कोर्इ कला होती तो उसकी बात कही जाती, कही तो गई उस हवेली की बात कि यह हवेली, ये ईंट-पत्थर तो इतने अच्छे हैं, इनमें इतनी-इतनी कलायें हैं, पर सेठ में कोई कला नहीं, यों दी तो गई उस सेठ को गाली, पर वह प्रशंसा जानकर खुश होता। याने मोह के थपेड़े देखो, किस-किस ढंग से यह जीव अपने आपको बड़ा खोटा अनुभव कर रहा। अच्छा यह तो साधारणजनों की बात हैं। कोई धार्मिक क्षेत्र में भी उतरे तो वहाँ भी देखो, ये मोह के थपेड़े कैसे कैसे चल रहे।
1465- मोह की विभिन्न करतूतें-
प्रथम तो देखो भगवान के आगे दर्शन कर रहे, ढीले-ढीले खड़े, जैसे-जैसे जल्दी-जल्दी में स्तुति पढ़ रहे, और वहाँ कोई दर्शन करने वाले लोग आ गए तो उन्हें देखकर झट अटेन्सन में भी हो गए और बड़े स्वर में स्तुति पढ़ने लगे, वहाँ बात तो यह घट गई कि उसके लिए तो भगवान वे दर्शन करने वाले लोग हो गए, नहीं तो वह भला ऐसा क्यों करता? यदि वे दर्शन करने वाले लोग इसकी निगाह में न होते, एक भगवान की ओर ही इनकी निगाह रहती तो वहाँ तो एक स्वयं सहज भक्ति होती, तो ये मोह के थपेड़े न जाने कहाँ-कहाँ जाकर इस जीव को सताते हैं। इस मोह की आदत की कभी खोट नहीं हटती है। मोह जहाँ जाता बस वही इस जीव को सताने लगता। जैसे पुष्पडाल मुनि को उस जंगल में भी अपनी कानी स्त्री की याद आयी, वहाँ उन्हें उसके प्रति मोह उमड़ा, अच्छा और भी इस मोह के थपेड़े देखो- यह पुरुष निर्ग्रंथ भेष को लेकर आत्मसाधना के ध्यान से तो गया, मगर इस भेष पर ममता हो गई कि मैं ऐसी उपाधि वाला हूँ, ये लोग ऐसे ही हैं, इनमें मैं श्रेष्ठ हूँ, इनको मेरे प्रति ऐसे ही झुकना चाहिये, मैं इनमें मुख्य हूँ, इस दृष्टि से इस मोही ने अपने को अब तक यहाँ इस ढंग से सताया। अच्छा यहाँ भी सताया जाता, खैर यह भी अभी एक व्यक्तरूप-सा है, कि हाँ ऐसा न करना चाहिये, मगर इस मोह की बात देखो किन्हीं साधु पर, जैसे पहले कोल्हू में अनेक साधु पेल दिये गये, उनमें से जो विवेकी साधु थे, वे अपने आत्मस्वभाव का लक्ष्य लेकर उस ही रूप अपने को अनुभव करते हुये दिवंगत हुये, मोक्ष गये या जो भी जिसे हुआ और जो मोह में रहकर कोल्हू में पिले याने जिनकी यह दृष्टि रही कि मैं मुनि हूँ, चाहे कोई कुछ करे, पर मुझे किसी से द्वेष नहीं करना है, यों देहाश्रित लिड्.ग के प्रति आत्मरूपता की मान्यता जिनके थी बस उनका मोक्षमार्ग रुक गया। देखिये यह बात सुनने में तो भली लग रही होगी कि उन मुनियों ने वहाँ ठीक ही तो सोचा कि मैं मुनि हूँ, मुझे किसी से द्वेष न करना चाहिए..., पर कल्याण के मार्ग में परद्रव्य व परभाव के प्रति अहंकार का विकल्प उठना बाधक बताया गया है। तो यह मोहबंधन कैसे मिटाया जाता है, यह सब बात इस छंद के अंदर बतायी है, कैसा-कैसा पौरुष किया और इस ज्ञानमय आत्मस्वभाव को किस तरह किसने प्राप्त किया।