वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 179
From जैनकोष
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्यं बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
ज्ञानज्योति: क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपर: कोऽपि नास्यावृणोति ॥179॥
1466- स्वभावाश्रय से विभावविदारण-
यह बंधाधिकार का अंतिम कलश है। पहले जो वर्णन चला था तो उसका ध्येय यह है कि रागादिक भावों से उपेक्षा हो और अपने स्वभावभाव में अवस्थित हो। तो जिस तरह से इन रागादिक भावों को धुतकारा गया है सो मानो इस ज्ञानज्योति ने इन रागादिक भावों का, उन कारणों का जो कर्मबंध के निमित्तभूत हैं, इन रागादि विभावों का निर्दयता से विदारण किया है। जब यह ज्ञान अपने सहज ज्ञानस्वभाव को निर्लेप अविकार जैसा कि सहज स्वरूप है उस स्वरूप में जब निरखता है तो वहाँ विभावों का विदारण हो जाता याने ये विभाव दूर हो जाते हैं, छिद जाते हैं। ये अपनी पोजीशन नहीं बना पाते। मानो तब ही वह ज्ञानी दयापूर्वक मंदिर में जाता हुआ नि:सही नि:सही पहले बोलता है। उस नि:सही का क्या अर्थ है? निकलो निकलो, अलग हो। यह ज्ञान मानो यह सूचना दे रहा है इन रागादिक विभावों को कि हे विभावो ! तुम बड़ी अच्छी तरह से मौज से हमारे में रहे। हमने भी तुम्हारा यथातथा जैसे बना स्वागत किया। रहे तुम, मगर अब हम वीतराग प्रभु के दर्शन करने जा रहे हैं, वहाँ अब तुम्हारी दाल न गलेगी। तुम अचानक ही बुरी मौत से मरोगे इसलिए हम तुम्हें सूचना दे रहे कि तुम धीरे से यहाँ से निकल जावो, हम मंदिर के द्वार पर ही खड़े होकर बोल रहे। वहाँ मानो दया करके इन रागादिक भावों को सूचना दी। यह एक व्यवहार विधि है। मगर ऐसी सूचना ज्ञानी देता नहीं। वे रागादिक भाव अचानक ही मर जाते हैं। जहाँ स्वभावदृष्टि की तहाँ ये सब छिन्न-भिन्न हुये, तो बताओ यह सब विदारण निर्दयता से हुआ कि नहीं? (हँसी)
1467- रागविदारण से आत्मदया व आत्मरक्षा-
देखिये, आपसे प्रीति करके आपकी जड़ काटे कोई तो वह निर्दयता कहलायेगी ना। इसी तरह अनादि से पल-पूस रहे संततियों को तो मूलत: उखाड़ फैंके तो उसे निर्दयता क्यों नहीं कहेंगे? और यह निर्दयता नहीं, आत्मदया प्रखर थी। यह भगवान आत्मा अब तक मोह से झुलसा चला आ रहा था, तो उसने अपने आप पर दया की। उस परम करुणा के प्रोग्राम में बस उसकी रक्षा हुई है। रागादिक का क्या बिगड़ता, मिटने दो, मिटने तो थे ही, वे यों न मेटें, तो मिटते हैं। आप खूब राग करें तो भी ये मिटते ही रहते हैं। कोर्इ पर्याय आगे तो नहीं चलती, पर्यायें व्यतिरेकी हैं। मिटनी तो थी ही, बस इसने इतना ही किया कि भाई नवीन न आवें और आवें तो कम आवें। अब बताओ, यह भी कोई अन्याय हो गया क्या? यह भी कोई निर्दयता हो गई क्या? अरे ! होने वाले राग को नहीं यह नष्ट कर रहा, वह तो अबुद्धिपूर्वक हुआ, कुछ हुआ, मगर यह संतति नहीं होने देता, आगामी नहीं होने देता। इसी को रागादिक अपनी कमेटी करके चाहे निर्दयता का प्रस्ताव करें। ज्ञानी जीव के निज स्वभावाश्रय के बल से इस तरह रागादिक भावों का विदारण होता, और उस विदारण के अर्थ यह जो कहा अंतिम प्रयोग बहुत लाभदायक बना और इसे करना चाहिए। भीतर ऐसा निरखें कि ये जो रागभाव हुए हैं सो कर्मोदय का प्रतिफलन है, यह नैमित्तिक है, इससे मेरा क्या मतलब? मेरा स्वरूप नहीं, मेरे स्वभाव की चीज नहीं। मैं तो केवल विशुद्ध चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ ऐसी उपेक्षा तो करें।
1468- उपेक्षास्त्र का प्रभाव-
अहाने में कहते हैं कि ‘बड़ी मार कतार की, दिल से दिया उतार।’ घर में कोई मुखिया है और उससे किसी की बात न बनी, किसी ने मुंहजोरी की, जवाब दे डाला, आज्ञा में न चला, उद्दंडता में पेश आता तो वह मुखिया क्या करता? उससे बोलता नहीं, उसकी और टुक देखता ही नहीं, तो वह क्या कहता है कि स्त्री हो चाहे पुत्र हो, चाहे पिताजी हों, मेरे से कुछ बोलते ही नहीं, मेरी तरफ देखते ही नहीं, बड़ा कष्ट है। क्या कष्ट हो गया? बड़ी मार करतार की दिल से दिया उतार। तो यह रागादिक पर ऐसी मार चल रही है। अज्ञान अवस्था में यह जीव रागादिक भावों से प्रेम करके, एकमेक बनकर चल रहा था। अब भेदविज्ञान जगा, आत्मा के स्वभाव की सुध हुई, सब कुछ जाना कि इन रागादिक भावों की प्रीति में दु:ख है, भविष्य में दु:ख है फिर भी प्रीति क्यों? कोई परमार्थ बात हो तो चलो उसकी प्रीति करे, परमार्थ तो कुछ है नहीं और ऐसा हौवा बना है कि जो न तो कर्म की चीज है और न जीव की चीज है। जैसे हौवा न माँ की चीज है, न बच्चे की चीज है, न भींट की चीज है, न उजेले की चीज है, कुछ है ही नहीं, पर एक हौवा बना है, ऐसे ही देखो कि जो ज्ञान-विकल्प हुआ वह आत्मा की चीज तो यों नहीं कि आत्मा में स्वभाव से नहीं हुए। स्वयं आत्मा समर्थ हो, निमित्त स्वयं बने तो कुछ बात बतायें, पर यह आत्मा स्वयं निमित्त नहीं है। स्वभाव से नहीं आया तो आत्मा की चीज नहीं, कर्म हैं परद्रव्य उसकी तो चीज हो ही क्या? यों भी देखो। और यों भी देख लो- चूंकि कर्म के उदय में ही ये विकार बने, कर्मोदय के अभाव में नहीं बने इस कारण इनके मालिक कर्म रहे, जावें ये कर्म के पास, हम इन्हें निज घर में जगह न देंगे, क्योंकि हे विकारभावो ! तुम कर्मविपाक के होने पर ही तो होते हो और उस कर्मोदय के न होने पर नहीं होते तो तुम्हारा अपना नाता-रिश्ता कर्मोदय के साथ लग रहा हमारे यहाँ तुम्हें जगह नहीं, जावो, अनेक प्रकार के ऐसे ही प्रयोग करें, चिंतन करें, यह जीव अपने शुद्ध स्वभाव में रुचि बढ़ाता है, उसका फल यह है कि ये रागादिक भाव, इनका विदारण होता है।
1469- रागविदारण से बंध का प्रणुदन-
रागादिविदारण से क्या बना कि उन कारणों का जो कार्य था मायने रागादिक विकारों का निमित्तपाकर जो कार्मणवर्गणायें हैं वे कर्मरूप बन जाया करती थी, सो अब कर्मत्व आना दूर हो गया। जैसे कोई घर पाप करके कभी फला-फूला चलता है, धन भी बढ़े, परिवार भी बढ़े, इज्जत बढ़े, प्रतिष्ठा बढ़े, बहुत पाप करके, मायाचार करके किसी तरह खूब बढ़ोत्तरी हुई, और जब पाप का उदय आया, पुण्य पूरा समाप्त हुआ तो किस-किस प्रकार से क्या-क्या बात बनती है, यह भी गया, वह भी गया, यह मरा, वह मरा, अमुक यों मरा। तो जैसे वहाँ एक विनाश की प्रगति चलती रहती है ऐसे ही यहाँ जब तक अज्ञान किया, अज्ञान से बड़े-बड़े पाप बाँधे उन पापों से यह लौकिक हिसाब से खूब फला-फूला और जिस समय में अज्ञान-पाप का घड़ा फूटा, सम्यक् ज्ञान का उदय हुआ तो ज्ञान का उदय होने पर फिर रागादिक का विनाश, यह गया, बंध भी गया, विकार का भविष्य भी बिगड़ा, ये सारी बातें ज्ञानज्योति के उदय होने पर होती हैं। दृष्टांत में केवल विनाश की बात लेना, तो इस तरह यह ज्ञानज्योति के कारण कर्मबंध भी खतम हुआ, करणानुयोग के हिसाब से चूंकि अभी ज्ञानज्योति पूर्ण नहीं है, जितने अंश में है शुद्धोपयोग वीतरागता उतना संवर और निर्जरण चलता है। चौथे गुणस्थान में 41 प्रकृतियों का संवर है याने मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी, इनके परिणाम के कारण जो बंध हो सकता था वह बंध अब यहाँ नहीं। अर्थात् जो प्रकृतियाँ शेष हैं चारित्र मोह की, उनका विपाक है अभी, तब ही कभी बुद्धिपूर्वक कषाय है, कभी अबुद्धिपूर्वक कषाय है, रागविकार हैं, तो तत्कृत यथायोग्य जैसे संभव है वैसे बंध चला, मगर वह सब बंध मिटने की ओर, जैसे पेड़ की जड़ कट जाय तो गिर गया पेड़ और हरा भी बना है, मगर वह हरापन मिटने की ओर है, जवानी की ओर नहीं है, ऐसे ही ज्ञानी जीव को जो कुछ राग रहा वह सब मिटने की ओर है, जवानी की ओर नहीं, यह रागविदारण हुआ, संसारपरंपरा मिटी, ये सब बातें किस आधार पर हुई? बस एक ही बात, अपने स्वरूप को विशुद्ध चैतन्यमात्र ऐसा भीतर निरखना।
1470- ज्ञान की लक्ष्य पर बेरोक पहुँच-
कोई कहे कि कैसे निरखें तत्त्व, पर्याय तो गुजर रही है, पर्याय में विकार है, यह तो गुजर रहा है, फिर तत्त्व निरखा कैसे जाय? तो देखो, ज्ञान में ऐसा अद्भुत बल है कि रागादिक गुजर भी रहे और उनमें उपयोग न टिकाये और उपयोग आत्मा के शुद्ध चैतन्यस्वरूप में टिकाये, ऐसा उपयोग का सामर्थ्य है, ज्ञानी का ज्ञानबल है। मगर, इस बल का प्रयोग निरंतर अंतर्मुहूर्त भर कर सके तो केवलज्ञान हो जाय, सो ज्ञानी असमाधिदशा में स्वभाव के प्रति ज्ञानोपयोग निरंतर नहीं कर पाता। वह कर्मवश, कर्मोदयविपाकवश इसके सान्निध्य में यह नहीं टिक पा रहा है, मगर मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी न रहने से इसमें इतना बल हुआ है कि वह अपने स्वभाव भाव को निरख सकता है और ऊपर कुछ रागविकार की लहरें चल रही हैं और भीतर में ज्ञानस्वभाव की सुध लेकर अपने में दृढ़ कड़ा बना हुआ है, ऐसी विचित्र स्थिति ज्ञानी की बन जाती है, क्योंकि ज्ञान जिस लक्ष्य को लेता है उसके बीच कोई भी चीज आड़े आये तो उनसे यह छिड़ता नहीं है। ज्ञान में ऐसी एक धारा और बल होता है। जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला यंत्र, यह तो पौद्गलिक ही बात है, उस एक्सरे मशीन पर कोई खड़ा हो जाय जिससे हड्डी का फोटो लिया जाता तो वह न तो रोम को ग्रहण करता, न चमड़ी को ग्रहण करता, न खून, मांस-मज्जा को ग्रहण करता और वह केवल हड्डी का फोटो ले लेता। तो फिर भला यह जो ज्ञान है वह जिसका फोटो लेना चाहता है उसके बीच में चाहे कुछ भी आ पड़े, उन सबको छोड़ता है और अपने बेध्य वेद्य विषय को ही ग्रहण करता है, जैसे अचानक किसी को खबर आ जाय कि घर में कोई चीज रख आये, तिजोरी के अंदर संदूक, उस संदूक के अंदर डिब्बा, उस डिब्बे के अंदर एक पोटली में बाँधकर अंगूठी रख आये, तब उसका ख्याल आ गया कि जो अंगूठी रख आये वह ठीक-ठीक रखी कि नहीं, तो अब देखो यहाँ बैठे-बैठे उसका ज्ञान करने में कहीं द्वार के किवाड़ आड़े नहीं आये, भींत भी आड़े नहीं आयी, लोहे की तिजोरी भी आड़े नहीं आयी, संदूक आड़े नहीं आयी, सीधे वह ज्ञान उसी अंगूठी पर पहुँच गया, याने ज्ञान ने जिसका लक्ष्य किया, उसी को पकड़ लिया। यहाँ यह अद्भुत बल अज्ञानियों को नहीं मिला, उनको लौकिक ढंग का मिलता, व्यवहारिक बात का मिलता। मगर रागादिक विकारों से यह उपयोग नहीं छिड़ा यह तो ज्ञानी के हो जाता है। विकार तो हो रहे मगर यह ज्ञान उन विकारों को न निरखकर उस दृष्टि में केवल आत्मा के चैतन्यस्वरूप को निरखना चाहे तो कोर्इ चीज छिड़ती नहीं है, यह खुद छिड़े तो छिड़ जाय।
1471- ज्ञानज्योति के उदय से ज्ञाता की क्षपित तिमिरता-
जिस जीव के एक ज्ञानज्योति प्रकट हुई है उसका सारा अंधकार दूर हो गया, स्पष्ट झलकने लगा कि मैं यह हूँ। जैसे कभी दो दोस्तों के बीच किसी एक चुगलखोर ने आकर मनमुटाव कर दिया और मानो 6 महीने तक भी उसे न सुहाये, वह बड़ा दृढ़ मित्र था, मगर भ्रम की बात ऐसी बन गई। और, कोई समय वह भ्रम निकल गया तो वे दोनों मित्र मिलकर रोते हैं। अरे !मैंने भ्रम में आकर आधे साल का समय व्यर्थ खोया। इसका तो कोई अपराध था ही नहीं। भ्रम में ये सारी बातें बनी हुई थीं। जहाँ भ्रम मिटा वहाँ अंधकार दूर हो गया कि यहाँ तो कोई दु:ख की बात ही नहीं। मैं अब तक दु:ख मानता रहा। यहाँ तो कोई ऐसी गड़बड़ बात ही नहीं। मैंने भ्रम करके भारी गड़बड़ियाँ की और देखो हमने केवल की तो भावों के द्वारा गड़बड़ियाँ और फल मिला इसका ऐसा कि भावों की विकृतियाँ भी हुई और द्रव्य की भी विकृतियाँ हुई। जिस भव में गया, जिस शरीर में गया उस तरह से यह फैलता फिरा, द्रव्यव्यंजनपर्याय बिगड़ी, गुणव्यंजनपर्याय (गुण पर्याय) बिगड़ी। तो जब एक चेत हुआ, कुछ समझ बनी तो अब उस सारे भ्रम पर इसको खेद हो रहा, खेद भी क्या है? वह मीठा खेद कि अनादिकाल से मैंने अब तक सब भ्रम में खो डाला। देखिये, एक क्षण को भी अगर अपनी इस स्वभावज्योति का अनुभव बने, प्रकाश मिले, उपयोग स्वीकार कर ले कि मैं सहज इस स्वरूप में हूँ, तो उसके अनंतकाल के लिये सारे संकट दूर हो जायेंगे। और, एक क्षण के लिये अगर यह वैषयिक सुखों का लाभ बनाये, जैसे बहुत से लोग कहने लगते ना कि जिन आलू-भटा न खाये, वे काहे को जग में आये? कोई सोचे कि अरे !अभी मौज ले लो आगे की कौन देख आया? तो कहते हैं कि यह एक क्षण का वैषयिक सुख चिरकाल तक भव-भव में पटकेगा।
1472- निरुपाधि ज्ञानज्योति के प्रसार की अबाधता-
यह ज्ञानज्योति प्रकट हो, विकार-अंधकार दूर हो, तो इस ज्ञान के प्रसार को अब कोई रोक नहीं सकता, कोई आवरण नहीं कर सकता, यह ज्ञान जानता है। मेरा स्वभाव हैजानने का। जानने का स्वभाव कैसा है कि जो भी सत् है बस वह ज्ञेय हो ऐसा इसका स्वरूप है। तो स्वरूप तो कही मिटेगा नहीं। उस स्वरूप का कही विकास रुका था। आवरण था साक्षात् तो विभाव द्वारा और निमित्त-दृष्टि से उन कर्मों द्वारा बंधन था, इसका विकास रुका था। जब यह विकास आया, वह आवरण दूर हुआ, विभाव दूर हुये तो अब जो उसमें अपना स्वरूप है बस वही स्वरूप उमड़ गया। अब उसके प्रसार की सीमा कौन बनायेगा? अगर कृत्रिम प्रसार हो, नैमित्तिक हो तो वहाँ कुछ सीमा बने, मगर जहाँ स्वरूप की ही बात है तो स्वरूप के अनुरूप पूर्णतया वह बात स्वयं आ ही जायगी, उसे कोई रोकने में समर्थ नहीं। कोई पदार्थ कहीं भी स्थित हों, पीठ पीछे हों, आगे हों, भूत में हो, जो सत् है वह सब ज्ञान में ज्ञेय हो जाता है। जब यहाँ हम आप लटोरे-घसीटे भी 10-25 साल पहले तक की बातों को भी ढंग से जानते हैं, युक्ति से भविष्य को भी जानते हैं और अवधिज्ञानी पुरुष आत्मीय शक्ति से स्पष्ट जानता है जितना वह अपनी सीमा में जानता तो उससे अंदाज लगा लो कि ज्ञान में ऐसा स्वभाव है, स्वरूप है कि यह सबको जाने। तो जब विकास होता तो इसका कितना असीम विकास होता। अब इसके इस प्रसार को कोई रोकने में समर्थ नहीं।
1473- आत्मा के विकाराकारकत्व के मनन के उपाय की महनीयता-
बंध के प्रकरण में उपाय बहुत बताये, मगर एक सरल उपाय जो रागादिक का अकर्तृत्व बताने में प्रयुक्त किया है इस उपाय के प्रयोग के बाद यह बंधाधिकार समाप्त किया जा रहा है, उसमें जैसे बहुत आसानी से अपने शुद्ध स्वभाव की निरख बने उस प्रकार बताया गया है। मैं स्वभावत: प्रतिभासमात्र हूँ, इसके साथ-साथ सब ज्ञान है इस ज्ञानी को। एक प्रतिभासमात्र ही मैं होऊँ, परमार्थभूत कुछ नहीं हूँ, ऐसा नहीं है। जो ऐसा मानते हैं उन्होंने स्याद्वाद को छोड़ा, और उनका एक प्रतिभासाद्वैत अलग हो बना संप्रदाय। मैं प्रतिभासमात्र हूँ, पर मैं प्रतिभासी से जुदा नहीं हूँ, कि कोर्इ परमार्थवस्तु और उसका वह प्रतिभास उसमें चल रहा है। तो वह परमार्थवस्तु जो प्रतिभास का आधार है वह अपरिणमी ही होता ऐसी मान्यता बने तो वह स्याद्वाद शासन से दूर हो गया, क्योंकि वहाँ नित्य अपरिणामित्व आया, और नित्य अपरिणामी है तो प्रतिभास क्रिया कैसे बन सकेगी? किसी ने इस प्रतिभास को निरखा क्षण-क्षण में, बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा कि नया-नया प्रतिभास एक-एक समय का परिणमन यही पूर्ण-पूर्ण वस्तु है, ये सब स्वतंत्र हैं, अपने आपमें वही-वही है। इसका अन्य से कुछ संबंध नहीं, ऐसा जिन्होंने देखा उनका संप्रदाय बना सौगत, क्षणिकवादी। ज्ञानी की सारी प्रतीति सही-सही है, पर समय-समय पर जिस-जिस प्रयोग को मुख्य करके वह कुछ स्वभाव के आश्रय की ओर चलता है तो शेष को तो गौण करता है और विवक्षित को यह प्रधान करके चलता है। जिस किसी भी प्रकार हो, अपने आपमें स्वभाव-दृष्टि जगे, अनुभव बने कि यह मैं केवल ज्ञानस्वभावमात्र हूँ।
1474- विशुद्ध परिणति की भावना तथा बंधवेष का निरसन-
कब ऐसी परिणति हो कि कोई नाम लेकर खूब चिल्लायें, पर भीतर यह बात ही न घुसे कि मुझे बुलाया जा रहा है। कब ऐसी भीतर में स्वभावाश्रय की दृढ़ता हो कि जगत में कुछ भी होता रहे, ज्ञान में न आये तो ज्ञाताद्रष्टा रहे। हो रहा है, ऐसा यह सब स्वभावभावना के अभ्यास से साध्य है और स्वभावभाव की भावना तब काम करेगी जब इसका हृदय विशुद्ध हो। किसी कषाय में, किसी आग्रह में, किसी पक्ष में उलझा हुआ न हो। एक आत्मा का ही नाता चित्त में रहे तो वहाँ इस स्वभावभावना की पात्रता बनती है, स्वभावभावना अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता जाता वैसे ही वैसे मोक्षमार्ग में प्रगति होती चली जाती है। तो स्वभावभावना न रही और बाह्य पदार्थों को आश्रय बनाकर नाना तरह के अध्यवसाय किए थे, जिसका फल कर्मबंधन रहा। अब स्वभाव को जाना, वह अध्यवसाय दूर हुआ जो कि एक चला करके संसार को बना रहा था, उस अध्यवसाय के दूर होने से अब इसके सही अवसाय आया अधिक अवसाय खतम हो गया, और जो स्वरूप में है, बस उसी का ही अब इसके निर्णय है, निश्चय रहा, उसका परिणाम यह है कि यह बंध निकल भागेगा। इस प्रकरण में जो बंधभेष में आया हुआ था उसको जाना ज्ञानज्योति ने। ये विभाव, ये कर्म, ये सब बंधरूपी चीजें हैं, इनका भेष हैं। ये बंध वस्तुत: क्या हैं? द्रव्यबंध में तो वे साधारण विस्रसोपचय कार्मणवर्गणायें हैं और उनमें एक-एक पुद्गल अणु है, भेष बना डाला उसने यह। और यहाँ पर विशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र परमार्थ वस्तु हैं और भेष बना डाला उसने इस विकाररूप। जब यह पता पड़ जाता कि यह पार्ट अमुक लड़का खेल रहा है तो उस पार्ट करने वाले का प्रभाव नहीं रहता दर्शकों पर, ऐसे ही यहाँ यह जान लें कि परमार्थ तत्त्व यह है और यह भेष है ऐसा जाना, तो अब इस भेष का असर नहीं रहता, तो यह भेष छोड़कर निकल जाता, इस तरह यहाँ से यह बंध निकल जाता है।
इति बंधाधिकार समाप्त
अथ मोक्षाधिकार: