वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 180
From जैनकोष
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बंधपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलंभैकनियतं ।
इदानी-मुन्मज्जत्सहज-परमानंद-सरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥180॥
1475- प्रज्ञा क्रकच के द्वारा बंध और पुरुष का द्विधाकरण-
अब यह ज्ञान, परमपूर्ण ज्ञान जिसने कि समस्त कृत्यों को कर लिया है याने आत्महित के लिए, अपने आपकी शुद्धता के लिए जो भी करने योग्य काम था वह सब जिसके द्वारा किया जा चुका है ऐसा वह परिपूर्ण ज्ञान अब विजय प्राप्त कर रहा है। कहाँ है विजय इसकी? आखिरी विजय है मुक्त होने में, सो क्या किया उपाय? पहले प्रज्ञारूपी करोति से विदारण करके बंध और पुरुष को दो कर दिया। यह बंध है, यह पुरुष है। अज्ञान अवस्था में बंध और आत्मस्वभाव; स्वभाव और विभाव ये सब एकमेक मान्यता में थे। अज्ञानी को इन विकारों से विविक्त आत्मा के सहज स्वरूप की सुध न थी, तो सबसे पहले मोक्षमार्ग का प्रारंभ यहाँ से हुआ कि वह अपने में जाने कि ये विभाव, ये बंध और यह अंतस्तत्त्व इसमें स्वरूपभेद है, सबसे पहले प्रज्ञाकरोती से विदारण कर बंध और पुरुष को भिन्न-भिन्न किया और ऐसा करके इस पुरुष (आत्मा) को मोक्ष में पहुँचाया, मोक्ष को प्राप्त कराया इस ज्ञान ने, कैसा है वह मोक्ष? पुरुष याने आत्मतत्त्व की उपलब्धि द्वारा ही जो नियत है, मोक्ष के कारण सिवाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के अन्य नहीं है, लेकिन जब तक इनकी पूर्णता नहीं है तब तक जो और और विभाव उत्पन्न हुआ करते हैं उनका बचाव कैसे बने, साधक का पात्रताप्रयोजक गुजारा कैसे चले? सो वही स्थिति है बाह्य प्रवृत्ति की, उससे अपात्र नहीं बनता, पात्र रहता है। शुभोपयोग, व्यवहारचारित्र आदिक प्रवृत्तियों में जो व्रत, समिति, गुप्ति आदिक कहे हैं उन प्रवृत्तियों में रहने वाला जीव पात्र तो है, अपात्र नहीं बना, पर मुक्ति मिलती है तो अंतस्तत्त्व के रमण से मिलती है, सो ऐसे उपाय से पुरुष की ही एक अनुभूति द्वारा जो नियत है ऐसे मोक्ष को प्राप्त कराया जाता है।
1476- बंध के स्वरूप के ज्ञानमात्र की मोक्षहेतुता का अभाव-
मोक्ष के कारण क्या हैं? इस बात पर भी इन शब्दों में संकेत मिलता है। सबसे पहली बात बतायी गई- आत्मा और बंध का दो टूक कर देना, यह है बंधच्छेदन। वहाँ दो टूक कहीं उपयोग से होता है कहीं साक्षात् याने अब कुछ संबंध नहीं रहा, अन्य कुछ हैही नहीं वहाँ, केवल एक आत्मस्वरूप है उसका नाम है मोक्ष। तो वह मोक्ष एक गप्प से न मिलेगा। बंध के स्वरूप के ज्ञानमात्र से भी न मिलेगा उसके लिए विभावों से उपेक्षा, स्वभाव की धुन, स्वभाव में रमण, यह अंत: क्रिया बने, निरंतर रहे तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। बंधस्वरूप के ज्ञानमात्र से मुक्ति नहीं मिलती। कैसे जाना? कुछ उदाहरण है इस बात का? उसका ठीक उदाहरण तो क्या दिया जा सकता, वह तो वही है, पर यहाँ देख लो कि किसी कैदी को बेड़ी पहना दी, तो बेड़ी उस स्वरूप के ज्ञानमात्र से नहीं कटती, किंतु बेड़ी को काटे, दो टूक करे तो कट जायगी। ऐसे ही बंध हुआ है तो मात्र उसका स्वरूप जान लिया कि यह है बंध। तो इतने मात्र से बेड़ी नहीं कटेगी, किंतु प्रज्ञाकरोती से उसको ऐसा दो टूक करें, स्वभाव को जानें, स्वभाव, विभाव का अंतर समझें और अंतर जानकर विभाव से उपेक्षा, और स्वभाव में रमण बने यह बात जिसके सही बनेगी उसको मुक्ति प्राप्त होगी। तो केवल बंध की चर्चा कर ली इतने मात्र से संतोष न होना चाहिए। इससे सिद्धि नहीं है, हाँ, वह भी एक साधन है, जानें तो सही जिससे कि हमें अलग होना है। मगर स्वरूप चर्चा, बंध चर्चा करने मात्र से सिद्धि न बनेगी। कुछ भीतर आना होगा। स्वरूप की रुचि करना, स्वरूप में समाना, ऐसा, जो करेगा उसके लिए सारा जगत, समस्त जीव एक समान रहते हैं। धर्म के प्रसंग में, स्वानुभव के पौरुष में, यह बहुत बड़ा भारी विघ्न है कि धर्म के नाम पर कुछ थोड़ा आग्रह बने, यह एक इतना बड़ा सत्य है कि इसके रहते हुए सम्यक्त्व नहीं, अनुभूति नहीं। एक बार जब तक यह दृष्टि में न आये कि सब जीव एक समान हैं, उनमें मेरे तेरे की बात नहीं, ऐसा जिसके उदात्तपना न आया उसके यह पात्रता नहीं होती कि वह स्वानुभूति बना सके। केवल स्वरूपज्ञानमात्र से संतुष्ट नहीं होना है, किंतु प्रज्ञाकरोती से विभावों का विदारण करना, आत्मा और बंध को पृथक् बनाना है।
1477- स्वभावाश्रय बिना मात्र बंधचिंताप्रबंध की मोक्षहेतुता का अभाव-
कितने ही लोग तो इससे थोड़ा और आगे बढने को कहते कि बंध के स्वरूप का ज्ञान करें और बंध कैसे मिटें इसकी चिंता बनावें तो मोक्ष हो जायगा, उसका चिंतन बनावें। तो कहते हैं कि यह भी बात नहीं, अरे !जान भी लिया कि यह बेड़ी है, यह बंध है और उसकी भावना भर रहे कि यह बेड़ी कट जाय, कट जाय; कैसे कटे। इतना सोचने मात्र से बेड़ी दूर नहीं होती, किंतु उसके दो टूक करें तब ही दूर होती है। ऐसे ही अंत: जो अपनी समाधि का पौरुष करे उसके ही यह बंध-बेड़ी टल सकेगी, केवल एक ऊपरी चित्त को आराम मिले, बड़ी चर्चायें करके, इतने मात्र से प्रगति नहीं होती। प्रज्ञा-क्रकच चलाकर बंध और पुरुष को दो टूक करना है। क्या होता है वहाँ? यह परिचय बनता है कि यह मैं निर्विकार चैतन्य चमत्कार मात्र हूँ। स्वरूपत: देखो- स्वरूप की बात कही जा रही, जैसे गरम पानी को कोई कहे कि इसका स्वभाव ठंडा है तो वहाँ कोई लड़ भी सकता कि तुम बहुत झूठ बोलते, पानी तो गरम है और तुम स्वभाव ठंडा कहते हो तो हम तो तुम्हारे ऊपर यह तेज गरम पानी डाले देते हैं, तब तो शायद आप चिल्लाकर यही कहेंगे कि नहीं, नहीं, पानी का स्वभाव ठंडा नहीं, यह तो बड़ा गरम है। अरे ! भाई गरम पर्याय में तो है पर स्वभाव ठंडा है इसमें शंका नहीं। यह भैया ! स्वभाव का उदाहरणमात्र है छोटा-सा, वस्तुत: पानी का स्वभाव न ठंडा है न गरम। पानी का स्वभाव तो है द्रव्यत्व (बहना) उसमें जो-जो भी बात पायी जा रही है वह उसका स्वभाव है, मगर एक प्रसिद्धि है, ऐसा दृष्टांत देने की तो जैसे गर्म होते हुए भी उसका स्वभाव ठंडा कहा जाता तब ही तो लोग पंखा करके या आग हटाकर उसे ठंडा करने का यत्न करते हैं। यदि वह विधि न होती, इसका स्वभाव न होता ठंडा तो ऐसा कौन यत्न करता? तो ऐसे ही आत्मा में इस समय विकार है, विकार होते हुए भी स्वभाव में विकार न बताया जायगा। स्वभाव है अविकार। विकार तो नैमित्तिक है, औपाधिक है, स्वभाव से उठा हुआ नहीं है। तो अविकार चैतन्य चमत्कारमात्र आत्मस्वभाव को जानो, यह है आत्मा का स्वभाव। और, बंधों का स्वभाव क्या है कि ऐसा निरपराध सीधे सरल सारभूत इस जीव में विकार को करे यह है बंध का स्वभाव तो इन दोनों का स्वभाव जान कर बंध तो विराम ले, विरक्त हो, उपेक्षा करे। बंध से उपेक्षा हुई तो स्वभाव में रमण बनेगा।
1478- स्वभावरमण में सहजपरमानंदसरसता-
बंध से उपेक्षा व स्वभाव में रमण हेतु जो अंत: प्रयोग है, यह ही समस्त कर्मों से मोक्ष को करेगा, इससे मोक्ष का हेतु क्या मानना कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण कर देना, यही सर्वप्रथम विशेषण में बताया कि प्रज्ञारूपी करोती से बंध और पुरुष इन दो को इस भव्यात्मा ने दो कर दिया, अलग कर दिया, ऐसा करके जब यह जीव निज स्वभाव में ही लगता है तो इसी को कहते हैं समाधि, इस समाधि-बल से सहज परम आनंद उसके उछल रहा है, चिंता तो कुछ है नहीं, चिंता, दु:ख, क्लेश ये बाह्य पदार्थों के विषय में विचार विकल्प बनाकर हुआ करते हैं, जहाँ केवल सहज स्वभाव का आश्रय है, उस ही रूप अपने आपका अनुभव है, तो वहाँ सहज परम आनंद उत्पन्न हुआ उससे यह सिद्ध पद प्राप्त हुआ, वहाँ उपयोग आत्मा में आया, उस ही में सिद्ध प्रभु अनंत काल तक रम रहे हैं, वे सिद्ध प्रभु अब अपने उपयोग को आत्मा में टिकाने की प्रवृत्ति नहीं करते, किंतु उनकी सहज वृत्ति ऐसी है केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंत आनंद रूप। यहाँ तो यदि थोड़ा जाप देने बैठते हैं तो झट उपयोग इधर से उधर पहुँच जाता है, जरा सी गर्मी भी बरदास्त नहीं कर सकते, उपयोग बाहर ही बाहर डोलता फिरता, मगर उन सिद्ध प्रभु का उपयोग बाहर कहीं नहीं डोलता, आत्मा में कोई आग नहीं है जो वहाँ कुछ भय खाकर उपयोग बाहर में लगे, किंतु विकल्पों की आग से झुलसा है यह उपयोग तो किसी तरह थोड़ा आत्मा की ओर लग जाता है मगर वहाँ इसका मन नहीं लगता। वहाँ बड़ी कठिनाई मालूम करता है और यह बाहर-बाहर डोलता है। उस राग संताप को यह पुरुष मिटा दे और अपने आपमें आनंद का अनुभव जगे तो आनंद मिल गया, फिर क्यों वह बाहर जायगा? अपने आपमें जब तक आनंद नहीं मिला तब तक यह बाहर-बाहर डोलता है। अपने में आनंद प्राप्त हो तो यह बाहर न डोले।
1479- निकटभव्यों को ही मोक्षलाभ के उमंग की संभावना-
भैया, एक बात और सोचना कि बोलो अनंत काल तक तुम्हें मोक्ष जैसी बात चाहिए या संसार का जन्म-मरण करके रुलते रहने की बात चाहिए, दो बातें सामने हैं। तो जल्दी-जल्दी में तो हर एक कोई यह कहेगा कि हमें मोक्ष की बात चाहिए, पर जिम्मेदारी से भीतर सब कुछ निर्णय करके बात देखना कि क्या चाहिए? जब उस पर तुल जाते हैं कि हमें तो एक टूक होकर फैसला करना है कि संसार में जन्म-मरण करते रहने की प्रक्रिया बनाना है या सदा के लिए जन्म-मरण के संकटों से छूटकर मोक्ष पाने का, केवल में रमने का हमें प्रोग्राम बनाना है, जब निर्णय करने चलेंगे तो समझना तो पड़ेगा कि मोक्ष में क्या स्थिति रहती है, कैसे मोक्ष में पहुँचते, कैसे रहते? तो यह सब बात आगे दिखाई देगी कि बाह्य परिग्रह को त्यागें, अंतरड्.ग परिग्रह को त्यागें, विकल्पों को छोड़े, अपने स्वरूप में रमें और अकेला रह जावे सदा के लिए, बस यह ही है मोक्ष की बात। बताओ ऐसा मंजूर है कि नहीं? मंजूर होगा ज्ञानी पुरुष को, जिसको अब संसार से कोई प्रयोजन नहीं रहा, अन्यथा मंदिर में तो बहुत-बहुत विनती करते भगवान के सामने कि हे भगवान !मुझे मोक्ष चाहिए, मोक्ष दीजिए, मानो कोई एक पुरुष ऐसा था कि रोज-रोज विनती करे कि प्रभो मुझे मोक्ष दीजिए, एक दिन मानो कोई देव आया और उसने कहा कि तुम एक महीने से प्रभु से रोज-रोज कह रहे हो कि मुझे मोक्ष दीजिए। आज मैं इसी लिए आया हूँ कि तुम्हें मोक्ष ले जाना है। तो वह पुरुष बोला- अच्छा, उस मोक्ष में, क्या क्या है? वह देव बोला- अरे ! वहाँ कुछ नहीं है, सब सूना है, केवल आत्मा ही आत्मा है। तो वह पुरुष बोला- क्या वहाँ चाय पीने को नहीं मिलती? स्त्री, पुत्रादिक नहीं मिलते? धन-दौलत वगैरह वहाँ ये कुछ नहीं मिलते क्या? अरे वहाँ ये कुछ नहीं मिलते। मात्र एक अकेला आत्मा रहता है। तो वह पुरुष बोला- अच्छा ठहरो, हम अभी नहीं जायेंगे मोक्ष, फिर कभी मोक्ष का प्रोग्राम बनायेंगे। तो मोक्ष के लिए जब प्रोग्राम बनाने चले कोई तो उसे कुछ पता पड़ता है, यों कहना तो आसान है।
1480- मोक्षमार्ग में कदम रखने पर भावयात्रा की असुविधाओं के प्रसंग का अनुभव-
ऐसे ही भैया ! जोमोक्षमार्ग में कुछ थोड़ा-बहुत चलता है, अपनी साधना करता है, ध्यान करता है और जब शरीर साथ लगा है तो कुछ बाह्य प्रवृत्तियाँ भी करनी होती हैं। वे प्रवृत्तियाँ हैं बाह्य तप त्याग की, तो उसके प्रति भी चित्त में बड़ी आलोचना प्राय: रहती है गैर जिम्मेदारों में, क्योंकि यदि खुद का ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं व्रत का, नियम का, त्याग का, तो बाहर में सर्वत्र वे आलोचना करते हैं, दोष देखते हैं कि यह ऐसा, यह ऐसा।जब उस तरफ चले, थोड़ा बढ़े, थोड़ा कदम रखे तो वहाँ पता होता है। जब उसमें ध्यान रखते हैं तो किस तरह से क्या-क्या बाधाएँ आती हैं और किस तरह क्या होता है इसका पता पड़ता ह। एक दिन हम ऐसा सोच रहे थे गर्मी के दिन थे, कहीं जा रहे थे, तो रास्ते में एक दृश्य देखकर विचार आया कि लोग खूब मनमाना ठंडा जल पी रहे हैं, जब चाहे तब पीते, खाते, आराम से रहते हैं तो इनको तो कोई कष्ट नहीं, व्रती लोगों को तो इनसे अधिक कष्ट है क्योंकि उनके सब काम नियम से चलते हैं। बाहर से देखने में तो यही लगता कि संयमी लोगों को असंयमीजनों की अपेक्षा अधिक कष्ट है, पर फिर विचार बना कि ऐसा सोचना यों ठीक नहीं कि संयमीजन, व्रतीजन अपने जीवन में हर बात का नियमलेकर चलते हैं जिससे उन्हें बाहरी कष्ट कोई कष्ट नहीं महसूस होते। वे अंत:प्रसन्न रहा करते हैं। ऐसे ही एक दिन शौचनिवृत्त्यर्थ घूमने जाते हुए में रास्ते में ऐसा विचार बना कि देखो बरसात में इस पृथ्वी पर न जाने कितनी जीवराशि मरण को प्राप्त होती है और उस जीवराशि का मृतक शरीर सड़-गलकर इस मिट्टी में मिल जाता है। तो यह मिट्टी तो अपवित्र कहलायी, फिर हम जो शौचादिक की क्रियाओं में मिट्टी से हाथ धोकर हाथों को शुद्ध करना विचारते यह तो योग्य नहीं, उसमें तो बहुत बड़ा दोष है....यों विचार चला, आखिर शौच भी गए, हाथ भी उसी मिट्टी से धोया, रोज-रोज धोते रहे, धोये बिना काम तो न चले। एक दिन अचानक ऐसा समाधान स्वत: ही मिल गया कि अरे !यह पृथ्वी तो ऐसी ही है कि जहाँ माँस बहुत दिनों तक पड़ा रहे तो वह परिवर्तित होकर उस मिट्टी रूप परिणत हो जाता है, वहाँ फिर माँस का दोष नहीं रहता। तो जब कोई किसी मार्ग में चले तो उसके अनुरूप बात चित्त में आया करती है। तो केवल गप्प से, बात से ही कोई सिद्धि नहीं है, उसमें प्रवेश करना, लगना आवश्यक है।
1481- स्वभावभावनामूलक कृतकृत्यपने के आशय का आनंदानुभव में सहयोग-
भैया, स्वभावरमण के प्रयोग के अर्थ अभ्यास बनावें स्वभावभावना का। स्वभावभावना के अभ्यास में बाधायें आयेंगी। जो घर में रहते हैं उनको दसों बातें आती हैं, विकल्प चलते हैं, शल्य बनती हैं, बाधायें आती हैं और कुछ धुन होती है आत्मा कीओर। आत्मा की धुनवाला पुरुष घर में नहीं रह सकता। उसकी धुन में जब तक कमी है तब तक घर में हैं। अगर अंतस्तत्त्व की धुन बनी है तो विकल्प-जाल में रहना पसंद नहीं करता, विकल्प-जाल में वह रहेगा नहीं। तो अंतस्तत्त्व की धुन बनाने का अपना पौरुष करना चाहिए, जब ऐसे स्वभावभाव की भावना बढ़े तो उससे सारी बातें बनती हैं? जो सब करना योग्य है, कृतकृत्य किये कहते हैं? ‘कृतं कृत्यं येन स: कृतकृत्य:’ जिसने करने योग्य सब कुछ कर लिया, कुछ करने को नहीं रहा। आनंद जगता है तब, जब कि कृतकृत्यता की बात चित्त में आती है और जब करने की बात चित्त में रहती है तो वहाँ आनंद नहीं जगता। इस समय भी जितना जिसको आनंद आता है जब-जब भी, वह कार्य करने को पड़ा है यह विकल्प न रहने का आनंद है, कार्य करने का आनंद नहीं, खूब बड़ी गंभीरता से विचार कर लो, हर स्थिति में जब भी आनंद मिलता है तो करने का आनंद नहीं किंतु करना अब नहीं रहा, इस भाव का आनंद मिलता है। आपने कुछ काम किया मकान बनाने का, अभी जब तक नहीं बन पाया तब तक आप उसके प्रति कितने ही विकल्प करते हो और जब बन चुकता है तो कैसा आराम से बैठकर बड़े विश्राम की सांस लेते हो। तो बताओ वह आनंद किस बात का आया? अरे ! वह आनंद इस बात का है कि अब हमें मकान बनाने का काम नहीं रहा यह बात मन में घर कर गई, और जब तक उसके प्रति करने का विकल्प था तब तक चित्त में अशांति थी, बेचैनी थी। तो ऐसे ही समझो कि ज्ञानी जीव, निर्ग्रंथ पुरुष जिनका निर्णय है कि जगत में मेरे करने योग्य कुछ भी नहीं, उनको आनंद अपने आप पड़ा हुआ है, और उस लोक में काम करने के बाद थोड़ा उस आनंद की झलक मिलती है। सो भैया ! आनंद मिलता है तो मेरे करने को काम नहीं रहा इस भाव का आनंद मिलता है।
1482- करणचिंता में विडंबनाओं का आक्रमण-
मेरे को यह काम करने को है ऐसी चिंता के समय खुद सोच लो कि चैन है क्या? आनंद है क्या? चाहे वह किसी तरह से करने की बात मिटे, किंतु भावों में जब तक कृतकृत्यता की बात नहीं आती तब तक आनंद नहीं जगता। एक धुनिया इसी बात से ही तो बीमार हो गया था। वह विलायत से पानी के जहाज से आ रहा था। उसमें कोई दो चार ही आदमी थे बाकी हजारों मन रूई लदी थी। उस रूई के इतने बड़े स्टाक कोदेखकर उसके चित्त में यह बात समा गई कि अरे ! यह सब रूई मुझे ही तो धुननी पड़ेगी, मैं इसे कब धुन पाऊँगा? एक उसके चित्त में ऐसी हाय समा गई, जिससे उसको सिरदर्द हो गया। अब उसके ठीक करने के लिए बहुत से डाक्टर, वैद्य, हकीम आये, पर उसे कोई ठीक कर सकने में समर्थ नहीं हुए। भला बताओ, उसके चित्त की बीमारी कोई कैसे ठीक कर सके। एक बार कोई बुद्धिमान पुरुष आया, उसने कहा हम इसे ठीक कर देंगे।....ठीक है, करो ठीक। सबको वहाँ से हटा दिया और उस बीमार पुरुष से पूछा कहो भाई तुम कब से बीमार हुए?...अमुक दिन से।...कहाँ से आ रहे थे?...विलायत से।...किससे आ रहे थे?...पानी के जहाज से।...उसमें कितने लोग बैठे थे?...अरे ! आदमी तो कोई दो चार ही थे, पर उसमें हजारों मन रूई लदी थी। यों उसकी एक दर्दभरी आवाज सुनकर वह पुरुष बीमारी का कारण भली-भाँति समझ गया। सो बोला- अरे ! तुम उस जहाज से आये। वह तो आगे के बंदरगाह पर पहुँचते ही अग्नि लग जाने से रूई सहित जलकर भस्म हो गया।...अरे ! भस्म हो गया। लो चंगा हो गया। तो देखो- उसके बीमार होने में कारण था उसके करने का विकल्प। जहाँ करने का विकल्प हटा कि चंगा हो गया। जहाँ किसी प्रकार से करने का विकल्प नहीं, केवल अपने-अपने आत्मस्वभाव की धुन है उसको परम आनंद की प्राप्ति होती है।
1483- भावदृष्टि की मुख्यता से आत्मस्वरूप का परिचय करके स्वभावभावना के बल से कृतकृत्यता पाकर ज्ञान को विजयी करने का संदेश-
भला बताओ, इस कर्तृत्वबुद्धि से अपने को कुछ लाभ है क्या? मेरा लाभ तो अपने आपके स्वभाव में रमने से है, अन्य बात से नहीं, और फिर अन्य बात मैं कर ही क्या सकता हूँ? मैं तो अपने भावमात्र पदार्थ हूँ। देखो, एक दृष्टि से मानो, जानकारी के उपाय 6 हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नाम और स्थापना। हरएक का परिचय इन 6 बातों से चला करता है। जीवद्रव्य का परिचय इस दृष्टि से बनायें तो सही कि किस दृष्टि से, किस द्रव्य का अधिक ज्ञानसंबंध मिलता है। द्रव्य मायने पिंड ढेला, इससे तो पुद्गल अच्छी तरह जाने जाते हैं। आकाश का परिचय क्षेत्र की मुख्यता से है, काल की मुख्यता सेकाल जाना जाता है। अच्छा, और नाम स्थापना की मुख्यता से किसका अच्छा परिचय बनता? नाम क्यों धरते। नाम चलाने के लिये धरा जाता, नाम हो तो व्यवहार चले। तो नाम की याने गति की दृष्टि से जो हेतु बनता है उसका ज्ञान होता, धर्मद्रव्य का ज्ञान होता। और स्थापना याने धर दें, ठहरा दे उससे हुआ अधर्मद्रव्य का विशेष परिचय। अब रह गया भाव। तो इसकी नाप-तौल, गुण-पर्याय सारे गिन डालो, इससे आत्मा के सहज स्वभाव का अनुभव न बनेगा। अनुभव के लिए अखंड स्वभाव लक्ष्य में चाहिए, वही कहलाया भाव। तो भाव की मुख्यता से जीव का परिचय होता है। तो ऐसे सहज ज्ञानभाव की, स्वभाव की भावना बढ़ा-बढ़ाकर, इसमें रमकर जहाँ कृतकृत्यता प्रकट होती है, परिपूर्णता होती है ज्ञान की, वह परिपूर्ण ज्ञान मोक्ष को ले जाता हुआ विजयशील रहता है।