वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 105
From जैनकोष
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं ।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ।।105।।
निमित्त रूप जीवों के होने पर कर्मबंध का परिणाम होता है, उसे देखकर लोग उपचार से ऐसा कहते हैं कि जीव ने कर्म को किया है ।
भ्रमी के भ्रम की सहायक बातें―एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं होता है मगर लोगों को जो भ्रम हो गया है कि कोई द्रव्य किसी पर का कर्ता है इस भ्रम का कारण निमित्त नैमित्तिक संबंध है । कुछ तो बात है एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ संबंध की । वह है केवल निमित्त नैमित्तिक संबंध वाली बात तो इस आधार से और आगे उछल कूद कर अज्ञानी जीव यह निर्णय कर लेता है कि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता है । मैं कर्म का कर्ता हूँ, मैं शरीर को पुष्ट करता हूँ । मैं दुकान मकान बनाता हूँ, मैं परिवार का पोषण करता हूँ आदिक नाना कर्तृत्व को लाद लेता है । यह अज्ञानी जीव तो सर्वत्र केवल अपने परिणाम भर कर पाता है, इससे आगे और कुछ नहीं करता पर अज्ञान अवस्था ऐसी बड़ी विपत्ति है कि इस तथ्य का ओंधा परिणाम कर देता है और विपरीत कल्पनाएँ बना डालता है।
जीवद्रव्य के निमित्तत्व का अभाव―यह जीव स्वभाव से पुद्गलकर्म के निर्माण का निमित्तभूत नहीं है पर आत्मा में अनादि काल से अज्ञान लगा हुआ है उस निमित्तभूत अज्ञान से परिणमने के कारण यह पुद्गलकर्म के बनाने में निमित्तभूत हो जाता है ꠰ यह मैं जीवद्रव्य स्वरसत: कर्मबंध का निमित्त नहीं होता पर चला आया हूँ अनादि से अज्ञानमय सो अज्ञानमय परिणाम के कारण मैं पुद्गलकर्म के बंध का निमित्तभूत बन गया हूँ । मुझ में यह अज्ञान कब से चला आया है । तो कोई समय नहीं नियत किया जा सकता है । मान लो कोई दिन नियत किया कि अमुक दिन से मुझमें अज्ञान बसा है तो उस दिन से पहिले तो ज्ञानी हो गया, शुद्ध हो गया । जो शुद्ध हो उसके फिर अशुद्ध बनने का क्या कारण है? सो कर्मोदय, कर्म का बंध और जीव का विभाव ये तीनों अनादि से हैं ।
द्रव्यकर्म व भावकर्म की अनादिसंतति―अच्छा सोचो जरा, पहिले कर्म मानते हो या विकार मानते हो? अगर कर्म पहिले मानते हो कि जीव के साथ कर्म पहिले लगे पीछे विकार हुए, उससे पहिले विकार नहीं थे तो जो अविकारी आत्मद्रव्य है उसमें कर्म क्यों लग गए? अगर कहो कि पहले विकार थे विकार होने से इस जीव के साथ कर्म लग गए । तो विकार से पहिले कर्म न थे, तो विकार हो कैसे गए? स्वरसत: जीव में विकार नहीं है । न कर्म है, न कर्म का यह निमित्त बनता है । पर यह परंपरा अनादि से चली आई है । इसमें तर्क नहीं उत्पन्न हो सकता कि पहिले विकार थे या कर्म थे ꠰ बीज और वृक्ष में पहिले बीज था या वृक्ष था । अगर कहो कि पहिले बीज ही था वृक्ष न था तो वह बीज वृक्ष के बिना आया कहां से? और कहो कि पहिले वृक्ष था तो वह वृक्ष बीज के बिना आया कहां से । तो बीज और वृक्ष में प्रारंभ में क्या मानोगे? किसी एक को प्रथम मानने में बुद्धि कुछ काम देती है क्या? हां कदाचित कोई ऐसा मान बैठे कि ईश्वर ने पहिले बीज पटक दिया फिर वृक्ष हुआ, फिर बीज हुआ । तो ईश्वर को पटकने के लिए बीज मिला कहां से? बीज बिना वृक्ष के हो जाये यह नहीं हो सकता है । और मानों हो गया हो तो उस बीज का उपादान कुछ पहिले था कि नहीं कि ऐसा ही बीज रूप परिणम गया । बहुत युक्तियों से भी सिद्ध आगम प्रसिद्ध यह अनादि संतान बीज वृक्षवत् जीव और कर्म में चली आ रही है । सो यह कर्म अज्ञान भावमय जीव का निमित्त पाकर अनेक प्रकार की प्रकृति स्थिति और अनुभागों रूप परिणम जाता है । सो भैया ! जीव और कर्म में मात्र निमित्त नैमित्तिक संबंध है । इतना मात्र आधार पाकर धीरे-धीरे भूल भटक कर लिया, यह मान लिया है कि आत्मा ने पौद्गलिक कर्म किया । सो ऐसा विकल्प जो ज्ञानभ्रष्ट हैं, जिन्हें निर्विकल्पस्वरूप का अनुभव नहीं हुआ है ऐसे विकल्प परायण अज्ञानी जीव के ही होता है ꠰ वह सब उपचार ही है किंतु परमार्थ नहीं है । कोई संबंध देख कर बात बढ़ा दी गई । जैसे डिब्बे में घी रखा जाता है सो घी का एक बाह्य आधार है इतने मात्र संबंध को देखकर लोग यह कह बैठते हैं कि घी का डिब्बा लावो । और घी का डिब्बा कैसे लाया जा सकता है । वह तो टीन का डिब्बा है । उसमें घी रखा है । पर आधार-आधेय संबंध मात्र तक कर लोग कह बैठते हैं कि घी का डिब्बा है, पानी का लोटा है । जिस घर में शौच जाने का लोटा अलग होता है और खाने पीने के बर्तन अलग होते हैं तो वहाँ कहने लगते हैं कि यह पानी का लोटा है और यह टट्टी का लोटा है तो वह है तो धातु का लोटा, पर कुछ से कुछ कह बैठते हैं । जो भंगी लोग महल मकानों की टट्टियां साफ करते हैं वे यों कहने लगते हैं कि मेरे 10 मकान हैं । और संबंध मात्र इतना है कि वे 10 मकानों का मैला साफ करते हैं । पर इतने ही संबंध से कह बैठते हैं कि मेरे 10 मकान हैं । और वे समय पाकर गिरवी भी रख देते हैं । अब बड़े सेठ की हवेली गिरवी में रख दो, कितने में? 15 रुपये में । कुछ काम पड़ा था सो कहा कि 15 रुपये में यह हवेली गिरवी रख दी । उसका प्रयोजन इतना है कि 15 रुपये बिना ब्याज के तुम्हारे जब तक न दे दें तब तक तुम उस हवेली की टट्टी साफ करो । और उसके पैसा से खावो पियो । तो कोई संबंध पाकर लोग उसके स्वामीपन की बात करने लगते हैं । और कर्तापन की बात करने लगते हैं । पर परमार्थ दृष्टि से यथार्थ दृष्टि से विचारा जाये तो वे सब उपचार की बातें हैं । कैसे हैं ये उपचार तो इसके लिए एक दृष्टांत देते हैं ।