वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 173-176
From जैनकोष
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण ।।173।।
होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा ।
सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ।।174।।
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स ।
बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ।।175।।
एदेण कारणेण हु सम्मादिट्ठी अबंधगो होदि ।
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ।।176।।
उपभोग्य कर्म और बंधन―सम्यग्दृष्टि जीव के भी पूर्व निबद्ध कर्म सत्तायें हैं, द्रव्यकर्म और उनके उदयानुकूल होने वाले संस्कार सत्ता में हैं तो भी उपयोग के प्रयोग रूप जैसा बन सके वैसे ही वे कर्मभाव उस आगामी बँध को प्राप्त होते हैं । यहाँ दृष्टांत यह दिया जा रहा है कि जैसे किसी युवक का किसी अत्यंत छोटी आयु की बालिका से विवाह किया गया हो, तो वह बालिका स्त्री कहलाती है, लेकिन वह बालिका अभी निरुपयोग्य है । वह स्त्री पुरुष को बाँध नहीं सकती, उसका बँधन नहीं कर सकती । जब वह उपभोग्य होती है, बड़ी आयु की होती है तब पुरुष को उसका बँधन हो जाता है । इसी प्रकार जब तक कर्म उदय में नहीं आते अथवा उपभोग्य नहीं होते तब तक वे कर्म सत्ता में हैं, किंतु वे इसका बँधन नहीं करा सकते । जब वे कर्म उपभोग्य होते हैं तब उनका निमित्त पाकर यह आत्मा बँधन को प्राप्त होता है ।
रागरूप भाव न होने के कारण बंध का अभाव―हुआ क्या वहाँ दृष्टांत में? उस पुरुष के रागरूप भाव नहीं हो पा रहा है । तो रागरूप भाव न होने के कारण वह पुरुष बंधन में नहीं है इसी प्रकार यह ज्ञानी पुरुष भी रागरूप बंधन नहीं कर रहा है तो वह तो बंधन में नहीं है अथवा बड़ी आयु की भी स्त्री होनेपर भी यदि पुरुष के रागरूप भाव नहीं है तो वह स्त्री के बंधन में नहीं है । इस प्रकार वे कर्म उदय में आते हैं । उदय में आने पर यदि जीव के रागरूपी भाव नहीं है तो वह जीव बंधन को प्राप्त नहीं हो सकता ।
उदय की निष्फलताविषयक प्रश्नोत्तर―अब यहाँ एक प्रश्न ऐसा भी होता है कि क्या कर्म उदय में आ रहे हों और जीव के रागादिक विकार न होते हों? उत्तर―इस संबंध में दो दृष्टियों से जानना होता है । एक तो जब जघन्य गुण परिणमन वाला रागपरिणमन में आता है जैसे 10 वें गुणस्थान के अंतिम क्षणों में तो उस राग से रागादि कर्मों का आस्रव नहीं होता । किंतु यह बात हम सब जीवों में नहीं है, जो ऐसा घटित कर लें कि कर्म उदय में आते हैं तो आने दो, क्या परवाह है अपन राग न करें तो कर्मों से न बंधेंगे ऐसी स्थिति अपने लिए नहीं है । फिर भी जो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष हैं उनके सहज ज्ञान और सहज वैराग्य में ऐसी सामर्थ्य है कि उदयक्षण से पहिले उनके निर्मल परिणामों के निमित्त से स्तिबुक संक्रमण हो जाता है ।
स्तिबुक संक्रमण से उदय की परिस्थिति―उदय का टाइम है एक आवलि । यह मोटेरूप से कथन है। अर्थात् कर्मों की उस जाति की वर्गणाओं का आवलि पर्यंत निरंतर उदय चलता है पर किसी भी प्रकृति के निषेक के उदय का टाइम एक समय होता है । आवलि में असंख्यात समय होते हैं । आवलि में उस-उस जाति का परिणमन चलता है किंतु एक ही निषेक आवली पर्यंत उदय चले ऐसा नहीं होता है । आवलि का जो समय है उसके पहिले संक्रमण हो जाता है । चूँकि वह संक्रमण उदय की आवलि में ही होता है इसलिए उदय ही कहा जाता है तो संक्रमण होकर भी जो अन्य निषेक रूप से निकला होता है वह उदय कहलाता है । ऐसे उदय के होनेपर पूर्वनिश्चित में राग विकार न हो यह बात संभव है । यह करणानुयोग की बात कही जा रही है ।
राग का उपयोगभूमि में न आना संवर का कारण―द्रव्यानुयोग में बात यह है कि अपना उपयोग राग की ओर न करें तो कर्म न सतायेंगे । जैसे घर के लोग उद्दंड हो रहे हैं तो अपना उपयोग उनमें न लगाओ तो उनसे लगाव तुम पर न होगा । इसी तरह अंतरण में रागादिक का ऊधम मच रहा है, तुम अपना उपयोग उन रागादिकों पर न लगाओ तो उन रागादिकों के असर से तुम बच जाओगे । क्या हो सकता है ऐसा? हाँ, होता है । जब कोई ज्ञानी पुरुष केवल आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानने में लग रहा है, इसका काम तो जानना है ना, जानने का विषय किसी पर से नहीं बनाया जा रहा है किंतु यह निज से ही बनाया जा रहा है । उस समय चूंकि ज्ञानस्वभाव ही दृष्टि में आ रहा हैं तो राग का अंतरात्मा पर असर नहीं होता । अबुद्धिपूर्वक तो चल रहे हैं, पर अबुद्धिपूर्वक का कोई असर बुद्धि में नहीं होता ।
भावप्रत्यय के योग से द्रव्यप्रत्यय का सामर्थ्य―क्षोभ में आ जाये, आकुलता हो जाये, कोई चिंता हो जाये, यह असर स्वानुभवी पुरुष के नहीं हुआ करता है । तो रागभाव का अभाव होने पर ये द्रव्यप्रत्यय, उदय में आये हुए कर्म भी बंध के कारण नहीं होते । उदय से पहिले वे निरुपभोग्य होकर अपने-अपने गुणस्थानों के अनुसार उदयकाल को पाकर यथा जैसे-जैसे भोग्य होता है वैसे ही वैसे रागादिक भावों के द्वारा आयुबंध काल में 8 प्रकार के, और जब आयुबंध नहीं होता तब 7 प्रकार के ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों का बंध-होता है, किंतु सत्तामात्र से बंध नहीं होता ।
देवगति में आयुर्बंध का विभाग―ये कर्म बादरसांपराय तक निरंतर 7 प्रकार के बंधते हैं ? आयुकर्म हमेशा नही बंधता है । आयुकर्म कब-कब बंधता है? इसका गतियों का जुदा-जुदा नियम है । देवगति में जब आयु के 6 महीना शेष रह जाते हैं तब उसके त्रिभाग बनते हैं । अर्थात् चार महीने व्यतीत होने पर केवल 2 माह शेष रहे तब आयु बंधती है । जब आयु न बंधे तब 60 दिनों में 40 दिन गुजर गए, 20 दिन शेष रहे तब आयु बंधती है । तब भी न बंधे, तब 20 दिन के 3 भाग करें तब आयु बंधती है । तब भी न बंधे तो फिर उसके तीन भाग करें । इस प्रकार से 8 अब अवसर आते हैं । यदि 8 बार में भी न बंधे तो मरण समय में अवश्य बंधते हैं । इसी प्रकार नरकगति में अंतिम 6 माह में आठ अपकर्ष होते हैं ।
मनुष्यगति में आयुबंध का विभाग―भोगभूमि के जीवों में जो स्थिर भोगभूमि के जीव हैं, जैसे हैमवत, हरि, देवकुरु उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत᳭ । इन क्षेत्रों में रहने वाली भोगभूमि के जीवों का आयुबंध देवगति के जीवों की भांति होता है किंतु जो अस्थिर भोगभूमियाँ है, भरत और ऐरावत क्षेत्र में समय-समय पर भोगभूमियां आया करती हैं उससमय मनुष्य स्त्री पशु पक्षियों के जब आयु के 9 महीने शेष रह जाते हैं तब उसके 8 भाग किए जाते हैं और कर्मभूमि के सभी जीवों के उनकी पूरी आयु का त्रिभाग किया जाता है । जैसे किसी मनुष्य की आयु 60 वर्ष की है तो 40 वर्ष बंध नहीं होगा । 40 वर्ष बीतने के बाद में आयुबंध होगा । तब भी न बंधे तो शेष का त्रिभाग करते जाइये । इस प्रकार इसकी पूरी आयु का विभाग किया जाता है । जब आयु बंध हो रहा है उस समय इस जीव के 8 कर्मों का बंध चल रहा है किंतु जब आयुकर्म का बंध नहीं चल रहा है तब इसके 7 कर्मों का बंध निरंतर चलता है । इसी प्रकार तिर्यंचगति में आयुबंध का कालविभाग जानें ।
बंध के निमित्त के निमित्तपना में निमित्त होने से रागादि की बंधहेतुता―रागादिकभाव ही आस्रव हैं । इनका अभाव होनेपर जो उदय में आये हुए द्रव्यकर्म हैं अथवा सत्ता में हैं वे बंध के कारण नहीं हो सकते, इस कारण सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है । इस आस्रव के संबंध में एक अपूर्व बात और समझो कि नवीन कर्म जो आते हैं उनका निमित्तकारण साक्षात् रागादिक विकार नहीं हैं किंतु उदयागत कर्मवर्गणायें हैं । नवीन कर्मों का बुलाना, क्लेशों का आना, यह एक ही जाति वालों का काम है । ये चेतन तो विजातीय हैं, कर्मों की बिरादरी से भिन्न हैं, नवीन कर्मों के बंध का कारण तो उदय में आने वाले द्रव्यकर्म हैं ।
नवीन कर्मों को सीट देकर उदयागत कर्मों का निकलना―जैसे कभी रेल में ऐसा होता है कि किसी डिब्बे में कोई मुसाफिर सीट पर बैठे हुए किसी मुसाफिर से झगड़ा कर रहा हो, तुम मेरी जगह से हट जाओ, इस तरह से लड़ाई करता है पर सीट पर बैठा हुआ पुरुष कुछ बलवान है तो उसको सीट नहीं देता और उस विवाद में बैठे हुए को इतना क्षोभ होता है कि वह यह संकल्प ही कर लेता है कि मैं इसे सीट न दूँगा । उठते समय किसी दूसरे मुसाफिर को बैठा करके जाऊँगा । जब स्टेशन आता है तो वह उतरने में थोड़ा विलंब भी करता है । गाड़ी तो 15 मिनट ठहरेगी । दो चार मिनट में कोई नया मुसाफिर आने वाला है, खिड़की से उसे बुला लिया और अपनी सीट पर बैठाल दिया और बैठाकर चल दिया । तो जैसे उठकर चल देने वाला मुसाफिर नये मुसाफिर को अपनी सीट पर बैठाल कर चल देता है इसी प्रकार इस आत्मा की सीट से निकले हुए ये उदयागत कर्म नवीन कर्मों को अपनी सीट देकर निकला करते हैं । तो नवीन कर्मों के आस्रवण का निमित्त हुए उदयगत पुद्गलकर्म ।
नवीन कर्मों के आस्रवण के निमित्त के विषय में प्रश्नोत्तर―प्रश्न―ग्रंथों में तो स्पष्ट यह लिखा हुआ है व इसी ग्रंथ में आगे पीछे यह लिखा हुआ है कि नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्त है रागादिक विकार । उसका समाधान कैसे हो? उसका समाधान यह है कि नवीन कर्मों के आस्रवण के साक्षात् निमित्त तो उदयागत द्रव्य प्रत्यय ही हैं, किंतु उन उदयागत द्रव्यप्रत्ययों में नवीन कर्मों के आस्रवण का निमित्तपना आ जाये, इसके निमित्त होते हैं रागादिक विकार । अत: मूल तो रागादिक विकार ही हुए ना । उन रागादिक विकार का निमित्त पाकर उदयागत कर्मों में नवीन कर्मों के आस्रव करने का निमित्तपना आया । अत: यह बात प्रसिद्ध हुई कि नवीन कर्मों के आस्रव का कारण रागादिक विकार हैं ।
उदयागत कर्मों का जीवविकार में व नवीन कर्मबंध में निमित्तपना―ये उदयागत कर्म कैसा दुतर्फा काम कर रहे हैं? जैसे कोई दुष्ट पुरुष दुतर्फा लड़ाई लड़ता है, इसी प्रकार ये उदयागत कर्म आत्मा में रागादिक विकारों के भी कारण बन रहे हैं और उन ही रागादिक विकारों का निमित्त पाकर नवीन कर्मों का आस्रव करने में भी निमित्त बन रहे हैं । यों कर्मों का बंधन इस जीव के बड़ा विचित्र लगा हुआ है ।
अबंधकता की अपेक्षायें―यहाँ जो सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है वह अपेक्षा से कहा गया है । मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थान वाला सराग सम्यग्दृष्टि अबंधक है, मिथ्यात्व में सभी प्रकृतियों का बंध होता है, जो बंधयोग्य है किंतु सम्यग्दृष्टि के 43 प्रकृतियों का बंध नहीं होता, 41 का तो संवर है । इस चतुर्थ गुणस्थान वाले के 41 तो बंध व्युछित्ति वाले जिसको कि प्रथम और द्वितीय गुणस्थान वाले में बताया है । ऐसे इन 43 प्रकृतियों का उनको बंध नहीं है । शेष प्रकृति का बंध करते हुए भी वह सम्यग्दृष्टि जीव संसार का छेद करता है । संसार मेरा कटे ऐसी भावना उसके रहती है ।
सम्यग्दृष्टि के संसारच्छेद के कारण―सम्यग्दृष्टि का संसार कटता है उसके बाह्यकारण क्या है? एक कारण तो है शास्त्रज्ञान द्वादशांग का ज्ञान । यथार्थ ज्ञान तो कर्मबंध के विनाश का कारण है ही । दूसरा कारण है देव की तीव्र भक्ति होना, आत्मस्वरूप में तीव्र अनुराग होना । तीसरा कारण है अनिवृत्ति परिणाम । जैसा कि 9 वें गुणस्थान में होता है और सम्यग्दर्शन प्रकट होने के समय में अनिवृत्तिकरण परिणाम में होता है । क्षायिक सम्यक्त्व होने के समय भी अनिवृत्ति परिणाम होता है । अनंतानुबंधी के विसंयोजन के समय भी अनिवृत्ति परिणाम होता है । वह अनिवृत्ति परिणाम भी कर्मों का अबंधक है । एक मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व उत्पन्न करता है उस समय उसका अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है । वह जीव मिथ्यादृष्टि है अभी जब तक कि तीनों परिणाम चल रहे हैं । वह मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे-ऐसे कर्मों का बंध रोक देता है जिन कर्मों का बंध सम्यग्दृष्टि मुनि भी छठवें में नहीं रोक पाता है । इस अनिवृत्तिकरण परिणाम के बाद में सम्यग्दर्शन होने पर छठे गुणस्थान में उन कर्मों का बंध चल रहा है और मिथ्यादृष्टि जीव अनिवृत्ति परिणाम के समय उन कर्मबंधों को रोक देता है । ऐसी है अनिवृत्तिकरण परिणाम की विशेषता ।
केवलीसमुद्घात―कर्मों की निर्जरा करने का एक कारण है केवलीसमुद्घात । अरहंतभगवान के जब आयु की थोड़ी स्थिति रह जाये बाकी कर्मों के लाखों वर्षों की भी स्थिति हो उस समय स्वयं सहज उनके प्रदेश लोक भर में फैलते हैं, बिखर जाते हैं उस समय वे कर्म उनकी स्थिति का घात होकर केवल आयु के बराबर रह जाते हैं । तो संसार की स्थिति के घात का कारण यह भी है । उनमें से द्वादशांग भूत का ज्ञान तो है बहिर्विषयभूत, पर निश्चय से राग-द्वेष-मोह रहने में केवल चैतन्य परिणाम का अनुभव है । वही वास्तविक अवगम है । भक्ति की बात सम्यग्दृष्टि जीव के जो कि सराग सम्यग्दृष्टि हैं उनको तो पंचपरमेष्ठी की भक्ति उत्पन्न होती है, पर निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना रूप भक्ति होती है और अनिवृत्तिकरण परिणाम करणानुयोग की शैली में तो वह निश्चित ही है पर शुद्ध आत्मस्वरूप से निवृत्ति न हो, एकाग्र शुद्धतत्त्व में परिणति हो, इसको अनिवृत्ति परिणाम बोलते हैं ।
श्रामण्य के भेदरूप में दर्शन―निश्चय व्यवहार रूप द्वादशांग का अवगम, निश्चय व्यवहाररूप भक्ति और अनिवृत्तिकरण परिणाम―ये सब क्या है? सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्ररूप ही हैं । सो मुक्ति का मार्ग क्या है? तो चाहे इन शब्दों में कहो द्वादशांग का ज्ञान, भक्ति और अनिवृत्ति का परिणाम, चाहे इन शब्दों में कहो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । और चाहे एक शब्द में कहो श्रामण्य । यही मोक्ष का मार्ग है । यह वृत्ति सम्यग्दृष्टि के अंतरंग में बराबर चल रही है । इसके कारण इस सम्यग्दृष्टि को अनंत संसार का बंधक न होने के कारण निरास्रव कहा है । सम्यग्दृष्टि अंतरंग में प्रभुता का स्पर्श करता हुआ ज्ञानदृष्टि का आनंद लेता है । इससे कर्मों की संतति का छेद होगा और विलक्षण अलौकिक शांति उत्पन्न होगी ।
रागादि के अभाव से बंध का अभाव―ज्ञानी जीव के पहिले समय के बँधे हुए कर्म यद्यपि पूर्व के हैं तो भी उन कर्मों का कार्य राग-द्वेष मोहरूपी नहीं हो रहा है । इस कारण आस्रव के अभाव से वे द्रव्यकर्म बंध के कारण नहीं होते । पहिले अज्ञानावस्था में बहुत से कर्म बंध गए थे, वे पिंड रूप से तब से विद्यमान हैं क्योंकि उनका उदय जब उनकी स्थिति पूरी होगी तब होगा । सो जब तक उदय का समय नहीं आता तब तक वह सत्ता में ही रहता है, अपने सत्त्व को नहीं छोड़ता है तो भी ज्ञानी जीव के सर्व प्रकार से राग-द्वेष-मोह का अभाव है । अत: नवीन कर्मों का बंध नहीं हो पाता है ।
ज्ञान में बंधन की असंभवता―अंतर से देखो―ज्ञानी जीव के क्या अंतरंग से राग संभव है? नहीं । अंतर से राग ज्ञानी जीव के नहीं होता है । जैसे किसी ने पहिले जाना था रस्सी को देखकर कि सांप है तब तो उसे आकुलाहट थी, और जब जाना कि यह रस्सी है, इसके बाद भी यदि कोई कहे कि हम तुम को इनाम देंगे, तुम जैसे पहिले घबड़ाते थे उस तरह से घबड़ाने का नाटक दिखा दो । तो वह घबड़ाने का नाटक दिखाये भी तो अंतर में सच्चा ज्ञान है कि यह सांप नहीं है, यह तो रस्सी है । तो क्या अंतर से उसे घबड़ाहट हो सकती है? नहीं । इसी प्रकार कर्मोदय की प्रेरणा से यद्यपि बाह्य प्रवृत्ति ज्ञानी पुरुष के होती है किंतु जैसे यह ज्ञात हो गया है कि मेरा तो मात्र मैं ही हूँ । मेरा जगत में अन्य कोई नहीं है, ऐसा जिसके विश्वास है वह बाह्य की कुछ भी परिणति हो, क्या उसके अंदर शंका और भय हो सकता है? नहीं । यदि भय और शंका अंदर में है तो समझो कि उसके सम्यक्त्व नहीं है । सम्यक्त्व गुण के कारण बंध नहीं होता है इस दृष्टि से यह प्रकरण समझना । ज्ञानी जीव के राग-द्वेष-मोह होना असंभव है और इस ही कारण इस ज्ञानी के बंध नहीं होता, क्योंकि बंध का कारण तो राग-द्वेष-मोह ही होता है । इसी विषय में अब दो गाथाओं को एक साथ कहेंगे ।