वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 6
From जैनकोष
आभात्यखंडमपि खंडमनेकमशं भूतार्थबोधविमुखव्यववहारदृष्ट्यां ꠰
आनंदशक्तिदृशिबोधचरित्रपिंड शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ꠰꠰6।।
जानकारी की दो पद्धतियाँ―जानने की दो पद्धतियां होती हैं―एक तो विकल्प न करके, भेद न करके वस्तु को पूरा एक नजर में ग्रहण कर लेना, इस पद्धति का नाम है भूतार्थ पद्धति । जो पदार्थ स्वयं स्वरूप से सहज जैसा है, वैसा ही पूर्ण नजर में लेने को कहते हैं भूतार्थ पद्धति, और दूसरी पद्धति है, पदार्थ को विश्लेषित करके उसके संबंध में नाना प्रकार से तर्क वितर्क बनाकर और उसके अंश अंशों को जान जानकर जो एक ज्ञान बनाया होता है वह है भेद पद्धति का ज्ञान, जिसे कहते हैं व्यवहारदृष्टि । तो जब यह जीव ज्ञानी पदार्थ में भेद न करके उसको अभेदरूप जान रहा है, तब पदार्थ अखंड प्रतिभास होता है । एक मोटा दृष्टांत समझ लीजिये कि उसी दिन का उत्पन्न हुआ बालक आंख खोलकर देख तो रहा है कमरे के समस्त पदार्थों को, जो कि उसकी नजर के सामने हैं, लेकिन उन पदार्थों के बारे में वह भेद नहीं कर पाता कि यह अमुक चीज है, इस रंग की, इस ढंग की है । यह एक दृष्टांतमात्र है । उससे कहीं यह न परख लेना कि ऐसा अबोध, अज्ञान, नासमझ का जो ज्ञान है वह होता है ऐसा ज्ञान । यहाँ तो वस्तुस्वरूप के बारे में सम्यक᳭रूप से जो कुछ अखंड ज्ञान होता है, वह नाना प्रकार की समझों के बाद होता है । तो एक तो यह पद्धति हुई कि पदार्थ को जाना और पूरे अखंड रूप से जाना । उसमें कोई द्रव्य पर्याय आदिक का भेद न करके सीधा जान लें तो जब भूतार्थपद्धति से जानते हैं तो वहाँ अखंड प्रतिभास होता है पदार्थ । और भी दृष्टांत लें―जिस पदार्थ को हम रोज-रोज देखते जानते रहते हैं, उस पदार्थ को जानते हैं हम, जब तब कोई भेद न करके, विकल्प न करके सीधा एक नजर में जान लेते हैं और चल देते हैं । और कोई पदार्थ नया जानने में आ रहा हो तो उसको बड़े भेदपूर्वक विश्लेषण करके उसके बारे में कुछ जानकारी बनाते हैं ।
भूतार्थ दृष्टि में अखंड तत्त्व―जिस पुरुष ने अपने चैतन्यरूपमात्र अमूर्त चिद्घन अंतस्तत्त्व का बराबर परिचय किया है, अनुभव भी किया है वह तो एक ही नजर में पूरे उस अखंड आत्मा के दर्शन कर लेता है । उसे यह आत्मतत्त्व अखंड परिपूर्ण अनुभूत हो जाता है । यह है भूतार्थदृष्टि की कृपा । लेकिन जो लोग भूतार्थ से विमुख, प्रतिकूल व्यवहारदृष्टि में लगे हुए हैं, उनको यह तत्त्व खंडरूप प्रतिभात होता है । आत्मा है, देखो उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है, श्रद्धान है शक्ति है, देखो । उसमें सहज अनंत गुण हैं । ऐसी चर्चा करने वाले को लोग कहते हैं कि यह बहुत समझदार है, ऊँची कथनी करता है । देखो आत्मा के कैसा टुकड़े कर करके एक-एक अंशों को जान-जानकर बता रहा है । आत्मा में देखो, यों अनंत गुण हैं, किंतु इस जानकारी को व्यावहारिक जानकारी कहते हैं । अभी परमार्थभूत अंतस्तत्त्व की जानकारी नहीं कही जायेगी । इतना सर्व कुछ समझने के बाद जब अपना वह आशय, अपनी दृष्टि अपने अभेद रूप बनाता है कि जहाँ यह शक्तिभेद, गुणभेद नजर नहीं आता, सीधा ही यह चैतन्य स्वरसनिर्भर अंतस्तत्त्व ही एक नजर में आ गया, वह है परमार्थभूत विषय । वह तत्त्व अखंड है ।
भेदपद्धति से जानकारी की कला―जब भूतार्थ बोध से विमुख जो व्यवहारनय है, जब उसकी दृष्टि बनाते हैं, तो उस व्यवहारदृष्टि में यह आत्मा खंडरूप प्रतिभात होता है । जैसे जाना चित्स्वरूप आत्मा, तो नजर में रखकर सारा ही जान लिया । जानने के अभ्यास में, जानने की तैयारी में और उसको विशेषरूप से समझने में तो कुछ विलंब लगता है, लेकिन अखंड चिन्मात्र इस आत्मतत्त्व को परिपूर्ण जान लेने में विलंब नहीं लगता । वह तो एक झांकी में विदित होता है । जान लिया यह चिन्मात्र आत्मा, अब इसको समझाने के लिए यह कहा जायेगा कि यह आत्मा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप है । सभी पदार्थों में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हुआ करता है । जैसे―एक पेन्सिल है, उसका द्रव्य वह है जो हाथ में लिए हैं, जो यह पिंड है । इसका क्षेत्र वह है कि जितने में यह स्वयं अपने को व्याप रही है, जितने में अवगाहित है वह उसका क्षेत्र है । इसकी जो वर्तमान परिणति है, रूप, रस, गंध, स्पर्श की, वह इसका काल है, जैसा भी नया पुराना आदि उसका रूप है, स्पर्श है, वह उसका काल है और इसमें उन सब परिणमनों में जो शक्ति पड़ी हुई है, भावरूप अनादि अनंत शाश्वत् वह उसका भाव है । तो प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से होती है । यह आत्मा भी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा एक ही नजर में देख लिया गया अखंड । इसका जब प्रतिपादन करेंगे तो कहना होता है कि यह आत्मा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से परख में आता है । यह आत्मा द्रव्य से कैसा है? गुण पर्याय वाला है । जैसे इन स्कंधों में द्रव्य क्या है? उन अनेक छोटे-छोटे संघों का पिंड, परमाणुवों का पिंड, तो यह आत्मा क्या है? ज्ञान दर्शन आदिक अनंत गुण और उनकी अनंत पर्यायें, इन सबका जो पिंड है वह आत्मा है । यद्यपि आत्मा अखंड है और उसको समझने के लिए विवश होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद करके, उसके टुकड़े करके समझाया जा रहा है, लेकिन समझने की सीधी पद्धति यही है ना । तो यों भी समझ में आता है कि ओह । अनंत गुणा और उनकी अनंत पर्यायें इन सबका जो पिंड है वह है आत्मा ।
रुचि के अनुसार वृत्ति में अंतर―अब यहाँ रुचि का अंतर हो जाता है । जिसको इस अखंड आत्मतत्त्व में रुचि है वह तो परमार्थ अखंड आत्मा को जानकर इस व्यवहार भेद की उपेक्षा करता है । अरे समझने के लिए जबरदस्ती भेद किया गया है । भेद है कहां उस अखंड आत्मा में । अरे जिसको भेद में ही चैन पड़ा करता है ऐसा पुरुष इस गुण को, पर्यायों को, भेदरूप से निरखकर व्यवस्था बनाता है । इसका पिंड है सो आत्मा । आत्मा और है क्या? वह उस परमार्थभूत अखंड आत्मा की उपेक्षा करके इन भेद की चीजों को महत्त्व देता है । बोल-बोल में अंतर भरा है । कोई कहे कि मैं मंदिर जाऊंगा । तो इसमें तीन शब्द हैं । यदि वह अपनी बोली में मंदिर शब्द को जोर से बोलता है और में जाऊंगा इन शब्दों को धीरे बोलता है तो उसका आशय दूसरा हो जायेगा और कोई मैं और मंदिर इन शब्दों को धीरे से बोलता है और जाऊंगा को जोर से बोलता है तो उसका अर्थ दूसरा हो जाता है, कोई मैं को जोर से बोलता है और मंदिर जाऊंगा धीरे से बोलता है तो उसका अर्थ दूसरा हो जायेगा । शब्द वे तीन हैं, पर धीरे और जोर से बोलने में एकदम फर्कसा हो जाता है कोई झगड़ा हो रहा हो और मंदिर जाने में बड़ी आपत्ति का मुकाबला करना पड़ रहा हो । कोई आक्रामक उस मंदिर में दखल देने को आया हो और उस समय लोग विचार करते हों कि क्या किया जाये, और वहाँ कोई बोल उठे कि मैं मंदिर जाऊंगा । उसने मैं शब्द को जोर से बोला तो उसका आशय दूसरा बना ना । घटना किस प्रकार की है उसका इसमें अनुमान हुआ ना । कभी घर में कोई काम दूकान का आ गया और भाई समझाता है―भाई जल्दी चले जावो, यह काम पड़ा है और समय था उसका मंदिर जाने का, तो वह मंदिर को जोर से बोलकर कहता है कि मैं मंदिर जाऊंगा । वह हमारा मुख्य काम पड़ा है । तो आशय जुदा आ गया ना? तो बोल-बोल के भाव में, रफ्तार में अनेक आशय भरे पड़े हैं । शब्द की बात तो अलग जाने दो ।
रुचि के अनुसार बोधपद्धति का आविर्भाव―यहां दो प्रकार की जानकारियां बता रहे हैं । एक तौ अभेदपद्धति से हुई जानकारी और एक भेदपद्धति से की गई जानकारी । यहाँ यह कह सकते हैं कि अभेदपद्धति से तो जानकारी हुई है और भेद पद्धति से जानकारी की गई है । होने में और की जाने में अंतर है । जिस पुरुष को अभेदपद्धति की जानकारी में रुचि है वह दोनों पद्धतियों की जानकारी सामने रखकर, अभेद पद्धति का महत्त्व देने वाली वाणी में बोलेगा और जिसमें भेदवाद की ही रुचि जग रही है वह पुरुष इन दोनों प्रकार की जानकारियों में से भेदपद्धति की जानकारी का महत्त्व देने वाली वाणी में बोलेगा । चूंकि इस भेदपद्धति को जानकारी ने उस अखंड अभेद की जानकारी में सहयोग ही दिया सत्य आशय वाले पुरुष को, अतएव दोनों जानकारियों का क्षेत्र यह उपदेश क्षेत्र बन जाता है, किंतु जिनकी विपरीत दृष्टि है उनकी भेदपद्धति की जानकारी से अभेदपद्धति की जानकारी को सहयोग नहीं मिलता वह तो उतना ही खिंच-खिंचकर दूर पहुँचता जाता है । जिस पुरुष में आत्महित की रुचि जगी हो उस पर तो सब वश चल सकता है और जिस पुरुष को आत्मकल्याण की रुचि नहीं जगी है उस पुरुष पर कोई वश ही नहीं चल सकता । जैसे व्यवहार में अनेक लोग यह उद्यम करते हैं, कोशिश करते हैं कि शास्त्र सुनने ज्यादह लोग क्यों नहीं आते, आना चाहिए, तो क्यों इसका विकल्प करते, क्या जरूरत पड़ी, जिनको आत्महित की रुचि है वे आना छोड़ नहीं सकते और जिनको आत्महित की रुचि ही नहीं है, बहुत यत्न करने के बाद यदि कुछ सफलता मिलती है तो वह भी ऊपरी सफलता है वास्तविक ढंग से अब जिनवचनों का लाभ उठा सके वह बात प्राप्त नहीं होती, पर हाँ संभावना तो है । आज यदि अपात्र हैं तो कभी पात्र भी हो सकते हैं ।
तत्त्वरमण की रुचि पर निर्भरता―अब प्रकृत बात पर चलो । जिनको आत्महित की रुचि है वे व्यवहारपद्धति से भेद की जानकारी भी करें तो उनको यह जानकारी अभेद जानकारी की पात्रता का कारण बना देती है । और जिनको आत्महित की रुचि नहीं है उन पर वश नहीं चल सकता । कितना ही समझाया जाये और गुण पर्यायों को भिन्न-भिन्न करके, वे तो भेद का ही पाठ सीखेंगे । अभेद की ओर उतरने का अपना आशय न बनायेंगे, क्योंकि आत्महित की उन्हें रुचि नहीं है । उन्हें तो लौकिक जानकारी बढ़ाकर दुनिया को बताने की रुचि है । रुचि एक ऐसा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि जिसके आधार पर हमारी सारी गति निर्भर है । जैसे कि नाव के खेने बाले तो चाहे कई लोग हों पर कर्णधार केवल एक ही होता है । पानी में सबसे पीछे एक कोने पर बैठा हुआ पुरुष जो कि एक ऐसे डंडे को लिए है जिसके नीचे हाथी के कान की तरह पड़ा लगा रहता है उसको कहते हैं कर्ण और उसको जो धारण करे उसे कहते हैं कर्णधार । नाव किस ओर ले जाना है यह खेने वालों पर अवलंबित नहीं है बल्कि कर्णधार पर अवलंबित है । खेने वाले तो सिर्फ वेगपूर्वक खेते जायेंगे । अथवा जैसे रेलगाड़ी चलाने में ड्राइवर बड़ा होशियार है । खूब तेज गति से चलाता है, एक घंटे में 80 मील चलाता है, यह तो होशियारी है, पर जहाँ जंकशन है बहुतसी लाइन है तो किस लाइन पर हम गाड़ी ले जाये, यह उस ड्राइवर के हाथ की बात नहीं है, यह तो पैटमैन के हाथ की बात है । इसी प्रकार हम किसी ओर बढ़ता चाहें बढ़ लें, पर किस ओर बढ़े, इस दिशा का अनुसंधान करा देना यह रुचि का काम है, यह हमारी चारित्र परिणति का काम नहीं है । चारित्र परिणति तो वेग से बढ़ा देगी, रमो खुद डटकर । कहां रमें, विषयों में रमें या आत्मा के शुद्ध चित्स्वरूप में रमें, यह रुचि का काम है । तो रुचि पर हमारी गति निर्भर है ।
अखंडतत्त्व की रुचि वाले को अखंड तत्त्व की प्रतीति एवं तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त खंड करने की विधि―जिस पुरुष ने इस अखंड अंतस्तत्त्व की रुचि की है उसको एक ही झलक में अखंड अंतस्तत्त्व दृष्टि में आता है । देखो―यह आत्मतत्त्व पूरा अखंड निर्विकल्प देखने के लिए कहा जा रहा है । इसमें मनुष्यों को बड़ा जोर पड़ रहा है इस बात को समझने के लिये । किंतु पशु पक्षी, जो सम्यग्दृष्टि होता है वह अपने इस अखंड आत्मा को एक नजर में पूरा ले लेता है । यहाँ हम मनुष्य लोकों में से अनेक लोग वर्णन कर-करके, सुन-सुन करके थक जायेंगे, सारा जीवन बितायेंगे, उसके एक-एक भेद पर बड़ा विचार विमर्श करेंगे तब भी वह अखंड चित्स्वरूप की दृष्टि प्राप्त हो, न हो और इन सम्यग्दृष्टि पशुपक्षियों के तो भेदपद्धति के ज्ञान करने का माद्दा अधिक नहीं है, किंतु अभेदपद्धति, अखंड आत्मस्वरूप की झांकी लेने का ज्यादह माद्दा है । तो जब भूतार्थपद्धति से ज्ञान किया जाता है तब यह आत्मा एक अखंड प्रतिभास में आता है, और जब भूतार्थ बोध से विमुख, प्रतिकूल विरुद्ध व्यवहार की दृष्टि में आता है तब यह आत्मा खंड-खंडरूप प्रतिभास होता है । अब कैसा अखंड और कैसा खंड इसकी बहुतसी कक्षायें बनेंगी । जैसे सर्वप्रथम कक्षा यही है, यह आत्मा एक अखंड है, अब उसमें व्यवहारदृष्टि से भेद किया तो यह भेद आया कि आत्मा द्रव्यदृष्टि से गुणपर्याय वाला है । आत्मा क्षेत्रदृष्टि से असंख्यातप्रदेशी है । आत्मा कालदृष्टि से कषाय अकषाय परिणमन आदि बाला है, और भावदृष्टि से आत्मा अनंतशक्ति वाला है, यों भेद किया गया । अब इसके बाद बही खंड बना लिया जायेगा जिसको अभी अखंड में दिखाया है तो उनके खंड किस प्रकार बनेंगे? इसको कहेंगे ।
द्रव्यदृष्टि में जीव के अखंडत्व व खंडत्व का प्रतिभास―अखंड जीव में व्यवहारदृष्टि से खंड करने की विधि में यह कहा जा रहा है कि जीव अखंड है । फिर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप है । द्रव्य से जीव है, क्षेत्र से जीव है, काल से जीव है और भाव से जीव है । यों खंड करने के बाद अब इसी सीमा में अखंडता मानकर कि जीव द्रव्य से अखंड है, क्षेत्र से अखंड है, काल से अखंड है, और भाव से अखंड है । यों अब खंड किए गए उन चार भावों में अखंडता निरख करके अब एक खंड के भी खंड में चलिए । जीव द्रव्यत: अखंड है । जो द्रव्यत: अखंड है उस अखंड जीव द्रव्य में अब यह देखा जा रहा है कि द्रव्य होता है गुणपर्यायात्मक । द्रव्य में अनंत गुण हैं और उनकी अनंत पर्यायें हैं । सो यद्यपि द्रव्य गुणपर्यायात्मक होता है, किंतु उन गुण पर्यायों में से गुण तो हैं शाश्वत और पर्याय होती है अनित्य । तो चूंकि द्रव्य के निरखने पर शाश्वतपना देखा गया था और अब उसके खंड भी करिये शाश्वतपने की दृष्टि का उल्लंघन न करके । यह जीव द्रव्य ज्ञान की अपेक्षा सत् है । दर्शन, चारित्र आदिक की अपेक्षा सत् है तो अब ये खंड हो गये । खंडों में परस्पर भिन्नता होती है तभी ही भेद कहला सकते हैं । जैसे जीव के भेद कीजिये―मुक्त और संसारी । तो मुक्त और संसारी इन दोनों में परस्पर कुछ भेद हो तब तो जीव के भेद कहलाये । यदि मुक्त और संसारी भी परस्पर में कुछ भेद न रखें तो जीव के भेद ये नहीं कहे जा सकते । तो इस प्रकार जब हम उस एक जीव के खंड करते हैं तो प्रत्येक खंड में परस्पर भेद होना चाहिए । ज्ञानदृष्टि से जीव का जो स्वरूप हे वह स्वरूप दर्शन चारित्र आनंद आदिक गुणों की दृष्टि से नहीं है । इसी प्रकार जो उन गुणों की दृष्टि का स्वरूप है सो ज्ञानगुण की दृष्टि का स्वरूप नहीं है । यों जीव अब अनेक गुणों की अपेक्षा से खंड-खंड नजर आया । यह है व्यवहार दृष्टि । अखंड होनेपर भी खंड का दर्शन करना इसका अर्थ यह है कि भूतार्थ पद्धति से जाने गए तत्त्व में भूतार्थ से प्रतिकूल व्यवहारदृष्टि के किये जाने पर खंड प्रतीत होना । अब देखिये―अखंड जीव और ज्ञान जीव, दर्शन जीव, चरित्र आदिक जीव इस प्रकार खंडों से जाने गये जीव इन दोनों में भी परस्पर विरुद्धता है । जीव की खंड स्वरूप की प्रतीति के साथ जो जीवस्वरूप है वह अखंडदृष्टि से जीवस्वरूप नहीं है तथा अखंडदृष्टि में जो जीवस्वरूप है वह खंडदृष्टि में नहीं है । तो जब इन दृष्टियों के विषय में परस्पर विरोध हुआ तो इन दृष्टियों में भी परस्पर विरोध हुआ तो जो स्वरूप भूतार्थदृष्टि का है वह स्वरूप व्यवहारदृष्टि का नहीं है । यों भूतार्थबोध से विमुख व्यवहारदृष्टि में यह अखंड जीव खंड स्वरूप विदित होता है ।
क्षेत्रदृष्टि में जीव के अखंडत्व व खंडत्व का प्रतिभास―अब क्षेत्र की अपेक्षा से जीव अखंड है अर्थात् जीव का जो निजी क्षेत्र है, अर्थात् स्वयं खुद जितना बड़ा है वह उसका है एक अखंड क्षेत्र । तभी जीव में ऐसा नहीं होता कि सुखपरिणाम जीव के आधे हिस्से में हो और आधे में न हो । या चिंता दुःख शोक कुछ भी हो तो जीव के थोड़े हिस्से में हो और अन्य हिस्से में न हो, ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि वह जीव एक अखंड है, अखंड क्षेत्र स्वरूप है तो अखंडक्षेत्री जीव में व्यवहारदृष्टि करके अर्थात् उसका जो एक बड़प्पन है या जो अपने आपमें विकृत है उसको निरखकर प्रदेशप्रमाण को जब दृष्टि में रखकर प्रदेशों के भेद करते हैं, तो आकाश के एक-एक प्रदेश बराबर आत्मा का भी एक-एक प्रदेश विदित होता है । तो यों आत्मा में असंख्यात प्रदेश हैं । यों असंख्यात प्रदेशों के रूप में देखना यह अखंडक्षेत्री आत्मा का खंड करना है । अब इस खंड किए गए प्रदेश में परस्पर किसी भी प्रकार से भिन्नता है या नहीं? अगर उन असंख्यात प्रदेशों में परस्पर में किसी भी प्रकार भिन्नता नहीं है तो वे असंख्यातप्रदेश न कहे जा सकेंगे, किंतु एक प्रदेशमात्र हो जायेंगे । अतएव कल्पना में आता है कि हाँ हैं वे अनेक प्रदेश लेकिन उन अनेक प्रदेशों का वजूद कुछ अलग-अलग है ही नहीं । प्रदेश वहाँ नाना नहीं हैं । एक पदार्थ की दृष्टि से तो वह एक क्षेत्रात्मक हैं तो अब इस जगह अखंड और खंड इन दोनों के बीच अस्तिनास्ति तको । अखंडक्षेत्रीय आत्मा को निरखकर जो अखंड क्षेत्र सत्त जाना गया है वह सत्त्व खंडक्षेत्र की दृष्टि में नहीं है, और खंड क्षेत्र की दृष्टि बनाकर जो सत्त्व समझा गया है, वह अखंड क्षेत्री जीवदृष्टि में सत्त्व नहीं है । इस तरह विषयभेद हुआ और नय भेद हुआ । भूतार्थदृष्टि में यह जीव अखंड है, तब भी भूतार्थ भेद से विमुख दृष्टि में यह जीव खंडरूप है ।
तिर्यरूप काल की दृष्टि में जीव के अखंडत्व व खंडत्व का प्रतिभास―अब कालदृष्टि से जीव के अखंड और खंड का निर्णय करिये । कालदृष्टि में दो प्रकार की पद्धतियाँ चलेगी । एक तो यों कि चूंकि पदार्थ अनंत गुणात्मक है, सदा एक साथ एक ही समय । तब जितने गुण हैं उतने ही उसके परिणमन हैं । जैसे जीव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रद्धान, आनंद आदिक अनेक गुण हैं तो क्या उतने ही सारे परिणमन एक साथ नहीं हैं, वे हैं । जीव में ज्ञान काम कर रहा, श्रद्धान काम कर रहा, चारित्र, आनंद भी काम कर रहा, सबके परिणमन चल रहे । तब एक ही समय में परिणमन दृष्टि से देखने पर भूतार्थ की दृष्टि से देखा गया तो जीव एक परिणमन में है ꠰ क्या बन रहा है जीव का? जो बन रहा है वह सब मात्र एक ही पर्याय है । द्रव्य की एक समय में एक ही तो पर्याय होती है । तो काल की दृष्टि से वहाँ अखंड काल समय में आया जीव का एक परिणमन, पर उस ही परिणमन में जब व्यवहार लगाया तो देखो इस एक परिणमन में ज्ञानपरिणमन भी है, दर्शनपरिणमन भी है, चारित्रपरिणमन है, आनंद परिणमन है, यों अनेक परिणमन हैं । उन परिणमनों में परस्पर किसी दृष्टि का भेद है अथवा नहीं? किसी दृष्टि का भी भेद नहीं है तो वह ज्ञानपरिणमन, दर्शनपरिणमन, चारित्रपरिणमन, ये नाना नहीं कहला सकते । पर सर्वथा भेद नहीं । सत्त्व अलग है ही नहीं । अब जरा अखंडपरिणमन और खंडपरिणमन, तिर्यक् अखंड परिणमन और तिर्यक् खंडपरिणमन याने एक ही समय में होनेवाले परिणमन इन परिणमनों में मुकाबला कीजिए । जब भूतार्थदृष्टि से हमने जीव में अखंडपरिणमन देखा तो वहाँ जो स्वरूप विदित हुआ वह स्वरूप खंडपरिणमनों के मूड में रहने वाले जीव के लिए असत् है । इसी प्रकार खंडपरिणमनों की दृष्टि बना-बनाकर जीव के बारे में जो सत्त्व समझा जा रहा है वह सर्व भूतार्थदृष्टि से अखंडपरिणमन निरखने वाले जीव के आशय में असत् है । तो यों भूतार्थ बोध की दृष्टि में यह जीव काल दृष्टि से अखंड विदित हुआ तो भूतार्थ बोध से विमुख दृष्टि में यह जीव कालदृष्टि से अनंत परिणमन रूप बनेगा, क्योंकि गुण अनंत हैं ।
ऊद᳭र्ध्वतारूप काल की दृष्टि में जीव के अखंडत्व का प्रतिभास―अब कालदृष्टि की दूसरी पद्धति पर आइये―एक जीव में पूर्वापर भूत भविष्य के काल में अनेक परिणमन होते हैं ना ? एक जीव पहिले कुछ था, अब कुछ है, आगे कुछ होगा तो एक जीव में अनंत पर्यायें हैं क्रम से भूत भविष्यत वर्तमान की अपेक्षा से । पर उन सब अनादि अनंत पर्यायों को जीव पर्यायदृष्टि में निरखने पर वे सब पर्यायें एक जीवपर्याय सामान्य में अखंड बन गयीं । जैसे जिन पुरुषों का किसी एक पुरुष में प्रेम नहीं है ममता नहीं है, तो वे नाना पुरष उस एक व्यक्ति में नाना परिणतियां इष्ट, अनिष्ट, भले, बुरे आदिक ढंगों से देखेंगे, पर उस पुरुष की मां उस व्यक्ति में चाहे कुछ भी बात बनी हो बचपन, जवानी, बुढ़ापा आदिक की, पर उन सबके बीच वह एक पुत्रत्व पर्याय के रूप में ही देखा करती है । उस मां को उस व्यक्ति की इष्ट, अनिष्ट, भले, बुरे, आदिक नाना परिणतियों के खास विकल्प नहीं होते । यह दृष्टांत अतीव मोटा दिया है । तो जीवद्रव्य की भूतभविष्य की अनंत पर्यायों को एक परिणमन सामान्य की दृष्टि से देखा तो जीव क्या? बस यह सब पर्यायों का समूह मात्र एक यह जीव यों अखंड दृष्टि से एक परिणमनमात्र नजर आया । और जब विशेष व्यवहारदृष्टि में आते हैं तो भूत परिणमन भविष्यपरिणपन कैसे कहलायेंगे ꠰ प्रत्येक क्षणों के एक-एक परिणमन जीव में न्यारे-न्यारे हैं । अब यह निरखिये कि उन अनंत समयों के अनंत परिणमनों में परस्पर भेद है अथवा नहीं? भेद तो नहीं है । एक जीव की पर्यायें हैं, पर कथंचित् भेद हैं, भिन्न समय में हुए हैं । उन पर्यायों का भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ा है । फिर भी वे सब एक जीव परिणमन में हैं । अब जरा उस अखंड एक कालपरिणमन और खंडभूत अनंत परिणमनों में मुकाबला करिये । भूतार्थदृष्टि से निरखने पर कालदृष्टि की प्रमुखता में यह एक जीव एक अखंड पर्याय में दृष्ट हुआ । पर जब व्यवहारदृष्टि में चलते हैं तो इस जीव के ये अनंत परिणमन हैं । तब अखंड दृष्टि में परिणमन को देखने वाले जीव के आशय में खंडपरिणमन वाला सत्त्व नहीं है । खंडपरिणमन की दृष्टि में रहने वाले पुरुष के आशय में अखंडपरिणमन वाला सत्त्व नहीं है । यों भूतार्थदृष्टि में यह अखंड आया तो भूतार्थबोध से विमुख दृष्टि में यह जीव खंडरूप ज्ञात हुआ ।
भाव दृष्टि में जीव के अखंडत्व व खंडत्व का प्रतिभास―अब भावदृष्टि से जीव की अखंडता और खंडता का दर्शन करें । यह जीव एक स्वभावात्मक है । एक स्वभाव को चित् शब्द से कहा गया है । जीव में कौनसा भाव है? असाधारण भाव साधारण भाव की यहाँ चर्चा नहीं की जा रही क्योंकि उससे अखंडता और खंडता न बतायी जायेगी । जीव एक अखंड चैतन्य स्वभावमय है । पर इतना मात्र कहने पर समझ में कुछ आया क्या? जन साधारण को इससे कुछ समझ में नहीं आया । जब उस अखंड एक स्वभाव में भी व्यवहारदृष्टि से भेद करके समझाया जा रहा है कि यह ज्ञान भावस्वरूप है, दर्शनभाव स्वरूप है । यों गुण की दृष्टि से एक स्वभाव के रूप में अखंड होने पर भी यह जीव नाना गुण शक्तियों की अपेक्षा से खंडरूप समझाया जा रहा है । तो उन अखंड खंडों में ज्ञान दर्शन आदिक स्वभावों में कथंचित् भेद समझ में आता है या नहीं? हाँ स्वरूप से तो भेद आया । जो जानकारियों का आविर्भाव करे सो ज्ञान गुण, जो आल्हाद के अनुभव का विस्तार करे सो आनंद गुण, जो किसी भी बात में रमकर रह जाये, ऐसा काम करे सो चरित्र गुण, जो किसी एक ओर ही ध्यान जमा दे, टकटकी लगा दे, रुचि बना दे वह है श्रद्धा गुण । तो इन गुणों के जब स्वरूप नाना विदित हो रहे हैं तो, है यह खंडरूप, फिर भी वे सर्व कोई अपना स्वतंत्र सत्त्व नहीं रख रहे हैं । सब कुछ वह एक ही जीव है । अब अखंड स्वभाव से परखा गया जीव और खंड-खंड ज्ञान दर्शन आदिक गुणों का दर्शन करके परखा गया जीव―इन दोनों में तारतम्य से देखिये । जब भूतार्थ दृष्टि में रहने वाला ज्ञानी पुरुष इस अखंड चित्स्वभाव को, जीव को निरख रहा है तो उसके लिये ज्ञान दर्शन आदिक गुणों के रूप से, खंड-खंड भावों के रूप से समझ में आने वाला जीव का सत्त्व उसकी दृष्टि में सत्त्व नहीं है और इसी प्रकार खंडखंड रूप से नान दर्शन आदिक अनेक गुणों के रूप से परखा गया जीवसत्त्व, खंडदृष्टि में परखा गया जीवसत्त्व से विविक्त है और उसकी दृष्टि में यह खंडभूत सत्त्व नहीं है । यों भूतार्थबोध की दृष्टि से तो एक यह अखंड चित्स्वभावमय जीव दृष्टि में आता है, पर भूतार्थबोध से विमुख वृष्टि में यह जीव खंडरूप समझ में आता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व के संबंध में एकानेकत्व प्रकाश―यह जीव अखंड है और एक है । तिस पर भी व्यवहारदृष्टि से एक ही जीव अनेक रूप से समझ में आता है, अथवा एक चैतन्यस्वभाव करके निरखा गया जीव एक है, सर्वत्र । लेकिन जब व्यक्तितत्त्व पर दृष्टि दें तो ये जीव अनंत ज्ञान में आ रहे हैं । तभी तो जिन दार्शनिकों को एकत्व से प्रेम हुआ उन्होंने समस्त जीवों को ही क्या, समस्त अजीवों को ही चेतन अचेतन समस्त पदार्थों को एक ब्रह्मरूप कह डाला और जिनको इस अनेकत्व से प्रेम हुआ उन्होंने एक ही जीव में एक ही मिनट में चूंकि अनगिनते ज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं तो वे प्रत्येक एक-एक ज्ञान आत्मा है । इस तरह एक आत्मा में भी एक स्वीकार न करके एक मिनट में यदि उसने हजार ज्ञान पैदा किया है तो वहाँ भी हजार आत्मा हैं, न कि एक आत्मा ऐसा मान डाला । यों क्षणिक ज्ञान क्षणों में प्रत्येक में एक-एक आत्मा माना है, पर स्याद्वाद दृष्टि से जितने में अनुभव हैं उतने एक-एक जीव हैं और उस एक जीव में जितनी भी ज्ञान की परिणतियां उत्पन्न होती हैं वे उतने जीव नहीं हैं । वह सब तो इस जीव की एक-एक दशा है । एक-एक करके अनेक दशायें हैं । यों जीव एक होने पर भी व्यवहारदृष्टि से अनेकरूप मालूम होता है । इसी प्रकार यह जीव अनंश है । इसके किसी भी प्रकार अंश नहीं किए जा सकते निरंश है तिस पर भी अनेक विवक्षा से व्यवहारदृष्टि में इस जीव के अंश किए जाते हैं, तभी ये नाना गुणोंरूप, गुण पर्यायोंरूप अनेकरूप से दृष्टिगत होते हैं यों यह शुद्ध सहजपरमात्मतत्त्व जिसकी भावना से निर्मल पर्यायों की संतति बह उठती है, जिसका शरण गहने से इस जीव को वास्तविक शांति प्राप्त होती है, भव-भव के बद्ध कर्म भी ध्वस्त हो जाते हैं वह सहजपरमात्मतत्त्व है । तो वस्तुत: भूतार्थदृष्टि में अखंड एक निरंश, किंतु व्यवहारदृष्टि में यह शुद्ध सहजतत्त्व खंड-खंड अनेक रूप और अंशरूप विदित होता है । तो जिस सहजपरमात्मतत्त्व के बारे में ऐसा प्रकाश नजर आता है वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप, सहजपरमात्मतत्त्व में हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की आनंदादिगुणात्मकता―जिसकी दृष्टि का आश्रय लेने से स्वच्छ पर्यायों का प्रवाह चल उठता है, ऐसा मैं शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व आनंद, शक्ति, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदिक अनंत गुणों का पिंड हूँ । यह मैं जो कुछ हूँ सो ही हूँ । प्रत्येक पदार्थ जितना है वह अपने आप सहज सत् है, वह अभेद है, एक होता ही अभेद है । एक गिनती में शामिल नहीं हैं, गिनती दो से शुरू हुवा करती है सिद्धांत शास्त्रों में गणना का मूल दो है । एक अभेद ही रहा करता है, अगर किसी एक में भेद हो, कुछ अलग-अलग सत्त्व समझ में आये तो वह एक कहाँ रहा? वह अनेक हो गया । यों समझिये कि आधारभूत यूनिट ऐसी इकाई है कि जिसके और नीचे कुछ भेद नहीं आ सकता ऐसे ही प्रत्येक सत् होते हैं । जीवों में एक-एक जीव सत् है धर्मद्रव्य एक सत् है । अधर्मद्रव्य एक सत् है, आकाशद्रव्य एक सत् है, कालद्रव्य एक-एक सत् है, असंख्यात कालद्रव्यों में प्रत्येक कालद्रव्य एक सत् है । जीवद्रव्यों में प्रत्येक जीव एक-एक सत् है । अब व्यवहार में आये हुए इन स्कंधों में जो एक-एक अणु हैं वे एक-एक सत् हैं । अब आप यह देख लेंगे कि प्रत्येक एक सत् में कोई भेद नहीं पड़ा हुआ है । वह अपने में निरंश है । प्रत्येक एक सत् निरंश हुआ करता है । अर्थात् उसमें अंश नहीं, खंड नहीं । निरंश का अर्थ यह नहीं कि वह बिना अंश का हो, केवल एक प्रदेशमात्र हो । यह न करके उसका अर्थ अखंड करना चाहें तो यह मैं आत्मा स्वभावत: अखंड हूं । अब इस अखंड आत्मा में बीत क्या रही है? विभाव दशा में भी जो कुछ वीत रही है वह प्रत्येक समय का एक अखंड परिणमन है । स्वभावदशा में भी जो वीत रहा है वह उस समय का एक अखंड परिणमन है । द्रव्य अखंड और प्रत्येक समय का जो भी पर्याय है वह अपने समय में अखंड है, ऐसे अखंड आत्मतत्त्व में जब हम कुछ समझना चाहते हैं तो उस समझ के लिए इसमें भेद किए जाते हैं । और भेद ऐसी शुद्ध शैली से होना चाहिए कि जिसमें अंतर न पड़े और ठीक सत्यस्वरूप का वर्णन करो ऐसे भेद की दृष्टि में बताया है कि यह आत्मा आनंद, दर्शन, ज्ञान, चारित्रशक्ति, श्रद्धान आदिक अनंत गुणों का पिंड है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की आनंदमयता―भैया न देखिये समझ में आता भी है कि इस आत्मा में आनंद का भी कोई परिणमन चलता है । आनंद के परिणमन तीन प्रकार के हैं, सुख, दुःख और आनंद । ये सुख और दुःख दोनों विकारपरिणमन हैं । जो इंद्रिय को सुहावना लगे उस सुहावना लगने की वजह से जो एक मौज माना जा रहा है वह परिणमन आनंद गुण का विकारपरिणमन है । एक आनंद परिणमन शुद्ध परिणमन है । किसी भी परपदार्थ के आश्रय किये बिना केवल अपने आपके अंतस्तत्त्व के आश्रय से जो बात प्रकट होती है, जो अनुभवन बनता है, वहाँ जो आनंदपरिणमन है वह शुद्ध आनंद है । जब आत्मा रागद्वेषादिक मलिनताओं से अत्यंत दूर हो जाता है तो उससमय इस आत्मा में कितना आनंद प्रकट होता है? उसे बताया गया है कि अनंत आनंद प्रकट होता है । आनंद की यह अनंतता जो विकास में पूर्ण व्यक्त हुई है और स्वभाव में हमारे सदा रहा करती है वह अनंतता काल की अपेक्षा भी है कि कभी उसका विनाश न होगा । वह अनंतता भाव की अपेक्षायें है कि उस आनंद की कोई सीमा नहीं है कितना उत्कृष्ट आनंद है इसको तो नहीं बताया जा सकता है । अब किसी प्रकार का रागद्वेषादिक विकल्प नहीं रहता उस काल में आत्मा किस तरह की अनुभूति में रहता है, वह अनुभूति एक अलौकिक ऋद्धि है और कहिये तो आत्मा का सर्वस्व वैभव इतना ही है । जिसने निर्विकल्प चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व की अनुभूति पायी है उसने सर्वस्व पाया ।
बाह्य संसर्ग में अतृप्ति का कारण―भैया ! दृश्य संगगत ये सब तो अधूरे परिणमन हैं मेरे लिए । जो बाह्य पदार्थों के पाने, रखने, छोड़ने की आदिक में धुन रहती है और उससे अपने मन को थोड़ा समझा देते हैं कि अब मेरी स्थिति उत्तम हुई है, ये अब अधूरेपन की बातें हैं और इसी कारण जीवनभर भी पर का संचय का प्रयास कर करके भी कोई तृप्त नहीं हो पाते, अतृप्त ही रहा करते हैं, क्योंकि जिस चीज की पूर्णता करना चाहते हैं, वह पूर्णता होती है पराधीन और पूर्ण करना चाहते थे स्वाधीन । इसीलिए अनेक प्रयास करने पर भी तृप्ति नहीं हो पाती । पूर्णता करनी है अपने आपमें । अपने आपका जैसा सहज सत्त्व है, उस सहजस्वरूप का विचार कर लें, उसमें उपयोग लगा लें, उसकी अनुभूति बने तो वहाँ पूर्णता का अनुभव हो । मैं पूर्ण हूँ, अपने लिए पूर्ण हूँ, मैं रीता नहीं हूँ । मेरे लिए मेरे से अतिरिक्त अन्य सब चेतन अचेतन पदार्थ भिन्न हैं, कुछ नहीं हैं । पूर्ण की बात तो क्या कहें, अधूरे की बात क्या कहें, मेरे लिए तो वे कुछ भी नहीं हैं । तो जो कुछ भी नहीं है उसके लिए उनसे अपनी पूर्णता की बात समझी तो बस यह एक बहुत गल्ती है कि हम रीते रहते हैं, अधूरे रहते हैं, और कहीं तृप्त नहीं होते । मैं अपने आपके परिपूर्ण स्वरूप को दृष्टि में लूं तो मेरे में पूर्णता आ सकती है, नहीं तो अधूरे रहेंगे, रीते रहेंगे और कभी भी तृप्त न हो सकेंगे । फिट नहीं बैठ सकते कि जिसके बाद फिर स्थिरता आ जाये । तो मैं ऐसा आनंद का पिंड हूँ । जो आनंद मेरे स्वरूप में है, मेरे स्वभाव में है मेरे में मेरे से ही बना हुआ है, ऐसा विशुद्ध निराकुल अव्याबाध परम आल्हादरूप क्षोभरहित आनंद का पिंड हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की ज्ञानमयता―मेरा स्वरूप है चेतन । चेतनस्वरूप का जो काम होता है, जो विकास होता है, वह सामान्यविशेषरूप है । चेतने के समय, प्रतिभासने के समय प्रतिभास की इतनी सीमा है कि जहाँ विकल्प एक भी नहीं जगता । सामान्य प्रतिभास होता तो वह है दर्शन और जहाँ विकल्प होता है, ग्रहण समझ होती है, वह है ज्ञान, तो मैं दर्शन और ज्ञान का पिंड हूँ । दर्शन चूंकि निर्विकल्प है । इसलिए हम जानबूझकर प्रयत्न करके दर्शन के उपयोग में नहीं जा पाते, वह तो सहज होगा । ज्ञान चूंकि विकल्पात्मक है, ज्ञान में समझ हौ तो हम जानबूझ करके समझ करके समझ में ले सकते हैं । तब अपने को मैं ज्ञानमात्र हूँ, जानने के अतिरिक्त मेरे में अन्य कुछ स्वरूप नहीं ।
सर्वविविक्त अखंड चिन्मय अंतस्तत्त्व में विकल्प होने का खेद―देखो तो सर्वविविक्त इस अपने आत्मा में कोई आत्मा का विकल्प भर रखा है । ये सारे पदार्थ न्यारे हैं । आपके चित्त में जो विकल्प हैं, ये विकल्प दूसरे के चित्त में नहीं समाये हैं, उनके चित्त में अन्य प्रकार के विकल्प हैं । तो अपने आपके विकल्प दूसरे के लिए कुछ नहीं हैं । यदि आप इस रूप न होते, जैसे आज कोई दूसरे हैं, उस ढंग के होते तो आपके लिए ये विकल्प भी कुछ न थे, लेकिन मोही प्राणियों की ऐसी परिणति है कि जिस भव में जाते हैं, उस ही भव में जो समागम मिला है, उस समागम में उपयोग देकर विकल्प बनाते हैं । आज मनुष्य हैं, तो यहाँ मनुष्य के बच्चों में आत्मीयता जगी है कि ये मेरे हैं । और, कभी गधा सूकर थे, तो गधा सूकर के बच्चों में इस जीव ने आत्मीयता मानी थी । जिस भव में जाता है, उस भव के अनुकूल यह अपने भाव बनाता है । गतिनामकर्म का उदय किसे कहते है? जिस नामकर्म के उदय में उस गति के योग्यभाव बने । यद्यपि वह सर्वविकल्प भाव मोहनीय कर्म का विपाक है, किंतु मोहनीय कर्म जिस उदय में इस ढंग में अपना विपाक दिखा सके वह मनुष्य गतिनामकर्म है, तिर्यक भव में जाता है तो तिर्यक के योग्य रागद्वेष मोह के खानेपीने, उठने, बैठने आदिक सर्व प्रकार के विलक्षण विकल्प रहते हैं । मनुष्य-मनुष्य में और ढंग में रहते हैं । तो यह जीव जिस भव में गया उस भव के ढंग में ही इसने आत्मीयता मानी है और इसी विभावपरिणति के कारण यह अपने विशुद्ध दर्शन ज्ञान सामान्यात्मक चैतन्यस्वरूप की सुध न रख सका ।
ज्ञान और विकार का विभाग―मैं ज्ञानदर्शनरूप है । जानता तो हूँ पर जानने का शुद्ध कार्य क्या है? यह न समझ कर जानता रहता हूँ । जैसे पानी में रंग डाल दिया, मान लो पीला रंग डाल दिया तो वह सारा पानी पीला हो गया, मगर उस पीले पानी के अंदर भी केवल पानी का क्या ढंग हुआ ? वहतो अब भी वहाँ निर्मल पड़ा हुआ है । जो रंग का विस्तार है वह रंग वाली उस पुड़िया या गोली के कारण रंग में रंग का विस्तार है । उस रंगे हुए पानी में भी पानी का स्वरूप पानी में है, रंग का स्वरूप रंग में है, और कभी-कभी तो देर तक निश्चल रखा रहने पर नीचे गाढ़ा रंग हो जाता है और ऊपर हल्का हो जाता है । तो यह मोटी बात कह रहे हैं । वैसे तो वे द्रव्य ही अलग-अलग हैं, रंग द्रव्य अलग है, पानी द्रव्य अलग है, लेकिन उन दोनों में जो घनश्लेष है, उसको दृष्टांत रूप में ले रहे हैं । रंगीन पानी में पानी का स्वरूप न्यारा है । रंग का स्वरूप न्यारा है । यों ही निरखिये कि हमारा उपयोग हमारी जानकारियों में रागद्वेष इष्ट अनिष्ट आदिक विकल्पों का रंग जुदा है और जानने का रंग जुदा है । जानन न सम्यक होता, न मिथ्या होता, न इष्ट होता, न अनिष्ट होता । उसका तो काम प्रकाशमात्र है । तो ऐसा जो ज्ञान में स्वयं का सहजस्वरूप है, उसकी सुध लिए बिना हम जानकारी रखते हैं । यदि हम इस ज्ञान के शुद्ध स्वरूप की जानकारी करें तो इस ज्ञान का ऐसा परिपूर्ण विकास हो कि जिसे कैवल्य कहते हैं । केवल की आराधना करने से कैवल्य प्रकट होता है । यदि हमें केवल बनना है तो जो कैवल्य अपना आत्मस्वरूप है, उसकी आराधना करनी होगी । उस ही के बल से वह कैवल्य प्रकट होता है । तो जब हम केवल को निरखते हैं, तो केवल जाननमात्र हूँ, ज्ञान ही मात्र एक स्वरूप है । इस प्रकार ज्ञानमात्र स्वरूप में रहने वाला यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की दर्शनस्वरूपता―उस ज्ञान से भी और सूक्ष्म स्वरूप है दर्शन का । जहाँ कोई विकल्प नहीं उठ रहा और प्रतिभास है । ऐसा दर्शन और ज्ञान का मैं पिंड सहजपरमात्मतत्त्व हूँ । हम में दो गुण ऐसे हैं कि जिनके विकृत होने से हमारा बिगाड़ है और जिनके स्वच्छ होने से हमारा कल्याण है । वे दो गुण हैं, श्रद्धा और चारित्र । श्रद्धा अंतरंग की एक ऐसी शक्ति है कि जिसके कारण हमारी परिणतियों की, वृत्तियों की लग्नताओं की प्रतिनियत व्यवस्था बन जाती है । श्रद्धा में यदि हमारा सहज ज्ञानस्वरूप समाया है, तो हमारा रमण, हमारी वृत्ति विशुद्ध चैतन्यस्वरूप में होगी । और यदि श्रद्धा बिगड़ी है, बाह्य पदार्थों में अपना लगाव रखा, बाह्य पदार्थों से अपना बड़प्पन चाहा, उनसे ही अपनी जिंदगी समझी है तो हमारी वृत्ति हमारा लगाव बाह्य पदार्थों की ओर बना रहेगा, तो अब देखो हम सिवाय लगाव के और रुचि के, जानकारी के करते तो कुछ नहीं हैं । पर लगाव पर में है, रुचि पर में है । और यदि लगाव निजस्वरूप में है, रुचि निजस्वरूप में है तो उसका फल आनंद है, शांति है । दो गुणा आत्मा में बिगाड़ और सुधार के हेतुभूत है, श्रद्धा और चारित्र । गुणस्थान जितने हैं वे सर्व श्रद्धा और चारित्र के कारण बने हैं । यद्यपि 13वां और 14वां गुणस्थान योग के निमित्त से बना है, लेकिन वहाँ भी चारित्र की विशेषता है―यथाख्यात, परमयथाख्यात । योग न होने से चारित्र गुण में ही तो विशेषता आयी, पर चूँकि नाम है उनका सयोग और अयोग तो शब्द के नाम से हम वहाँ योग का निमित्त कहते हैं । आत्मा के जो स्थान बने हैं, डिग्रियां बनी हैं, विकास भेद बने हैं । वे श्रद्धा और चारित्र के संबंध से बने हैं । यों मैं ज्ञान, दर्शन श्रद्धा, चारित्र, आनंद, इन गुणों का पिंड हूं ꠰
सहजपरमात्मतत्त्व की वीर्यमयता―अब आत्मा के एक वीर्यगुण पर भी दृष्टि दीजिए । शक्ति नाम तो सबका है, ज्ञान शक्ति, दर्शन शक्ति, चारित्र शक्ति, श्रद्धा शक्ति, पर शक्ति को समझने के लिए वीर्यगुण से व्यवहार किया जाये तो वह भी एक शक्ति है । वीर्यगुण उसे कहते हैं कि जिसके कारण सर्व, गुणों में ऐसी सामर्थ्य बनी रहे कि वे गुण अपने आपमें डटे रहें, विकसित रहें और उनसे च्युत न हो सके । देखिये―ज्ञानगुण जब बिगाड़ में हो तो कुमति, कुश्रुत आदिक भेद बन गये, श्रद्धा गुणा बिगाड़ में हो तो मिथ्यात्व, सासादन आदिक भेद बन गए । चारित्रगुण विकार में हो तो क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक भेद बन गए । आनंदगुण बिगाड़ में हो तो सुख-दुःख आदिक भेद बन गए । यों ही वीर्यगुण जब बिगाड़ में होता है, तो शारीरिक शक्ति के रूप में यह प्रकट होता है । यों ही और भी जो पर्यायों में शक्तियाँ हैं वे सब इस वीर्यगुण के परिणमन हैं । अब किसी में किसी प्रकार का बल हैं, किसी में किसी प्रकार का इन बलों का भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होना इस सबका आधारभूत शक्ति कौन-सी है? यह वीर्यनामक सहज शक्ति है, तो यह मैं शक्ति का भी पिंड हूँ ।
अभेद आत्मा के स्वरूप की समझ के लिए भेदपद्धप्ति का उपयोग―ये समस्त गुण इस आत्मा में न्यारे-न्यारे पड़े हुए नहीं है, आत्मा एक स्वभाव हैं । आत्मा में एकस्वभाव आत्मा की जानकारी करने के लिए हम यह भेद डाल रहे हैं और इसके द्वारा हम आत्मा के स्वरूप तक पहुँचते हैं । आत्मा कैसा है? जिसमें आनंद भरा है, ज्ञान भरा है, दर्शन चारित्र आदिक हैं । किसी बात में लगने की, रमने की जिसमें शक्ति है, जो जानकारी रखता हो, इन सर्व बातों को कह करके हम उस आत्मस्वरूप को समझा करते हैं । यों भूतार्थ बोध से विमुख व्यवहारदृष्टि होने पर अनेक गुण और पर्यायों के रूप से मैं जाना जाता हूँ, पर चूंकि मैं एक हूँ, अतएव अभेद हूँ । इसी कारण हम में व इस मुझ सहजपरमात्मतत्त्व में कोई गुण भेद नहीं है । मैं जो हूं, सो ही हूँ । जिसके संबंध में समयसार में बताया है कि यह न प्रमत्त हूँ, न अप्रमत्त हूँ, किंतु एक ज्ञायक भाव हूँ । वह तो ऐसा शुद्ध है कि सर्व से निराला है । उसके संबंध में हम और क्या कहें―वह तो जो एक नजर में जाना गया है, सो ही है । ऐसा अखंड शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व में हूँ । इस ही स्वरूप में अपनी निरंतर आराधना बने, तो यह विकल्प, यह मोह, यह राग, यह लगाव, जो कि महान संकट है इस जीव पर, वे सर्व दूर होंगे । और ये ही संकट दूर होंगे तभी हम आपका कल्याण है । इन बाह्य ग्रहणों का संकट रखने पर ही हम आपकी गति जन्म मरण की चलती ही रहती है । तो इन सबसे निराला सहज अनंत चतुष्टयात्मक अखंड यह मैं सहजज्ञायकस्वरूप परमात्मतत्त्व हूँ । ऐसी अंत: आराधना करनी चाहिये ।