वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 7
From जैनकोष
शुद्धांतरंगसुविलासविकासभूमि नित्यं निरावरणमंजनमुक्तमीरम् ।
निष्पीतविश्वनिजपर्ययशक्ति तेज: शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ।।7।।
सहजपरमात्मतत्त्व की शुद्ध विलासविकासभूमिस्वरूपता―यह मैं शुद्ध सहज चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व शुद्ध अंतरंग के उत्तम विलास की, विकास की भूमि हूँ, अर्थात् आत्मा का अंत: जो अंग है, जिसके बिना आत्मा―का अस्तित्व नहीं, ऐसा जो एक चित्स्वभाव है, ज्ञान दर्शनादिक भाव है, उन अंत: अंगों का उत्तम विलास बना, शुद्ध विकास बना, तो उसका आधार क्या है? वह आधार हूँ मैं सहजपरमात्मतत्त्व । अर्थात् यह विकास, यह गुणों का विलास इस सहजपरमात्मतत्त्व में ही तो हो रहा है, इस आत्मा में ही तो उसका विकास है । इस कारण उन सब गुण विकासों की भूमि यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूँ । आधाररूप से भी उन विकासों की मैं भूमि हूँ, और जैसे भूमि में से अंकुरण निकलता है इसी प्रकार इस सहजपरमात्मस्वरूप से ही उन शुद्ध परिणतियों का विकास प्रकट होता है । बल्कि भूमि से अंकुर अलग है, किंतु यह विलास अलग नहीं है । यों भी मैं उन अंतरंग विकासों की भूमि हूँ । भूमिका उसे कहते हैं कि जिसमें उपादेय आधेय तत्त्वों का निवास हो । यहाँ है इन उपादेय तत्वों का अभिन्न स्थान, अर्थात् इस चित्स्वरूप क्षेत्र में से ही उन गुणों का विकास होता है ।
ज्ञान और आनंद का आधार अन्यत्र देखने से ज्ञानानंदविकास में बाधा―लोग चाहते हैं कि मेरा ज्ञान बढ़े और आनंद बढ़े, मुझे पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो और पूर्ण आनंद प्राप्त हो । इस उद्देश्य को लेकर बहुत-बहुत प्रयत्न किया करते हैं । उन प्रयत्नों में यह जीव परेशान भी हो जाता है । सब कुछ प्रयत्न करने के बाद भी न संतोष कारक ज्ञान हो पाता है, और न आनंद हो पाता है । इसका कारण यह है कि ज्ञान की भूमिका तो है खुद में और इस ज्ञान का आधार बना रहा है यह पर में । पर से ज्ञान प्रकट होगा, पर से मुझे ज्ञान मिलेगा । यों दोनों ही तरह की बातें इस मोही के चित्त में समायी हुई हैं । तब जो बात जहाँ नहीं होती वहाँ ढूंढने से मिलेगी कैसे? जो बात जहाँ नहीं होती है, वहाँ दृष्टि रखने से होगी कैसे? तो यह ज्ञान न पर में है, न पर से प्रकट होता है, किंतु यह ज्ञान इस सहज अतःस्वरूप में है और इस ही से प्रकट होता है । इस कारण यदि यहाँ दृष्टि दी जाये यहाँ सोचा जाये, इसे निरखा जाये, अपने स्वरूप को निरख-निरख कर प्रसन्न रहा करें, तो मेरे ज्ञान की सहज ही इतनी उत्कृष्ट वृद्धि होगी कि जिसे केवलज्ञान कहते हैं । आनंद के संबंध में भी यही परेशानी है । लोग आनंद पर में खोजते हैं । मुझे आनंद पर में मिलेगा, पर से मिलेगा, दोनों ही तरह की बुद्धि रखते हैं, पर आनंद तो उसके अनुभव के लिए है, अनुभाव्य है । अनुभवन मेरे में ही होता है, तो मेरा आधार तो मैं हूँ, आनंद का आधार मैं और मुझसे ही आनंद का विकास होता है । तो आनंद का आधार और आनंद का स्रोत जो यह मैं स्वयं हूँ उसे न लखकर बाहर में आधार, बाहर में स्रोत निरखा जा रहा है, तो अनंत काल भी व्यतीत हो जाये इस हठ में, इस परदृष्टि में, पर कभी भी आनंद लाभ हो नहीं सकता ।
आनंद की एक मात्र विधि―विशुद्ध आनंद विकास की, शुद्ध आनंद के विलास की भूमि मैं हूँ । इस तरह तो जाना गया आधार और उस शुद्ध आनंद का विलास-विकास मुझसे प्रकट होता है । अर्थात् मेरी ही पूर्व अवस्था के बाद यह आनंदमयी अवस्था बनती है―यह हुई स्रोत की बात । तो मैं अपने आनंद का स्रोत स्वयं हूँ । सभी गुणों का स्रोत आधार स्वयं हूं । इस प्रकार अपनी इस विकास भूमि को जानने से इसको फिर क्षोभ नहीं होता । आकुलता नहीं होती । देखिये―जैसे रोग की जो दवा है―कहते हैं कि दवा तो पीनी ही पड़ेगी अन्यथा रोग दूर न होगा । चाहे कभी पी लो, कितनी ही हैरानी होने के बाद पी लो, ऐसे ही सत्य आनंद पाने की, अपना कल्याण प्राप्त करने की विधि एक ही है, कभी कर लो । जब तक नहीं कर रहे हो तब तक दुःख जन्ममरण संकट में हैं । जब इस विधि को करेंगे, तभी संकट मिट जायेंगे । यहाँ दवा तो न भी पियें, तब भी ठीक हुआ जा सकता है, किंतु आत्म विधि न बने तो संकट दूर नहीं किये जा सकते । यह जीव किसी-किसी बात पर अड़ जाता है, हट कर जाता है कि मैं तो ऐसा ही करके रहूंगा, परंतु इस सत्य बात के लिए हठ नहीं करता, जब कि आनंद पाने की विधि ही एक मात्र यह है कि आनंदमयी अपने आत्मस्वरूप को जानना, जिससे वह आनंद विकास होता है, उस स्रोत स्वभाव को समझना और वहीं उपयोग रखकर तृप्त बने रहना, इस विधि के सिवाय कोई विधि नहीं है कि आत्मा सत्य आनंद प्राप्त कर ले । अब तक अनंत जीव सिद्ध हो चुके हैं । उन अनंतों में से कोई सिद्ध ऐसा नहीं है कि जिसने इस विधि को छोड़कर अन्य विधि से सिद्धपद प्राप्त किया हो, मोक्ष प्राप्त किया हो और आनंद पाया हों । अनंत सिद्धों ने यही किया, अपने स्वरूप को जाना, स्वरूप के निकट ज्ञान उपयोग में बनाये रहे, उसके प्रताप से कर्मकलंक दूर हुए और मुक्ति प्राप्त हुई ।
सहजपरमात्मतत्त्व के अनुभव का यत्न―न भी कोई साधु जानता हो कि कर्मों की ऐसी 148 प्रकृतियां हैं और उनमें यों अनुभाग पड़ता है, यों स्थिति होती है और इस स्थिति में ऐसे कर्म झड़ते हैं, यों संक्रमण होता है, यों निर्जरा होती है आदि, पर इस विधि को यदि वह साधु प्राप्त कर चुका तो वे सारी बातें स्वयं हो जायेगी, उनके पढ़ने की जरूरत नहीं है कि जब हम उन्हें पढ़ ले, उनका अभ्यास बना लें, याद कर ले तो हमारा यह धर्म मिलेगा, कर्म निर्जरा होगी, संवर होगा, ऐसी बात नहीं है । पर हाँ आत्मस्वरूप के ज्ञान बिना काम न चलेगा । तो आनंद की भूमि मैं स्वयं हूँ । कोई प्रश्न करे कि जब एक ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व के परिज्ञान से ही हमारा सर्व भला हो सकता है तो विद्याभ्यास करने की क्या आवश्यकता है? तो भाई कौन कहता है कि इतना तेज विद्याभ्यास करो और बड़े-बड़े शास्त्रों की, करणानुयोग आदिक की अत्यंत सूक्ष्म बातों को समझने सीखने में अपना दिमाग लगाओ, न लगाओ, मगर साथ ही यह बात है कि विषयकषायों में भी मन न लगाओ । विषय-कषायों में, विकल्पों में मन फँसने न पाये, इसके लिये विद्याभ्यास करना एक दवा है । इस विद्याभ्यास के प्रताप से, कभी इस आत्मविद्या के अनुभव का भी सहयोग मिलता है, इसलिये करना ही चाहिए अभ्यास और दूसरी कोई गति नहीं है, किंतु यहाँ एक तात्त्विक बात कह रहे हैं कि ज्ञानानंदस्वरूप अमूर्त चिन्मात्र प्रकाशमय इस अखंड आत्मतत्त्व का परिज्ञान अनुभव हुए बिना मुक्ति का मार्ग, शांति का मार्ग पाया नहीं जा सकता । अत: सहजपरमात्मतत्त्व के परिचय व अनुभव का यत्न करना आवश्यक है ꠰
सहजज्ञानस्वभाव के अनुभव का स्वाभाविक आस्वादन―जिसको सहज यथार्थ आत्मशांति है उस जीव को इस आत्मस्वभाव का परिचय है तब ही तो मेंढक, बंदर, सांप, नेवला, पक्षी, गाय, भैंस, सूअर, घोड़ा, गधा, इनमें से भी कोई जीव जिसको कि सम्यक्त्व जगा है, और वास्तविक आत्मशांति का मार्ग मिला है उन जीवों ने यथार्थ आत्मज्ञान की बातों का, गुण का, पर्यायों का कुछ अभ्यास नहीं किया, उन्हें नाम तक की भी जानकारी नहीं है, पद पूरा जो निज का स्वरूप है वह उनके अनुभव में है । जैसे कोई पुरुष किसी ऐसी मिठाई को खाये, जिसके बारे में उसे नाम तक का भी पता नहीं, इसमें क्या चीज पड़ी है यह भी नहीं जानता, लेकिन खाये तो स्वाद न आयेगा क्या ? और एक पुरुष ऐसा कि जिसे नाम भी पता, चीजों का भी पता, कैसे बनायी जाती, यह भी पता है, पर उसे खाये नहीं तो उसे स्वाद तो नहीं आया । जैसे महिलाओं को बड़ा संतोष होता है खाने के संबंध में कि जो चीज बढ़िया बनायी तो सबकी सब चीज अन्य लोग खा जाये, खुद को न बचे । पुरुष तो अगर कोई चीज अच्छी बनाते हैं तो उसमें अपना हिसाब पहिले से ही सोच लेते हैं कि इसमें हमें इतना खाना है और दूसरों को इतना, क्योंकि खुद ने बनाया है ना ? तो जैसे कोई महिला खुद बनाती है उस मिठाई को, उसे सब चीजों का ज्ञान है और हर एक स्थिति का परिचय है, लेकिन खुद न खायें, दूसरों को ही खिला दें तो उस महिला को कुछ भी स्वाद न मिला । और किसी पुरुष को जिसे कि उस मिठाई के नाम का भी पता नहीं है, जो यह भी नहीं जानता है कि इसमें क्या-क्या चीजें पड़ी हैं, यह भी उसे नहीं पता है कि यह किस ढंग से बनायी गई है, पर वह उसे खायेगा तो क्या स्वाद न पायेगा? अर्थात् जरूर पायेगा । तो ऐसे ही समझिये कि पशु पक्षियों को जिन्हें आत्मा के बारे में कुछ पता नहीं है कि आत्मा द्रव्यदृष्टि से यह है और व्यवहारदृष्टि से यह है, सप्ततत्त्वों के ये नाम हैं, लेकिन जब उनके कर्मो का उपशम क्षयोपशम होता है, सम्यक्त्वघातक सात प्रकृतियों का जब उपशम अथवा क्षयोपशम होता है तब उनको उस स्वच्छता के कारण उस अंतस्तत्त्व का मनुष्यों की भांति परिचय हो जाता है । तो वह सहज परमात्मतत्त्व ही तो शुद्ध अंत: अंगभूत गुणों के उत्तम विलास, विकास की भूमि है ।
ज्ञानविकास का आधार और स्रोत सहजपरमात्मतत्त्व―ज्ञानविकास, आनंदविकास कहां हुआ? कहाँ से प्रकट हुआ ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर है यह सहजपरमात्मस्वरूप शुद्ध चैतन्यरूप । यह सहजपरमात्मतत्त्व मैं नित्य हूँ, सदा रहने वाला हूँ । जो भी सत् होता है वह शाश्वत हुआ करता है । कल्पना करो―हो सकती है क्या कोई चीज ऐसी कि जो पहिले कुछ भी नहीं है, असत् है और वह अब सत् हुई हो? बताओ तो युक्ति कि वह कैसे सत् हो गया है? तो उसमें कुछ तो है चीज, गुण, पर्याय, कुछ बात । वह कुछ भी न था तो किस ढंग से आ गया? कोई युक्ति, कोई अनुभव इसमें फिट बैठते ही नहीं । हो ही नहीं सकता कि कुछ न हो और हो जाये । उपादानभूत पदार्थ द्रव्य पहिले से निष्पन्न न हो, पहिले से सिद्ध न हो तो उसमें कुछ विलास, विकास कुछ बात आ सकती है क्या? जब असत् ही है, कुछ भी नहीं है तो उसमें से क्या निकलेगा? कोई कहे कि बंध्या का पुत्र गधे के सींगों का धनुष बनाकर युद्ध कर रहा है तो क्या हो जाएगा ऐसा? खैर, जिसे आज बंध्या कहते तो कुछ समय बाद उसके पुत्र हो जाए तो यह संभव है सो वह बंध्यापुत्र न रहेगा, खैर पर गधे के सींग का धनुष कहाँ से संभव है ? जो चीज असद है, कुछ है ही नहीं, उसमें से कुछ गुण, कुछ पर्याय, ये पिंड प्रकट हो जायें, यह कभी भी संभव नहीं है । तो अपने बारे में कुछ संदेह तो नहीं । आप हैं कि नहीं, कोई कहे कि मैं नहीं हूँ तो मैं नहीं हूँ यह ज्ञान जिसमें हो रहा है वही है वह । इसे कौन मना कर सकता है? और जब है वह, जब हूँ मैं तो कभी मिट न सकूंगा । कोई सत् ऐसा नहीं है जो किसी काल में समूल नष्ट हो सकता हो । जब मैं मिट न सकूंगा तो रहूंगा ना किसी अवस्था में ? सब अवस्थाओं से अनुभव भेद चलता है तो उसमें यह ध्यान लायें कि मुझे किस अवस्था में रहना चाहिए आगे सदा के लिए ? क्या गधा, घोड़ा, भैंस आदिक पशु बनकर हमें आगे रहना चाहिए? क्या अंध नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदिक इन रूपों में रहना चाहिए? इनमें क्या तत्त्व रखा है? अब तो यह निर्णय करो कि मुझे केवल बनना है ।
अज्ञानव्यापार से निवृत्त होने की आवश्यकता―आज का मिला हुआ समागम भी मेरे लिए कुछ नहीं है । मैं स्वयं ही विकल्प करके, कल्पनायें करके उन पदार्थों के प्रति आकर्षित होता हूँ, ये समस्त अन्य पदार्थ हमको कुछ भी नहीं अपनाते,कोई किसी को अपना ही नहीं सकता । अपनाने के मायने हैं स्वरूप बना लेना, अपने रूप बना देना । किसी भी पदार्थ में वह कला नहीं है कि वह दूसरे को अपने रूप बना दे ꠰ तो ये कोई भी परपदार्थ मुझे चाहते नहीं, मुझे अपनाते नहीं, मुझमें कुछ वृद्धि करते नहीं, मुझे हरा भरा पूरा कुछ करते नहीं और यह मैं ही केवल अपनी ही ओर से विकल्प बनाता, मान न मान मैं तेरा महिमान जैसी नीति से डट रहा है बाह्य पदार्थों में, ऐसा करते-करते ही तो अनंतकाल व्यतीत हो गया । उसमें अब कुछ फर्क डालोगे कि नहीं? क्यों भैया ! बड़ी कठिन बात पूछ दी है । बड़ा कठिन लग रहा है इसका समाधान कर लेना । कठिन कुछ नहीं लग रहा, बात आ जाये, सही संकल्प बन जाये कि अनादि से लेकर अबतक जिस राह में मैं चला, जिस पद्धति से मैं रहा, अब उस पद्धति से हमें मुख मोड़ना है, उसमें तो सफलता नहीं मिली । चतुर व्यापारी भी तो किसी काम में लगातार टोटा पाता रहे और यह भी समझ ले कि इसमें अब लाभ का कोई चान्स नहीं है तो उस एक व्यापार को छोड़कर दूसरे व्यापार की सोचता है, किंतु यह संसारी सुभट इतना वीर बन गया कि एक ही रोजिगार को अनादिकाल से करता आ रहा है । वह व्यापार है परपदार्थों का अपनाना और उनमें अपनी मौज समझना । इस तरह परपदार्थों को अपनाता आ रहा, एक यही रोजिगार करता चला आ रहा है और उसमें इतने कष्ट, इतने भवभ्रमण, इतने संकट सहकर भी यह चित्त में नहीं लाता कि अब यह रोजिगार नहीं करना है, इसमें फर्क डालना है । किसी भी समय तो सर्वविविक्त अविकारी सहजचित्स्वरूप का ध्यान रखकर अपने को पुष्ट करना है, बलिष्ठ बनाना है । आत्मस्वरूप का ज्ञान करके उसके निकट रहने पर नियम से विशुद्ध आनंद की उद᳭भूति होती है, जिसका आश्रय करने से ज्ञान और आनंद का उत्तम विलास, विकास होता है, वह हूँ मैं यह सहजपरमात्मस्वरूप । उसे आश्रय में लेने से सर्व अर्थों की सिद्धि होती है । इस एक का आश्रय न करने से सर्व विपदाओं से भेंट होती है ।
निज अंतस्तत्त्व के आश्रय से आनंद की सिद्धि―भैया ! खूब परख लीजिए । ज्ञान तो अपना ही है, अपने पास है, जब परखना चाहें परख लें । किसी परपदार्थ में स्नेह की वृद्धि लगा दें तो उसका फल दुःख भोग लें, वहां यही अनुभव मिलेगा । अब तो एकदम एक साथ एक झटके में समस्त परपदार्थों से उपभोग हटा लीजिए और इस ज्ञानानंदस्वरूप अमूर्त केवल चिज्ज्योतिर्मय अपने आपके अंत: स्वरूप की ओर थोड़ा आइये, इसमें कुछ ज्ञान लगाये तो आप वहाँ अनुभव करेंगे कि क्या आनंद प्रकट होता है आनंद पाने के साधन सब तैयार हैं । अब तो केवल उन साधनों के प्रयोग में आने को आवश्यकता है । मैं अपने दस सहजचित्स्वरूप की ओर आऊँ, निकट रहूं तो मेरे फिर समस्त प्रयोजनों की सिद्धि है । ऐसा निर्णय करके एक ही आग्रह करना कि मुझे तो अपने में ही समाना है, यही शांति का मार्ग है ।
सहजपरमात्मतत्त्व ही निरावरणता―अपने आपमें अनादि, अनंत, अहेतुक, नित्य अनंत, प्रकाशमान, अज्ञानियों को अव्यक्त, किंतु ज्ञानियों को व्यक्त ऐसे सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना में यह ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि में शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व हूँ । यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व निरावरण हूँ, आवरणरहित हूं इस पर यदि आवरण भी छाया है तो कौनसा आवरण छाया है? मेरा अंत:परमात्मतत्त्व मौजूद हैं और वह प्रकट नहीं हो रहा, मुझे विदित नहीं हो रहा और वह अपनी यथार्थ शुद्ध परिणति में नहीं आ रहा, तो उस पर आवरण क्या है? इस पर विचार करें तो सीधा कथन यह है कि इस पर अन्यत्र उपयोग की परिणति होना ही अवारण है और विशेषतया समझे तो चूंकि विषय कषायरूप परिणाम होता है और उन विषय कषाय परिणामों की प्रेरणा में यह उपयोग अन्य जगह लगा करता है, ऐसा जो विशिष्ट ज्ञान है उसकी वृत्ति इस पर आवरण है ।
सहजपरमात्मतत्त्व पर विकृत उपयोग के आवरणत्व का विचार―इस सहजपरमात्मतत्त्व पर सीधा आवरण विकृत उपयोग का है सो ठीक ही है । जैसे कहते हैं कि एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती । और यदि कोई जबरदस्ती समाने लगे तो वह ठीक न बैठेगा, ऐसे ही एक उपयोग में दो विषय नहीं समा सकते । एक तो सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन करना और दूसरे रागद्वेष विषय कषाय, इच्छा, मौज इनमें उपयोग लगाना । कदाचित् कोई जबरदस्ती उनको समाये भी―जैसे प्राय: आजकल के धार्मिक कहलाने वाले लोग एक साथ दोनों बातों को समझा देने का प्रयत्न कर रहे हैं, धर्म भी कर लें और लोक व्यवस्था भी बना लें, घर वगैरह भी सुधार लें, परिजनों से स्नेह भी कर लें और धर्म भी कर लें तो फिट कहां बैठ पाते है? तो सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन में विघ्न क्या, अंतराय क्या, आवरण क्या? बस हमारा विषयकषाय का परिणमन । फिर इस प्रकार के विषयकषाय का परिणमन किस निमित्त से हो रहा हैं? उसका उत्तर है कि कर्म का विपाक । तो कर्मविपाक और कर्म विपाक में हुआ जो विभावविपाक, यही इस सहजपरमात्मतत्त्व पर आवरण छाया है । लेकिन छाया रहे आवरण, भीतर तो वह अपने सहजस्वभाव को इस ही प्रकार रख रहा है और जब समझकर, विवेक रखकर इस सहजपरमात्मतत्त्व के स्वरूप पर हम दृष्टि पहुँचाते हैं तो उस समय यह भीतर ही भीतर इस गुप्त सहजपरमात्मतत्त्व को वह अपनी झाँकी में ले लेता है । तो यह सहजपरमात्मतत्त्व निरावरण है, जो देखना चाहे उसके लिए निरावरण है, जो न देखे उसके लिए आवरण छाया ही हुआ है ।
सत्पथ के दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता―भैया ! इतना तो कम से कम भाव और प्रयत्न करना चाहिए कि नहीं मी मन लगता है आत्मदर्शन में, आत्मचर्चा में, अपने ज्ञान की साधना में, लेकिन श्रद्धा यह रखा करें कि हमारा पार पड़ेगा ऐसे ही ज्ञान से । इसलिए नाना प्रयत्न करके करना ही हमें यही है उस प्रयत्न में लगें, समय अधिक दे, उपयोग लगायें जो विशुद्ध ज्ञान का आनंद है वह आनंद अनेक उपायों से भी अन्य पदार्थों के प्रसंग में नहीं मिल सकता । यह सहजपरमात्मतत्त्व निरावरण है, भक्ति, दृष्टि, धुन होनी चाहिए, फिर, प्रभु के दर्शन उसे अवश्य मिलेंगे । क्यों प्रभु का दर्शन होता है कि देखने वाला जहाँ है वहाँ ही प्रभु है, दृष्टा और प्रभु का भिन्न-भिन्न जगह निवास नहीं है । इस कारण शांति आने पर, दृष्टि लगन, भक्ति होने पर उस प्रभु के दर्शन अवश्य होते हैं, पर इतना ही न कर सके कोई, न करना चाहे कोई तो कैसे दर्शन हो सकता है ?
निश्छल धुन में इष्टलाभ का एक दृष्टांत―लगन की बात पर एक किम्वदंतीरूप समझिये अथवा कोई घटनारूप समझिये । दृष्टांत है कि एक बालक अपने गुरु की गायें चराया करता था । वह बालक गायों को प्रतिदिन जंगल ले जाता था । वह गुरु प्रत्येक एकादशी के दिन प्रभु का भोग लगाया करता था, कोई मूर्ति के सामने कुछ चीज चढ़ा दी और फिर खुद खा ली इसी के मायने हैं भोग । तो एक एकादशी के दिन उस गुरु को आलस्य आ गया, सो उस बालक से कह दिया कि तुम रोज जंगल जाते हो, आज किसी चबूतरे पर बैठकर भगवान का भोग लगा आना । बालक ने कहा, अच्छी बात । तो भोग लगाने के लिए उस बालक को डेढ़ पाव आटा गुरु ने दे दिया । उस बालक ने क्या किया कि जंगल में आटे के दो टिक्कड़ बनाये और बाद में बोला―आइये भगवन् जल्दी, हमने तुम्हारे लिए भोग लगाना है । जब कुछ देर तक न आये तो वह बालक झुंझलाकर बोला―अरे भगवान आप तो बड़े निर्दयी हो गए हो, आते क्यों नहीं हो? तुम्हें पता नहीं कि मैं भूखा बैठा हूँ । लो ꠰ झट आ गया कोई, हो सकता है कि कोई व्यंतर कौतूहल भी कर सकता है वह व्यक्ति मोर मुकुट बांधे हुए भेषभूषा में था । तो वह बालक कहता है देखो इनमें से एक बाटियां तुम्हारे हिस्से की है । तुम को हम दो बाटियां नहीं दे सकते, हम क्या भूखे रहेंगे? तो एक बाटियां खाकर और यह कहकर वह मनोनीत प्रभु चला गया कि तुम जब बुलावोगे तो फिर हम आयेंगे, पर अब की बार दो जने आयेंगे । फिर जब दूसरी एकादशी आयी तो गुरु ने उस बालक से भोग लगाने को कहा―बालक ने कहा कि अभी पहिली बार आपने डेढ़ पाव आटा दिया था तो भगवान भी भूखे रह गए थे और हम भी भूखे रह गए शे । इस बार कुछ ज्यादह आटा देना तो इस बार गुरु ने तीन पाव आटा दिया । उस बालक ने जंगल में 3 पाव आटे की तीन बड़ी-बड़ी बाटियां बनायी । जब भगवान का भोग लगाने बैठा तो आ गए दो जने । तो बालक बोला―देखो तुम लोग एक-एक बाटियां ले लो । ले लिया एक-एक बाटियां और खाकर यह कहकर चले गए कि इस बार जब बुलावोगे तो हम 20 जाने आयेंगे । तीसरी एकादशी के दिन जब गुरु ने बालक से भोग लगाने को कहा तो बालक ने कहा कि इस बार तो 20 जने आयेंगे, आप थोड़ासा आटा देते, उससे होगा क्या हम भी भूखे रह जाते और भगवान भी । तो गुरु ने सोचा कि यह क्या बात है हमने तो जीवन भर न जाने कितनी बार भोग लगाया पर भगवान न आये, अब क्या बात है जो इम बालक के भोग लगाने में भगवान आते हैं? सोचा कि हमें छिपकर देखना चाहिए कि भगवान आते हैं या नहीं । सो गुरु ने उस बार बहुतसा बना बनाया पक्का भोजन दिया । बालक ने जंगल में भोग लगाया और भगवान को बुलाया तो इस बार आ गए 20 जने । वह गुरु उस दृश्य को देखकर दंग रह गया । सोचा ओह―हमने तो जीवनभर बहुत-बहुत भगवान के भोग लगाया पर भगवान कभी न आये । तो इस किम्वदंती में केवल इस ओर दृष्टि करायी जा रही है कि एक भक्ति, लगन, धुन होना चाहिए, फिर भगवान के दर्शन होने में कोई विलंब नहीं है ꠰
परमसत्य के दर्शन के लिये सत्य के आग्रह की आवश्यकता―भैया ! एक सच्चा आग्रह बन जाना चाहिए कि हमें तो बाहर में कुछ नहीं करना है, बस एक प्रभु के दर्शन करना है । वह प्रभु तो है ही यहाँ । वह तो पहिले से ही प्रकाशमान है । वह तो इसकी बाट में है कि यह उपयोग भक्त बनकर मेरी ओर थोड़ा मुंह तो करे, फिर तो मैं इसका सब कुछ कल्याण कर दूंगा, लेकिन यह उपयोग, न भक्ति कर रहा, न चिंतन करता है, न ध्यान ही होता है, तो यह ही विषयकषायों का उपयोग इस सहजपरमात्मतत्त्व पर आवरण है । प्रभु की बात सुन-सुनकर हम लोग हैरान हो जाते हैं । कैसे मिले प्रभु, कैसे हम बात करें, कैसे हम अपनी सारी व्यथा सुना दें यों हैरान हो जाते हैं, किंतु हैरानी की बात यहाँ रंच भी नहीं है । जो बात जिस विधि से होती है, जो मिलन जिस विधि से होता है वह उस विधि से न करें तो मिलन कैसे हो सकता है? धर्मपालन, प्रभुदर्शन निराकुलता, शांति ये कुछ धन पर तो अवलंबित नहीं हैं कि चलो लाख दो लाख रुपयों में इन्हें खरीद लें । ये तो अपनी उपयोग वृत्ति पर अवलंबित हैं, हम विवेक सहित चलें तो अपने आपमें अपने प्रभु के दर्शन कर सकते हैं । और करना चाहिये यही । जैसा आज भव पाया, जितनी सुविधा पायी इससे हजार लाख गुनी सुविधा वाले अनेक भव व्यतीत कर डाले । यही एक का राग नहीं छोड़ते, एक भव का ही राग छोड़ दे । जहाँ अनंतभव राग में ही व्यतीत किया तहां एक भव में राग न सही, ऐसा आशय बनते ही प्रभुदर्शन की विधि बनने लगती है । अनेक मर चुके बाबा दादा, जिनकी गोद में खूब खेला करते थे, ऐसे कितने ही लोग गुजर गए? बहुत से लोग गुजर गए । अब जो थोड़े से लोग सामने हैं उनमें राग करते हैं । अरे―जहाँ बहुत से लोगों का राग छोड़ना पड़ा वहाँ एक का भी राग छोड़ दो तो प्रभुदर्शन की विधि बनने लगेगी । और जब भी किसी जीव को देख लो एक में राग आता है । भले ही बदल-बदलकर कि अभी इसमें राग किया, अब इसमें किया, पर एक काल में देखो तो प्राय: कहीं एक जगह राग होता है । वह एक का राग नहीं छोड़ा जाता है, यही आवरण है सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन में, किंतु यहाँ यह प्रभु तो निरावरण ही सदा है । ऐसा यह में शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व हूं ।
सहजपरमात्मतत्त्व की अंजनमुक्तता―यह मैं अंजनमुक्त हूँ, निरंजन हूँ । अंजन भी एक आवरण है, और जैसे कि आंख पर अंजन लगा तो बड़ा घुलमिलकर भिड़कर लगा हुआ है और इस पर यदि कोई कागज का आवरण लगाये तो वह बाह्य होता है कुछ । तो इसी प्रकार जो अंत: आवरण है, जो जीव में घुल-मिलकर बना हुआ है, वह अंजन है । उस अंजन से भी मैं मुक्त हूं ꠰ जैसे दर्पण के सामने हाथ किया तो हाथ के आकार छाया प्रतिबिंब दर्पण में हो गया । अब इस दर्पण से स्वभाव पर जब दृष्टि देते हैं, दर्पण के निजी सत्त्व पर जब दृष्टि देते हैं, तो हस्तछायारूप परिणमन होकर भी दर्पण में जो द्रव्यत्व है, जो उसका निजी सत्त्व है, वह छाया से मुक्त है । इसी तरह इस समय आत्मा में तर्क-वितर्क विचार विकल्प ये सब चित्रित हो रहे हैं, इन प्रतिबिंब के होते हुए भी जब हम इस आत्मा के सहजतत्त्व पर, अंतस्तत्त्व पर, स्वत्व पर विचार करते हैं तो यह अपने स्वरूप में सहज अंजनरहित है । कैसा गुप्त अंतर्दर्शन है कि जिस दर्शन में विघ्न बहुत जल्दी कट जाते हैं । थोड़ा झांकी में आ पाता है और उसका स्पर्श भी नहीं किया जा पा रहा है कि ये सब विलास उसके बिखर जाते हैं । कारण यह है कि हमारी अभी पर्याययोग्यता, ज्ञानाभ्यास के बिना, अंतस्तत्त्व के उपयोग के अभ्यास बिना अभी परवस्तुओं में रहने की योग्यता बनाये हुए हैं । तो उस योग्यता को हटाकर हम प्रयत्न भी करते ये कि अपने अंतःस्वरूप में जायें, यहाँ ही दृष्टि रखें, तो थोड़ा अवकाश मिल पाता है, झाँकी हो पाती है कि वह बिखर जाता है, पर जिस तरह हम उसकी झाँकी कर लेते हैं, उसी उपाय से उसे स्थिर भी कर सकते हैं । उसके लिए चाहिये प्रबल सहज अंतस्तत्त्व के परिज्ञान का अभ्यास ।
निरंजनता का उपाय निरंजन आत्मस्वभाव की दृष्टि―यह सहजपरमात्मतत्त्व अंजनमुक्त है । अंजन से निरंजन होने का उपाय यह है कि अभी अपने इस निरंजन स्वरूप को परखिये । संबंध हो गया है, विकल्पों का, राग का, कर्म का, देह का और ये संबंध भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । जिस तरह का संबंध देह का और आत्मा का बन रहा है, उससे घनिष्ठ संबंध कर्म का और जीव का बन रहा है । जिस प्रकार का संबंध कर्म का और जीव का बन रहा है, उससे घनिष्ट संबंध रागादिक विकारों का और जीव का बन रहा है । इतने पर भी यह जीवस्वरूप अंत: केवल ही है । अपने सहज सत् रूप ही है । जैसे बहुत दिनों के रखे हुए बांस पर बड़ा घनिष्ट मैल जम जाता है, स्वयं के रंग में तब्दीली-सी हो जाती है और फिर उस पर कर दे कोई चित्रकारी और उस पर लपेट दे कपड़ा, तो उस बांस पर कितने ही आवरण हो गए, पर किस प्रकार का संबंध कपड़ा और बाँस में है, उससे घनिष्ट संबंध उस चित्रकारी का और बाँस का है । जितना संबंध चित्रकारी और बांस का है, उससे घनिष्ट संबंध उस मैल का है । इन सब आवरणों के होने पर भी बांस अपने भीतर में वैसा ही है । जैसा कि उसमें केवल में होना चाहिये । इसी तरह देह का आवरण होने पर भी, कर्म का आवरण होने पर भी रागादिक विकारों का और कल्पनाओं का आवरण होने पर भी यह में चित्तत्त्व स्वत: सहज जैसा हूँ, सो ही हूँ ।
दृष्टिवेग―प्रभुदर्शन में बाधक अंतर्बाह्य इन आवरणों पर दृष्टि न रखकर कोई अंत: निरखना चाहे, तो उसे अब भी निरंजन स्वभाव दिख रहा है । इस दृष्टि में बड़ी सूक्ष्म गति है । जैसे―कहावत में कहते कि जहाँ न जाये रवि वहाँ जाये कवि । पहाड़ के बहुत भीतर रहने वाली गुफा का वर्णन कविजन इस तरह से कर देते हैं कि उसका सारा चित्र यहाँ बैठे ही बैठे स्पष्ट झलक में आ जाता है । वहाँ पर सूर्य भी नहीं पहुँच सकता, किंतु देखो―कवि पहुंच गया । अथवा कवि क्या पहुँच गया―बुद्धि पहुंच गई समझने वाले की । तो इसी तरह इस सहजपरमात्मतत्त्व के धाम में इस सरल सहज दृष्टि की ऐसी प्रगति है कि इतने आवरण मिलते हैं इसके धाम तक पहुँचने में, किंतु किन्हीं आवरणों में यह रुक सकता नहीं है । सबको पार करके यह अंत में सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन कर ही लेता है । देखिये―उस सहज परमात्मतत्त्व की चर्चा, जो जरा सुगमतया अथवा किन्हीं को कठिनाई से समझ में आ रही ना, वही मैं हूँ और ये जो नाना रूप हैं नाम के, पर की कल्पना के, ये सब मैं कुछ नहीं हूँ । उस मैं को यहाँ दुनिया के लोगों ने नहीं पहिचाना, मुझको नहीं पहिचाना । तो जो मुझको नहीं पहिचान पाते, उनमें क्यों अपना आकर्षण बनाऊं और क्यों अपनी कुछ आशा रखूं? मैं उन विकल्पों से मुक्त होकर अंत: इस सहजपरमात्मतत्त्व का ही दर्शन करूं और तृप्त होऊँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की विकस्वरस्वरूपता―सर्व परपदार्थों को एवं समस्त परभावों को अहित विनश्वर समझकर जिन्होंने इनसे अत्यंत उपेक्षा की है और इस उपेक्षा के प्रसाद से अपने सहज ज्ञानस्वरूप में विश्राम किया, ऐसे ज्ञानी पुरुष अब अपने आपके विचार के समय चिंतन कर रहा है कि यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व तो सर्व विकास की भूमि हूँ, अपने आपमें सत᳭ होने के कारण निरावरण हूँ, सर्व प्रकार के अंजनों से रहित हूँ और यह मैं ईर: हूँ । ईर: लक्ष्मीं ज्ञानलक्ष्मीं राति ददाति इति ईर: । जो ज्ञानलक्ष्मी को प्रदान करे, जो ज्ञानविकास कराये, उसे कहते हैं ईर । यह मैं ईर हूँ, अर्थात् इस सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना से ज्ञान का विकास होता है, ज्ञान की समीचीनता होती है, व्यवस्थित ज्ञान रहता है । भैया ! परपदार्थों में उपयोग रमाने से बुद्धि में जरूर फर्क हुआ करता है । उसका कारण यह है कि जिन पदार्थों में चित्त रमाया गया वे पदार्थ भिन्न हैं, मेरे आधीन नहीं हैं, अतएव उन पर किया हुआ आश्रय निर्विघ्न नहीं बन सकता । उसमें अनेक विघ्न होते हैं । जब आश्रय करे यह उपयोग पर का और वहाँ परपदार्थ टूट जाये तो यह आश्रय बार-बार निराश्रय बन-बन कर खेदखिन्न होता है, किंतु अपने आपमें अंत: प्रकाशमान सहजचित्स्वरूप का आश्रय चूंकि वह स्वरूप ध्रुव है अतएव उसकी ओर से टूटने की बात नहीं है । इस सहजपरमात्मस्वरूप की ओर से कोई धोखा की बात नहीं है । इस नाथ की उपासना करने से यह ज्ञान लक्ष्मी को असीम विकसित करता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व को विश्वास्यता व हितशीलता―भैया ! विषयकषायों की वासना के कारण यह उपयोग ही टूट जाये अर्थात् वहाँ से हटकर अन्यत्र लगे, तो यह उपयोग का अपराध है । उपयोग का भी अपराध क्या, उन रागादिक अवस्थाओं का अपराध है, पर सहजपरमात्मतत्त्व तो सर्व मंगलमय दशा बनाने के लिये धोखा वाला नहीं है । उसकी ओर से तो सदा द्वार खुला हुआ है । आवो, यहाँ रहो और निर्भय, निःशंक निराकुल रहो, किंतु यह उपयोग ऐसी बाह्य वासनाओं में अपने अपराध से जकड़ा है कि वहाँ से चिग नहीं सकता । पौराणिक, चरित्रों में अनेक घटनायें सुनते हैं । भरे-पूरे किसी घर में रहता हुआ कोई युवक ज्ञानज्योति पाकर, विरक्त होकर निवृत्त होता है तो फिर उस त्यक्त समागम की ओर स्वर में भी ध्यान नहीं देता । क्या ऐसा विलास जीव जाति होता नहीं? अरे, जिन-जिनने परभाव छोड़ा, वे भी जीवजाति के थे, हम भी जीवजाति के हैं । संबंध तो है ही नहीं पर से । एक ज्ञानज्योति जो, विकल्प मिटे, फिर निवृत्त होकर अपने आपमें समा जाने में क्या कठिनाई है ? मोह करें परपदार्थों में तो वे अपने नहीं होते, न मोह करें, तो अपने नहीं होते? पर तो पर ही हैं । मैं मैं ही हूँ । मोह करके कुछ लाभ की बात नहीं बनती, लेकिन यह मोही जीव इस ज्ञानप्रकाश के न होने के कारण अंधेरे में पड़ा है । और पर से अपना लगाव मानकर व्याकुल होता रहता है ।
प्रभुभक्ति का माहात्म्य―प्रभु वीतराग, सर्वज्ञ जिनेंद्रदेव की भक्ति की यही तो महिमा है । उनके स्वरूप को निरखकर, अपने आपमें उत्साह साहस जगाकर उनकी भाँति ही परपदार्थों से विलग होने का यत्न करना, यह पाठ मिलता है जिनेंद्र भक्ति से । लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि प्रभु के दर्शन करने से सारे संकट टल जाते हैं । इस बात को लोग जिस निगाह से निरखते हैं उस निरखने में तो यह संभव है कि दो एक संकट टल जायें और अनेक संकट उठते रहा करें, किंतु यथार्थ दृष्टि से प्रभुस्वरूप में हमारा ध्यान हो और स्पष्ट वह केवल चित्स्वरूप दृष्टि में आये, जिसके प्रताप से स्वयं सहज दृष्टि में आता है । तो ऐसी दृष्टि के समय यहाँ एक भी संकट नहीं रहता । कहां बसें संकट? संकट को मानता था यह उपयोग । अब यह उपयोग हो गया है दूसरे प्रकार का, तो वहाँ यह न हो सकेगा कि आधे संकट टलें और आधे संकट अभी रहें । प्रभुभक्ति का जितना क्षण है, सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना का जितना क्षण है, उतने क्षण में तो समस्त संकट टले हुए हैं । भले ही अबुद्धिपूर्वक अर्थात् उन विपदा संकटों का बुद्धि द्वारा ग्रहण न करते हुए एक कर्मविपाकवश कुछ ढंग से परिणमन चल रहे हों, चल रहे हों, पर उनसे हमें क्या? जब हमारा उपयोग उन संकटों को स्वीकार नहीं कर रहा, मान नहीं रहा तब तो यह निःसंकट ही है । यों सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना से संकट दूर होते हैं और ज्ञान विकसित होता है, बुद्धि व्यवस्थित रहती है । लाभ है केवल एक इस ही काम में, अन्य कामों में लाभ नहीं है ।
अन्य जीव से मोह करने की व्यर्थता―देखो भैया ! जब जीव सब न्यारे-न्यारे हैं, किसी का किसी जीव से रंच संबंध नहीं है । पति पत्नी, पिता पुत्रादि किसी भी जीव का किसी भी जीव के साथ रंच मात्र भी संबंध नहीं है । जीव का पुद᳭गल के साथ तो कुछ संबंध कहा जा सकता, चाहे उसे संयोग रूप कहो, चाहे अन्योन्य प्रवेशरूप कहो । जहाँ ही शरीर है, वहाँ ही आत्मा है, लो है ना संबंध जीव का पुद्गल से ? पर एक जीव का दूसरे जीव के साथ संबंध क्या है? घर में रहने वाले जितने भी लोग हैं, उनका परस्पर में एक दूसरे के साथ संबंध क्या है? संबंध भी माना जाता है थोड़ा, तो इतने प्रयोजन के लिये कि हमारी जिंदगी जरा आराम से कट जाये । अपने ही एक प्रयोजन के लिए है । जो समर्थ हैं, पुरुष हैं, कमाते हैं वे भी, जो स्त्री पुत्रादिक से संबंध रखते हैं । उनका भी प्रयोजन यही है कि मेरी जिंदगी सुख से कट जाये । कोई कहे वह अपेक्षा क्यों कर रहा? वे तो कमाने वाले हैं, स्वयं निर्भर हैं, अपने पैरों पर खड़े हुए हैं, लेकिन नहीं । मोह राग के वातावरण में ऐसा ही पाया जा रहा है कि पुरुष भी एकाकी रह जाये तो वह भी जीवन में कुछ-कुछ महसूस करने लगता है । स्त्री पुत्र तो यह सोचते ही हैं कि इसकी वजह से सारी जिंदगी सुख से कट रही है । यद्यपि जीवन सुख से कटने का अंत: कारण अपना-अपना कर्मोदय है, किंतु जिस तरह की विचारधारा लोगों में चलती हैं, उनके अनुसार कह रहे हैं, पर संबंध है कुछ नहीं । एक जीव का दूसरे जीवों के साथ रंचमात्र भी संबंध नहीं है । खुद ही यह विकल्प उठाता, विचार बनाता, लाज लिहाज भय आदिक सब बातें उठाकर स्वयं ही दुःखी होता है और संबंध मानता है । स्थिति तो है यह, किंतु मोह में हो रही हैं उल्टी बातें ।
किसी जीव का अन्य जीव के साथ संबंध का अभाव―अहो मोह कर करके किसने पार पाया ? पूर्वभव की बात जाने दो । हमारे दादा ने मोह किया तो दादा ने क्या पार पाया? जब वे थे, वे दिन तो निकल गए । अब जहाँ होंगे उनसे मेरा संबंध क्या? पता ही नहीं कि वे अब किस गति में हैं? और पता भी हो जाया लो यह तुम्हारा दादा खड़ा है तो उस जीव से राग नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी तो पर्याय ही बदल गयी, प्यार का आधार ही बदल गया । तो एक जीव का दूसरे जीव के साथ संबंध रंचमात्र भी नहीं है । तब समझिये―जैसे जगत में अनंत जीव हैं उस ही तरह के भिन्न ये घर में आये हुए जीव हैं । बल्कि उन अनंत जीवों के कारण मेरा बिगाड़ नहीं हो रहा, वे भिन्न हैं, अलग हैं, हमने उनसे संबंध ही नहीं मान रखा तो वे न हमारे सुधार के कारण व्यवहारत: भी बन रहे हैं और न हमारे बिगाड़ के कारण बन रहे हैं, लेकिन इन घर के जीवों से जिन में राग स्नेह बन रहा है, आश्रय की वृष्टि से मैं निरंतर कुटपिट रहा हूँ, व्यथित हो रहा हूं, मथित हो रहा हूं, अनुभव करके देख लीजिए, तो बाह्य में इस जीव का कहीं कोई मंगल ही नहीं है, कल्याणमय नहीं है, बाह्य में कोई पदार्थ इस जीव का सारभूत नहीं है, शरणभूत नहीं है । ऐसा बड़ा दृढ़ विचार बना लीजिए अंत: इसे कोई रोकने वाला नहीं है । आप अपने अंत: कल्याण का विचार बनायें उसमें कोई बाधा देने वाला नहीं । यथार्थ ज्ञान प्रकाश में रहे, बस इतना ही मात्र इस जीवन में कर्त्तव्य है ।
अनंत ज्ञानियों के ज्ञान में मेरा भलापन झलकने की आकांक्षा―सच्चे ज्ञान प्रकाश से अलग होने के अंधेरे में विडंबना, विपदायें सारी की सारी सिर पर मंडरा जाती हैं और तब यह स्थिति बन जाती है कि मोहियों को तो ज्ञानी पागल नजर आते हैं और ज्ञानियों को मोही पागल नजर आ ही रहे हैं । तो किसी की निगाह में हम पागल तो रहेंगे । अगर मोहियों के रूप में रहकर हम मोहियों की निगाह में पागल न रह सके तो अनंत ज्ञानी सिद्ध भगवान अरहंत भगवान सिद्ध महाराज बड़े-बड़े पुरुष, उनकी दृष्टि में तो हम पागल हैं । वे विकल्प तो नहीं कर रहे, पर उनकी ओर से कह रहे और यहाँ आपके परिचय वाले मोही लोग कितने होंगे बस हजार, पाँच सौ । यदि इन हजार पांच सौ लोगों ने हमें पागल न समझा तो इन अनंत जीवों के ज्ञान में तो हम पागल हो गये हैं । यह नहीं मन में लाते कि मैं ज्ञानियों की निगाह में पागल न रहूं, ज्ञानियों का प्यारा बन जाऊँ उनकी दृष्टि में मैं भला बन जाऊँ । यह तो है मेरे विवेक की बात, और उन हजार पांच सौ लोगों की निगाह में जो कि स्वयं कर्मप्रेरित हैं, मलिन हैं, दुःखी हैं, जन्म मरण के संकट में हुवे हुए हैं उनकी निगाह में हम भले बनना चाहते । ज्ञानी पुरुष में यह बल है कि यह परिचित विश्व चाहे सारा मुझे बुरा कहे उससे मुझे क्या ? और कदाचित् सारा विश्व भी मुझे भला कहे तो उससे मुझे क्या? शांति का, निराकुलता का मार्ग तो यही है । स्वयं में, अपने में, अपने आपके दर्शन में, अपने निकट रहने में यहाँ ही अपना कल्याण है । पर की परिणति कुछ हो, पर जीव किस ही प्रकार रहा करें, मेरा तो सब कुछ मेरे में ही मेरे से है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की निष्पीतविश्वनिजपर्ययशक्तिता―यह मैं कारणसमयसार सहजपरमात्मतत्त्व ज्ञानरूप लक्ष्मी के विकास का कारण हूँ । कैसा हूँ यह मैं कारण प्रभु जिसने अपनी समस्त शक्तियों को और परिणतियों को पी डाला है, इस अभेद सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन के काल में न गुणभेद दृष्टि में रहता है, न पर्यायविस्तार दृष्टि में रहता है । क्या नजर आ रहा है वहाँ ? क्या कहा जाये? क्या वहाँ गुण नहीं नजर आ रहे? अरे गुण तो ऐसे छिपे हुए हैं उस द्रव्य में कि जैसे कभी तप्तभूमि पर जल की बूंद गिर जाये तो वह विलीन हो जाती है । ऐसे ही इस चैतन्यतेज में वे समस्त शक्तियां, समस्त परिणतियां विलीन हैं । उनका अनुभव केवल एक तेज स्वरूप है ꠰ समझने के समय में यह विषय उठता है―आत्मा अनंत गुण रूप है, प्रत्येक एक-एक गुण में भूत भावी अनंतपर्यायें हैं । उनमें से प्रत्येक एक-एक पर्याय में अनंत रस मौजूद हैं । उन एक-एक रसों में अनेक अविभाग प्रतिच्छेद अथवा अंश हैं, ऐसे कितने ही गुणों का पर्यायों का पिंड है यह आत्मा । इस प्रतिपादन वाली गली से चलें तो ऐसे गुण नजर आयें आत्मा में, पर आत्मा के स्वरूप की ओर से स्वरूप के मुकाबले याने सम्मुखता से चलें तो यहाँं कुछ भी नजर नहीं आ रहा । इसकी पीठ पीछे तो हमारा विलास समझ में आया, पर इसके सामने यह कुछ भी भेददृष्टि में नहीं रहा । यह तो एक निज शक्तिमात्र है । अपने स्वरूपमात्र है । कहाँ गये वे भेद जो अभी ध्यान में आ रहे थे ।
अनंतशक्तिमय अंतस्तत्त्व की जिज्ञासा―ज्ञान गुण, दर्शन गुण, चारित्र गुण, आनंद गुण ये सब समझ में भी आ रहे । पुद्गल में कहां है ज्ञान और आनंद? जीव में ही तो है ज्ञान और आनंद । ये सब गुण समझ में आ रहे थे, इनकी परिणतियां भी दृष्टि में आ रही थीं, जिनमें ये गुण और पर्याय नजर आ रहे थे, जिनके संबंध में ये विशेषतायें विदित हो रही थीं तो इन विशेषताओं को सुनकर जिज्ञासा हुई कि जिसकी यह विशेषता है वहाँ भी तो चलें, उसके भी तो दर्शन करें । यों जिज्ञासा तेज हुई इस आत्मदेव की तारीफ सुनकर कि यह ज्ञानस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, सर्वोत्कृष्ट है, सार है, शरण है इन विशेषताओं को सुनकर एक तीव्र जिज्ञासा हुई कि जिसके बारे में ये योगी जन इस-इस प्रकार से कहा करते हैं―चलें तो सही । वहाँ चलने का ढंग है भूतार्थगति । एक का जानना, एक में देखना । एक में देखने से एकत्व की सीमा से चले तो अपने आप विश्राम भी मिला, दुविधा भी हटी और वहाँ स्वरूप का अनुभव हुआ । उस अनुभव के काल में भी कुछ सोच न सका यह । केवल आनंद लूटता रहा, पर पूर्व वासनावश उस आनंद को लूटने की क्षमता न रही । वह घोर विकल्पों में आया, तब चिंतन हुआ ओह, कहां था वहां गुणभेद, कहां था वहाँ पर्यायभेद? यों जिसने अपनी समस्त पर्यायों की और शक्तियों को पी लिया है ऐसा यह सहजपरमात्मतत्त्व मैं हूँ । यह तो एक अनुभव के मार्ग से बात कही जा रही है ।
सहज स्वसंवेदन में अभेद अंतस्तत्त्व का प्रकाश―अब जरा स्वप्रतिबोध के मार्ग से चलकर देखिये―द्रव्य वह होता है जो अनादि से अनंतकाल तक रहता है, ऐसा वह द्रव्य शाश्वत है । उस एक द्रव्य में पर्यायें सब पी ली गई हैं अर्थात् पर्यायों के समय पर्यायें होती रहती हैं, पर उस समस्त त्रैकालिक अखंड द्रव्य को निरखने पर सब पर्यायें उसमें विलीन हो जाती हैं । यद्यपि, उस पदार्थ में पर्याय एक समय में एक होती है और दूसरे समय में पूर्व पर्याय विलीन होती है । लेकिन यहां प्रतिबोध के समय, दर्शन और अनुभव के समय तो वहाँ वे सारी पर्याय लीन हैं । भूत भविष्य की तो कथा जाने दो, वर्तमान पर्याय भी विलीन है । कैसे हो सकता है यह कि पदार्थ में वर्तमान पर्याय भी विलीन हो जाये अथवा विलीन नहीं हो रही । जिस काल में हम केवल द्रव्य को निरख रहे हूँ तो यह निरखनरूप, अनुभवनरूप पर्याय इस समय हमारी चल रही है पर उसकी दृष्टि में तो पर्याय मात्र ही जब नहीं है तो इस प्रभु के दर्शन के समय तो समस्त पर्याय निष्पीत हैं, ऐसी निष्पीतता का अनुभव करने वाली यद्यपि पर्याय ही है, पर जिस वर्तमान पर्याय में समस्त पर्यायों को लीन कर दिया ऐसा द्रव्य नजर आ रहा हो वह परिणति धन्य है । यह तो अंत: चिंतन चल रहा है । इस चिंतन में यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व निष्पीत निज पर्यायशक्तिरूप हूँ, मैं ही हूँ, एक चिन्मात्र, जिसमें गुणभेद नहीं, पर्यायभेद नहीं । जैसे बहुत परिश्रम से बनाई हुई मिठाई को एकतान होकर जब खा रहे हैं तो खाते समय उसमें यह भेद तो नहीं चलता कि इसमें इतनी चीजें पड़ी हैं, यह खूब सिका है, अच्छा बना है, अच्छी मिठाई है । इतना तक भी विकल्प नहीं उठता । तो यह तो है बाहरी बात । यहाँ अंतरंग में चित्स्वरूप के अनुभव के समय गुणपर्याय आदिक किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता । केवल एक चिन्मात्र सहजपरमात्मतत्त्व ही दृष्टि में होता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की चैतन्य तेजःस्वरूपता―समस्त बाह्य पदार्थों को असार, भिन्न अशरण जानकर उनके विकल्प को त्यागकर अपने आपमें विश्राम करके अंतस्तत्त्व को अनुभवने वाले इस ज्ञानी को यह निजसहजस्वरूप किस रूप में प्रतिभास होता है? उसको यदि कुछ कहा जा सकता है तो इन शब्दों में कह सकते हैं कि वह सहजस्वरूप चैतन्य तेजस्वरूप है । यद्यपि पुद्गल पदार्थों की भाँति इस अंतस्तत्त्व में विकास नहीं है । वह विकास तो पुद्गलद्रव्य की द्रव्यपर्याय है, किंतु ज्ञान का अभ्युदय एक विलक्षण प्रकाशरूप में हुआ करता है । हम अपने आपमें केवल अपने आपके सहज शुद्ध स्वरूप को निरखना चाहें तो हमारे निरखने में कुछ विलक्षण चित्प्रकाश ही आयेगा और उसे तेजस्वरूप यों भी कहा गया है कि जैसे कोई तेज प्रताप बहुतसी मलिनताओं को नष्ट कर देता है, अग्नि का तेज जैसे बहुतसी मलिनताओं को खतम कर देता है और उस तेज में आये हुए पदार्थ शुद्ध हो जाते हैं इसी प्रकार यह चैतन्य तेज भी अनेक विकारों को नष्ट कर देता है, खा डालता है और इस चैतन्य तेज में आया हुआ उपयोग विशुद्ध हो जाता है । मैं केवल चैतन्य तेजस्वरूप हूँ ।
अहं के निर्णय से सांसारिक सकल विडंबनाओं का लोप―मैं क्या हूँ, इसके निर्णय की असावधानी का ही फल है कि निगोद पशु पक्षी विकलत्रय नाना कुगतियों में इस आत्मदेव को फंसना पड़ रहा है और बड़े-बड़े कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, सारा बिगाड़ हो गया है । यह सब स्वस्वरूप के निर्णय की असावधानी का अथवा अज्ञानता का फल है । देखिये यद्यपि सभी जीव अपने का अहं अहंरूप से अनुभव करते हैं । प्रत्येक जीव में बोल सकता हो तो, न बोल सकता हो तो अहंरूप से अनुभवन संवेदन सबमें हो रहा है, पर जिन जीवों ने पर्यायों में अहंरूप का संवेदन किया उनका परिणाम यह बंधा है, यह जन्ममरण है, और जिन ज्ञानियों ने इस शुद्ध चैतन्य तेज स्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव किया है उनके विकार, उनके संकट सारे समाप्त हो जाते हैं । परिजन आपके आत्मा का शरण नहीं हैं, आपके लिए उत्तम नहीं हैं, सारभूत नहीं हैं प्रत्युत, व्यर्थ ही उनके आश्रय से विकल्प बनाकर अपने आत्मदेव की दुरवस्था की जा रही है, उन सब बातों को छोड़कर कुछ क्षण तो । अपने आपमें यह अनुभवन करिये, इसकी दृष्टि करिये कि मैं देह से भी निराला, विकारों से भी निराला चैतन्य तेज स्वरूप हूँ । उस चैतन्य तेज स्वरूप के मुकाबले में आकर ये विकार ठहर नहीं सकते, भस्म, हो जायेंगे । अग्नि के मुकाबले में ईंधन आकर ठहर नहीं सकता, भस्म हो जायेगा । इसी प्रकार इस चैतन्यस्वरूप के सम्मुख होने पर विकार ठहर नहीं सकते, क्योंकि वे तो अत्यंत असार थे ही । उन विकारों में कुछ दम न थी । माया को भ्रम से अपने आप पर उड़ेल रखा था । वह कहां ठहर सकेगा?
विशुद्ध ज्ञान साम्राज्य का परमसंतोष―ज्ञानी पुरुष किस बल के कारण विलक्षण और परिपूर्ण प्रसन्न रहा करते हैं? उनको यह स्वबल मिला है । हालाँकि ऐसे ज्ञानी पुरुष धनिकों को, राजाओं को, उलाहना देकर उनकी तुच्छता बतायें यह उनकी वृत्ति नहीं है, लेकिन कवि जन इसका एक चित्रण करते हैं, मानो किसी ज्ञानी पुरुष के सामने से कोई राजा निकल गया बिना नम्र हुए, बिना नमस्कार से, उद्दंडता से गर्व में आकर, तो उसके प्रति कवि उस साधु की ओर से ही मानो कहता है कि हे राजन् ! तुम किस बात का गर्व कर रहे हो? तुम यदि बड़े-बड़े ऊंचे कीमती रेशमी वस्त्रों के पहिनने से अपने में महत्त्व अनुभव करते हो और अपना गौरव समझते हो तो मैं भी यहाँ बक्कलों को पहिनकर अथवा जो दिशायें हैं उनको पहिनकर अपने में महत्त्व का अनुभव करता हूँ, गुप्त रहता हूँ । तुम गर्व किस पर करते हो? गर्व किया जाता है किसी संतोष के आश्रय पर । तुम यदि अपने अर्थ के (धन वैभव के) कारण गर्व करते हो (धनवैभव को अर्थ भी कहते हैं) तो मैं भी न्याय, व्याकरण, अध्यात्म आदिक बहुत से आगम के शब्दों के अर्थ से मैं तृप्त रहता हूँ । हे राजन् ! तुम क्या गर्व करते हो? तुमने यदि राज्य साम्राज्य पाया है, उस राज्य साम्राज्य पर गर्व करते हो तो मैंने भी विशुद्ध सहज अविनाशी ज्ञान साम्राज्य पाया है ꠰ तो जो तुमने साम्राज्य पाया है वह गर्व करने लायक नहीं है बल्कि जिसके विशाल तृष्णा लगी हो, जिसको विकल्प सता रहे हों वह दरिद्र है । एक कवि की कल्पना में एक मुकाबले की बात कही जा रही है । आप अपने में इन दोनों हो तत्त्वों को रख लीजिये । आपमें ही तो संन्यास तत्त्व है और आपमें ही यह धनिकपना है । तो यह वैभव, यह साम्राज्य कुछ सारभूत नहीं है, अशरण है, खतरे की चीज है, धोखे में डालने वाली है, जिसकी आसक्ति से, जिसके अनुराग से पशु पक्षी जैसे अनेक भवों में दुःख भोगना पड़ेगा ।
स्व के सम्यक् निर्णय के बिना प्रवृत्तियों की क्लेशहेतुता―अपने आपको इस प्रकार अनुभव मत करो कि मैं फलाने नाम का हूँ, फलाने परिवार का हूँ, इस परिवार में मैं बड़ा हूँ, समझदार हूँ, पालन पोषण करता हूँ, इतने बच्चों वाला हूँ । बच्चे भी कितने सुशील हैं? अरे सुशील होगे तो वे अपने लिए । मेरे में क्या गुण पैदा कर देंगे? सर्व प्रकार के विकल्पों को तोड़कर अपने आपमें यह मैं विशुद्ध केंद्र तेजस्वरूप हूँ, अन्य कोई मेरा स्वरूप नहीं है, इस प्रकार की दृढ़ भावना में आइये । में क्या हूँ, केवल इस ही के निर्णय की निश्चय की बात चल रही है इस स्तवन में, और यही निर्णय करना, यही भक्ति है, यही उपासना है यही धर्मपालन है, यही ध्यान है, सब कुछ इसी पर निर्भर है । एक बर्तन औंधा धर दिया जाये तो उसके ऊपर सभी औंधे बर्तन धरे जा सकेंगे, सीधे नहीं । और नीचे का बर्तन सीधा जमा दिया जाये तो उस पर जितने बर्तन धरेंगे, सीधी आयेंगे, उल्टे नहीं । तो एक इस ही स्वस्वरूप का निर्णय किए बिना अर्थात् अज्ञान अवस्था को रखकर जितनी भी बुद्धियाँ की जायेगी वे सब ओंधी चलेंगी । और, एक इस शुद्ध निर्णय वाली बुद्धि पर जितनी भी जप, तप, ध्यान, चर्चा, ज्ञान, स्वाध्याय आदिक प्रवृत्तियां की जायेंगी वे सब सीधी बनेंगी । जो बात बहुत अधिक महत्त्व की है उसके तो सुनने में भी, समझने में भी आलस्य है, अजी बहुत कठिन बात है । सुनकर क्या करें? सुनना बेकार है । तब उनके लिए सकार हो, बेकार न रहे ऐसी चीज क्या होगी? क्या घर रहे, बच्चों का मोह थे, धन वैभव की तृष्णा रहे, विकल्प रहें, यह उनके सकार बन जायेगा? उनके लिए यह आत्मा की चर्चा तो कठिन जँच रही है, उसे तो बेकार साबित कर देते हैं । सो ठीक है । अपने आपका ठीक सही निर्णय किए बिना सुधार न होगा, संसारसंकटों से छुटकारा न होगा । किस जगह हम अपने उपयोग को रमा लें कि सारे संकट समाप्त हो जायें? वह जगह हम आपको यों दृष्टि में न आयेंगी इसी कारण इस स्तवन में मैं का निर्णय किया जा रहा है कि मैं वास्तव में क्या हूं?
अपने ध्रुव सार में ही लगने से हितलाभ―प्रत्येक जीव अपने आपके मैं को इस तरह रखना चाहते हैं कि जैसा मैं सदा रह सकूं ꠰ तो इसको इच्छा है अपने ध्रुवत्व की । मेरा काम ऐसा चले जो सदा निभता रहे । मैं सदा उस ही स्थिति पर रहूं । कल के दिन मैं बहुत बड़ा बन जाऊं और परसों से मैं धूल में मिल जाऊँ, ऐसी बात का अगर अंदाज है तो उसे पसंद न रहेगा । जीव में यह वांछा है कि मेरा बिंब रहे । सदा जैसा मैं रह सके वह किस स्वरूप है ?अब सोचिये कि यह में सदा एक जैसा कैसे रह सकता हूं? अरे पर की अपेक्षा बिना यह मैं सहज जैसा हूँ वैसा रह सकता हूं और बनकर ठनकर जो बात पायेंगे वह सदा नहीं रह सकती । तो कुछ वर्षों के लिए जो भी उद्यम किया जा रहा है वह बनने ठगने की बात है, सहज स्वरूप नहीं है । यह सदा न रहेगी, किंतु मेरा जो सत्त्व हैं पर की अपेक्षा बिना निरपेक्षरूप से अपने आप जो कुछ हो वह सदा रह सकता है । उसरूप अपना अनुभव किया जाये तो बेड़ा पार होगा । अगर नहीं अनुभव करते तो उसका फल यही है जैसा कि संसार में अनेक जीवों का दिख रहा है । झोटों को, लदने वाले पशुओं को देखो―चलते भी जा रहे हैं, बोझ भी लादे हैं और चमड़े के चाबुक पूरे बल के साथ खींचकर मार देते हैं । उनके अभी गर्दन पर खून है, फिर भी उस पर जुवां धरकर उन्हें लोग जोतते हैं, न चलें तो बड़ी तेजी से चाबुक की मार देते हैं । आजकल तो पशुवों का वध करने वाले जगह-जगह बूचड़खाने बने हैं । पशुवों की बात क्या मनुष्यों को छुरी से भोंककर मार देने वाले अनेक दृष्टांत जगह-जगह सुनने को मिलते हैं । ऐसे दु:खभरे संसार में
विकलत्रयों की तो कहानी ही क्या कहें?
अज्ञानमय व्यापार से विराम पाने में ही लाभ―ऐसे दु:खभरे संसार में रहना ही मंजूर है क्या आपको? अगर रहना मंजूर है तो ठीक है फिर उसके लिए इस आत्मज्ञान के प्रकाश की जरूरत नहीं है । और यह रोजिगार भी अनादिकाल से जमा जमाया है । तो दुनिया की बुद्धिमान लोग भी यह कहते हैं कि जमा जमाया रोजिगार न छोड़ो । तो यह अनादिकाल से जन्ममरण करना, दुःख भोगना यह जमा जमाया रोजिगार है, इसी लिए तुम नहीं छोड़ना चाहते हो तो इसके लिए हम क्या करें? लेकिन ये संकट भी सहते जा रहे और उन्हीं में ही रमते जा रहे, यह कितनी उन्मत्तपने की बात है । और है अंतर कितना ? जरासी दृष्टि मोड़ी, भीतर में दृष्टि अभिमुख की और वह? मिल जाता है यह सहजपरमात्म प्रभु । जो ही एक मात्र शरण है, जो ही एकमात्र मेरा स्वरूप है,जिसके अतिरिक्त इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं है । कहते हैं ना कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है । यह समझ कब आये? जब अपना यह सहजस्वरूप दृष्टि में आये तब ही अच्छे ढंग से समझ बन सकती है कि परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है । ऐसा यह मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व हूँ जो स्वरसत: निज स्वरूप हूँ, यह मैं आत्मा एक पदार्थ हूँ, कल्पना की चीज नहीं हूँ, अनुभव करने वाले पुरुष इसको भली भांति समझते हैं । सबसे निराला चिद्भावात्मक यह मैं आत्मपदार्थ हूँ, और अनुपम स्वरूप मैं हूँ कि जिस स्वरूप में पहुँचने पर सर्वसमृद्धियां जगती हैं और सारे संकट टलते हैं । उसकी ओर आइये । इसके मुकाबले में तीन लोक का वैभव भी जीर्ण तृण की तरह है इसमें रंचमात्र संदेह नहीं, क्योंकि जैसे जीर्ण तृण से मेरा कोई काम नहीं बनता इसी तरह तीन लोक की संपदा से भी इस मेरे आत्माराम का कोई काम नहीं बनता । मोह का रंग, तृष्णा का रंग, पर का आकर्षण―यह तो विपदा छायी हुई है । इन विपदाओं से किसी भी प्रकार छूट सकें सो प्रयत्न करना चाहिए ।
ज्ञानार्जन के उत्साह की प्रेरणा―यह शुद्ध सहजपरमात्मतत्त्व किसी उपाय से मेरी दृष्टि में आये तो वह उपाय है ज्ञानार्जन । ज्ञानी की सेवा और ज्ञान की उपासना । यह सब हमारा एक उपाय है । जब हम वस्तुत्व स्वरूप की जानकारी के द्वारा अपने मर्म को समझ पाते हैं तब इसका महत्त्व ज्ञात होता है कि ज्ञान का क्या महत्त्व है, अन्यथा नहीं आता । जैसे कि लोग समझते हैं ना―अजी मंदिर में बहुत से शास्त्र जोड़कर रखकर क्या करना? कोई पढ़ने वाला तो है ही नहीं । तो ऐसा विचार करने वाले मोहितों की निगाह में यह बात नहीं है कि यदि हम हजार लोगों में से एक दो भी आदमी किसी एक ग्रंथ से कुछ अपना ज्ञानप्रकाश पालें तो उस अन्य संचय में हजारों का भी, लाखों का भी व्यय हुआ हो तो भी वह सफल है, किंतु मोही अज्ञानी लोग सोचते हैं कि अगर किसी एक दो व्यक्तियों ने ज्ञानप्रकाश पा लिया तो उससे मुझे क्या मिला ? मैं क्यों सोचूं? पर एक बात है, भैया! जो दूसरों के लिए ज्ञानवृद्धि पर हर्ष नहीं मान सकता, वह अपने आपके ज्ञानविकास के लिए भी यत्न नहीं कर सकता । जैसे कि जो दूसरों के प्रति सुखी रहने की भावना नहीं कर सकते? वे अपने आपमें भी सुखी होने जैसा काम नहीं कर सकते ।
ज्ञान का महत्त्व―ज्ञान का क्या महत्त्व है उस ज्ञान प्रकाश का, वस्तुस्वरूप के ज्ञान का क्या महत्त्व है, इसको मोहीजन नहीं जान सकते तो मत जानो, किंतु अनंत ज्ञानियों के ज्ञान में वह बात विदित है कि शुद्ध चैतन्य तेज का क्या महत्त्व है और उसके परिज्ञान का क्या महत्त्व ? एक कवि की कल्पना में अलंकार रूप से बात आयी कि जंगल में रहने वाली भिल्लनियों को जो कि गुंजाफल के आभूषणों में ही संतुष्ट रहती हैं, उन्हें कदाचित् कहीं से गजमोती मिल जाये तो उनका उपयोग वे पैरों को घिसने में किया करती हैं तो उन भिल्लनियों ने उन लाखों करोड़ों की कीमती मोतियों का अनादर किया है तो करें, लेकिन क्या वे मोतियाँ बड़े-बड़े राजा महाराजों की पट्टरानियों के गले में शोभा को नहीं प्रदान करती हैं अर्थात् प्रदान करती हैं । इसी प्रकार से ज्ञान तो ज्ञान ही रहेगा । उस ज्ञानतेज का जो स्वरूप है सो ही रहेगा । जो उसके महत्त्व को जानेगा वह उसका सदुपयोग करके अपने को कृतार्थ बना लेगा । जो उसके महत्त्व को न जानेगा वह यों ही अज्ञानभाव में पड़ा रहेगा । संसार में सारभूत बात अपने आपमें अंत:प्रकाशमान सहज शुद्ध स्वरूप की जानकारी कर लेना और उसके ही उपयोग में स्थिर हो लेना है इसके आगे और कोई भी सार बात नहीं है । यह ज्ञानी जिसने कि अपने विवेक का सदुपयोग किया है, अनुभव कर रहा है विकाररहित परनिरपेक्ष सहज चिन्मात्र यह मैं परमात्मतत्त्व हूँ ।