विपतिमें धर धीर, रे नर! विपतिमें धर धीर
From जैनकोष
विपतिमें धर धीर, रे नर! विपतिमें धर धीर
सम्पदा ज्यों आपदा रे!, विनश जै है वीर।।रे नर. ।।१ ।।
धूप छाया घटत बढ़ै ज्यों, त्योंहि सुख दुख पीर।।रे मन.।।२ ।।
दोष `द्यानत' देय किसको, तोरि करम-जँजीर।।रे मन.।।३ ।।