श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त
From जैनकोष
श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त
तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं, जाको नाहीं आदि न अन्त।।श्री. ।।
सुगुन छियालिस दोष निवारैं, तारन तरन देव अरहंत ।
गुरु निरग्रंथ धरम करुनामय, उपजैं त्रेसठ पुरुष महंत ।।श्री. ।।१ ।।
रतनत्रय दशलच्छन सोलह-कारन साध श्रावक सन्त ।
छहौं दरब नव तत्त्व सरधकै, सुरग मुकति के सुख विलसन्त ।।श्री. ।।२ ।।
नरक निगोद भ्रम्यो बहु प्रानी, जान्यो नाहिं धरम-विरतंत ।
`द्यानत' भेदज्ञान सरधातैं, पायो दरव अनादि अनन्त ।।श्री. ।।३ ।।