सुन चेतन इक बात
From जैनकोष
सुन चेतन इक बात
सुन चेतन इक बात हमारी, तीन भुवनके राजा ।
रंक भये बिललात फिरत हो, विषयनि सुखके काजा ।।१ ।।
चेतन तुम तो चतुर सयाने, कहाँ गई चतुराई ।
रंचक विषयनिके सुखकारण, अविचल ऋद्धि गमाई ।।२ ।।
विषयनि सेवत सुख नहिं राई, दुख है मेरु समाना ।
कौन सयानप कीनी भौंदू, विषयनिसों लपटाना ।।३ ।।
इस जगमें थिर रहना नाहीं, तैं रहना क्यों माना ।
सूझत नाहिं कि भांग खाइ है, दीसै परगट जाना ।।४ ।।
तुमको काल अनन्त गये हैं, दुख सहते जगमाहीं ।
विषय कषाय महारिपु तेरे, अजहूँ चेतत नाहीं ।।५ ।।
ख्याति लाभ पूजाके काजैं, बाहिज भेष बनाया ।
परमतत्त्व का भेद न जाना, वादि अनादि गँवाया ।।६ ।।
अति दुर्लभ तैं नर भव लहकैं, कारज कौन समारा ।
रामा रामा धन धन साँटैं, धर्म अमोलक हारा ।।७ ।।
घट घट साइंर् मैंनू दीसै, मूरख मरम न पावे ।
अपनी नाभि सुवास लखे विन, ज्यों मृग चहुँ दिशि धावै ।।८ ।।
घट घटसाई घटसा नाइंर्, घटसों घटमें न्यारो ।
घूंघटका पट खोल निहारो, जो निजरूप निहारो ।।९ ।।
ये दश माझ सुनैं जो गावै, निरमल मनसा करके ।
`द्यानत' सो शिवसम्पति पावै, भवदधि पार उतरके ।।१० ।।