सौ सौ बार हटक नहिं मानी
From जैनकोष
सौ सौ बार हटक नहिं मानी, नेक तोहि समझायो रे ।।टेक. ।।
देख सुगुरुकी परहित में रति, हित उपदेश सुनायो रे ।।
विषयभुजंगसेय दुखपायो, फुनि तिनसों लपटायो रे ।
स्वपदविसार रच्यो परपदमें, मदरत ज्यों बोरायो रे ।।१ ।।
तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो रे ।
क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो रे ।।२ ।।
अब हू समझ कठिन यह नरभव, जिनवृष बिना गमायो रे ।
ते विलखैं मणिडार उदधिमें, `दौलत' को पछतायो रे ।।३ ।।