हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै
From जैनकोष
हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै ।।टेक ।।
रागद्वेष दावानलतें बचि, समतारसमें भीजै।।१ ।।
परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूँ छीजै।।२ ।।
कर्म कर्मफलमाहि न राचै, ज्ञानसुधारस पीजै।।३ ।।
मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज `दौल' की लीजै।।४ ।।