हे हितवांछक प्रानी रे
From जैनकोष
हे हितवांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी ।।टेक ।।
श्रीजिनचरन चितार धार गुन, परम विराग विज्ञानी ।।
हरन भयामय स्वपर दयामय, सरधौ वृष सुखदानी ।
दुविध उपाधि बाध शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणथानी ।।१ ।।
मोह-तिमिर-हर मिहर भजो श्रुत, स्यात्पद जास निशानी ।
सप्ततत्त्व नव अर्थ विचारह, जो वरनै जिनवानी ।।२ ।।
निज पर भिन्न पिछान मान पुनि, होहु आप सरधानी ।
जो इनको विशेष जानन सो, ज्ञायकता मुनि मानी ।।३ ।।
फिर व्रत समिति गुपति सजि अरु तजि, प्रवृति शुभास्रवदानी ।
शुद्ध स्वरूपाचरन लीन ह्वै, `दौल' वरौ शिवरानी ।।४ ।।