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| <p class="HindiText">दही व गुड़ के मिश्रित स्वादवत् सम्यक् व मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान व ज्ञान को धारण करने की अवस्था विशेष सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाता है। सम्यक्त्व से गिरते समय अथवा मिथ्यात्व से चढ़ते समय क्षणभर के लिए इस अवस्था का वेदन होना संभव है। </p>
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| <ol><li> <span class="HindiText"><strong> [[#1 | मिश्रगुणस्थान निर्देश ]]</strong> <br /></span>
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| <ol><li class="HindiText">[[#1.1 | सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का लक्षण]]</li>
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| <li class="HindiText">[[#1.2 | प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है]]</li>
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| <li class="HindiText">[[#1.3 | संयम धारने की योग्यता नहीं है]]</li>
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| <li class="HindiText">[[#1.4 | मिश्र गुणस्थान का स्वामित्व]]</li>
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| <li class="HindiText"><strong>[[#2 | मिश्र गुणस्थान संबंधी शंका समाधान]]</strong> <br /></span>
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| <ol><li class="HindiText">[[#2.1 | ज्ञान व अज्ञान का मिश्रण कैसे संभव है]]
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| <li class="HindiText">[[#2.2 | जात्यंतर ज्ञान का तात्पर्य]]
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| <li class="HindiText">[[#2.3 | मिश्रगुणस्थान में अज्ञान क्यों नहीं कहते ? ]]<br>
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| <li class="HindiText">[[#2.4 | संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व में क्या अंतर है ? ]]
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| <li class="HindiText"> [[#2.5 | पर्याप्तक ही होने का नियम क्यों ?]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.6 | इस गुणस्थान में क्षायोपशमिकपना कैसे है ?]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.7 | मिश्रगुणस्थान की क्षायोपशमिकता में उपरोक्त लक्षण घटित नहीं होते]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.8 | सर्वघाती प्रकृति के उदय से होने के कारण इसे क्षायोपशमिक कैसे कह सकते हो ?]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.9 | सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व का अंश कैसे संभव है ?]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.10 | मिश्रप्रकृति के उदय से होने के कारण इसे औदयिक क्यों नहीं कहते ?]]</li>
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| <li class="HindiText"> [[#2.11 | मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के क्षय व उपशम से इसकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं]]</li>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">मिश्रगुणस्थान निर्देश </strong><br /></span>
| | <li><span class="HindiText"><strong class="HindiText">[[ #1 | भेद व लक्षण ]]</strong><br /> |
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| <li><p class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का लक्षण</strong></p></li>
| | <li class="HindiText">[[ #1.1 | क्षेत्र सामान्य का लक्षण।]]<br /> |
| <p><span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत/1/10,169</span> <p class=" PrakritText ">दहिगुडमिव वामिस्सं पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं। एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो।10। सद्दहणासद्दहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु। विरयाविरएण समो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो। 169।</p> <p class="HindiText">= 1. जिस प्रकार अच्छी तरह मिला हुआ दही और गुड़, पृथक् पृथक् नहीं किया जा सकता इसी प्रकार सम्यक्त्व व मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।10। (<span class="GRef"> धवला 1/1, 12/ गाथा 109/170</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/22/47 </span>) 2. जिसके उदय से जीवों के तत्त्वों में श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो है, उसे विरताविरत के समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।169। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/655/1102 </span>)।</p> | | </li> |
| <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/14/589/23 </span><p class="SanskritText"> सम्यङ्मिथ्यात्वसंज्ञिकायाः प्रकृतेरुदयात् आत्मा क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपयोगापादितेषत्कलुषपरिणामवत् तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूप: सम्यग्मिथ्यादृष्टिरित्युच्यते</p> <p class="HindiText">= क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के उपभोग से जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है, उसी तरह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है। यही तीसरा सम्यङ्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है।</p> | | <li class="HindiText">[[ #1.2 | क्षेत्रानुगम का लक्षण।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/166/7 </span><p class="SanskritText"> दृष्टि: श्रद्धा रुचि: प्रत्यय इति यावत्। समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः।</p> <p class="HindiText">= दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीव के समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि होती है उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/21/46 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण। ण य सम्मं मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो।21। </p><p class="HindiText">= जात्यंतररूप सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है, उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते हैं।</p> | | <li class="HindiText">[[ #1.3 | क्षेत्र जीव के अर्थ में।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/107/145</span><p class=" PrakritText "> मिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्सं व तच्चमियेरेण सद्दहदि एक्कसमये ...।107।</p><p class="HindiText"> = सम्यग्मिथ्यात्व नामक मिश्र प्रकृति के उदय से यह जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती होता है। दही और गुड़ के मिले हुए स्वाद की तरह वह जीव एक ही समय में तत्त्व व अतत्त्व दोनों की मिश्ररूप श्रद्धा करता है। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/2 </span>)।</p>
| | </li> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है</strong></p></li>
| | <li class="HindiText">[[ #1.4 | क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 4/1,5,9/343/8 </span><p class=" PrakritText ">तस्स मिच्छत्तसम्मत्तसहिदासंजदगुणे मोत्तूण गुणंतरगमणाभावा। </p><p class="HindiText">= सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को अथवा सम्यक्त्वसहित असंयत गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में गमन का अभाव है।</p>
| | </li> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> संयम धारने की योग्यता नहीं है</strong></p></li> | | <li class="HindiText">[[ #1.5 | लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 4/1,5,17/ गाथा33/349</span><p class=" PrakritText "> ण य मरइ णेव संजममुवेइतहं देससंजमं वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी ...।33। </p><p class="HindiText">= सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न संयम को प्राप्त होता है और न देश संयम को। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/23/48 </span>)।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">* मिश्र गुणस्थान में मृत्यु संभव नहीं–देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]। </p>
| | <li class="HindiText">[[ #1.6 | क्षेत्र के भेद स्वस्थानादि।]]<br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> मिश्र गुणस्थान का स्वामित्व</strong></p></li> | | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,8,12/250/7 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छत्तगुणं पुण वेदगुवसमसम्मादिट्ठिणो अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठिणो य पडिवज्जंति। </p><p class="HindiText">= सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्म की 28 प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव भी प्राप्त होते हैं। (अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि या जिन्होंने सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्वेलना कर दी है ऐसे मिथ्यादृष्टि ‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि’ गुणस्थान को प्राप्त नहीं होते)।</p>
| | <li class="HindiText">[[ #1.7 | निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 15/112/8 </span><p class=" PrakritText ">एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणसागरोवममेत्तट्ठिदिसंतकम्मे सेसे सम्मामिच्छत्तग्गहणपाओग्गस्सुवलंभादो। जो पुण तसेसु एइंदियट्ठिदिसंतसमं सम्मामिच्छत्तं कुणइ सो पुव्वमेव सागरोवमपुधत्ते सेसे चेव तदपाओग्गा होदि। </p><p class="HindiText">= जिसने एकेंद्रियों में सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिसत्त्व की उद्वेलना की है उसके ही पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन एक सागरोपम मात्र स्थिति सत्त्व के रहने पर सम्यग्मिथ्यात्व के ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। परंतु जो त्रस जीवों में एकेंद्रिय के स्थितिसत्त्व के बराबर सम्यग्मिथ्यात्व के स्थिति सत्त्व को करता है, वह पहले ही सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति के शेष रहने पर ही उसके ग्रहण के अयोग्य हो जाता है।</p>
| | </li> |
| <p>देखें [[ सत् ]]–(इस गुणस्थान में एक संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास संभव है, एकेंद्रियादि असंज्ञी पर्यंत के जीव तथा सर्व ही प्रकार के अपर्याप्तक जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते)।</p>
| | <li class="HindiText">[[ #1.8 | स्वपर क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <p class="HindiText">* अन्य संबंधित विषय</p>
| | </li> |
| <p class="HindiText">1. जीव समास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]।</p> | | <li class="HindiText">[[ #1.9 | सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <p class="HindiText">2. सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह ]]वह नाम।</p>
| | </li> |
| <p class="HindiText">3. इस गुणस्थान में आय व व्यय का संतुलन–देखें [[ मार्गणा ]]।</p> | | <li class="HindiText">[[ #1.10 | क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <p class="HindiText">4. इसमें कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें [[ वह ]]वह नाम </p>
| | </li> |
| <p class="HindiText">5. राग व विरागता का मिश्रित भाव–देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]]।</p> | | <li class="HindiText">[[ #1.11 | स्वस्थनादि क्षेत्रपदों के लक्षण।]]<br /> |
| <p class="HindiText">6. इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव होता है–देखें [[ भाव#2 | भाव - 2]]।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">5. ज्ञान भी सम्यक् व मिथ्या उभयरूप होता है </p>
| | </ol> |
| <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/14/589/25 </span><p class="SanskritText"> अत एवास्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि इत्युच्यंते। </p><p class="HindiText">= इसके तीनों ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/302/653 </span>) (देखें [[ सत् ]])।</p></ol>
| | <ul> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मिश्र गुणस्थान संबंधी शंका समाधान</strong></p> | | <li class="HindiText"> समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार संबंधी—देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> |
| <ol>
| | </li> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> ज्ञान व अज्ञान का मिश्रण कैसे संभव है ?</strong></p></li> | | </ul> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,119/363/10 </span><p class="SanskritText"> यथार्थश्रद्धानुविद्धावगमो ज्ञानम्, अयथार्थश्रद्धानुविद्धावगमोऽज्ञानम्। एवं च सति ज्ञानाज्ञानयोर्भिन्नजीवाधिकरणयोर्न मिश्रणं घटत इति चेत्सत्यमेतदिष्टत्वात्। किंत्वत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टावेवं मा ग्रहीः यत: सम्यग्मिथ्यात्वं नाम कर्म न तन्मिथ्यात्वं तस्मादनंतगुणहीनशक्तेस्तस्य विपरीताभिनिवेशोत्पादसामर्थ्याभावात्। नापि सम्यक्त्वं तस्मादनंतगुणशक्तेस्तस्य यथार्थ श्रद्धया साहचर्याविरोधात्। ततो जात्यंतरत्वात् सम्यग्मिथ्यात्वं जात्यंतरीभूतपरिणामस्योत्पादकम्। ततस्तदुदयजनितपरिणामसमवेतबोधो न ज्ञानं यथार्थश्रद्धयाननुविद्धत्वात्। नाप्यज्ञानमयथार्थश्रद्धयासंगत्वात्। ततस्तज्ज्ञानं सम्यग्मिथ्यात्वपरिणामवज्जात्यंतरापंनमित्येकमपि मिश्रमित्युच्यते। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–यथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम को ज्ञान कहते हैं और अयथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम को अज्ञान कहते हैं। ऐसी हालत में भिन्न-भिन्न जीवों के आधार से रहने वाले ज्ञान और अज्ञान का मिश्रण नहीं बन सकता है। उत्तर–यह कहना सत्य है, क्योंकि, हमें यही इष्ट है। किंतु यहाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उससे अनंतगुणी हीन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीताभिनिवेश को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं पायी जाती है। और न वह सम्यक्प्रकृतिरूप ही है, क्योंकि, उससे अनंतगुणी अधिक शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व का यथार्थ श्रद्धान के साथ साहचर्य संबंध का विरोध है। इसलिए जात्यंतर होने से सम्यग्मिथ्यात्व (कर्म) जात्यंतररूप परिणामों का ही उत्पादक है। अत: उसके उदय से उत्पन्न हुए परिणामों से युक्त ज्ञान ‘ज्ञान’ इस संज्ञा को प्राप्त हो नहीं सकता है, क्योंकि, उस ज्ञान में यथार्थ श्रद्धा का अन्वय नहीं पाया जाता है। और उसे अज्ञान भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, वह अयथार्थ श्रद्धा के साथ संपर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम की तरह जात्यंतर रूप अवस्था को प्राप्त है। अत: एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है।</p>
| | <ol start="12"> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> जात्यंतर ज्ञान का तात्पर्य</strong></p></li>
| | <li class="HindiText">[[ #1.12 | निष्कुट क्षेत्र का लक्षण।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/,1,1,119/364/5 </span><p class="SanskritText"> यथायथं प्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम्। यथायथमप्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम्। जात्यंतरीभूतप्रत्ययानुविद्धावगमो जात्यंतरं ज्ञानम्, तदेव मिश्रज्ञानमिति राद्धांतविदो व्याचक्षते। </p><p class="HindiText">= यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्संबंधी बोध को ज्ञान कहते हैं। न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्संबंधी बोध को अज्ञान कहते हैं। और जात्यंतररूप कारण से उत्पन्न हुए तत्संबंधी ज्ञान को जात्यंतर ज्ञान कहते हैं। इसी का नाम मिश्रगुणस्थान है, ऐसा सिद्धांत को जाननेवाले विद्वान् पुरुष व्याख्यान करते हैं।</p> | | </li> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">मिश्रगुणस्थान में अज्ञान क्यों नहीं कहते ?</strong></p></li> | | </ol> |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,45,/224/7 </span><p class=" PrakritText ">तिसु अण्णाणेसु णिरुद्धेसु सम्मामिच्छादिट्ठिभावो किण्ण परूविदो। ण, तस्स सद्दहणासद्दहणेहि दोहिं मि अक्कमेण अणुविद्धस्स संजदासंजदो व्व पत्तजच्चंतरस्स णाणेसु अण्णाणेसु वा अत्थित्तविरोहा। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–तीनों अज्ञानों को निरुद्ध अर्थात् आश्रय करके उनकी भाव प्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का भाव क्यों नहीं बतलाया। उत्तर–नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनों से एक साथ अनुविद्ध होने के कारण संयतासंयत के समान भिन्न जातीयता को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्व का पाँचों ज्ञानों में, अथवा तीनों अज्ञानों में अस्तित्व होने का विरोध है।</p>
| | <ul> |
| <p class="HindiText">* युगपत् दो रुचि कैसे संभव है–देखें [[ अनेकांत#5.1 | अनेकांत - 5.1]],2।</p>
| | <li class="HindiText"> निक्षेपोंरूप क्षेत्र के लक्षण।–देखें [[ निक्षेप ]]।<br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व में क्या अंतर है ?</strong></p></li>
| | </li> |
| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/4 </span><p class="SanskritText"> अथ मतं–येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वंदनीया न च निंदनीया इत्यादि वैनयिकमिथ्यादृष्टि: संशयमिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते, तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टे: को विशेष इति, अत्र परिहार:–स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा संशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति। मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेषः। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–चाहे जिससे हो, मुझे तो एक देव से मतलब है, अथवा सभी देव वंदनीय हैं, निंदा किसी भी देव की नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार वैनयिक और संशय मिथ्यादृष्टि मानता है। तब उसमें तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या अंतर है ? उत्तर–वैनयिक तथा संशय मिथ्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सब शास्त्रों में से किसी एक की भी भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानकर संशयरूप से भक्ति करता है, उसको किसी एक देव में निश्चय नहीं है। और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव के दोनों में निश्चय है। बस यही अंतर है।</p> | | </ul> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> पर्याप्तक ही होने का नियम क्यों ?</strong></p></li> | | <ol start="13"> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,95/335/3 </span><p class="SanskritText"> कथं। तेन गुणेन सह तेषां मरणाभावात्। अपर्याप्तकालेऽपि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावाच्च नियमेऽभ्युपगम्यमाने एकांतवाद: प्रसजतीति चेन्न, अनेकांतगर्भैकांतस्य सत्त्वाविरोधात्। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–यह कैसे (अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव पर्याप्त ही होते हैं, सो कैसे)? उत्तर–क्योंकि, तीसरे गुणस्थान के साथ मरण नहीं होता है (देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]/4) तथा अपर्याप्तकाल में भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न–‘तृतीय गुणस्थान में पर्याप्त ही होते हैं’ इस प्रकार नियम के स्वीकार कर लेने पर तो एकांतवाद प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि अनेकांत गर्भित एकांतवाद के मानने में कोई विरोध नहीं आता।</p>
| | <li class="HindiText">[[ #1.13 | नोआगम क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> इस गुणस्थान में क्षायोपशमिकपना कैसे है?</strong></p></li>
| | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/168/1 </span><p class="SanskritText"> कथं मिथ्यादृष्टेः सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपद्यमानस्य तावदुच्यते। तद्यथा, मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तस्यैव सत उदयाभावलक्षणोपशमात्सम्यग्मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकोदयाच्चोत्पद्यत इति सम्यग्मिथ्यात्वगुण: क्षायोपशमिक:।</p>
| | </ol> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/169/2 </span><p class="SanskritText"> अथवा, सम्यक्त्वकर्मणो देशघातिस्पर्धकानामुदयक्षयेण तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमेन च सम्यग्मिथ्यात्वकर्मण: सर्वघातिस्पर्धकोदयेन च सम्यग्मिथ्यात्वगुण उत्पद्यत इति क्षायोपशमिक:। सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमेवमुच्यते बालजनव्युत्पादनार्थम्। वस्तुतस्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मणो निरन्वयेनाप्तागमपदार्थविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थस्योदयात्सदसद्विषयश्रद्धोत्पद्यत इति क्षायोपशमिक: सम्यग्मिथ्यात्वगुण:। अन्यथोपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्नं तत्र, सम्यक्त्वमिथ्यात्वानंतानुबंधिनामुदयक्षयाभावात्। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के क्षायोपशमिक भाव कैसे संभव है। उत्तर–1. वह इस प्रकार है, कि वर्तमान समय में मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावीक्षय होने से, सत्ता में रहने वाले उसी मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक है। 2. अथवा सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायोपशमिक है। 3. यहाँ इस तरह जो सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को क्षायोपशमिक कहा है वह केवल सिद्धांत के पाठ का प्रारंभ करने वालों के परिज्ञान कराने के लिए ही कहा गया है। (परंतु ऐसा कहना घटित नहीं होता, देखें [[ आगे ]]शीर्षक नं. 7) वास्तव में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वयरूप से आप्त आगम और पदार्थ विषयक श्रद्धा के नाश करने के प्रति असमर्थ है, किंतु उसके उदय से समीचीन और असमीचीन पदार्थ को युगपत् विषय करने वाली श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोपशमिक कहा जाता है। अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर उसमें क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, क्योंकि उस जीव के ऐसी अवस्था में सम्यक्प्रकृति, मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन तीनों का ही उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता।</p> | | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 14/5,6,19/21/8 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमक्षण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुप्पज्जदि त्ति तदुभयपच्चइयत्तं। </p><p class="HindiText">= 4. (सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती नहीं है अन्यथा उसके उदय होने पर सम्यक्त्व के अंश की भी उत्पत्ति नहीं बन सकती–देखें [[ अनुभाग#4.6.4 | अनुभाग - 4.6.4]]) इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धकों के उदय से और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों के उपशम संज्ञा वाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभयप्रत्ययिक अर्थात् उदयोपशमिक कहा जा सकता है, पर क्षायोपशमिक नहीं।</p> | | <li><span class="HindiText"><strong> [[क्षेत्र_02#2 |क्षेत्र सामान्य निर्देश ]]</strong><br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> मिश्रगुणस्थान की क्षायोपशमिकता में उपरोक्त लक्षण घटित नहीं होते</strong></p></li> | | </span> |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,4/199/4 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोसमेण ... त्ति सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमियत्तं केई परूवयंति, तण्ण घडदे, मिच्छत्तभावस्स वि खओवसमियत्तप्पसंगा। कुदो। सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छत्तभावुप्पत्तीए उवलंभा। </p><p class="HindiText">= कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि मिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृति के उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से यह गुणस्थान क्षायोपशमिक है–(देखें [[ मिश्र#2.6.1 | मिश्र - 2.6.1]],2) किंतु उनका यह कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर तो मिथ्यात्व भाव के भी क्षायोपशमिकता का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से और सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदयरूप उपशम से तथा मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से मिथ्यात्वभाव की उत्पत्ति पायी जाती है। (अत: पूर्वोक्त शीर्षक नं. 6 से कहा गया लक्षण नं. 3 ही युक्त है ) (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/170/1 </span>); (और भी देखें [[ शीर्षक नं#11 | शीर्षक नं - 11]])।</p> | | <ol> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सर्वघाती प्रकृति के उदय से होने के कारण इसे क्षायोपशमिक कैसे कह सकते हो ?</strong></p></li>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.1 | क्षेत्र व अधिकरण में अंतर।]]<br /> |
| <p><span class="GRef"> धवला 7/2,1,79/110/7 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओअसमिओ त्ति ण जुज्जदे। ... ण सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तमत्थि, ... ण च एत्थ सम्मत्तस्स णिम्मूलविणासं पेच्छामो सब्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्लसद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमिओ भावो। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–चूँकि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है (देखें [[ मिश्र#2.6.1 | मिश्र - 2.6.1]]), इसलिए उसके क्षायोपशमिकभाव उपयुक्त नहीं है ? उत्तर–सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के स्पर्धकों में सर्वघातीपना नहीं होता, क्योंकि इस गुणस्थान की उत्पत्ति में हम सम्यक्त्व का निर्मूल विनाश नहीं देखते, क्योंकि, यहां सद्भूत और असद्भूत पदार्थों में समान श्रद्धान होना देखा जाता है (और भी देखें [[ अनुभाग#4.6 | अनुभाग - 4.6]])। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है।</p>
| | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,4/198/2 </span><p class=" PrakritText ">पडिबंधिकम्मोदए संते वि जो उवलब्भइ जीवगुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ। कुदो। सव्वघादणसत्तीए अभावो खओ उच्चदि। खवो चेव उवसमो खओवसमो, तम्हि जादो भावो खओवसमिओ। ण च सम्मामिच्छत्तुदए संते सम्मत्तस्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादित्तण्णहाणुववत्तीदो। तदो सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि ण घडदे। एत्थ परिहारो उच्चदे–सम्मामिच्छत्तुदए संते सद्दहणासद्दहणप्पओ करंचिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ। तत्थ जो सद्दहणं सो सो सम्मत्तावयवो। तं सम्मामिच्छत्तुदओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं। असद्दहणभागेण विणा सद्दहणभागस्सेव सम्मामिच्छत्तववएसो णत्थि त्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवंविहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मं पि सव्वघादी चेव होदु, जच्चंतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। किंतु सद्दहणभागो असद्दहणभागो ण होदि, सद्दहणासद्दहणाणमेयत्तविरोहादो। ण च सद्दहणभागो कम्मोदयजणिओ तत्थ विवरीयत्ताभावा। ण य तत्थ सम्मामिच्छत्तववएसाभावो समुदाएसु पयट्टाणं तदेगदेसे वि पउत्तिदंसणादो। तदो सिद्धं सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–प्रतिबंधी कर्म का उदय होने पर जो जीव के गुण का अवयव पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि, गुणों के संपूर्ण रूप से घातने की शक्ति का अभाव क्षय कहलाता है। क्षयरूप ही जो उपशम होता है, वह क्षयोपशम कहलाता है (देखें [[ क्षयोपशम#1 | क्षयोपशम - 1]])। उस क्षयोपशम में उत्पन्न होने वाला भाव क्षयोपशमिक कहलाता है। किंतु सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा, सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वघातीपना बन नहीं सकता है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता। उत्तर–सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक कथंचित् अर्थात् शबलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है। उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्व का अवयव है। उसे सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं नष्ट कर सकता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक है। प्रश्न–अश्रद्धान भाग के बिना केवल श्रद्धान भाग के ही ‘सम्यग्मिथ्यात्व’ यह संज्ञा नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक नहीं है। उत्तर–उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किंतु अवयवी के निराकरण और अवयव के निराकरण की अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के उदय रहते हुए अवयवीरूप सम्यक्त्व गुण का तो निराकरण रहता है और सम्यक्त्व का अवयवरूप अंश प्रगट रहता है। इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे (और भी दे अनुभाग/4/6) क्योंकि, जात्यंतरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्व का अभाव है। किंतु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है। और श्रद्धान भाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि, इसमें विपरीतता का अभाव है। और न उनमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा का ही अभाव है, क्योंकि, समुदायों में प्रवृत्त हुए शब्दों की उनके एकदेश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक भाव है।</p>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.2 | क्षेत्र व स्पर्शन में अंतर।]]<br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व का अंश कैसे संभव है ?</strong></p></li>
| | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,12/208/2 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छत्तभावे पत्तपजच्चंतरे अंसांसीभावो णत्थि त्ति ण तत्थ सम्मद्दंसणस्स एगदेस इदि चे, होदु णाम अभेदविवक्खाए जच्चंतरत्तं। भेदे पुण विवक्खिदे सम्मद्दंसणभागो अत्थि चेव, अण्णहा जच्चंतरत्तविरोहा। ण च सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघाइत्तमेवं संते निरुज्झइ, पत्तजच्चंतरे सम्मद्दंसणंसाभावादो तस्स सव्वघाइत्ताविरोहा। </p><p class="HindiText">= प्रश्न–जात्यंतर भाव को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्व भाव में अंशांशी भाव नहीं है, इसलिए उसमें सम्यग्दर्शन का एकदेश नहीं है ? उत्तर–अभेद की विवक्षा में सम्यग्मिथ्यात्व के भिन्नजातीयता भले ही रही आवे, किंतु भेद की विवक्षा करने पर उसमें सम्यग्दर्शन का अंश है ही। यदि ऐसा न माना जाये तो, उसके जात्यंतरत्व के मानने में विरोध आता है। और ऐसा मानने पर सम्यग्मिथ्यात्व के सर्वघातीपना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसके भिन्नजातीयता प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन के एकदेश का अभाव है, इसलिए उसके सर्वघातीपना मानने में कोई विरोध नहीं आता है।</p>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.3 | वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अंतर।]]<br /> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> मिश्रप्रकृति के उदय से होने के कारण इसे औदयिक क्यों नहीं कहते ?</strong></p></li> | | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/168/3 </span><p class="SanskritText"> सतामपि सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन औदयिक इति किमिति न व्यपदिश्यत इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयादिवात: सम्यक्त्वस्य निरन्वयविनाशानुपलंभात्।</p><p class="HindiText"> = प्रश्न–तीसरे गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय होने से वहाँ औदयिक भाव क्यों नहीं कहा है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जिस प्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है उस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं पाया जाता है, इसलिए तीसरे गुणस्थान में औदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।</p> | | </ol> |
| <li><p class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के क्षय व उपशम से इसकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं</strong></p></li>
| | </li> |
| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,11/168/7 </span><p class="SanskritText"> मिथ्यात्वक्षयोपशमादिवानंतानुबंधिनामपि सर्वघातिस्पर्धकक्षयोपशमाज्जातमिति सम्यग्मिथ्यात्वं किमिति नोच्यत इति चेन्न, तस्य चारित्रप्रतिबंधकत्वात्। ये त्वनंतानुबंधिक्षयोपशमादुत्पत्तिं प्रतिजानते तेषां सासादनगुण औदयिक स्यात्, न चैवमनभ्युपगमात् । </p><p class="HindiText">= प्रश्न–जिस तरह मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति बतलायी है, उसी प्रकार वह अनंतानुबंधी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होता है, ऐसा क्यों नहीं कहा। उत्तर–नहीं, क्योंकि अनंतानुबंधी कषाय चारित्र का प्रतिबंध करती है (और इस गुणस्थान में श्रद्धान की प्रधानता है) जो आचार्य अनंतानुबंधीकर्म के क्षयोपशम से तीसरे गुणस्थान की उत्पत्ति मानते हैं, उनके मत से सासादन गुणस्थान को औदयिक मानना पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान को औदयिक नहीं माना गया है।</p></ol> | | <li><span class="HindiText"><strong>[[क्षेत्र_03#3 | क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम ]]</strong><br /> |
| <p class="HindiText">देखें [[ क्षयोपशम#2.4 | क्षयोपशम - 2.4 ]](मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीनों का उदयाभाव रूप उपशम होते हुए भी मिश्रगुणस्थान को औपशमिक नहीं कह सकते।)</p>
| | </span> |
| <p class="HindiText">*14 मार्गणाओं में संभव मिश्र गुणस्थान विषयक शंका समाधान–देखें [[ वह वह नाम ]]।</p>
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| [[Category: म]]
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| <li class='HindiText'>[[ #1 | भेद व लक्षण]]</li>
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| <li class='HindiText'>[[ #1.1 | मिथ्यादृष्टि सामान्य का लक्षण।]]</li>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.1 | गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा।]]<br /> |
| <ol> | | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #1.1.1 | विपरीत श्रद्धान]]</li>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.2 | गतिमार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा।]]<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #1.1.2 | पर द्रव्य रत]]</li>
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| <p class="HindiText">* परद्रव्य को अपना कहने से अज्ञानी कैसे हो जाता है ?–देखें [[ नय#V.8.3 | नय - V.8.3]]।</p> | | <ul> |
| <p class="HindiText">* कुदेव कुगुरु कुधर्म की विनयादि संबंधी।–देखें [[ विनय#4 | विनय - 4]]। </p> | | <li class="HindiText"> नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #1.2 | मिथ्यादृष्टि के भेद।]]</li> | | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #1.3 | सातिशय व घातायुष्क मिथ्यादृष्टि।]]</li>
| | <li class="HindiText"> जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]।<br /> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टि साधु–देखें [[ साधु#4 | साधु - 4]],5।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">* अधिककाल मिथ्यात्वयुक्त रहने पर सादि भी मिथ्यादृष्टि अनादिवत् हो जाता है।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.6 | सम्यग्दर्शन - IV.2.6]]। </p> | | <li class="HindiText"> भोग व कर्मभूमि में जीवों का अवस्थान—देखें [[ भूमि#8 | भूमि - 8]]।<br /> |
| | </li> |
| | <li class="HindiText"> मुक्त जीवों का लोक में अवस्थान—देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।<br /> |
| | </li> |
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| | <ol start="3"> |
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3 | इंद्रियादि मार्गणाओं में संभव पदों की अपेक्षा]]— |
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| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.1 | इंद्रियमार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.2 | कायमार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.3| योगमार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.4 | वेद मार्गणा]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.5 | ज्ञानमार्गणा]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.6 | संयम मार्गणा]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.7 | सम्यक्त्व मार्गणा]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.8 | आहारक मार्गणा]] </li> |
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| </ol> | | </ol> |
| <li class='HindiText'>[[ #2 | मिथ्यादृष्टि निर्देश]]</li> | | <ul> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीवसमास, मार्गणा स्थान आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ–देखें [[ सत् ]]।</p> | | <li class="HindiText"> एकेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान—देखें [[ स्थावर ]]।<br /> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टियों की सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कर्मों की बंध उदय सत्त्व संबंधी प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | | <li class="HindiText"> विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]। |
| | </li> |
| | <li class="HindiText"> तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5 ]] |
| | </li> |
| | <li class="HindiText"> त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, जीवों का लोक में अवस्थान–देखें [[ वह वह नाम ]]। |
| | </li> |
| | </ul> |
| | <ol start="4"> |
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.4 | मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद।]] |
| | </li> |
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| | </li> |
| | <li><span class="HindiText"><strong> [[ क्षेत्र_04 -1#4 | क्षेत्र प्ररूपणाएँ ]]</strong> <br /> |
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| <li class='HindiText'>[[ #2.1 | मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में कदाचित् अनंतानुबंधी के उदय के अभाव की संभावना।]]</li>
| | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_04 -1#4.1 | सारणी में प्रयुक्त संकेत परिचय। ]]<br /> |
| <p class="HindiText">* सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम–देखें [[ मार्गणा ]]।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">* इसका सासादन गुणस्थान के साथ संबंध–देखें [[ सासादन#2 | सासादन - 2]]।</p> | | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_04 -2#1 | जीवों के क्षेत्र की ओघ प्ररूपणा। ]]<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #2.2 | मिथ्यादृष्टि को सर्व व्यवहारधर्म व वैराग्य आदि संभव है।]]</li>
| | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #2.3 | इतना होने पर भी वह मिथ्यादृष्टि व असंयत है।]]</li>
| | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_-_गति#4 -3 | जीवों के क्षेत्र की आदेश प्ररूपणा। ]]<br /> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टि को दिये गये निंदनीय नाम–देखें [[ निंदा ]]।</p> | | <ol> |
| <li class='HindiText'>[[ #2.4 | उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहने का कारण।]]</li>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_गति | गति मार्गणा ]]</li> |
| <li class='HindiText'>[[ #2.5 | मिथ्यादृष्टि की बाह्य पहिचान।]]</li>
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_इंद्रिय | इंद्रिय मार्गणा ]]</li> |
| <li class='HindiText'>[[ #2.6 | मिथ्यादृष्टियों में औदयिक भाव की सिद्धि।]]</li> | | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_काय| काय मार्गणा ]]</li> |
| <p class="HindiText"> • जहां ज्ञानी जागता है वहां अज्ञानी सोता है - देखें [[ सम्यग्दृष्टि#4 |सम्यग्दृष्टि 4 ]]</p> | | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_योग | योग मार्गणा ]] </li> |
| <p class="HindiText"> • मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के राग व भोग आदि में अंतर। - देखें [[ राग#6 | राग 6 ]]</p> | | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_वेद | वेद मार्गणा ]] </li> |
| <p class="HindiText"> • सम्यग्दृष्टि की क्रियाओं में प्रवृति के साथ निवृत्ति अंश रहता है।- देखें [[ संवर#2 | संवर 2]]</p> | | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_कषाय | कषाय मार्गणा ]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_ज्ञान | ज्ञान मार्गणा ]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_संयम | संयम मार्गणा ]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_दर्शन | दर्शन मार्गणा ]] </li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__लेश्या | लेश्या मार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__भव्यत्व | भव्यत्व मार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__सम्यक्त्व | सम्यक्त्व मार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_संज्ञी | संज्ञी मार्गणा ]]</li> |
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_आहारक | आहारक मार्गणा ]]<br /> |
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| <li class='HindiText'>[[ #3 | मिथ्यादृष्टि के भावों की विशेषता ]]</li>
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| <p class="HindiText">* इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं–देखें [[ करण#4 | करण - 4]]।</p>
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| <p class="HindiText">* 1-3 गुणस्थानों में अशुभोपयोग प्रधान है।–देखें [[ उपयोग#II.4.5 | उपयोग - II.4.5]]।</p>
| | <li><span class="HindiText"><strong> [[ क्षेत्र_04 -4# | अन्य प्ररूपणाएँ ]]</strong> <br /> |
| <p class="HindiText">* विभाव भी उसका स्वभाव है–देखें [[ विभाव#2 | विभाव - 2]]। </p>
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| <li class='HindiText'>[[ #3.1 | उसके सर्व भाव अज्ञानमय है।]]</li> | | <li class="HindiText"> अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #3.2 | उसके सर्व भाव बंध के कारण है।]]</li>
| | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #3.3 | उसके तत्त्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या हैं।]]</li>
| | <li class="HindiText"> अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <p class="HindiText">* उसकी देशना का सम्यक्त्व प्राप्ति में स्थान–देखें [[ लब्धि#3.4 | लब्धि - 3.4]]।</p> | | </li> |
| <p class="HindiText">* उसके व्रतों में कथंचित् व्रतपना–देखें [[ चारित्र#6.8 | चारित्र - 6.8]]। </p>
| | <li class="HindiText"> मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <p class="HindiText">* भोगों को नहीं सेवता हुआ भी सेवता है।–देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</p>
| | </li> |
| </ol>
| | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #4 | मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि में अंतर]]</li>
| | </li> |
| <ol>
| | <li class="HindiText"> पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.1 | दोनों के श्रद्धान व अनुभव आदि में अंतर।]]</li>
| | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.2 | दोनों के तत्त्व कर्तृत्व में अंतर।]]</li>
| | <li class="HindiText"> 23 प्रकार की वर्गणाओं की जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.3 | दोनों के पुण्य में अंतर।]]</li> | | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.4 | दोनों के धर्म सेवन के अभिप्राय में अंतर।]]</li>
| | <li class="HindiText"> प्रयोग समवदान, अध:, तप, ईयापथ व कृतिकर्म इन षट् कर्मों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.5 | दोनों की कर्मक्षपणा में अंतर ।]]</li>
| | </li> |
| <li class='HindiText'>[[ #4.6 | मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टि के आशय को नहीं समझ सकता।]]</li>
| | </ol> |
| <p class="HindiText">* जहाँ ज्ञानी जागता है वहाँ अज्ञानी सोता है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#4 | सम्यग्दृष्टि - 4]]।</p>
| | </li> |
| <p class="HindiText">* मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के राग व भोग आदि में अंतर–देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</p>
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| <p class="HindiText">* सम्यग्दृष्टि की क्रियाओं में प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति अंश रहता है।–देखें [[ संवर#2 | संवर - 2]]।</p>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">भेद व लक्षण </strong><br /></span>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> मिथ्यादृष्टि सामान्य का लक्षण</strong></p></li> | |
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| <li><p class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> विपरीत श्रद्धान</strong></p></li>
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| <span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत /1/8 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छादिट्ठी उवइट्ठं पवयणं ण सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं उवइट्ठं अणुवइट्ठं च।8।</p> = (–<span class="GRef"> भगवती आराधना </span><p class="HindiText">मोह के उदय से) मिथ्यादृष्टि जीव जिनउपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता। प्रत्युत अन्य से उपदिष्ट या अनुपदिष्ट पदार्थों के अयथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करता है। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/40/138 </span>); (<span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत/1/170</span>); (<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8/9/ गाथा 15/242</span>); (<span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/109/147</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/18/42;656/1103 </span>)।</p>
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| <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/12/588/15 </span><p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनकर्मोदयेन वशीकृतो जीवो मिथ्यादृष्टिरित्यभिधीयते। यत्कृतं तत्त्वार्थानामश्रद्धानं।</p> <p class="HindiText"><p class="HindiText">=मिथ्यादर्शन कर्म के उदय के वशीकृत जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। इसके कारण उसे तत्त्वार्थों का श्रद्धान नहीं होता है। (और भी देखें [[ मिथ्यादर्शन#1 | मिथ्यादर्शन - 1]])।</p>
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| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/162/2 </span><p class="SanskritText">मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिर्दर्शनं विपरीतैकांतविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टय:। अथवा मिथ्या वितथं, तत्र दृष्टि: रुचि: श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादृष्टय:।</p> <p class="HindiText">= मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवों के विपरीत, एकांत, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/32/10 </span><p class="SanskritText">निजपरमात्मप्रभृति षड्द्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थेषुमूढत्रयादि पंचविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति।</p> <p class="HindiText">= निजात्मा आदि षट्द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व, और नवपदार्थों में तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोषरहित, वीतराग सर्वज्ञद्वारा कहे हुए नयविभाग से जिस जीव के श्रद्धान नहीं है, वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> परद्रव्य रत</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/15 </span><p class=" PrakritText ">जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठि हवेइ सो साहू। मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं।15।</p> <p class="HindiText">= परद्रव्यरत साधु मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट अष्टकर्मों का बंध करता है। (और भी देखें [[ समय में परसमय का लक्षण ]]।)</p>
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| <p><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/77</span> <p class=" PrakritText ">पज्जरत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ। बंधइ बहुविधकम्माणि जेण संसारेभ्रमति।77।</p> <p class="HindiText">= शरीर आदि पर्यायों में रत जीव मिथ्यादृष्टि होता है। वह अनेक प्रकार के कर्मों को बाँधता हुआ संसार में भ्रमण करता रहता है।</p>
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| <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/82/7 </span><p class=" PrakritText ">परसमयो मिच्छत्तं।</p><p class="HindiText"> = परसमय मिथ्यात्व को कहते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/94/122/16 </span><p class="SanskritText">कर्मोदयजनितपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यंते।</p> <p class="HindiText">= कर्मोदयजनित मनुष्यादिरूप पर्यायों में निरत रहने के कारण परसमय जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं।</p>
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| <p>देखें [[ समय ]]पर समय–(पर द्रव्यों में रत रहने वाला पर समय कहलाता है)। (और भी देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.5 | मिथ्यादृष्टि - 2.5]])।</p>
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| <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/990 </span><p class="SanskritText">तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह। अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक्।990।</p> <p class="HindiText">= तथा इस जगत् में उस दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यादृष्टि संपूर्ण परपदार्थों को भी निज मानता है।</p></ol>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">मिथ्यादृष्टि के भेद </strong><br /></span></li>
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| <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/12/588/18 </span><p class="SanskritText">ते सर्वे समासेन द्विधा व्यवतिष्ठंते–हिताहितपरीक्षाविरहिता: परीक्षकाश्चेति। तत्रैकेंद्रियादय: सर्वे संज्ञिपर्याप्तकवर्जिता: हिताहितपरीक्षाविरहिता:।</p><p class="HindiText">= सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिताहित की परीक्षा से रहित और परीक्षक इन दो श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं। तहाँ संज्ञिपर्याप्तक को छोड़कर सभी एकेंद्रिय आदि हिताहित परीक्षा से रहित है। संज्ञी पर्याप्तक हिताहित परीक्षा से रहित और परीक्षक दोनों प्रकार के होते हैं।</p>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">सातिशय व घातायुष्क मिथ्यादृष्टि </strong><br /></span></li> | |
| <span class="GRef"> लब्धिसार/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/220/273/9</span> <p class="SanskritText">प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिथ्यादृष्टेर्भणितानि। </p><p class="HindiText">= प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> धवला 4/1,5,96/385 </span><p class="HindiText">विशेषार्थ–किसी मनुष्य ने अपनी संयम अवस्था में देवायु का बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और इसीलिए अपवर्तनाघात के द्वारा आयु का घात भी कर दिया। ... यदि वही पुरुष संयम की विराधना के साथ ही सम्यक्त्व की भी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है–ऐसे जीव को घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं।</p></ol>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">मिथ्यादृष्टि निर्देश </strong><br /></span>
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| <ol>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> मिथ्यादृष्टि में कदाचित् अनंतानुबंधी के उदय का अभाव भी संभव है</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/103 </span><p class=" PrakritText ">आवलियमेत्तकालं अणं बधीण होइ णो उदओ:।</p> | |
| <p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/478/632 </span><p class=" PrakritText ">अणसंजोजिदसम्मे मिच्छं पत्ते ण आवलित्ति अणं। </p><p class="HindiText">= अनंतानुबंधी का विसंयोजक मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्वगुणस्थान को प्राप्त होता है, उसको एक आवली मात्र काल तक अनंतानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मिथ्यादृष्टि को सर्व व्यवहार धर्म व वैराग्य आदि होने संभव हैं</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> प्रवचनसार/85 </span><p class=" PrakritText ">अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिदियमणुएसु। विसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि।85। </p><p class="HindiText">= पदार्थ का अन्यथाग्रहण और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति, ये सब मोह के चिह्न हैं।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#III. | सम्यग्दर्शन - III.]]... (नवग्रैवेयकवासी देवों को सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जिनमहिमा दर्शन निमित्त नहीं होता, क्योंकि वीतरागी होने के कारण उनको उसके देखने से आश्चर्य नहीं होता।)</p>
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| <p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/172 </span><p class="SanskritText">ये तु केवलव्यवहारावलंबिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेनानवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतस:प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तय:, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकांडोड्डमराचलिता:, कदाचित्किंचिद्रोचमाना:, कदाचित् किंचिद्विकल्पयंत:, कदाचित्किंचिदाचरंत:, दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यंत:, कदाचित्संविजयमाना:, कदाचिदनुकंपमाना:, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहंत:, शंकाकांक्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावानां भावयमाना वारंबारमभिवर्धितोत्साहा, ज्ञानाचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयंतो, बहुधा विनयं प्रपंचयंत:, प्रविहितदुर्धरोपधाना:, सुष्ठु बहुमानमातंवंतो निह्नवापत्तिं नितरां निवारयंतोऽर्थव्यंजनतदुभयशुद्धौ नितांतसावधानाः, चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पंचमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तय:, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु नितांतं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यंतनिवेशितप्रयत्नाः, तपश्चरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्साहमाना:, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिकरांकुशितस्वांता, वीर्याचरणाय कर्मकांडे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणा:, कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तय:, सकलक्रियाकांडाडंबरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञानचेतनां मनागप्यसंभावयंत:, प्रभूतपुण्यभारमंथरितचित्तवृत्तय:, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरंपरया सुचिरं संसारसागरे भ्रमंतीति। </p><p class="HindiText">= जो केवल व्यवहारावलंबी हैं वे वास्तव में भिन्न साध्यसाधन भाव के अवलोकन द्वारा निरंतर अत्यंत खेद पाते हुए, पुन: पुन: धर्मादि के श्रद्धान में चित्त लगाते हैं, श्रुत के संस्कारों के कारण विचित्र विकल्प जालों में फँसे रहते हैं और यत्याचार व तप में सदा प्रवृत्ति करते रहते हैं। कभी किसी विषय की रुचि व विकल्प करते हैं और कभी कुछ आचरण करते हैं। (1) दर्शनाचरण के लिए प्रशम संवेग अनुकंपा व आस्तिक्य को धारण करते हैं, शंका कांक्षा आदि आठों अंगों का पालन करने में उत्साहचित्त रहते हैं। (2) ज्ञानाचरण के लिए काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन व तदुभय इन आठों अंगों की शुद्धि में सदा सावधान रहते हैं। (3) चारित्राचरण के लिए पंचमहाव्रतों में, तीनों गुप्तियों में तथा पाँचों समितियों में अत्यंत प्रयत्नयुक्त रहते हैं। (4) तपाचरण के लिए 12 तपों के द्वारा निज अंत:करण को सदा अंकुशित रखते हैं। (5) वीर्याचरण के लिए कर्मकांड में सर्व शक्ति द्वारा व्यापृत रहते हैं। इस प्रकार सांगोपांग पंचाचार का पालन करते हुए भी कर्मचेतनाप्रधानपने के कारण यद्यपि अशुभकर्मप्रवृत्तिका उन्होंने अत्यंत निवारण किया है तथापि शुभकर्मप्रवृत्ति को जिन्होंने बराबर ग्रहण किया है ऐसे, वे सकल क्रियाकांड के आडंबर से पार उतरी हुई दर्शनज्ञानचारित्र की ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञानचेतना को किंचित् भी न उत्पन्न करते हुए, बहुत पुण्य के भार से मंथर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति की परंपरा द्वारा अत्यंत दीर्घकाल तक संसारसागर में भ्रमण करते हैं।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> इतना होने पर भी वह मिथ्यादृष्टि व असंयत है</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार/314 </span><p class=" PrakritText ">जा एस पयडीअट्ठं चेया णेव विमुंचए। अयाणओ हवे ताव मिच्छाइट्ठी असंजओ।314। </p><p class="HindiText">= जब तक यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उपजना विनशना नहीं छोड़ता है, तब तक वह अज्ञायक है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3 ]](सम्यक्त्व शून्य होने के कारण व्रत समिति आदि पालता हुआ भी वह संयत नहीं मिथ्यादृष्टि ही है।)</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहने का कारण</strong></p></li> | |
| <p>देखें [[ मिथ्यादृष्टि#1.1 | मिथ्यादृष्टि - 1.1 ]](परद्रव्यरत होने के कारण जीव परसमय व मिथ्यादृष्टि होता है।)</p>
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| <p class="HindiText"><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/94 </span><p class="SanskritText">ये खलु जीवपुद्गलात्मकसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगतायथोदितात्मस्वभावसंभावनक्लीबास्तस्मिंनेवाशक्तिमुपब्रजंति, ते खलूच्छलितनिरर्गलैकांतदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यहंकारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात् प्रच्युत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुंबकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यंतो द्विषंतश्च परद्रव्येण कर्मणा संगत्वात्परसमया जायंते।</p> <p class="HindiText">= जो व्यक्ति जीवपुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्याय का, जो कि सकल अविद्याओं की एक जड़ है, उसका आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना करने में नपुंसक होने से उसी में बल धारण करते हैं, वे जिनकी निरर्गल एकांत दृष्टि उछलती है, ऐसे ‘यह मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह मनुष्य शरीर है’ इस प्रकार अहंकार ममकार से ठगाये जाते हुए अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहार से च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रियाकलाप को छाती से लगाता जाता है ऐसे मनुष्यव्यवहार का आश्रय करके, रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते हैं।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> मिथ्यादृष्टि की बाह्य पहचान</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> रयणसार/106 </span><p class=" PrakritText ">देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता। अप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचत्ता।106। </p><p class="HindiText">= जो मुनि देहादि में अनुरक्त है, विषय कषाय से संयुक्त है, आत्म स्वभाव में सुप्त है, वह सम्यक्त्वरहित मिथ्यादृष्टि है।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ राग#6 | राग - 6]]/1 (जिसको परमाणुमात्र भी राग है वह मिथ्यादृष्टि है) (विशेष देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]])।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ श्रद्धान#3 | श्रद्धान - 3 ]](अपने पक्ष की हठ पकड़कर सच्ची बात को स्वीकार न करने वाला मिथ्यादृष्टि है)।</p>
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| <p><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/6 </span><p class=" PrakritText ">मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होइ। ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं पि रसं जहा जरिदो।6। </p><p class="HindiText">= मिथ्यात्वकर्म को अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है। उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वरयुक्त मनुष्य को मधुर रस भी नहीं रुचता है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,9/106/162 </span>); (<span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/108/143</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/17/41 </span>)।</p>
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| <p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/318 </span><p class=" PrakritText ">दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइ संजुदं धम्मं। गंथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी। </p><p class="HindiText">= जो दोषसहित देव को, जीवहिंसा आदि से युक्त धर्म को और परिग्रह में फँसे हुए गुरु को मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ नियति#1.2 | नियति - 1.2 ]](जो जिस समय जैसे होना होता है वह उसी समय वैसे ही होता है, ऐसा जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है)।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मिथ्यादृष्टि में औदयिकभाव की सिद्धि</strong></p></li> | |
| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,2/194/7 </span><p class=" PrakritText ">णणु मिच्छादिट्ठिस्स अण्णे वि भावा अत्थि, णाण-दंसण-गदि-लिंग-कसाय-भव्वाभव्वादि-भावाभावे जीवस्स संसारिणो अभावप्पसंगा। ... तदो मिच्छा-दिट्ठिस्स ओदइओ चेव भावो अत्थि, अण्णे भावा णत्थि त्ति णेदं घड़दे। ण एस दोसो, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णे भावा णत्थि त्ति सुत्ते पडिसेहाभावा। किंतु मिच्छत्तं मोत्तूण जे अण्णे गदि लिंगादओ साधारणभावा ते मिच्छादिट्ठित्तस्स कारणं ण होंति। मिच्छत्तोदओ एक्को चेव मिच्छत्तस्स कारणं, तेण मिच्छादिट्ठि त्ति भावो ओदइओ त्ति परूविदो।</p><p class="HindiText"> = प्रश्न–मिथ्यादृष्टि के अन्य भी भाव होते हैं। ज्ञान, दर्शन, (दो क्षायोपशमिक भाव), गति, लिंग, कषाय (तीन औदयिक भाव), भव्यत्व, अभव्यत्व (दो पारिणामिक भाव) आदि भावों के अभाव मानने पर संसारी जीव के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष देखें [[ भाव#2 | भाव - 2]])। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव के केवल एक औदयिक भाव ही होता है, और अन्य भाव नहीं होते हैं, यह कथन घटित नहीं होता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, मिथ्यादृष्टि के औदयिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव नहीं होते हैं,’ इस प्रकार का सूत्र में प्रतिषेध नहीं किया गया है। किंतु मिथ्यात्व को छोड़कर जो अन्य गति लिंग आदिक साधारण (सभी गुणस्थानों के लिए सामान्य) भाव हैं, वे मिथ्यादृष्टि के कारण नहीं होते हैं। एक मिथ्यात्व का उदय हो मिथ्यादृष्टित्व का कारण है। इसलिए ‘मिथ्यादृष्टि’ यह भाव औदयिक कहा गया है।</p>
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| <p><span class="GRef"> धवला 5/1,7,10/206/8 </span><p class=" PrakritText ">सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छाइट्ठी उप्पज्जदि त्ति खओवसमिओ सो किण्ण होदि। उच्चदे–ण ताव सम्मत्तसम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खओ संतावसमो अणुदओवसमो वा मिच्छादिट्ठीए कारणं, सव्वहिचारित्तादो। जं जदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कारणं, अण्णहा अणवत्थापसंगादो। जदि मिच्छत्तुप्पज्जणकाले विज्जमाणा तक्कारणत्तं पडिवज्जंति तो णाण-दंसण-असंजमादओ वि तक्कारणं होंति। ण चेवं, तहाविहववहाराभावा। मिच्छादिट्ठीए पुण मिच्छत्तुदओ कारणं, तेण विणा तदणुप्पत्तीए। </p><p class="HindiText"> =प्रश्न–सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से, तथा सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से और मिथ्यात्वप्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षयोपशम क्यों न माना जाये ? उत्तर–न तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय, क्षय, अथवा सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशम मिथ्यादृष्टि भाव का कारण है, क्योंकि, उसमें व्यभिचार दोष आता है। जो जिससे नियमत: उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। यदि यह कहा जाये कि मिथ्यात्व की उत्पत्ति के काल में जो भाव विद्यमान हैं, वे उसके कारणपने को प्राप्त होते हैं। तो फिर ज्ञान, दर्शन, असंयम आदि भी मिथ्यात्व के कारण हो जावेंगे। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकार का व्यवहार नहीं पाया जाता है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि का कारण मिथ्यात्व का उदय ही है, क्योंकि, उसके बिना मिथ्यात्व की उत्पत्ति नहीं होती है।</p>
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| </ol>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">मिथ्यादृष्टि के भावों की विशेषता </strong><br /></span>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> मिथ्यादृष्टि के सर्वभाव अज्ञानमय हैं</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार/129 </span><p class=" PrakritText ">अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स। </p><p class="HindiText">= अज्ञानमय भाव में से अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इसलिए अज्ञानियों के भाव अज्ञानमय ही होते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/129/ कलश 67</span> <p class="SanskritText">ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता: सर्वे भावा भवंति हि। सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवंत्यज्ञानिनस्तु ते। </p><p class="HindiText">= ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान से रचित होते हैं और अज्ञानी के समस्त भाव अज्ञान से रचित होते हैं।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादर्शन#5 | मिथ्यादर्शन - 5 ]](व्रतादि पालता हुआ भी वह पापी है)।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.3 | मिथ्यादृष्टि - 2.3 ]](व्रतादि पालता हुआ भी वह अज्ञानी है)।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> अज्ञानी के सर्वभाव बंध के कारण हैं</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार/219 </span><p class=" PrakritText ">अण्णाणी पुणरत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं।219। </p><p class="HindiText">= अज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति रागी है, वह कर्मों के मध्य रहा हुआ कर्म रज से लिप्त होता है, जैसे लोहा कीचड़ के बीच रहा हुआ जंग से लिप्त हो जाता है।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#1.1.2 | मिथ्यादृष्टि - 1.1.2 ]](मिथ्यादृष्टि जीव सदा परद्रव्यों में रत रहने के कारण कर्मों को बाँधता हुआ संसार में भटकता रहता है)।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.2 | मिथ्यादृष्टि - 2.2 ]](सांगोपांग धर्म व चारित्र का पालन करता हुआ भी वह संसार में भटकता है)।</p>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/194 </span><p class="SanskritText">स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यजीर्ण: सन् बंध एव स्यात्। </p><p class="HindiText">= जब उस सुख या दु:ख रूप भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को रागादिभावों के सद्भाव से बंध का निमित्त होकर वह भाव निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी (वास्तव में) निर्जरित न होकर बंध ही होता है)।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#2 | सम्यग्दृष्टि - 2 ]](ज्ञानी के जो भाव मोक्ष के कारण हैं वही भाव अज्ञानी को बंध के कारण हैं)।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> मिथ्यादृष्टि का तत्त्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या हैं</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/415 </span><p class=" PrakritText ">लवणं व इणं भणियं णयचक्कं सयलसत्थसुद्धियरं। सम्माविय सुय मिच्छा जीवाणं सुणयमग्गरहियाणं।</p><p class="HindiText"> = सकल शास्त्रों की शुद्धि को करने वाला यह नयचक्र अति संक्षेप में कहा गया है। क्योंकि सम्यक् भी श्रुत या शास्त्र, सुनयरहित जीवों के लिए मिथ्या होता है।</p>
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| <p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ प्रक्षेपक 43-6/87/28</span> <p class="SanskritText">मिथ्यात्वात् यथैवाज्ञानमविरतिभावश्च भवति तथा सुनयो दुर्नयो भवति प्रमाणं दुःप्रमाणं च भवति। कदा भवति। तत्त्वविचारकाले। किं कृत्वा। प्रतीत्याश्रित्य। किमाश्रित्य। ज्ञेयभूतं जीवादिवस्त्विति। </p><p class="HindiText">= मिथ्यात्व से जिस प्रकार अज्ञान और अविरति भाव होते हैं, उसी प्रकार ज्ञेयभूत वस्तु की प्रतीति का आश्रय करके जिस समय तत्त्वविचार करता है, तब उस समय उसके लिए सुनय भी दुर्नय हो जाते हैं और प्रमाण भी दुःप्रमाण हो जाता है। (विशेष देखें [[ ज्ञान#III.2.8 | ज्ञान - III.2.8]],9; चारित्र/3/10; धर्म/2; नय/II/9; प्रमाण/2/2; 4/2; भक्ति/1)।</p>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि में अंतर </strong><br /></span>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> दोनों के श्रद्धान व अनुभव आदि में अंतर</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार/275 </span><p class=" PrakritText ">सद्दहदि व पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं। </p><p class="HindiText">= वह (अभव्य जीव) भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसी की प्रतीति करता है, उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है, किंतु कर्मक्षय के निमित्तरूप धर्म की श्रद्धा आदि नहीं करता।</p>
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| <p><span class="GRef"> रयणसार/57 </span><p class=" PrakritText ">सम्माइट्ठी कालं बीलइ वेरग्गणाणभावेण। मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकलहेहिं।57। </p><p class="HindiText">= सम्यग्दृष्टि पुरुष समय को वैराग्य और ज्ञान से व्यतीत करते हैं। किंतु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव, आलस्य और कलह से अपना समय व्यतीत करते हैं।</p>
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| <p><span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/268/ प्रक्षेपक 68-1/360/17</span><p class="SanskritText"> इमां चानुकंपां ज्ञानी स्वस्थभावनामविनाशयन् संक्लेशपरिहारेण करोति। अज्ञानी पुनः संक्लेशेनापि करोतीत्यर्थः। </p><p class="HindiText">= इस अनुकंपा को ज्ञानी तो स्वस्थ भाव का नाश न करते हुए संक्लेश के परिहार द्वारा करता है, परंतु अज्ञानी उसे संक्लेश से भी करता है।</p>
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| <p><span class="GRef"> समाधिशतक/ मूल/54</span> <p class="SanskritText">शरीरे वाचि चात्मानं संधत्ते वाक्शरीरयोः। भ्रांतोऽभ्रांतः पुनस्तत्त्वं पृथगेष निबुध्यते।54। </p><p class="HindiText">वचन और शरीर में ही जिसकी भ्रांति हो रही है, जो उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं समझता ऐसा बहिरात्मा वचन और शरीर में ही आत्मा का आरोपण करता है। परंतु ज्ञानी पुरुष इन शरीर और वचन के स्वरूप को आत्मा से भिन्न जानता है। (विशेष देखें [[ मिथ्यादृष्टि#1.1.2 | मिथ्यादृष्टि - 1.1.2]])।</p>
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| <p><span class="GRef"> समाधिशतक/ मूल व टीका/47</span> <p class="SanskritText">त्यागादाने बहिर्मूढ़: करोत्यध्यात्ममात्मवित्। नांतर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः।47। मूढात्मा बहिरात्मा त्यागोपादाने करोति क्क। बहिर्बाह्ये हि वस्तुनि द्वेषोदयादभिलाषाभावान्मूढात्मा त्यागं करोति। रागोदयात्तत्राभिलाषोत्पत्तेरुपादानमिति। आत्मवित् अंतरात्मा पुनरध्यात्मनि स्वात्मरूप एव त्यागोपादाने करोति। तत्र हि त्यागो रागद्वेषादेरंतर्जल्पविकल्पादेर्वा। स्वीकारश्चिदानंदादे:। यस्तु निष्ठितात्मा कृतकृत्यात्मा तस्य अंतर्बहिर्वा नोपादानं तथा न त्यागोऽंतर्बहिर्वा। </p><p class="HindiText">= बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि द्वेष के उदयवश अभिलाषा का अभाव हो जाने के कारण बाह्य वस्तुओं का त्याग करता है और राग के उदयवश अभिलाषा उत्पन्न हो जाने के कारण बाह्य वस्तुओं का ही ग्रहण करता है। परंतु आत्मवित् अंतरात्मा आत्मस्वरूप में ही त्याग या ग्रहण करता है। वह त्याग तो रागद्वेषादि का अथवा अंतर्जल्परूप वचन विलास व विकल्पादि का करता है और ग्रहण चिदानंद आदि का करता है। और जो आत्मनिष्ठ व कृतकृत्य हैं ऐसे महायोगी को तो अंतरंग व बाह्य दोनों ही का न कुछ त्याग है और न कुछ ग्रहण। (विशेष देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.2 | मिथ्यादृष्टि - 2.2]])।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.5 | मिथ्यादृष्टि - 2.5]] (मिथ्यादृष्टि को यथार्थ धर्म नहीं रुचता)।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ श्रद्धान#3 | श्रद्धान - 3 ]](मिथ्यादृष्टि एकांतग्राही होने के कारण अपने पक्ष की हठ करता है, पर सम्यग्दृष्टि अनेकांतग्राही होने के कारण अपने पक्ष की हठ नहीं करता )।</p>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/194/269/9 </span><p class="SanskritText">सुखं दु:खं वा समुदीण सत् सम्यग्दृष्टिर्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन् हेयबुद्धया वेदयति। न च तन्मयो भूत्वा, अहं सुखी दु:खीत्याद्यहमिति प्रत्ययेमनानुभवति। ... मिथ्यादृष्टे: पुन: उपादेयबुद्धया, सुख्यहं दु:ख्यहमिति प्रत्ययेन।</p> <p class="HindiText">= कर्म के उदयवश प्राप्त सुखदु:ख को सम्यग्दृष्टि जीव तो राग-द्वेष नहीं करते हुए हेय बुद्धि से भोगता है। ‘मैं सुखी-मैं दुःखी’ इत्यादि प्रत्यय के द्वारा तन्मय होकर नहीं भोगता। परंतु मिथ्यादृष्टि उसी सुख-दुःख को उपादेय बुद्धि से ‘मैं सुखी, मैं दु:खी’ इत्यादि प्रत्यय के द्वारा तन्मय होकर भोगता है। (और इसीलिए सम्यग्दृष्टि तो विषयों का सेवन करते हुए भी उनका असेवक है और मिथ्यादृष्टि उनका सेवन न करते हुए भी सेवक है )देखें [[ राग#6 | राग - 6]]।</p>
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| <p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/125/288/20 </span><p class="SanskritText">अज्ञानिनां हितं स्रग्वनिताचंदनादि तत्कारणं दानपूजादि, अहितमहिविषकंटकादि। संज्ञानिनां पुनरक्षयानंतसुखं तत्कारणभूतं निश्चयरत्नत्रयपरिणतं परमात्मद्रव्यं च हितमहितं पुनराकुलत्वोत्पादकं दुःखं तत्कारणभूतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतमात्मद्रव्यं च। </p><p class="HindiText">= अज्ञानियों को हित तो माला, स्त्री, चंदन आदि पदार्थ तथा इनके कारणभूत दान, पूजादि व्यवहारधर्म हैं और अहित-विष कंटक आदि बाह्य पदार्थ हैं। परंतु ज्ञानी को हित तो अक्षयानंत सुख व उसका कारणभूत निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्य है और अहित आकुलता को उत्पन्न करने वाला दुःख तथा उनका कारणभूत मिथ्यात्व व रागादि से परिणत आत्मद्रव्य है। (विशेष देखें [[ पुण्य#3.4 | पुण्य - 3.4]]-8)।</p>
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| <p><span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/397/20 </span><p class="HindiText">(सम्यग्दृष्टि) अपने योग्य धर्म कौं साधै है। तहाँ जेता अंश वीतरागता हो है ताकौं कार्यकारी जानै है, जेता अंश राग रहे है, ताकौं हेय जानैं है। संपूर्ण वीतराग ताकौं परमधर्म मानैं है। (और भी देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]])।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> दोनों के तत्त्व कर्तृत्व में अंतर</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/163-164 </span><p class=" PrakritText ">अज्जीवपुण्णपावे असुद्धजीवे तहासवे बंधे सामी मिच्छाइट्ठी समाइट्ठी हवदि सेसे। 163। सामी सम्मादिट्ठी जिय संवरणणिज्जरा मोक्खो। सुद्धो चेयणरूवो तह जाण सुणाणपच्चक्खं। 164। </p><p class="HindiText">= अजीव, पुण्य, पाप, अशुद्ध जीव, आस्रव और बंध इन छह पदार्थों के स्वामी मिथ्यादृष्टि हैं, और शुद्ध चेतनारूप जीव तत्त्व, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन शेष चार पदार्थों का स्वामी सम्यग्दृष्टि है।</p>
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| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/अधिकार 2/चूलिका/83/2</span><p class="SanskritText"> इदानीं कस्य पदार्थस्य क: कर्त्तेति कथ्यते–बहिरात्मा भण्यते। स चास्रवबंधपापपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति। क्वापि काले पुनर्मंदमिथ्यात्वमंदकषायोदये सति भोगाकांक्षादिनिदानबंधेन भाविकाले पापानुबंधिपुण्यपदार्थस्यापि कर्त्ता भवति। यस्तु... सम्यग्दृष्टिः स संवरनिर्जरामोक्षपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति। रागादिविभावरहितपरमसामायिके यदा स्थातुं समर्थो न भवति तदा विषयकषायोत्पन्नदुर्ध्यानवंचनार्थं संसारस्थितिच्छेदं कुर्वन् पुण्यानुबंधितीर्थंकरनामप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यपदार्थस्य कर्त्ता भवति। </p><p class="HindiText">= अब किस पदार्थ का कर्ता कौन है, इस बात का कथन करते हैं। वह बहिरात्मा (प्रधानत:) आस्रव, बंध और पाप इन तीन पदार्थों का कर्ता है। किसी समय जब मिथ्यात्व व कषाय का मंद उदय होता है तब आगामी भोगों की इच्छा आदि रूप निदान बंध से पापानुबंधी पुण्य पदार्थ का भी कर्त्ता होता है। (परंतु इसको संवर नहीं होता–देखें [[ अगला संदर्भ ]])। जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह (प्रधानत:) संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्त्ता होता है। और किसी समय जब रागादि विभावों से रहित परम सामायिक में स्थित रहने को समर्थ नहीं होता उस समय विषयकषायों से उत्पन्न दुर्ध्यानको रोकने के लिए, संसार की स्थिति का नाश करता हुआ पुण्यानुबंधी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ का कर्त्ता होता है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/14 </span>); (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/125/180/21 </span>)।</p>
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| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/34/96/10 </span><p class="SanskritText">मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने संवरो नास्ति, सासादनगुणस्थानेषु ... क्रमेणोपर्युपरि प्रकर्षेण संवरो ज्ञातव्य इति। </p><p class="HindiText">= मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं और सासादन आदि गुणस्थानों में (प्रकृतिबंध व्युच्छित्तिक्रम के अनुसार–देखें [[ प्रकृतिबंध#7.2 | प्रकृतिबंध - 7.2]]) ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में अधिकता से संवर जानना चाहिए।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ उपयोग#II.4.5 | उपयोग - II.4.5]] (1-3 गुणस्थान तक अशुभोपयोग प्रधान है और 4-7 गुणस्थान तक शुद्धोपयोग साधक शुभोपयोग प्रधान है। इससे भी ऊपर शुद्धोपयोग प्रधान है।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> दोनों के पुण्य में अंतर</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/224-227/305/17 </span><p class="SanskritText">कोऽपि जीवोऽभिनवपुण्यकर्मनिमित्तं भोगाकांक्षानिदानरूपेण शुभकर्मानुष्ठानं करोति पापानुबंधि पुण्यराजा कालांतरे भोगान् ददाति। तेऽपि निदानबंधेन प्राप्ता भोगा रावणादिवन्नारकादिदु:खपरंपरां प्राषयंतीति भावार्थ:। ... कोऽपि सम्यग्दृष्टिर्जीवो निर्विकल्पसमाधेरभावात्, अशक्यानुष्ठानेन विषयकषायवंचनार्थं यद्यपि व्रतशीलदानपूजादिशुभकर्मानुष्ठानं करोति तथापि भोगाकांक्षारूपनिदानबंधेन तत्पुण्यकर्मानुष्ठानं न सेवते। तदपि पुण्यानुबंधिकर्मं भावांतरे ... अभ्युदयरूपेणोदयागतमपि पूर्वभवभावितभेदविज्ञानवासनाबलेन ... भोगाकांक्षानिदानरूपान् रागादिपरिणामान्न ददाति भरतेश्वरादीनामिव।</p> <p class="HindiText">= कोई एक (मिथ्यादृष्टि) जीव नवीन पुण्य कर्म के निमित्तभूत शुभकर्मानुष्ठान को भोगाकांक्षा के निदान रूप से करता है। तब वह पापानुबंधी पुण्यरूप राजा कालांतर में उसको विषय भोगप्रदान करता है। वे निदान बंधपूर्वक प्राप्त भोग भी रावण आदि की भाँति उसको अगले भव में नरक आदि दुःखों की परंपरा प्राप्त कराते हैं (अर्थात् निदानबंध पूर्वक किये गये पुण्यरूप शुभानुष्ठान तीसरे भव नरकादि गतियों के कारण होने से पापानुबंधी पुण्य कहलाता हैं)। कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधि का अभाव होने के कारण अशक्यानुष्ठान रूप विषयकषाय वंचनार्थ यद्यपि व्रत, शील, दान, पूजादि शुभ कर्मानुष्ठान करता है परंतु (मिथ्यादृष्टि की भाँति) भोगाकांक्षारूप निदानबंध से उसका सेवन नहीं करता है। उसका वह कर्म पुण्यानुबंधी है, भवांतर में जिसके अभ्युदयरूप से उदय में आने पर भी वह सम्यग्दृष्टि पूर्व भव में भावित भेदविज्ञान की वासना के बल से भोगों की आकांक्षारूप निदान या रागादि परिणाम नहीं करता है, जैसे कि भरतेश्वर आदि। अर्थात् निदान बंधरहित बाँधा गया पुण्य सदा पुण्यरूप से ही फलता है। पाप का कारण कदाचित् भी नहीं होता। इसलिए पुण्यानुबंधी कहलाता है। (और भी देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]/2)।</p>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/324-327/414/16 </span><p class="SanskritText">कोऽपि जीव: पूर्वं मनुष्यभवे जिन रूपं गृहीत्वा भोगाकांक्षानिदानबंधेन पापानुबंधि पुण्यं कृत्वा ... अर्धचक्रवर्ती भवति तस्य विष्णुसंज्ञा न चापरः। </p><p class="HindiText">=कोई जीव पहले मनुष्य भव में जिनरूप को ग्रहण करके भोगों की आकांक्षारूप निदान बंध से पापानुबंधी पुण्य को करके स्वर्ग प्राप्त कर अगले मनुष्य भव में अर्धचक्रवर्ती हुआ, उसी की विष्णु संज्ञा है। उससे अतिरिक्त अन्य कोई विष्णु नहीं है। (इसी प्रकार महेश्वर की उत्पत्ति के संबंध में भी कहा है।)</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ पुण्य#5.1 | पुण्य - 5.1]],2 (सम्यग्दृष्टि का पुण्य निदान रहित होने से निर्जरा व मोक्ष का कारण है, और मिथ्यादृष्टि का पुण्य निदान सहित होने से साक्षात् रूप से स्वर्ग का और परंपरा रूप से कुगति का कारण है।)</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ पूजा#2.4 | पूजा - 2.4 ]]सम्यग्दृष्टि की पूजा भक्ति आदि निर्जरा के कारण हैं।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> दोनों के धर्मसेवन के अभिप्राय में अंतर</strong></p></li>
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| <p><p class="HindiText"><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/136 </span><p class="SanskritText">अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्याव स्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति। </p><p class="HindiText">= यह (प्रशस्त राग) वास्तव में जो स्थूल लक्ष्यवाला होने से मात्र भक्तिप्रधान है ऐसे अज्ञानी को होता है। उच्च भूमिका में स्थिति प्राप्त न की हो तब आस्थान अर्थात् विषयों की ओर का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र रागज्वर मिटाने के हेतु, कदाचित् ज्ञानी को भी होता है।</p>
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| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/55/223/12 </span><p class="SanskritText">प्राथमिकापेक्षया सविकल्पावस्थायां विषयकषायवंचनार्थं चित्तस्थिरीकरणार्थं पंचपरमेष्ठयादि परद्रव्यमपि ध्येयं भवति।</p> <p class="HindiText">= ध्यान आरंभ करने की अपेक्षा से जो सविकल्प अवस्था है उसमें विषय और कषायों को दूर करने के लिए तथा चित्त को स्थिर करने के लिए पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/9 </span>), (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति 96/154/10 </span>), (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/31/151/3 </span>)।</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ धर्म#6.8 | धर्म - 6.8 ]](मिथ्यादृष्टि व्यवहार धर्म को ही मोक्ष का कारण जानकर करता है, पर सम्यग्दृष्टि निश्चय मार्ग में स्थित होने में समर्थ न होने के कारण करता है।)</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]/2 व 3 (मिथ्यादृष्टि तो आगामी भोगों की इच्छा से शुभानुष्ठान करता है और सम्यग्दृष्टि शुद्ध भाव में स्थित होने में समर्थ न होने के कारण तथा कषायोत्पन्न दुर्ध्यान के वंचनार्थ करता है।)</p>
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| <p class="HindiText">देखें [[ पुण्य#3.4 | पुण्य - 3.4]]-8 (मिथ्यादृष्टि पुण्य को उपादेय समझकर करता है और सम्यग्दृष्टि उसे हेय जानता हुआ करता है।)</p>
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| <p><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/7 </span><p class="SanskritText">सम्यग्दृष्टिर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम्। कथं पुण्यं करोतीति। तत्र युक्तिमाह। यथा कोऽपि देशांतरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणां तदर्थे दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्यग्दृष्टिरप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदयात्तत्रासमर्थः सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धानां तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूनां च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवंचनार्थं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्ति करोति।</p> <p class="HindiText">= प्रश्न–सम्यग्दृष्टि जीव के तो पुण्य और पाप दोनों हेय हैं, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? उत्तर–जैसे कोई मनुष्य अन्य देश में विद्यमान किसी मनोहर स्त्री के पास से आये हुए मनुष्यों का उस स्त्री की प्राप्ति के लिए दान-सम्मान आदि करता है; ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी वास्तव में तो निज शुद्धात्मा को ही भाता है। परंतु जब चारित्रमोह के उदय से उस निजशुद्धात्म भावना में असमर्थ होता है, तब दोष रहित ऐसे परमात्मस्वरूप अर्हंत सिद्धों की तथा उनके आराधक आचार्य उपाध्याय और साधु की, परमात्मपद की प्राप्ति के लिए, (मुक्तिश्री को वश करने के लिए–पं. का), और विषय कषायों को दूर करने के लिए, पूजा दान आदि से अथवा गुणों की स्तुति आदि से परमभक्ति करता है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/170/243/11 </span>), (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/61/183/2 </span>)।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> दोनों की कर्मक्षपणा में अंतर</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> भगवती आराधना/108/255 </span><p class=" PrakritText ">जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण।108। </p><p class="HindiText">= जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह ज्ञानी त्रिगुप्ति के द्वारा अंतर्मुहूर्तमात्र में खपा देता है। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/234/454 </span>); (<span class="GRef"> प्रवचनसार/238 </span>); (<span class="GRef">मोक्षमार्गप्रकाशक/मूल/53</span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,50/ गाथा 23/281</span>); (एं.वि./1/30)।</p>
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| <p><span class="GRef"> भगवती आराधना/717/891 </span<p class=" PrakritText ">>जं बद्धमसंखेज्जाहिं रयं भवसदसहस्सकोडीहिं। सम्मत्तुप्पत्तीए खवेइ तं एयसमएण।717। </p><p class="HindiText">= करोड़ों भवों के संचित कर्मों को, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने पर, साधुजन एक समय में निर्जीर्ण कर देते हैं।</p>
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| <li><p class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टि के आशय को नहीं समझ सकता</strong></p></li>
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| <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/227/ कलश 153</span><p class="SanskritText"> ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति क:।153।</p> <p class="HindiText">= ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है। (ज्ञानी की बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानी के परिणामों को जानने की सामर्थ्य अज्ञानी में नहीं है–पं. जयचंद)।</p>
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