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| <p class="HindiText">'''सत्य--''' जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व व पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित व मित वचन को सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह असत्य भी क्यों न हो । सत्य वचन अनेक प्रकार के होते हैं। </p> | | <ol> |
| | | <li><span class="HindiText"><strong class="HindiText">[[ #1 | भेद व लक्षण ]]</strong><br /> |
| | | </span> |
| <p class="HindiText"><b>1. सत्य निर्देश</b></p> | | <ol> |
| <p class="HindiText"><b>1. सत्य धर्म का लक्षण</b></p> | | <li class="HindiText">[[ #1.1 | क्षेत्र सामान्य का लक्षण।]]<br /> |
| <span class="GRef">बारसअणुवेक्खा//74</span><p class=" PrakritText "> परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74। </p> <p class="HindiText">जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोडकर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.2 | क्षेत्रानुगम का लक्षण।]]<br /> |
| <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ 9/6/412/7</span> <p class="SanskritText"> सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते।</p> <p class="HindiText">अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।</p> (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/9/596/7</span>) (<span class="GRef">चारित्रसार/63/3</span>) (<span class="GRef">अनगार धर्मामृत/6/35</span>)</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.3 | क्षेत्र जीव के अर्थ में।]]<br /> |
| <span class="GRef">भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/46/154/16</span> <p class="SanskritText"> सतां साधूनां हितभाषणं सत्यम् ।</p> <p class="HindiText">मुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महित कर भाषण बोलना, यह सत्य धर्म है।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.4 | क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)।]]<br /> |
| <span class="GRef">तत्त्वार्थसार/6/17</span> <p class="SanskritText"> ज्ञानचारित्रशिक्षादौ स धर्म: मुनिगद्यते । धर्मोपबृंहणार्थं यत् साधु सत्यं तदुच्यते । 17। </p> <p class="HindiText">धर्म की वृद्धि के लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहाता है। इस धर्म के व्यवहार की आवश्यकता ज्ञान चारित्र के सिखाने आदि में लगती है।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.5 | लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।]]<br /> |
| <span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/91</span> <p class="SanskritText"> स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च। वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम् ।91।</p> <p class="HindiText"> मुनियों को सदैव ही स्वपर हितकारक, परिमित तथा अमृत के सद्दश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए । यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए ।91।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.6 | क्षेत्र के भेद स्वस्थानादि।]]<br /> |
| <span class="GRef">कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398</span> <p class=" PrakritText "> जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।</p> <p class="HindiText">जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.7 | निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।]]<br /> |
| <p class="HindiText"><b>2. महाव्रत का लक्षण</b></p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.8 | स्वपर क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <span class="GRef">नियमसार/57</span><p class=" PrakritText "> रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57। </p> <p class="HindiText">राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोडता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.9 | सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <span class="GRef">मूलाचार/6, 290</span> <p class="SanskritText"> रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290। </p> <p class="HindiText">राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा रहित वचन को छोडना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वास घातक दूसरे को पीडाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.10 | क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| <p class="HindiText">3. सत्य अणुव्रत का लक्षण</p> | | </li> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.11 | स्वस्थनादि क्षेत्रपदों के लक्षण।]]<br /> |
| <span class="GRef">रत्नकरण्डश्रावकाचार/55</span> <p class="SanskritText"> स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।</p> <p class="HindiText"> स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।</p> | | </li> |
| | | </ol> |
| <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/8</span><p class="SanskritText"> स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीरि द्वितीयमणुव्रतम् ।। <p class="HindiText">गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृनविनाश और ग्राम विनाश के</p> | | <ul> |
| | | <li class="HindiText"> समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार संबंधी—देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> |
| | | </li> |
| '''यह पेज जोडा है।।'''
| | </ul> |
| | | <ol start="12"> |
| | | <li class="HindiText">[[ #1.12 | निष्कुट क्षेत्र का लक्षण।]]<br /> |
| | | </li> |
| {| class="wikitable"
| | </ol> |
| |+ Caption text | | <ul> |
| |-
| | <li class="HindiText"> निक्षेपोंरूप क्षेत्र के लक्षण।–देखें [[ निक्षेप ]]।<br /> |
| ! नाम प्रकृति !! उत्कृष्ठ अनुभाग !! जघन्य अनुभाग
| | </li> |
| |-
| | </ul> |
| | ज्ञानावरणीय 5|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सूक्ष्मसांपराय का चरम समय
| | <ol start="13"> |
| |- | | <li class="HindiText">[[ #1.13 | नोआगम क्षेत्र के लक्षण।]]<br /> |
| | दर्शनावरणीय 4|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सूक्ष्मसांपराय का चरम समय | | </li> |
| |- | | </ol> |
| | निद्रा, प्रचला|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; | | </li> |
| |- | | <li><span class="HindiText"><strong> [[क्षेत्र_02#2 |क्षेत्र सामान्य निर्देश ]]</strong><br /> |
| | निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम
| | </span> |
| |- | | <ol> |
| | स्त्यानगृद्धि || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.1 | क्षेत्र व अधिकरण में अंतर।]]<br /> |
| |-
| | </li> |
| | अंतराय 5|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सूक्ष्मसांपराय का चरम समय
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.2 | क्षेत्र व स्पर्शन में अंतर।]]<br /> |
| |-
| | </li> |
| | मिथ्यात्व|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_02#2.3 | वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अंतर।]]<br /> |
| |-
| | </li> |
| | अनंतानुबंधी चतु.|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम
| | </ol> |
| |- | | </li> |
| | अप्रत्याख्यान चतु.|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय;
| | <li><span class="HindiText"><strong>[[क्षेत्र_03#3 | क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम ]]</strong><br /> |
| |-
| | </span> |
| | प्रत्याख्यान चतु.|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय;
| | <ol> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.1 | गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा।]]<br /> |
| | संज्वलन चतु.|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय;
| | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.2 | गतिमार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा।]]<br /> |
| | हास्य, रति|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय;
| | </li> |
| |-
| | </ol> |
| | अरति, शोक|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अप्रमत्तसंयत सन्मुख प्रमत्तसंयत
| | <ul> |
| |-
| | <li class="HindiText"> नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> |
| | भय, जुगुप्सा|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; | | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]।<br /> |
| | स्त्री, नपुंसक वेद|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> भोग व कर्मभूमि में जीवों का अवस्थान—देखें [[ भूमि#8 | भूमि - 8]]।<br /> |
| | पुरुष वेद|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; | | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> मुक्त जीवों का लोक में अवस्थान—देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।<br /> |
| | साता || क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि
| | </li> |
| |-
| | </ul> |
| | असाता|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि
| | <ol start="3"> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3 | इंद्रियादि मार्गणाओं में संभव पदों की अपेक्षा]]— |
| | नरकायु || मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि | | <ol> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.1 | इंद्रियमार्गणा ]]</li> |
| | तिर्यंचायु || मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि | | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.2 | कायमार्गणा ]]</li> |
| |- | | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.3| योगमार्गणा ]]</li> |
| | मनुष्यायु|| मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि | | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.3.4 | वेद मार्गणा]] </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.5 | ज्ञानमार्गणा]] </li> |
| | देवायु|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि | | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.6 | संयम मार्गणा]] </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.7 | सम्यक्त्व मार्गणा]] </li> |
| | नरक द्विक|| मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच;|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि | | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_03#3.3.8 | आहारक मार्गणा]] </li> |
| |-
| | </ol> |
| | तिर्यक् द्विक|| मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच;|| '''सप्तम पू. नारकी.'''
| | </li> |
| |-
| | </ol> |
| | मनुष्य द्विक|| सम्यग्दृष्टि देव, नारकी|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि; | | <ul> |
| |-
| | <li class="HindiText"> एकेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान—देखें [[ स्थावर ]]।<br /> |
| | देव द्विक|| क्षपकश्रेणी|| मिथ्यादृष्टि, तिर्यंच, मनुष्य | | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]। |
| | एकेंद्रिय जाति || मिथ्यादृष्टि देव|| मध्य परिणामों युक्त जीव मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच;देव, नारकी | | </li> |
| |- | | <li class="HindiText"> तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5 ]] |
| | 2-4 इंद्रिय जाति|| मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच;|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | | </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, जीवों का लोक में अवस्थान–देखें [[ वह वह नाम ]]। |
| | पंचेंद्रिय जाति|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | | </li> |
| |-
| | </ul> |
| | औदारिक द्विक || सम्यग्दृष्टि देव, नारकी|| मिथ्यादृष्टि देव, नारकी | | <ol start="4"> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_03#3.4 | मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद।]] |
| | वैक्रियक द्विक || क्षपकश्रेणी || मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच
| | </li> |
| |-
| | </ol> |
| | आहारक द्विक|| क्षपकश्रेणी || मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच
| | </li> |
| |-
| | <li><span class="HindiText"><strong> [[ क्षेत्र_04 -1#4 | क्षेत्र प्ररूपणाएँ ]]</strong> <br /> |
| | तैजस शरीर|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | </span> |
| |-
| | <ol> |
| | कार्मण शरीर|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_04 -1#4.1 | सारणी में प्रयुक्त संकेत परिचय। ]]<br /> |
| |-
| | </li> |
| | निर्माण|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_04 -2#1 | जीवों के क्षेत्र की ओघ प्ररूपणा। ]]<br /> |
| |-
| | </li> |
| | प्रशस्त वर्णादि 4|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText">[[ क्षेत्र_-_गति#4 -3 | जीवों के क्षेत्र की आदेश प्ररूपणा। ]]<br /> |
| |-
| | <ol> |
| | अप्रशस्त वर्णादि 4|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; मध्य परिणामों युक्त जीव;. मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_गति | गति मार्गणा ]]</li> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_इंद्रिय | इंद्रिय मार्गणा ]]</li> |
| | सम चतुरस्र संस्थान|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_काय| काय मार्गणा ]]</li> |
| |-
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_योग | योग मार्गणा ]] </li> |
| | शेष पाँच संस्थान|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि || मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText">[[क्षेत्र_-_वेद | वेद मार्गणा ]] </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_कषाय | कषाय मार्गणा ]] </li> |
| | वज्र ऋषभ नाराच|| सम्यग्दृष्टि देव, नारकी|| मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_ज्ञान | ज्ञान मार्गणा ]] </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_संयम | संयम मार्गणा ]] </li> |
| | वज्र नाराच आदि 4|| सम्यग्दृष्टि देव, नारकी|| मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_दर्शन | दर्शन मार्गणा ]] </li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__लेश्या | लेश्या मार्गणा ]]</li> |
| | असंप्राप्त सृपाटिका|| मिथ्यादृष्टि देव, नारकी|| मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__भव्यत्व | भव्यत्व मार्गणा ]]</li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-__सम्यक्त्व | सम्यक्त्व मार्गणा ]]</li> |
| | अगुरुलघु|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_संज्ञी | संज्ञी मार्गणा ]]</li> |
| |-
| | <li class="HindiText"> [[क्षेत्र_-_आहारक | आहारक मार्गणा ]]<br /> |
| | उपघात|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय;
| | </li> |
| |-
| | </ol> |
| | परघात|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | </li> |
| |-
| | </ol> |
| | आतप|| मिथ्यादृष्टि देव|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव;मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक से ईशान
| | </li> |
| |-
| | <li><span class="HindiText"><strong> [[ क्षेत्र_04 -4# | अन्य प्ररूपणाएँ ]]</strong> <br /> |
| | उद्योत|| मिथ्यादृष्टि देव|| मिथ्यादृष्टि देव, नारकी
| | </span> |
| |-
| | <ol> |
| | उच्छ्वास|| सूक्ष्मसांपराय का चरम समय|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | प्रशस्त विहायोगति|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | अप्रशस्त विहायोगति|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | प्रत्येक|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
| | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | साधारण|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच
| | <li class="HindiText"> पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | त्रस || क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|
| | <li class="HindiText"> 23 प्रकार की वर्गणाओं की जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | स्थावर|| मिथ्यादृष्टि देव|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि देव मनुष्य,तिर्यंच
| | <li class="HindiText"> प्रयोग समवदान, अध:, तप, ईयापथ व कृतिकर्म इन षट् कर्मों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> |
| |-
| | </li> |
| | सुभग|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
| | </ol> |
| |-
| | </li> |
| | दुर्भग|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
| |
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| | सुस्वर|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
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| | दुस्स्वर|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
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| | शुभ|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | अशुभ|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | सूक्ष्म|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच
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| | बादर|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
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| | पर्याप्त|| क्षपकश्रेणी || तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि
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| | अपर्याप्त|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच|| मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच
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| | स्थिर|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | अस्थिर|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | आदेय|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | अनादेय|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | यशःकीर्ति|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | अयशःकीर्ति|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि
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| | तीर्थंकर|| क्षपकश्रेणी || नारकी सन्मुख अविरतसम्यग्दृष्टि
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| | उच्च गोत्र|| क्षपकश्रेणी || मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि
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| | नीच गोत्र|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| सप्तम पृथ्वी नारकी मिथ्यादृष्टि
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| | अंतराय 5|| तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि|| अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय;
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| <p class="HindiText" id="5.5">5. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र</p>
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| {| class="wikitable"
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| |+ Caption text
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| ! नाम प्रकृति !! विषय !! जघन्य उत्कृष्ठ पद !! भुजगारादि पद !! जघन्य उत्कृष्ठ वृद्धि !! षड्गुण वृद्धि
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| |.-- || --|| महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ || महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ || महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ ||महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ
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| | 1. मूल प्रकृति || संनिकर्ष|| 4/172-181/74-79|| --|| --|| --
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| | || भंगविचय|| 4/182-185/79-81|| 4/285/131-132|| --|| --
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| | || अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ|| 4/371-386/168-176|| --|| --|| 4/360-361/163-164
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| | 2. उत्तरप्रकृति|| संनिकर्ष|| 5/1-308/1-126|| --|| --|| --
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| | --|| भंगविचय|| 5/309-313/126-129|| 5/492-497/276-78|| --|| 5/617/362
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| | --|| अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ|| 5/626-658/372-398|| --|| --|| --
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