दशरथ: Difference between revisions
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<li> <span class="GRef"> महापुराण/61/2-9 </span>पूर्वधातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक देश में सुसीमा नगर का राजा था। महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण की। तब ग्यारह अंगों का अध्ययन कर सोलह कारणभावनाओं का चिंतवन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अंत में समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ। यह धर्मनाथ भगवान् का पूर्व का तीसरा भव है। (देखें [[ धर्मनाथ ]]) </li> | <li> <span class="GRef"> महापुराण/61/2-9 </span>पूर्वधातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक देश में सुसीमा नगर का राजा था। महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण की। तब ग्यारह अंगों का अध्ययन कर सोलह कारणभावनाओं का चिंतवन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अंत में समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ। यह धर्मनाथ भगवान् का पूर्व का तीसरा भव है। (देखें [[ धर्मनाथ ]]) </li> | ||
<li> <span class="GRef"> पद्मपुराण/ </span> | <li> <span class="GRef"> पद्मपुराण/सर्ग/श्लोक</span> रघुवंशी राजा अनरण्य के पुत्र थे ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#162|22.162]])। नारद द्वारा यह जान कि रावण इनको मारने को उद्यत है ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_23#26|23.26]]) देश से बाहर भ्रमण करने लगे। वह केकयी को स्वयंवर में जीता ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_24#104|24.104]])। तथा अन्य राजाओं का विरोध करने पर केकयी की सहायता से विजय प्राप्त की तथा प्रसन्न होकर केकयी को वरदान दिया ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_24#120|24.120]])। राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न यह इनके चार पुत्र थे ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#22|25.22-36]])। अंत में केकयी के वर के फल में राम को वनवास माँगने पर दीक्षा धारण कर ली।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#80|25.80]])। </li> | ||
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<p id="3">(3) पूर्व घातकीखंड के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्स देश में सुसीमा नगर का राजा । यह धर्मनाथ तीर्थंकर के दूसरे पूर्वभव का नीच था । चंद्रग्रहण देखने से उत्पन्न उदासीनता के कारण महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर यह संयमी हो गया तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन और सोलह कारण भावनाओं का चिंतन कर इसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । अंत में यह समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 61. 2-12 </span></p> | <p id="3">(3) पूर्व घातकीखंड के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्स देश में सुसीमा नगर का राजा । यह धर्मनाथ तीर्थंकर के दूसरे पूर्वभव का नीच था । चंद्रग्रहण देखने से उत्पन्न उदासीनता के कारण महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर यह संयमी हो गया तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन और सोलह कारण भावनाओं का चिंतन कर इसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । अंत में यह समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 61. 2-12 </span></p> | ||
<p id="4">(4) दशार्ण देश में हेमकच्छ नगर का राजा । यह सूर्यवंशी था और वैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा को तीसरी पुत्री सुप्रभा से विवाहित हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 75. 3-11 </span></p> | <p id="4">(4) दशार्ण देश में हेमकच्छ नगर का राजा । यह सूर्यवंशी था और वैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा को तीसरी पुत्री सुप्रभा से विवाहित हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 75. 3-11 </span></p> | ||
<p id="5">(5) विनीता नगरी के राजा अनरण्य और उसकी रानी पृथिवीमती का कनिष्ठ पुत्र, अनंतरथ का अनुज । पिता और भाई दोनों के अभयसेन निर्ग्रंथ मुनि के पास दीक्षित हो जाने से इसे एक मास की अवस्था में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी । दर्भस्थल नगर के राजा सुकोशल और उसकी रानी अमृतप्रभावा की पुत्री अपराजिता, कमलसंकुल नगर के राजा सुबंधुतिलक और रानी मित्रा की पुत्री कैकया अपरनाम सुमित्रा, कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री केकया और सुप्रभा अपरनाम सुप्रभा ये चार इसकी रानियाँ थी । <span class="GRef"> पद्मपुराण 22.170-176 | <p id="5">(5) विनीता नगरी के राजा अनरण्य और उसकी रानी पृथिवीमती का कनिष्ठ पुत्र, अनंतरथ का अनुज । पिता और भाई दोनों के अभयसेन निर्ग्रंथ मुनि के पास दीक्षित हो जाने से इसे एक मास की अवस्था में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी । दर्भस्थल नगर के राजा सुकोशल और उसकी रानी अमृतप्रभावा की पुत्री अपराजिता, कमलसंकुल नगर के राजा सुबंधुतिलक और रानी मित्रा की पुत्री कैकया अपरनाम सुमित्रा, कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री केकया और सुप्रभा अपरनाम सुप्रभा ये चार इसकी रानियाँ थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#170|पद्मपुराण - 22.170-176]] </span>नारद से यह जानकर कि रावण ने उसका वध कराने का निर्णय ले लिया है वह समुद्रहृदय मंत्रि को कोष, देश, नगर तथा प्रजा को सौंपकर नगर के बाहर निकल गया था । इधर मंत्री ने इसकी मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर विराजमान की थी । विद्युद्विलसित विद्याधर ने इसकी कृत्रिम प्रतिमा का सिर काटकर विभीषण के दिया था । सिर प्राप्त कर विभीषण अत्यंत हर्षित हुआ । इसने सिर को समुद्र मे फिकवा दिया और स्वयं लंका चला गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_23#26|पद्मपुराण - 23.26-57]] </span>केकया के स्वयंवर में दशरथ का वरण करने से वहाँ आये हुए दूसरे राजा क्रुद्ध हुए और संग्राम छिड़ गया । उस समय केकया ने सारथी का कार्य अत्यंत कुशलतापूर्वक किया जिससे प्रसन्न होकर उसने उसे अपनी मनीषित वस्तु माँगने के लिए कहा । उसने इसे धरोहर के रूप में दशरथ के पास ही छोड़ दिया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_24#94|पद्मपुराण - 24.94-130]] </span>रानी अपराजिता (कौशल्या) से पद्म (राम) कैकयी (सुमित्रा) से लक्ष्मण, केकया से भरत तथा सुप्रभा से शत्रुघ्न ये इसके चार पुत्र हुए । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#22|पद्मपुराण - 25.22-23]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#35|25.35-36]] </span>आचार्य जिनसेन के अनुसार यह मूलत: वाराणसी का निवासी था । पद्म अपरनाम राम (बलभद्र) और लक्ष्मण (नारायण) यही हुए थे । राजा सगर को अयोध्या में समूल नष्ट हुआ जानकर ये राम और लक्ष्मण को लेकर साकेत (अयोध्या) आ गये थे । भरत और शत्रुघ्न साकेत मे ही जन्मे थे । <span class="GRef"> महापुराण 67. 148-152, 157-165 </span>मुनिराज सर्वभूतहित से अपने पूर्व जन्म के वृतांत सुनकर दशरथ को संसार से विरक्ति हो गयी थी । वह राम को राज्य देकर दीक्षित होना चाहता था । पिता की विरक्ति से भरत भी विरक्त हो गया था । भरत को रोकने के लिए केकया ने दशरथ से धरोहर मे रखे हुए वर के द्वारा भरत के लिए राज्य मांगा था जिसे देना उसने सहर्ष स्वीकार किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#95|पद्मपुराण - 31.95]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#101|101-102]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#112|112-114]] </span>भरत यह नहीं चाहता था पर दशरथ, राम और केकया के आदेश और अनुरोध से उसे मौन हो जाना पड़ा । भरत का राज्याभिषेक कर राम के वन में जाने पर उनके वियोग से संतप्त दशरथ नगर से निकलकर सर्वभूतहित नामक गुरु के निकट बहत्तर राजाओं के साथ दीक्षित हो गया । दीक्षा के पश्चात् उसने विजित देशों में विहार किया । अंत में यह आनत स्वर्ग में देव हुआ । इसी स्वर्ग में इसकी चारों रानियाँ तथा जनक और कनक भी देव हुए थे । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#78|पद्मपुराण - 32.78-101]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#80|123.80-81]] </span></p> | ||
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Revision as of 22:21, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
- पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार (देखें इतिहास ) आप धवलाकार वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। समय–ई.820-870 ( महापुराण/ प्र.31 पं.पन्नालाल)–देखें इतिहास /7/7।
- महापुराण/61/2-9 पूर्वधातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक देश में सुसीमा नगर का राजा था। महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण की। तब ग्यारह अंगों का अध्ययन कर सोलह कारणभावनाओं का चिंतवन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अंत में समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ। यह धर्मनाथ भगवान् का पूर्व का तीसरा भव है। (देखें धर्मनाथ )
- पद्मपुराण/सर्ग/श्लोक रघुवंशी राजा अनरण्य के पुत्र थे (22.162)। नारद द्वारा यह जान कि रावण इनको मारने को उद्यत है (23.26) देश से बाहर भ्रमण करने लगे। वह केकयी को स्वयंवर में जीता (24.104)। तथा अन्य राजाओं का विरोध करने पर केकयी की सहायता से विजय प्राप्त की तथा प्रसन्न होकर केकयी को वरदान दिया (24.120)। राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न यह इनके चार पुत्र थे (25.22-36)। अंत में केकयी के वर के फल में राम को वनवास माँगने पर दीक्षा धारण कर ली।(25.80)।
पुराणकोष से
(1) बलदेव का पुत्र । हरिवंशपुराण 48.67
(2) यादवों का पक्षधर एक नृप । हरिवंशपुराण 50.125
(3) पूर्व घातकीखंड के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्स देश में सुसीमा नगर का राजा । यह धर्मनाथ तीर्थंकर के दूसरे पूर्वभव का नीच था । चंद्रग्रहण देखने से उत्पन्न उदासीनता के कारण महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर यह संयमी हो गया तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन और सोलह कारण भावनाओं का चिंतन कर इसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । अंत में यह समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ । महापुराण 61. 2-12
(4) दशार्ण देश में हेमकच्छ नगर का राजा । यह सूर्यवंशी था और वैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा को तीसरी पुत्री सुप्रभा से विवाहित हुआ था । महापुराण 75. 3-11
(5) विनीता नगरी के राजा अनरण्य और उसकी रानी पृथिवीमती का कनिष्ठ पुत्र, अनंतरथ का अनुज । पिता और भाई दोनों के अभयसेन निर्ग्रंथ मुनि के पास दीक्षित हो जाने से इसे एक मास की अवस्था में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी । दर्भस्थल नगर के राजा सुकोशल और उसकी रानी अमृतप्रभावा की पुत्री अपराजिता, कमलसंकुल नगर के राजा सुबंधुतिलक और रानी मित्रा की पुत्री कैकया अपरनाम सुमित्रा, कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री केकया और सुप्रभा अपरनाम सुप्रभा ये चार इसकी रानियाँ थी । पद्मपुराण - 22.170-176 नारद से यह जानकर कि रावण ने उसका वध कराने का निर्णय ले लिया है वह समुद्रहृदय मंत्रि को कोष, देश, नगर तथा प्रजा को सौंपकर नगर के बाहर निकल गया था । इधर मंत्री ने इसकी मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर विराजमान की थी । विद्युद्विलसित विद्याधर ने इसकी कृत्रिम प्रतिमा का सिर काटकर विभीषण के दिया था । सिर प्राप्त कर विभीषण अत्यंत हर्षित हुआ । इसने सिर को समुद्र मे फिकवा दिया और स्वयं लंका चला गया था । पद्मपुराण - 23.26-57 केकया के स्वयंवर में दशरथ का वरण करने से वहाँ आये हुए दूसरे राजा क्रुद्ध हुए और संग्राम छिड़ गया । उस समय केकया ने सारथी का कार्य अत्यंत कुशलतापूर्वक किया जिससे प्रसन्न होकर उसने उसे अपनी मनीषित वस्तु माँगने के लिए कहा । उसने इसे धरोहर के रूप में दशरथ के पास ही छोड़ दिया । पद्मपुराण - 24.94-130 रानी अपराजिता (कौशल्या) से पद्म (राम) कैकयी (सुमित्रा) से लक्ष्मण, केकया से भरत तथा सुप्रभा से शत्रुघ्न ये इसके चार पुत्र हुए । पद्मपुराण - 25.22-23,25.35-36 आचार्य जिनसेन के अनुसार यह मूलत: वाराणसी का निवासी था । पद्म अपरनाम राम (बलभद्र) और लक्ष्मण (नारायण) यही हुए थे । राजा सगर को अयोध्या में समूल नष्ट हुआ जानकर ये राम और लक्ष्मण को लेकर साकेत (अयोध्या) आ गये थे । भरत और शत्रुघ्न साकेत मे ही जन्मे थे । महापुराण 67. 148-152, 157-165 मुनिराज सर्वभूतहित से अपने पूर्व जन्म के वृतांत सुनकर दशरथ को संसार से विरक्ति हो गयी थी । वह राम को राज्य देकर दीक्षित होना चाहता था । पिता की विरक्ति से भरत भी विरक्त हो गया था । भरत को रोकने के लिए केकया ने दशरथ से धरोहर मे रखे हुए वर के द्वारा भरत के लिए राज्य मांगा था जिसे देना उसने सहर्ष स्वीकार किया था । पद्मपुराण - 31.95,101-102, 112-114 भरत यह नहीं चाहता था पर दशरथ, राम और केकया के आदेश और अनुरोध से उसे मौन हो जाना पड़ा । भरत का राज्याभिषेक कर राम के वन में जाने पर उनके वियोग से संतप्त दशरथ नगर से निकलकर सर्वभूतहित नामक गुरु के निकट बहत्तर राजाओं के साथ दीक्षित हो गया । दीक्षा के पश्चात् उसने विजित देशों में विहार किया । अंत में यह आनत स्वर्ग में देव हुआ । इसी स्वर्ग में इसकी चारों रानियाँ तथा जनक और कनक भी देव हुए थे । पद्मपुराण - 32.78-101, 123.80-81