धरण: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) जंबूद्वीप की कौशांबी नगरी का राजा, तीर्थंकर पद्मप्रभ का जनक । <span class="GRef"> महापुराण 52.18-21, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#42|पद्मपुराण - 20.42]] </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) जंबूद्वीप की कौशांबी नगरी का राजा, तीर्थंकर पद्मप्रभ का जनक । <span class="GRef"> महापुराण 52.18-21, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#42|पद्मपुराण - 20.42]] </span></p> | ||
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<p id="3">(3) विदेहक्षेत्र की पूर्वदिशा में स्थित एक द्वीप । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#46|पद्मपुराण - 3.46]] </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) विदेहक्षेत्र की पूर्वदिशा में स्थित एक द्वीप । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#46|पद्मपुराण - 3.46]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) विदेहक्षेत्र में गंधमालिनी देश की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत के पुत्र जयंत मुनि का जीव । अपने पिता के केवलज्ञान-महोत्सव मे आये धरणेंद्र को देखकर इसने धरणेंद्र होने का निदान किया था और उसके फलस्वरूप मरकर यह घरणेंद्र हुआ था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.5-9 </span>इसके भाई संजयंत मुनि को पूर्व बैर के कारण विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर उठा ले गया और उन्हें विद्याघरों को भड़काकर मरवा डाला । संजयंत मुनि तो केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए किंतु विद्युद्दंष्ट्र के इस व्यवहार से रुष्ट होकर इसने उसकी समस्त विद्याएँ हर ली । इसने उसे मारना चाहा किंतु लांतवेंद्र आदित्याभ ने आकर उसे रोक लिया था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27. 10-18 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) विदेहक्षेत्र में गंधमालिनी देश की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत के पुत्र जयंत मुनि का जीव । अपने पिता के केवलज्ञान-महोत्सव मे आये धरणेंद्र को देखकर इसने धरणेंद्र होने का निदान किया था और उसके फलस्वरूप मरकर यह घरणेंद्र हुआ था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#5|हरिवंशपुराण - 27.5-9]] </span>इसके भाई संजयंत मुनि को पूर्व बैर के कारण विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर उठा ले गया और उन्हें विद्याघरों को भड़काकर मरवा डाला । संजयंत मुनि तो केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए किंतु विद्युद्दंष्ट्र के इस व्यवहार से रुष्ट होकर इसने उसकी समस्त विद्याएँ हर ली । इसने उसे मारना चाहा किंतु लांतवेंद्र आदित्याभ ने आकर उसे रोक लिया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#10|हरिवंशपुराण - 27.10-18]] </span></p> | ||
<p id="5">(5) एक यदुवंशी राजा । यह वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप का जनक था । अपरनाम धारण । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18.12-13, 48.50 </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) एक यदुवंशी राजा । यह वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप का जनक था । अपरनाम धारण । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#12|हरिवंशपुराण - 18.12-13]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_48#50|हरिवंशपुराण - 48.50] </span></p> | ||
<p id="6">(6) भवनवासी देवों का इंद्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9. 129 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) भवनवासी देवों का इंद्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#129|हरिवंशपुराण - 9.129]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
तोल का एक प्रमाण―देखें गणित - I.1.2।
पुराणकोष से
(1) जंबूद्वीप की कौशांबी नगरी का राजा, तीर्थंकर पद्मप्रभ का जनक । महापुराण 52.18-21, पद्मपुराण - 20.42
(2) लक्ष्मण का पुत्र । पद्मपुराण - 94.27-28
(3) विदेहक्षेत्र की पूर्वदिशा में स्थित एक द्वीप । पद्मपुराण - 3.46
(4) विदेहक्षेत्र में गंधमालिनी देश की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत के पुत्र जयंत मुनि का जीव । अपने पिता के केवलज्ञान-महोत्सव मे आये धरणेंद्र को देखकर इसने धरणेंद्र होने का निदान किया था और उसके फलस्वरूप मरकर यह घरणेंद्र हुआ था । हरिवंशपुराण - 27.5-9 इसके भाई संजयंत मुनि को पूर्व बैर के कारण विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर उठा ले गया और उन्हें विद्याघरों को भड़काकर मरवा डाला । संजयंत मुनि तो केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए किंतु विद्युद्दंष्ट्र के इस व्यवहार से रुष्ट होकर इसने उसकी समस्त विद्याएँ हर ली । इसने उसे मारना चाहा किंतु लांतवेंद्र आदित्याभ ने आकर उसे रोक लिया था । हरिवंशपुराण - 27.10-18
(5) एक यदुवंशी राजा । यह वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप का जनक था । अपरनाम धारण । हरिवंशपुराण - 18.12-13,[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_48#50|हरिवंशपुराण - 48.50]
(6) भवनवासी देवों का इंद्र । हरिवंशपुराण - 9.129