बंध: Difference between revisions
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Revision as of 22:43, 22 July 2020
अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना बन्ध कहलाता है । वह तीन प्रकार का है , जीवबन्ध, अजीवबन्ध और उभयबन्ध । संसार व धन आदि बाह्य पदार्थों के साथ जीव को बाँध देने के कारण जीव के पर्यायभूत मिथ्यात्व व रागादि प्रत्यय जीवबन्ध या भावबन्ध हैं । स्कन्धनिर्माण का कारणभूत परमाणुओं का पारस्परिक बन्ध अजीवबन्ध या पुद्गलबन्ध है । और जीव के प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का अथवा शरीर का बन्ध उभयबन्ध या द्रव्यबन्ध है । इनके अतिरिक्त भी पारस्परिक संयोग से बन्ध के अनेक भेद किये जा सकते हैं । द्रव्य व भावबन्ध में भावबन्ध ही प्रधान हैं, क्योंकि इसके बिना कर्मों व शरीर का जीव के साथ बन्ध होना सम्भव नहीं है । मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के निरोध द्वारा द्रव्यबन्ध का निरोध हो जाने से जीव को मोक्ष प्रकट होता है ।
- [[ बन्ध सामान्य निर्देश]]
- बन्ध सामान्य निर्देश
- बन्ध के भेद-प्रभेद
- वैस्रसिक व प्रायोगिक बन्ध के भेद
- कर्म व नोकर्म बन्ध के लक्षण
- जीव व अजीव बन्ध के लक्षण
- अनन्तर व परम्परा बन्ध का लक्षण ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबन्ध के लक्षण ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक अजीव भावबन्ध ।
- बन्ध, अबन्ध व उपरतबन्ध के लक्षण ।
- एक सामयिक बन्ध को बन्ध नहीं कहते । - देखें स्थिति - 2.
- प्रकृति, स्थिति आदि । - देखें वह वह नाम ।
- स्थिति व अनुभागबन्ध की प्रधानता । -देखें स्थिति - 2.
- आस्रव व बन्ध में अन्तर । - देखें आस्रव - 2.
- बन्ध के साथ भी कथंचित् संवर का अंश । - देखें संवर - 2.5 ।
- मूल-उत्तर प्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणाएँ- देखें प्रकृति बन्ध - 6
- सत्त्व के साथ बन्ध का सामानाधिकरण्य नहीं है । - देखें सत्त्व - 2 8
- बन्ध, उदय व सत्त्व में अन्तर ।-देखें उदय - 2 8
- बन्ध सामान्य निर्देश
- [[द्रव्यबन्ध की सिद्धि]]
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- जीव व कर्म का बन्ध कैसे जाना जाये ।
- जीव-प्रदेशों में कर्म स्थित हैं या अस्थित ।
- जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे संभव है ।
- अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे-
- मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बन्ध में दृष्टान्त ।
- कर्म जीव क साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर ।
- कर्मबद्ध जीव में चेतना न रहेगी ।
- जीव व शरीर का एकत्व व्यवहार से है । - देखें कारक - 2.2
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- [[कर्मबन्ध में रागादि भावबन्ध की प्रधानता]]
- द्रव्य व भाव-कर्म सम्बन्धी । - देखें कर्म - 3 ।
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबन्ध होता है ।
- अज्ञान व रागादि ही वास्तव में बन्ध के कारण हैं ।
- ज्ञानआदि भी कथंचित् बन्ध के कारण हैं ।
- ज्ञान की कमी बन्ध का कारण नहीं, तत्सहभावी कर्म ही बन्ध का कारण है ।
- जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बन्ध करने में असमर्थ है ।
- परन्तु उससे बन्ध सामान्य तो होता ही है ।
- भावबन्ध के अभाव में द्रव्यबन्ध नहीं होता ।
- कर्मोदय बन्ध का कारण नहीं, रागादि ही है ।
- रागादि बन्ध के कारण हैं तो बाह्य द्रव्य का निषेध क्यों ?
- द्रव्य व भाव-कर्म सम्बन्धी । - देखें कर्म - 3 ।
- [[द्रव्य व भावबन्ध का समन्वय]]
- एक क्षेत्रावगाहमात्र का नाम द्रव्यबन्ध नहीं ।
- जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु ।
- जीव व शरीर में निमित्त व नैमित्तिकपना भी कथंचित् मिथ्या है ।
- जीव व कर्मबन्ध केवल निमित्त की अपेक्षा है ।
- निश्चय से कर्म जीव से बँधे ही नहीं ।
- बन्ध-अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है ।
- जीवबन्ध बताने का प्रयोजन ।
- उभयबन्ध बताने का प्रयोजन ।
- उभयबन्ध का मतार्थ ।
- बन्ध टालने का उपाय ।
- एक क्षेत्रावगाहमात्र का नाम द्रव्यबन्ध नहीं ।
- अनादि के कर्म कैसे कटें । - देखें मोक्ष - 6.4
- [[कर्मबन्ध के कारण प्रत्यय]]
- बन्ध के कारण प्रत्ययों का निर्देश व स्वामित्वादि । - देखें प्रत्यय ।]]
- बन्ध के कारण प्रत्ययों का निर्देश व स्वामित्वादि । - देखें प्रत्यय ।]]
- कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना ।
- प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं होता ?
- एक प्रत्यय से अनन्त वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?
- बन्ध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधाना क्यों ?
- कषाय और योग दो प्रत्ययों से बन्ध में इतने भेद क्यों ?
- अविरति कर्मबन्ध में कारण कैसे ?
- योग में बन्ध के कारणपने सम्बन्धी शंका समानधान । - देखें योग । 2
- बन्ध सामान्य निर्देश
- बन्ध-सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/1/4/10/26/3 बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा बन्धः ।10।
राजवार्तिक/1/4/17/26/30 बन्ध इव बन्धः ।
राजवार्तिक/5/24/1/485/10 वघ्नाति, बध्यतेऽसौ, बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रंवा बन्धः ।
राजवार्तिक/8/2/11/566/14 करणादिसाधनेष्वयं बन्धशब्दो द्रष्टव्यः । तत्र करणसाधनस्तावत् - बध्यतेऽनेनात्मेति बन्धः । =- जिनसे कर्म बँधे वह कर्मों का बंधना बन्ध है । (1/4/10) ।
- बन्ध की भाँति होने से बन्ध है । (1/4/17) ।
- जो बन्धे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बन्धनमात्र को बन्ध कहते हैं । (5/24/1) ।
- बन्ध शब्द करणादि साधन में देखा जाता है । करण साधन की विवक्षा में जिनके द्वारा कर्म बँधता है , वह बन्ध है ।
- गतिनिरोध हेतु
सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/2 अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुबंधः । = किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के कारण बन्ध कहते हैं ।
राजवार्तिक/7/25/1/553/16 अभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबन्धहेतुः कीलादिषु रज्जवादिभिर्व्यतिषङ्गो बन्ध इत्युच्यते । = खूँटा आदि में रस्सी से इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्ट देश को गमन न कर सके, उसको बन्ध कहते हैं । ( चारित्रसार/8/6 ) ।
- जीव व कर्म प्रदेशों का परस्पर बन्ध
राजवार्तिक/1/4/17/26/29 आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशलक्षणो बन्धः ।17। = कर्म प्रदेशों का आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है ।
धवला 14/5,6,1/2/3 दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम । = द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जो संयोग और समवाय है वही बन्ध कहलाता है । विशेष - देखें बन्ध - 1.5।
- निरुक्ति अर्थ
- बन्ध के भेद-प्रभेद
- बन्ध सामान्य के भेद
राजवार्तिक/1/7/14/40/5 बन्धः सामान्यादेशात् एक: द्विविधः शुभाशुभभेदात्, त्रिधा द्रव्यभावोभयविकल्पात्, चतुर्धा प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदात्, पञ्चधा मिथ्यादर्शनादिहेतुभेदात्, षोढा नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः, सप्तधा तैरेव भवाधिकैः, अष्टधाज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पश्च भवति हेतुफलभेदात् ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 बन्धो द्विविधो द्रव्यबन्धो भावबन्धश्चेति ।
राजवार्तिक/5/24/6/487/17 बन्धोऽपि द्विधा विस्रसाप्रयोगभेदात् ।6।
राजवार्तिक/8/4/15/569/10 एकादयः संख्येया विकल्पा भवन्ति - शब्दतः तत्रैकस्तावत् सामान्यादेकः कर्मबन्धः ... स एव पुण्यपापभेदाद् द्विविधः, ... त्रिविधो बन्ध: ... अनादिः सान्तः, अनादिरनन्तः, सादिः सान्तश्चेति, भुजाकाराल्पतरावस्थितभेदाद्वा । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशाच्चतुर्विधः । द्रव्यक्षेत्रकालभवभावनिमित्तभेदात् पञ्चविधः । षड्जीवनिकायविकल्पात् षोडा व्यपदिश्यते । रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभहेतुभेदात् सप्ततयीं वृत्तिमनुभवति । ज्ञानावरणादिविकल्पादष्टधा । एवं संख्येया विकल्पाः शब्दतो योज्याः । च- शब्देनाध्यवसायस्थानविकल्पात् असंख्येयाः । अनन्तानन्तप्रदेशस्कन्धपरिणामविधिरनन्तः, ज्ञानावरणाद्यनुभवाविभागपरिच्छेदापेक्षया वा अनन्त: । =- सामान्य से एक प्रकार है - ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ) ।
- पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/1/ तथा राजवार्तिक/8 ) । अथवा द्रव्यभाव के भेद से दो प्रकार का है - ( राजवार्तिक/2 ) । अथवा वैस्रसिक या प्रायोगिक के भेद से दो प्रकार है - ( षट्खण्डागम 14/5,6/ सु. 26/28); ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ); ( राजवार्तिक/5 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- द्रव्य, भाव व उभय या जीव, पुद्गल व उभय के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/1 ), ( प्रवचनसार/177 ), ( धवला 13/5,5,82/347/7 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/46 ), अथवा अनादि सान्त, अनादि-अनन्त व सादि-सान्त के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/8 ),
- प्रकृति, स्थिति, अनुभव व प्रदेश के भेद से चार प्रकार हैं - (मू.आ./1221), ( तत्त्वार्थसूत्र/8/3 ), ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/89/73 ), ( द्रव्यसंग्रह/33 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/935 );
- मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के भेद से पाँच प्रकार का है । ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से पाँच प्रकार है । ( राजवार्तिक/8 ) ।
- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेद से छह प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/8 ) ।
- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से सात प्रकार है- ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा राग, द्वेष मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सात प्रकार है - ( राजवार्तिक/8 ) ।
- ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियों के भेद से आठ प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), (प्रकृति बन्ध/1) ।
- वाचक शब्दों की अपेक्षा संख्यात; अध्यवसाय स्थानों की अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्म प्रदेशों की अथवा कर्मों के अनुभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनन्त प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 )
- नोआगम द्रव्यबन्ध के भेद
षट्खण्डागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो णो आगमदो दव्वबंधो सो दुविहो- पओअबंधो चेव विस्ससाबंधो चेव (26/28) । जो सो विस्ससाबंधो णाम सो दुविहो- सादियविस्ससाबंधो चेव अणादियविस्ससाबंधो चेव (28/28) ।जो सो थप्पो पओअबंधो णाम सो दुविहो- कम्मबंधो चेव णोकम्मबंधो - चेव (38/36) । जो सो णोकम्मबंधो णाम सो पंचविहो-आलावबंधो अल्लीवणबंधो संसिलेसबंधो सरीरबंदो सरीरिबंधो चेदि (40/37) । जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो-ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीबंधो आहारसरीबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधो चेदि (44/41) . जो सो सरीरिबंधो णाम सो दुविहो - सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरिबंधो चेव (61/44) । जो सो थप्पोकम्मबंधो णाम यथा कम्मेत्ति तहा णेदव्वं (64/46) ।- नोआगम द्रव्यबन्ध दो प्रकार का है - प्रायोगिक व वैस्रसिक ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ), ( राजवार्तिक/5/24/6/487/17 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- वैस्रसिक दो प्रकार का है — सादी व अनादी । ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) ।
- प्रायोगिक दो प्रकार का है — कर्म व नोकर्म ( सर्वार्थसिद्धि 5/24/295/10 ), ( राजवार्तिक 5/24/9/487/34 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- नोकर्म बन्ध पाँच प्रकार का है - आलापन, अल्ललीवन, संश्लेष, शरीर व शरीरी ( राजवार्तिक/5/24/9/487/35 ) ।
- शरीरबन्ध पाँच प्रकार है - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस व कार्मण ( राजवार्तिक/5/24/9/488/3 ), (विशेष - देखें शरीर ) ।
- शरीरबन्ध दो प्रकार है - सादि व अनादि ( राजवार्तिक/5/24/9/488/14 ) ।
- कर्मबन्ध कर्म अनुयोग द्वारवत् जानना अर्थात् ज्ञानावरणादिरूप मूल व उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा अनेक भेद-प्रभेदरूप है ।( राजवार्तिक/5/24/9/487/34 ), (विशेष - देखें प्रकृतिबंध - 1) ।
- नोआगम भावबन्ध के भेद
षट्खण्डागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो णोआगमदो भावबंधो णाम सो दुविहो-जीवभावबंधो चेव अजीवभावबंधो चेव (13/9) ।जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो - विवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो जीवभाव-बंधो चेव (14/9) । जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहो-उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव (16/12) । जो सो अजीवभावबंधो णाम सो तिविहो विवागपच्चइयो अजीवभावबंदो चेव अविवागपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव (2/220) । =- नो आगम भावबन्ध दो प्रकार का है - जीव भावबन्ध और अजीव भावबन्ध (13/9) ।
- जीव भावबन्ध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध, अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध, और तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबन्ध (14/9) ।
- अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकार का है — औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध (16/12) ।
- अजीव भावबन्ध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक अजीवभाबवन्ध, अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध (20/12) ।
- बन्ध सामान्य के भेद
- वैस्रसिक व प्रायोगिक बन्ध के लक्षण
- वैस्रसिक व प्रायोगिक सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 पुरुषप्रयोगानपेक्षो वैस्रसिकः । .... पुरुषप्रयोग-निमित्तः प्रायोगिकः । = पुरुषप्रयोग से निरपेक्ष वैस्रसिक है और पुरुषप्रयोग सापेक्ष प्रायोगिक । ( राजवार्तिक/5/24/8-9/487/30 ), ( धवला 14/5,6/38/37/1 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- सादि-अनादि वैस्रसिक
षट्खण्डागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो अणादियविस्ससाबंधो णाम सो तिविहो- धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि (3/29) । जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो (32/30) । से तं बंधणपरिणामं पप्प से अव्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उडुं पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अमंगलप्पहुडीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्वो सादियविस्ससाबंधो णाम (37/34) । = अनादि वैस्रसिक बन्ध तीन प्रकार का है - धर्म, अधर्म तथा आकाश (30/29) । इनके अतिरिक्त इनके भी तीन-तीन प्रकार हैं - सामान्य, देश व प्रदेश में परस्पर बन्ध । स्निग्ध, रूक्ष गुण के कारण पुद्गल परमाणु में बंध सादि वैस्रसिक है (32/30) वे पुद्गल बन्धन को प्राप्त होकर विविध प्रकार के अभ्ररूप से, मेघ, सन्ध्या, बिजली, उल्का, कनक, दिशादाह, धूमकेतु, इन्द्रधनुष रूप से, तथा क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गल के अनुसार जो बन्धन परिणामरुप से परिणत होते हैं, तथा इनको लेकर अन्य जो अमंगलप्रभृति बन्धन परिणामरूप से परिणत होते हैं, वह सब सादि विस्रसाबन्ध हैं । (37/34), ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) ।
राजवार्तिक/5/24/7/487/25 कालाणूनामपि सततं परस्परविश्लेषाभावात् अनादिः । = इसी प्रकार काल, द्रव्य आदि में भी बन्ध अनादि है ।
- वैस्रसिक व प्रायोगिक सामान्य
- कर्म व नोकर्मबन्ध के लक्षण
- कर्म व नोकर्म सामान्य
राजवार्तिक/5/24/9/487/34 कर्मबन्धो ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः । नोकर्मबन्धः औदारिकादिविषयः । = ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध है - विशेष देखें [[ ]]प्रकृतिबन्ध 1/2। और औदारिकादि नोकर्मबन्ध है । विशेष देखें शरीर ।
राजवार्तिक/8/ भूमिका/561/5 मातापितृपुत्रस्नेहसंबन्धः नोकर्मबन्धः । = माता, पिता, पुत्र आदि का स्नेह सम्बन्ध नोकर्म बन्ध है ।
देखें आगे बं धवला - 2.5.3 (जीव व पुद्गल उभयबन्ध भी कर्मबन्ध कहलाता है ।)
- आलापन आदि नोकर्म बन्ध
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सू. 41-63/38-46 जो सो आलावणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - सेसगहाणं वा जावाणं वा जुगाणं वा गड्डीणं वा गिल्लीणं वा रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पासादाणं वा गोवुराणं वा तोरणाणं वा से कट्ठेण वा लोहेण या रज्जुणा वा वब्भेण वा दब्भेण वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि आलावियाणं बंधो होदि सो सव्वो आलावणबंधो णाम ।41। जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लोवणबंधोणाम ।42। जो सो संसिलेसबंधो णाम तस्स इमोणिद्देसो-जहा कट्ठ-जदणं अण्णोण्णसं सिलेसिदाणं बंधो संभवदि सो सव्वो संसिलेसबंधो णाम ।43। जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो - ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीरबंधो आहारसरीरबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधोचेदि ।44। ओरालिय-ओरालिय- सरीरबंधो ।45। ओरालिय-तेयासरीरबंधो ।46। ओरालिय-कम्मइय- सरीरबंधो ।47। ओरालिय-तेयाकम्भइयसरीरबंधो । 48। वेउव्विय-वेउव्वियसरीरबंधो ।49। वेउव्विय-तेयासरीरबंधो ।50। वेउव्विय-कम्मइयसरीरबंधो ।51। वेउव्विय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।52। आहार-आहारसरीरबंधो ।53। आहार-तेयासरीरबंधो ।54 । आहार- कम्मइयसरीरबंधो ।55। आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।56। तेयातेयासरीरबंधो ।57। तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।58। कम्मइय-कम्मइय- सरीरबंधो ।59। सो सव्वो सरीरबंधो णाम ।60। जो सो सरीरिबंधो णामसो दुविहो-सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरबंधो चेव ।61। जो सो सादियसरीरिबंधो णाम सो जहा सरीरबंधो तहा णेदव्वो ।62। जो अणादियसरीरिबंधो णामयथा अट्ठण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सव्वो अणादियसरीरिबंधो णाम ।63। (इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तसंहरणविसर्पणस्वभावत्वादादिमान् । राजवार्तिक ) । =- जो आलापनबन्ध है उसका यह निर्देश है - जो शकटों का, यानों का, युगों का, गड्डियों का, गिल्लियों का, रथों का, स्यन्दनों का, शिविकाओं, गृहों, प्रासादों, गोपुरों और तोरणों का काष्ट से, लोह, रस्सी, चमड़े की रस्सी और दर्भ से जो बन्ध होता है तथा इनसे लेकर अन्य द्रव्यों से लालापित अन्य द्रव्यों का जो बन्ध होता है वह सब आलापनबन्ध है ।41।
- जो अल्लीवणबन्ध है उसका यह निर्देश है - कटकों का, कुण्डों, गोबरपीड़ों, प्राकारों और शाटिकाओं का तथा इनसे लेकर और जो दूसरे पदार्थ हैं उनका जो बन्ध होता है अर्थात् अन्य 4द्रव्यद से सम्बन्ध को प्राप्त हुए अन्य का जो बन्ध होता है वह सब अल्लीवणबन्ध है ।42।
- जो संश्लेषबन्ध है उसका यह निर्देश है - जैसे परस्पर संश्लेष को प्राप्त हुए काष्ठ और लाख का बन्ध होता है वह सब संश्लेषबन्ध है । 43। - विशेष देखें श्लेष ।
- जो शरीरबन्ध है वह पाँच प्रकार का है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरबन्ध ।44। औदारिक - औदारिक शरीरबन्ध ।45। औदारिक-तैजसशरीरबन्ध ।46। औदारिक-कार्मण शरीरबन्ध ।47. औदारिक-तैजस-कार्मण शरीरबन्ध।48। वैक्रियिक-वैक्रियिक शरीरबन्ध ।49। वैक्रियिक-तैजस शरीरबन्ध ।50। वैक्रियिक-कार्मण शरीरबन्ध ।51। वैक्रियिक-तैजस-कार्मण शरीरबन्ध ।52। आहारक-आहारक शरीरबन्ध ।53। आहारकतैजस शरीरबन्ध ।54। आहारक-कार्मण शरीरबन्ध ।55। आहारक-तैजस-कार्मण शरीरबन्ध ।56। तैजस-तैजस शरीरबन्ध ।57। तैजस-कार्मण शरीरबन्ध ।58। कार्मण-कार्मण शरीरबन्ध ।59। वह सब शरीरबन्ध है ।60।
- जो शरीरिबन्ध है वह दो प्रकार का है - सादि शरीरिबन्ध और अनादि शरीरिबन्ध ।62। जो सादि शरीरिबन्ध है - वह शरीरबन्ध के समान जानना चाहिए ।62। जो अनादि शरीरिबन्ध है । यथा - जीव के आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेश-बन्ध होता है यह सब अनादि शरीरिबन्ध है ।63। (जीव के इतर प्रदेशों का बन्ध सादि शरीरिबन्द है राजवार्तिक ), ( राजवार्तिक/5/24/9/488/36 ) ।
- कर्म व नोकर्म सामान्य
- जीव व अजीवबन्ध के कारण
- जीव बन्ध सामान्य
धवला 13/5 .5,82/347/8,11 एगसरीरट्ठिदाणमणंताणंताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो ... (तथा) जेण कम्मेण जीवा अणंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो णाम । = एक शरीर में स्थित अनन्तानन्त निगोद जीव तथा जिस कर्म के कारण वे इस प्रकार रहते हैं, वह कर्म भी जीवबन्ध है ।
- भावबन्धरूप जीवबन्ध
प्रवचनसार/175 उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदिवा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ।175। = जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा बन्धरूप है ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबन्धः । = क्रोधादि परिणाम भावबन्ध है ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/9 बध्यन्ते अस्वतन्त्रीक्रियन्ते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स बन्धः । = कर्म को परतन्त्र करने वाले आत्मपरिणामों का नाम बन्ध-भावबन्ध है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176-177 येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः ।176। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः ।177। = जिस मोह-राग वा द्वेषरूप भाव से देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है, यह तो उपराग है यह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है ।176। जीव का औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्याय के साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीवबन्ध है ।
द्रव्यसंग्रह 32 वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो ।32। = जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबन्ध है ।32।
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धो भण्यते । = मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध चेतन भावस्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं वह परिणाम भावबन्ध कहलाता है ।
- द्रव्यबन्धरूप जीवपुद्गल उभयबन्ध
तत्त्वार्थसूत्र/8/2 सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।2। = कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बन्ध है ।2।
सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/4 आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीव: । = आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना अजीव बन्ध है । ( राजवार्तिक/1/4/17/26/29 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/11 अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तानन्तप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यनामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषाय- वशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः । = मिथ्यादर्शनादि के अभिनिवेश द्वारा गीले किये गये आत्मा के सब अवस्थाओं में योग विशेष से उन सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्मभाव को प्राप्त होने योग्य पुद्गलों का उपश्लेष होना बन्ध है । यह कहा गया है । जिस प्रकार पात्र विशेष में प्रक्षिप्त हुए विविध रसवाले बीज, फूल और फलों का मदिरा रूप से परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलोंका भी योग और कषाय के निमित्त से कर्मरूप से परिणमन जानना चाहिए । ( राजवार्तिक/8/2/8-0/566/5 ); ( कषायपाहुड़/1/13,14/250-291/4 ) ( धवला 13/5,5,82/347/13 ); ( द्रव्यसंग्रह व.टी./32); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/2 ) ।
नयचक्र बृहद्/154 अप्पपएसामुत्ता पुग्गलसत्ती तहाविहा णेया । अण्णोण्णं मिल्लंता बंधो खलु होइ निद्धाइ ।154। = आत्म प्रदेश और पुद्गल का अन्योन्य मिलन बन्ध है (जीव बन्ध है कार्तिकेयानुप्रेक्षा ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/203 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/28/85/11 ) ।
धवला 13/5,5,82/347/10 ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बंधो सो जीवपोग्गलबंधो णाम । = औदारिक - वैक्रियक-आहारक- तैजस और कार्मण वर्गणाएँ ; इनका और जीवों का जो बंध है वह जीव-पुद्गल बंध है ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/10 बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म बन्धः । = स्थिति परिणत जिस कर्म के द्वारा आत्मा परतन्त्र किया जाता है वह कर्म ‘बन्ध’ है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 य: पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह: स तदुभयबन्धः । = जीव और कर्मपुद्गल के परस्पर परिणाम के निमित्त मात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 ) ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/438/591/14 मिथ्यात्वादिपरिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबन्धो बन्धः । = मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादिरूप परिणमित होकर ज्ञानादि को आवरण करता है । इनका यह संबंध है सो बंध है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/104 जीवकर्मोभयो बन्धः स्यान्मिथः साभिलाषुकः । जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ।104। = जो जीव और कर्म का परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा से बन्ध होता है, वह उभयबन्ध कहलाता है क्योंकि जीव कर्म से बँधा हुआ है तथा वह कर्म जीव से बँधा हुआ है ।
- जीव बन्ध सामान्य
- अनन्तर व परम्पराबन्ध का लक्षण
धवला 12/4,2,12,1/370/7 कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा । कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपच्चएण परिणयत्तादो । ... बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ... पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंधो, चेव, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपरंपरा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दट्ठव्वा ।
धवला 12/4,2,12,4/372/2 णाणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणंता णिरंतरमण्मोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिट्ठा ते अणंतरबंधा णाम । ... अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदूण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । =- कार्मणवर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल स्कन्धों का मिथ्यात्वादिक प्रत्ययकों के द्वारा कर्मस्वरूप से परिणत होने के प्रथम समय में जो बन्ध होता है उसे अन्तरबन्ध कहते हैं । ... चूँकि वे कार्मण-वर्गणारूप पर्याय को छोड़ने के अनन्तर समय में ही कर्मरूप पर्याय से परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनन्तरबंध संज्ञा है । ... बन्ध होने के द्वितीय समय से लेकर कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों और जीवप्रदेशों का जो बन्ध होता है उसे परम्परा बन्ध कहते हैं । ... प्रथम समय में बन्ध हुआ, द्वितीय समय में भी उन पुद्गलों का बन्ध ही है, तृतीय समय में भी बन्ध ही है, इस प्रकार से बन्ध की निरन्तरता का नाम बन्ध-परम्परा है । उस परम्परा से होने वाले बन्धों को परम्परा-बन्ध समझना चाहिए ।
- जो अनन्तानन्त ज्ञानावरणीय कर्मरूप स्कन्ध निरन्तर परस्पर में सम्बद्ध होकर स्थित हैं वे अनन्तर बन्ध हैं ।... जो अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल स्कन्ध परस्पर में संबद्ध होकर शेषकर्म संबद्धों से असंबद्ध होते हुए जीव के द्वारा इतर स्कन्धों से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे परम्परा बन्ध कहे जाते हैं ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध के लक्षण
धवला 14/5,6,14/10/2 कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविवागो णाम । कम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिदं होदि । अविवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । कम्माणुदय-उदीरणाहिंतो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । = कर्मों के उदय और उदीरणाको विपाक कहते है; और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे विपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं (अर्थात् जीव के औदयिक भाव देखें उदय - 9) । कर्मों के उदय और उदीरणा के अभाव को अविपाक कहते हैं । कर्मों के उपशम और क्षय को अविपाक कहते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अविपाक जिस भाव का प्रत्यय है उसे अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबन्ध कहते हैं । (अर्थात् जीव के औपशमिक व क्षायिक भाव (देखें उपशम - 6) । कर्मों के उदय और उदीरणा से तथा इनके उपशम से जो भाव उत्पन्न होता है, उसे तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं । (अर्थात् जीव के क्षायोपशमिक भाव - देखें क्षायोपशम - 2.3) ।
- विपाक अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध
षट्खण्डागम 14/5,6/ सू. 21-23/23-26 - पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा सद्दा पओगपरिणदा गंधा पओगपरिणदा रसा पओगपरिणदा फासा पओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा खंधदेसा पओगपरिणदा खंधपदेशा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसंजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीव भावबंधो णाम ।21। ... जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।22। ... जे चामण्णे एवमादिया पओअविस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।23।
धवला 14/5,6,20/22/13 मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगेहिंतो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसिं विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणेहि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । =- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से या पुरुष के प्रयत्न से जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं उनकी विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध संज्ञा है । जैसे प्रयोगपरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गंध, प्रयोगपरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति, प्रयोगपरिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत-स्कन्धदेश और प्रयोग परिणत स्कन्धप्रदेश; ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव होते हैं वह सब विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध हैं ।21.
- जोअजीव भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविवाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । जैसे पूर्व कथित वर्ण, गन्ध आदि से लेकर इसी प्रकार के विस्रसापरिणत जो दूसरे संयुक्त भाव हैं वह अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ।22।
- जो दोनों ही कारणों से उत्पन्न होते हैं उनको तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । यथा पूर्व कथित ही वर्ण-गन्ध आदि से लेकर प्रयोग और विस्रसा दोनों से परिणत जितने भी संयुक्त भाव हैं वह सब तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध हैं ।
- बन्ध, अबन्ध व उपरतबन्ध के लक्षण
गो.कं./भाषा/644/838 वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव सम्बन्धी आगामी आयु का बन्ध होई ... तहाँ बन्ध कहिये जो आगामी आयु का अतीतकाल विषै बन्धन भया, वर्तमान काल विषै भी न हो है ... तहाँ अबन्ध कहिये । जहाँ आगामी आयु का पूर्व बन्ध भया हो और वर्तमान काल विषै बन्ध न होता हो ... तहाँ उपरतबन्ध कहिये ।
- बन्ध-सामान्य का लक्षण
- द्रव्यबन्ध की सिद्धि
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
धवला 9/4,1,63/270/5 कधं सरीरादो सरीरी अभिण्णो । सरीरदाहे जीवे दाहोपलंभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवलंभादो सरीरागरिसणे जीवागरिसणदंसणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमणदंसणादो, पडियारखंडयाणं व दोण्णं भेदाणुवलंभादो, एगीभूददुद्धोदयं व एगत्तेणुवलंभादो । = प्रश्न - शरीर से शरीरधारी जीव अभिन्न कैसे है । उत्तर- चूँकि शरीर का दाह होने पर जीव में दाह पाया जाता है, शरीर के भेदे जाने और छेदे जाने पर जीव में वेदना पायी जाती है, शरीर के खींचने में जीव का आकर्षण देखा जाता है, शरीर के गमनागमन में जीव का गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और खण्डक (तलवार) के समान दोनों में भेद नहीं पाया जाता है । तथा एकरूप हुए दूध और पानी के समान दोनों एकरूप से पाये जाते हैं । इस कारण शरीर से शरीरधारी अभिन्न है ।
- जीव व कर्म का बन्ध कैसे जाना जाये ?
कषायपाहुड़ 1/1,1/40/57/7 तं च जीवसंबद्धं चेव । तं कुदो णव्वदे । मुत्तेण सरीरेण कम्मकज्जेण जीवस्स संवंधण्णहाणुववत्तीदो ... । ण च संबंधो; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंभादो । ... जीवे गच्छंते ण सरीरेण गंतव्वं,... जीवे रुट्ठे कंप... पुलउग्गमधम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज ... सव्वेसिं जीवाणं केवलणाण ...सम्मत्तादओ होज्ज; ... सिद्धाणं वा तदो चेव अणंतणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एवं ; तहाणब्भुवगमादो । = प्रश्न - कर्म जीव से सम्बद्ध ही है यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर-- यदि कर्म को जीव से सम्बद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्यरूप मूर्त शरीर से जीव का सम्बन्ध नहीं बन सकता है, इस अन्यथानुपपत्ति से प्रतीत होता है कि कर्म जीव से संबद्ध ही है ।
- शरीरादि के साथ जीव का संबन्ध नहीं है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के छेदे जाने पर जीव को दुःख की उपलब्धि होती है ।
- .. जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।
- ... जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह .. पसीना आदि कार्य नहीं होने चाहिए .
- ... जीव की इच्छा से शरीर का गमन .. सिर और अंगुलियों का संचालन नहीं होना चाहिए ।
- सम्पूर्ण जीवों के केवलज्ञान ... सम्यक्त्वादि गुण हो जाने चाहिए ।
- ... या सिद्धों के भी (यह केवलज्ञानादि गुण) नहीं होने चाहिए ।
- यदि कहा जाये कि अनन्ताज्ञानादि गुण सिद्धों के नहीं होते हैं तो मत होओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माना नहीं गया है ।
- जीवप्रदेशों में कर्म स्थित हैं या अस्थित
धवला 12/4,2,11,1/364/6 जदि कम्मपदेसा ट्ठिदा चेव होंति तो जीवेण देसंतरगदेण सिद्धसमासेण होदव्वं । कुदो । सयलकम्माभावादो ।
धवला 12/4,2,11,2/365/7 जीवपदेसेसु ट्ठिदअद्दजलं व संचरंतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाणं पि संचरणुवलंभादो । जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा ट्ठिदा चेव, पुव्विल्लदेसं मोत्तूण देसंतरे ट्ठिदजीवपदेसेसु समवेदकम्मक्खंधुवलंभादो ।
धवला 12/4,2,11,3/366/5 छदुमत्थस्स जीवपदेसाणं केसिं पि चलणा-भावादो तत्थ ट्ठिदकम्मखंधावि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति । = प्रश्न - (जीव प्रदेश में समवाय को प्राप्त कर्म प्रदेश स्थित हैं कि अस्थित) उत्तर-- यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हों तो देशान्तर को प्राप्त हुए जीव को सिद्ध जीव के समान हो जाना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके समस्त कर्मों का अभाव है ।
- मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है । परन्तु जीव प्रदेशों मे कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि, जीव प्रदेशों के पूर्व के देश को छोड़कर देशान्तर में जाकर स्थित होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्म स्कन्ध पाये जाते हैं । ... इससे जाना जाता है कि जीवप्रदेशों के देशान्तर को प्राप्त होने पर उनमें कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं ।
- छद्मस्थ के किन्हीं जीव प्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं । तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूँकि संचार पाया जाता है अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं ।
- जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे सम्भव है ?
धवला 12/4,2,11,1/364/4 कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे । ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहाभावादो ।
धवला 12/4,2,11, 2/365/11 अट्ठण्हं म ज्झमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्त-वयणं ण घडदे । ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो । = प्रश्न - जीव प्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मों का गमन कैसे सम्भव है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग के कारण जीवप्रदेशों का संचरण होने पर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धों के भी संचार में कोई विरोध नहीं आता । प्रश्न -यतः जीव के आठ मध्यप्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थितपना नहीं बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्र वचन घटित नहीं होता । उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीव के उन आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर शेष जीव प्रदेशों का आश्रय करके इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है ।
- अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे ?
- क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है
सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 न चामूर्ते: कर्मणां बन्धो युज्यत इति । तन्न; अनेकान्तात् । नायमेकान्तः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्तः । = प्रश्न - अमूर्त आत्मा के कर्मों का बन्ध नहीं बनता है ? उत्तर- आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है । यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्ति ही है । कर्म बन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । ( तत्त्वसार/5/16 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/27 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 ) ।
धवला 13/5,3,12/11/9 जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो । = प्रश्न - जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसारअवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता । = प्रश्न - यदि संसारअवस्था में जीव मूर्त हैं, तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव में मूर्तत्व का कारण कर्म है अत: कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है । ( योगसार (अमितगति)/4/35 ) ।
धवला 13/5,5,63/333/6 मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो । = क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । ( धवला 15/32/8 ) ।
धवला 15/33-34/1 ण च वट्टमाणबंधघडावणट्ठं जीवस्स वि रूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, .... - मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा जीवादो अपुधभूदा कम्मइयवग्गणक्खंधाणं तत्तो पुधभूदाणं कधं परिणामांतरं संपादेंति । ण एस दोसो, ... वुत्तं च - राग- द्वेषाद्यूष्मासयोग-वर्त्यात्मदीप आवर्ते । स्कन्धानादाय पुनः परिणमयति तांश्च कर्मतया ।18। = प्रश्न - वर्तमान बन्ध को घटित कराने के लिए पुद्गल के समान जीव को भी रूपी कहना योग्य नहीं है ... तथा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये जीव से अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणा के स्कन्धों- के परिणामान्तर (रूपित्व) को कैसे उत्पन्न करा सकते हैं ?उत्तर- यह कोई दोष नहीं है । ... कहा भी है - संसार में रागद्वेषरूपी उष्णता से संयुक्त यह आत्मारूपी दीपक योगरूप बत्ती के द्वारा (कार्मण वर्गणा के) स्कन्धों (रूप तेल) को ग्रहण करके फिर उन्हें कर्मरूपी (कज्जल) स्वरूप से परिणमाता है ।
देखें मूर्त - 9-10 (कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथंचित् मूर्त हैं ।)
- जीव कर्मबन्ध अनादि है
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/4 कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति - ‘कर्मणः’ इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतोर्जीवः सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो जीवकर्मणोरनादिसंबन्ध इत्युक्तं भवति । तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृतं भवति । इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे आत्यन्तिकीं शुद्धिं दधतः सिद्धस्येव बन्धाभाव: प्रसज्येत । =‘कर्मणो जीवः सकषायो भवति’ यह एक वाक्य है । इसका अभिप्राय है कि ‘कर्मण:’ यह हेतुपरक निर्देश है । जिसका अर्थ है कि कर्म के कारण जीव कषायसहित होता है, कषायरहित जीव के कषाय का लेप नहीं होता । इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है यह कथन निष्पन्न होता है । और इससे अमूर्त जीव मूर्त कर्म के साथ कैसे बँधता है इस प्रश्न का निराकरण हो जाता है । अन्यथा बन्धको सादि मानने पर आत्यन्तिक शुद्धि को धारण करने वाले सिद्ध जीव के समान संसारी जीव के बन्ध का अभाव प्राप्त होता है । ( राजवार्तिक/8/2/4/565/22 ); ( कषायपाहुड़ 1/1,1/41/59/3 ); ( तत्त्वसार/5/17-18 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/4 ) ।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/59 जीवहें कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण ।59।= हे आत्मा ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं, उस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मों ने भी जीव नहीं उपजाया, क्योंकि जीव और कर्म इन दोनों का ही आदि नहीं है, किन्तु अनादि के हैं ।59।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/134 अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्त- रागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैमूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बन्धप्रकारः । एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथंचिट्बन्धो न विरुध्यते ।134। = निश्चय से अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त कर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि परिणाम के द्वारा स्निग्ध वर्तता है, मूर्तकर्मों को विशिष्ट रूप से अवगाहता है, और उस परिणाम के निमित्त से अपने परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे मूर्त कर्म भी जीव को विशिष्ट रूप से अवगाहते हैं । यह जीव और मूर्तकर्म का अन्योन्य अवगाहस्वरूप बन्ध प्रकार है । इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीव का भी मूर्त पुण्य-पाप के साथ कथंचित् बन्ध विरोध को प्राप्त नहीं होता ।134।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/2/3 ... जीवंगाणं अणाइ संबंधो । कणयोवलेमलं वा ताण-त्थित्तं सयं सिद्धं ।2। = जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, तथापि इनका सम्बन्ध अनादि है, नये नहीं मिले हैं । उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि हैं ।2। इनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 55 तथानादिः स्वतो बन्धो जीवपुद्गलकर्मणोः । कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोऽयं व्योमपुष्पवत् ।55। = जीव और पुद्गल स्वरूप कर्म का बन्ध स्वयं अनादि है इसलिए किस कारण से हुआ, किसने किया तथा कहाँ हुआ, यह प्रश्न आकाश के फूल की तरह व्यर्थ है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/6,9-70 ) ।
- क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है
- मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बन्ध में दृष्टान्त
प्रवचनसार व त.प्र./174 उत्थानिका - अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति- रूवादिएहिंरहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।174। ... दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवदं बलीवदं व पश्यतो जान- तश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबन्धः, विषयबावावस्थितबलीवर्दनि- मित्तोपयोगाधिरूढवलबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबन्ध- व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंधः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गल- निमित्तोपयोगाधिरूढ़रागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यव- हारसाधकस्त्वस्त्येव । = अब यह सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बन्ध होता है - जैसे रूपादि रहित (जीव) रूपादिक द्रव्यों को तथा गुणों को देखता है और जानता है, उसी प्रकार उसके साथ बन्ध जानो ।174। ... आबाल-गोपाल सभी को प्रगट हो जाय इसलिए दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा- बाल-गोपाल का पृथक् रहने वाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ सम्बन्ध नहीं है तथापि विषय रूप से रहने वाले बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगरूढ़ वृषभाकार दर्शन ज्ञान के साथ का सम्बन्ध बैल के साथ के सम्बन्द रूप व्यवहार का साधक अवश्य है । इसी प्रकार आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्श शून्य है । इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि एकावगाह रूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ़ राग द्वेषादि भावों के साथ का सम्बन्ध कर्मपुदगलों के साथ के बन्धरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
- कर्म जीव के साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर
धवला 12/4,2,8,2/277/11 कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा । णादिपक्खो ... णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । ... ण विदिओ वि पक्खो जुज्जदे, जीवे असमवेदाणं कम्मइयक्खंधाण णाणावरणीयसरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाए अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वेहि संबंधाभावादो । ण च एवं, जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आगमणप्पसंगादो, जीवादोपुधभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, ... एत्त परिहारो वुच्चदे - जीव समवेद-काले चेव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीयसरूवेण परिणमंति (त्ति) ण पुव्वुत्तदोसा ढुक्कंति । = प्रश्न - कार्मणस्कन्ध क्याजीव में समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्याय रूप से परिणमते हैं , अथवा असमवेत होकर ?- प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि ... नोकर्म से भिन्न और कर्मस्वरूप से अपरिणत हुआ कार्मणस्कन्ध जीव में समवेत नहीं पाया जाता । ...
- दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीव में असमवेत कार्मणस्कन्धों के ज्ञानावरणीय स्वरूप से परिणत होने का विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो संसार अवस्था- में जीव को अमूर्त होना चाहिए, क्योंकि, मूर्त द्रव्यों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीव के गमन करने पर शरीर का सम्बन्ध न रहने से उसके गमन न करने का प्रसंग आता है । दूसरे, जीव से शरीर पृथक् है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनों का सम्बन्ध होता है, ऐसा भी सम्भव नहीं है । उत्तर- जीव से समवेत होने के समय में ही कार्मणस्कन्ध ज्ञानावरणीय स्वरूप से नहीं परिणमते हैं । अतएव पूर्वोक्त दोष यहाँ नहीं ढूँकते ।
- कर्मबद्ध जीव में चेतनता न रहेगी
धवला 12/4,2,9,6/297/2 णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण भट्ठसगसरूवस्स कधं जीवत्तं जुज्जदे । ण, अविणट्ठणाण-दंसणणाणमुवलंभेण जीवत्थित्तसिद्धीदो । ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अत्थि, पहाणीकय- जीवभावादो । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वितत्तो तेसिमभेदुवलंभादो । = प्रश्न - चेतनारहित मूर्त पुद्गल स्कन्धों के साथ समवाय होने के कारण अपने स्वरूप (चैतन्य व अमूर्तत्व) से रहित हुए जीव के जीवत्व स्वीकार करना कैसे युक्ति- युक्त है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुए ज्ञान-दर्शन के पाये जाने से उसमें जीवत्वका अस्तित्व सिद्ध है । वस्तुतः उसमें पुद्गल स्कन्ध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीवभाव की प्रधानता की गयी है । दूसरे, जीव में पुद्गल स्कन्धों का प्रवेश बुद्धिपूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थतः भी उससे उनका अभेद पाया जाता है ।
- बन्धपदार्थ की क्या प्रामाणिकता ?
सर्वार्थसिद्धि/8/26/405/3 एवं व्याख्यातो सप्रपञ्चः बन्धपदार्थः । अवधि-मनःपर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः । = इस प्रकार विस्तार से बन्धपदार्थ का व्याख्यान किया । यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगम से अनुमेय है ।
- विस्रसोपचय रूप से स्थित वर्गणाएँ ही बँधती हैं
तत्त्वार्थसूत्र/8/28 नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।24। = कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रतिसमय योग परमाणु योग विशेष से सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्तपुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेश में (सम्बन्ध को प्राप्त) होते हैं ।
प्रवचनसार 168, 170 ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।168। ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायंते देहा देहंतर-संकमं पप्पा ।170। = लोक सर्वतः सूक्ष्म तथा बादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्कन्धों के द्वारा (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है ।168। (इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डों का लानेवाला आत्मा नहीं है । ( प्रवचनसार/ टी./168) कर्मरूप परिणत वे वे पुद्गलपिंड देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः-पुनः जीव के शरीर होते हैं ।
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- कर्म बन्ध में रागादि भाव बन्ध की प्रधानता
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबन्ध होता है
राजवार्तिक/3/37/2/205/4 द्रव्य-भव-क्षेत्र- कालभावापेक्षत्वात् कर्मबन्धस्य । = द्रव्य, भव, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से कर्म का बन्ध होता है ।
- अज्ञान व राग आदि ही वास्तव में बन्ध के कारण हैं
- अज्ञान
समयसार/153 उत्थानिका - अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबन्धहेतू नियमयति- वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।153। = ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है और अज्ञान ही बन्ध का हेतु है यह नियम है - व्रत नियम को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य हैं वे निर्वाणको प्राप्त नहीं होते । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1035 ) ।
समयसार / आत्मख्याति/311/ क. 195 तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ।195। = इस जगत् में प्रकृतियों के साथ यह (प्रगट) बन्ध होता है, सो वास्तव में अज्ञान की कोई गहन महिमा स्फुरायमान है ।
- रागादि
पंचास्तिकाय/128,148 जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तोदुपरिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।128। भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदो समोह जुदो ।148। =- जो वास्तव में संसार-स्थित जीव है, उससे (स्निग्ध) परिणाम होता है । परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है ।128। ( पंचास्तिकाय/129-930 ) ।
- बन्ध का निमित्त भाव है । भाव रति-राग-द्वेष मोह से युक्त है ।148। ( प्रवचनसार/179 ) ।
समयसार/237-241 जह णाम को वि पुरिसो णेयब्भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठणम्मि य करेइ सत्थेहिं वायामं ।237। जो सो दु णेह भावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।240। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टन्तो बहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण ।241। = जैसे कोई पुरुष (अपने शरीर में ) तैलादि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी धूलिवाले स्थान में रहकर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है ।137। उस पुरुष में जो वह तेलादिकी चिकनाहट है उससे उसे धूलिका बन्ध होता है, ऐसा निश्चय से जानना चाहिए, शेष शारीरादिक चेष्टाओं से नहीं होता ।240। इसी प्रकार बहुत प्रकार की चेष्टाओं में वर्तता हुआ मिथ्यादृष्टि अपने उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्मरूपी रजसे लिप्त होता है ।241। (अतः निश्चित हुआ कि उपयोग में जो राग आदिक हैं, वही बन्ध के कारण हैं ।) ( योगसार (अमितगति) 4/4-5 ) ।
मू.आ./1219 मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगाहवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।1219। मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयु का परिणाम - ये कर्मबन्ध के कारण जानने चाहिए ।
क.पा 1/1,1/गा. 51/105 वत्थुं पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ ववहारो । ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण । = यद्यपि वस्तु की अपेक्षा करके अध्यवसान होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है, परन्तु केवल वस्तु के निमित्त से बन्ध नहीं होता, बन्ध तो आत्मपरिणामों (रागादि) से होता है । ( समयसार / आत्मख्याति/265 ) ।
धवला 12/4,2,8,4/282/1 ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ठ गहिदबज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरोहादो । = प्रमाद के बिना रत्नत्रय को सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीय के बन्ध का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि जो प्रत्यय से उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे प्रत्यय स्वीकार करना विरुद्ध है ।
नयचक्र बृहद्/366 असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । =अशुद्ध संवेदन से अर्थात् रागादि भावों से आत्मा कर्म और नोकर्म का बन्ध करता है । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/147/313 ) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176 योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः । अथ पुनस्तेनैवपौद्गलिकं कर्म बध्यत एव । = जो यह राग है वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है । ( प्रवचनसार/ ता.प्र./178) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/179 अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते ... बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः । ... ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य साधकतम- त्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः । = राग-परिणत आत्मा नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता । ... राग परिणत जीव संस्पर्श करने में आने वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता । ... इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबन्ध का साधकतम होने से राग परिणाम ही निश्चय से बंध है ।
तत्त्वानुशासन/8 स्युर्मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । बन्धस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ।8। = मिथ्यादर्शन-ज्ञान व चारित्र ये तीनों संक्षेप से बन्ध के कारण हैं । बन्ध के कारणरूप में अन्य जो कुछ कथन है वह सब इन तीनों का विस्तार है ।8।
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 परमात्मनो ... निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म । = परमात्मा की निर्मल अनुभूति से विरुद्ध मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं ।
देखें बं धवला - 2.5.1 में धवला 15 (राग-द्वेष संयुक्त आत्मा कर्मबन्ध करता है ।)
- अज्ञान
- ज्ञान आदि भी कथंचित् बन्ध के कारण हैं
समयसार/171 जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि । अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।171। = क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी अन्य रूप से परिणमन करता है, इसलिए (यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे ) वह (ज्ञानगुण) कर्मों का बंधक कहा गया है ।
देखें आयु - 3.21 (सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायु के आस्रव का कारण है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/906 ) ।
देखें प्रकृति बंध - 5.7.3 (आहारक शरीर के बंध में 6-7 गुणस्थान का संयम ही कारण है ।)
- ज्ञानकीकमीबन्धकाकारणनहीं, तत्सहभावीकर्महीबन्धकाकारणहै
समयसार / आत्मख्याति/172 यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कर्मकलङ्क- विपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्धः स्यात् । = ज्ञानी जब तक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यभाव से ही ज्ञान को देखता है, जानता और आचरण करता है, तब तक उसकी अन्यथा अनुपत्ति के द्वारा जिसका अनुमान हो सकता है, ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक के विपाक का सद्भाव होने से, पुद्गल कर्म का बंध होता है ।
- जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बन्ध करने में असमर्थ है
धवला 8/3, 22/54/7 उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंत-गुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । = उपशम श्रेणी में क्रोध के अन्तिम अनुभागोदय की अपेक्षा अनन्तगुण हीन, अनुभागोदय से संज्वलन क्रोध का बन्ध नहीं पाया जाता । (इसी प्रकार मान, माया लोभ में भी जानना ) ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/165/227/11 परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्व- भावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य बन्धो न भवति । = परम चैतन्य परिणति है लक्षण जिसका ऐसे परमात्म तत्त्व की भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यान के बल से जैसे जघन्य-स्निग्ध-शक्ति स्थानीय क्षीण राग होने पर, और जघन्य-रूक्ष-शक्ति स्थानीय क्षीण द्वेष होने पर जल और रेत की भाँति जीव के बन्ध नहीं होता है ... ।
- परन्तु उससे बन्धसामान्य तो होता ही है
धवला 8/3,39/77/3 सोलसकसायणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । = सोलह (5 ज्ञानावरण, 5 अन्तराय, 4 दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्च गोत्र) कर्म कषाय सामान्य के निमित्त से बँधने वाले हैं, क्योंकि, अणुमात्र कषाय के भी होने पर उनका बन्ध पाया जाता है ।
- भावबन्ध के अभाव में द्रव्यबन्ध नहीं होता
समयसार/270 एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पंति ।270। = यह (अज्ञान-मिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनि अशुभ या शुभकर्म से लिप्त नहीं होते ।270।
- कर्मोदय बन्ध का कारण नहीं रागादि ही है
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/43/56/12 उदयगता ... ज्ञानावरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा: स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा गच्छन्ति न च रागादिपरिणामरहिताः सन्तो बन्धं कुर्वन्ति । ... तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्माशेषु ... मूढोरक्तो दुष्टो व भवति सः ... बन्धनमनुभवति । ततः स्थितमेतत् ज्ञानं बन्धकारणं न भवति कर्मोदयेऽपि, किन्तु रागादयो बन्धकारणमिति ।43।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 औदयिका भावाः बन्धकारणम् इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह - औदयिका भावा बन्धकारणं भवन्ति, परं किन्तु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः । =- उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण बन्ध नहीं करते हैं । ... परन्तु जो उदय को प्राप्त कर्मांशों में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बन्ध को प्राप्त होता है । इसलिए यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बन्ध का कारण नहीं होता, न ही कर्म का उदय बन्ध का कारण होता है, किन्तु रागादि ही बन्ध के कारण होते हैं । प्रश्न - औदयिक भावबन्ध के कारण हैं, यह आगम का वचन वृथा हो जायेगा । उत्तर - औदयिक भावबन्ध के कारण होते हैं, किन्तु मोह के उदय सहित होने पर ही । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से परिणमन नहीं करता है, तो बन्ध नहीं होता है । यदि कर्मोदय मात्र से बन्ध हुआ होता तो संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण सदा ही बन्ध होता रहता, मोक्ष कभी न होता ।
देखें उदय - 9.3,4 (मोहजनित औदयिक भाव ही बन्ध के कारण हैं अन्य नहीं । वास्तव में मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना सब क्षायिक है ।)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064 जले जम्बालवन्नूनं स भावे मलिनो भवेत् । बन्धहेतुः स एव स्यादद्वैतश्चाष्टकर्मणाम् ।1064। = जल में काई की तरह निश्चय से वह औदयिक भावमोह ही मलिन होता है, और एक वह भावमोह ही आठों कर्मों के बन्ध का कारण है ।
- उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण बन्ध नहीं करते हैं । ... परन्तु जो उदय को प्राप्त कर्मांशों में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बन्ध को प्राप्त होता है । इसलिए यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बन्ध का कारण नहीं होता, न ही कर्म का उदय बन्ध का कारण होता है, किन्तु रागादि ही बन्ध के कारण होते हैं । प्रश्न - औदयिक भावबन्ध के कारण हैं, यह आगम का वचन वृथा हो जायेगा । उत्तर - औदयिक भावबन्ध के कारण होते हैं, किन्तु मोह के उदय सहित होने पर ही । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से परिणमन नहीं करता है, तो बन्ध नहीं होता है । यदि कर्मोदय मात्र से बन्ध हुआ होता तो संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण सदा ही बन्ध होता रहता, मोक्ष कभी न होता ।
- रागादि बन्ध के कारण हैं तो बाह्यद्रव्य का निषेध क्यों ?
धवला 12/4,2,8,4/281/2 एवं विहववहारो किमट्ठं कीरदे सुहेण णाणा-वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च । = प्रश्न - इस प्रकार का व्यवहार (व्रतादि) किस लिए किया जाता है ? उत्तर- सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है ।
समयसार / आत्मख्याति/265 अध्यवसानमेव बन्धहेतुर्न तु बाह्यवस्तु । ... तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते । = अध्यवसान ही बन्ध का कारण है, बाह्य वस्तु नहीं । प्रश्न - यदि बाह्यवस्तु बन्ध का कारण नहीं है, तो बाह्यवस्तु का निषेध किस लिए किया जाता है ? उत्तर- अध्यवसान के निषेध के लिए बाह्य-वस्तु का निषेध किया जाता है । अध्यवसान को बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तु का आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् उत्पन्न नहीं होता ।
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबन्ध होता है
- द्रव्य व भाव बन्ध का समन्वय
- एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम द्रव्यबन्ध नहीं
पंचाध्यायी x`/ उ/44 न केवलं प्रदेशानां बन्धः संबन्धमात्रतः । सोऽपि भावैरशुद्धैः स्यात्सापेक्षस्तद्द्वयोरिति ।44। = इस प्रकार उन जीव और कर्मों के अशुद्ध भावों से अपेक्षा रखनेवाला वह बन्ध भी केवल प्रदेशों के सम्बन्ध मात्र से ही नहीं होता है ।44। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/111 ) ।
- जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु
धवला 9/4,1,63/271/4 जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अणंतत्तादो सरीरे सादि-सांतभावदंसणादो; सव्वसरीरेसु जीवस्स अणुगमदंसणादो सरीरस्स तदणुवलंभादो; जीवसरीराणमकारणत्त (सकारणत्त) दंसणादो । सकारणं शरीरं, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो; णि-क्कारणो जीवो, जीवभावेण धुवत्तादो सरीरहादच्छेद-भेदे हि जीवस्स तदणुवलंभादो । =- जीव शरीर से भिन्न है, क्योंकि वह अनादि अनन्त है, परन्तु शरीर में सादि सान्तता पायी जाती है ।
- सब शरीरों में जीव का अनुगम देखा जाता है, किन्तु शरीर के जीव का अनुगम नहीं पाया जाता ।
- तथा जीव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है । शरीर सकारण है, क्योंकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवों का कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योंकि वह चेतनभाव की अपेक्षा नित्य है ।
- तथा शरीर के दाह और छेदन-भेदन से जीव का दाह एवं भेदन नहीं पाया जाता ।
- जीववशरीरमेंनिमित्तवनैमित्तिकपनाभीकथंचित्मिथ्याहै
धवला 1/1,1,33/234/1 तद् (जीवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थायां तत् (शरीरस्य) समवायाभावात् । = जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय सम्बन्ध नहीं रहता ।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270-271 अपि भवति बध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शङ्क्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तद्बन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्दत्वात् ।270। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वंय स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।271। = शरीर और आत्मा में बन्ध्यबन्धक भाव है यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नियम से दोनों में एकत्व होने पर स्वयं उन दोनों का बन्ध भी असिद्ध है (270) यदि कहो कि परस्पर इन दोनों में निमित्त नैमित्तिकपना अवश्य है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अथवा स्वत: परिणममान वस्तु के निमित्त से क्या फायदा ।571।
- जीव व कर्मबन्ध केवल निमित्त की अपेक्षा है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/174 आत्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबन्धः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्व- स्त्येव । = आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथा एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादि भाव के साथ का सम्बन्ध कर्मपुद्गलों के साथ के बन्धरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
- निश्चय से कर्म जीवसे बँधे ही नहीं
समयसार/57 एएहि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा । = इन वर्णादि भावों के साथ जीवों का सम्बन्ध दूध औरपानी का एक क्षेत्रावगाह रूप संयोग सम्बन्ध है ऐसा जानना । क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुण से अधिकहै ।57। (वा.अनु./6) ।
समयसार/169 पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।169। = उस ज्ञानी के पूर्व बद्धकर्म समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं, और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं ।169। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1059 ) ।
- बन्ध अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है
पंचाध्यायी x`/45 .109-110 अयस्कान्तोपलाकृष्टसूचीवत्तद्द्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिर्विभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी ।45। जीवभावविकारस्य हेतुः स्याद्द्रव्यकर्म तत् । तद्धेतुस्तद्विकारश्व यथा प्रत्युपकारकः ।109। तन्निमित्तात्पृथग्भूतोऽप्यर्थः स्यात्तन्निमित्तकः ।110। = दोनों जीव और कर्मों से भिन्न-भिन्न परस्पर में बन्ध को कराने वाली चुम्बक-पत्थर के द्वारा खिंचने वाली लोहे की सुई के समान विभावनाम की शक्ति है ।44। वह द्रव्यकर्म जीव के ज्ञानादिक भावों के विकार का कारण होता है, और जीव के भावों का विकार द्रव्यकर्म के आस्रव का कारण होता है ।109। अर्थात् जीव के वैभाविक भाव के निमित्त से पृथक्भूत कार्मण पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाते हैं ।110।
देखें अशुद्धता (दोनों अपने गुणों से च्युत हो जाते हैं ) ।
- जीवबन्ध बताने का प्रयोजन
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/179/243/9 एवं रागपरिणाम एव बन्धकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वे निरन्तरं भावना कर्त्तव्येति । = इस प्रकार राग परिणाम ही बन्ध का कारण है, ऐसा जानकर समस्त रागादि विकल्प के त्याग द्वारा विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन स्वभाव है जिसका ऐसे निजात्मतत्त्व में ही निरन्तर भावना करनी चाहिए ।87।
- उभय बन्ध बताने का प्रयोजन
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/20-22/48/ पर उद्धृत गा. 1 की टीका - अत्रैवं ज्ञात्वा सहजानन्दैकस्वभावे निजात्मनि रतिः कर्तव्या । तद्विलक्षणे परद्रव्ये विरतिरित्यभिप्रायः । = यहाँ इस प्रकार (उभयबन्ध को) जानकर सहज आनन्द एक निज आत्मस्वभाव में ही रति करनी चाहिए । उससे अर्थात् निजात्म स्वभाव से विलक्षण ऐसे परद्रव्य में विरति करनी चाहिए, ऐसा अभिप्राय है । ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/10 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/6 अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामूर्तो मूर्तपञ्चेन्द्रियविषयत्यागेन निरन्तरं ध्यातव्यः । = इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से इस जीवने अनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्तिक शुद्धस्वरूप आत्मा को मूर्त्त पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके ध्याना चाहिए ।
- उभय बन्ध का मतार्थ
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/13 द्रव्यभावकर्मसंयुक्तत्वव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्यः । = द्रव्य-भावकर्म के संयुक्तपने का व्याख्यान आत्मा को सदामुक्त मानने वाले सदाशिववादियों के निराकरणार्थ किया गया है, ऐसा मतार्थ जानना चाहिए । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128/192 ) ( परमात्मप्रकाश टीका/1/59 ) ।
- बन्ध टालने का उपाय
समयसार/ वआ./71 जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं सु तइया ण बंधो से ।71। ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिद्धयेत् ।
समयसार / आत्मख्याति/72/ क.47 परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।47। = जब यह जीव आत्मा का और आस्रवों का अन्तरऔर भेद जानता है तब उसे बन्ध नहीं होता ।71। ऐसा होने पर ज्ञान मात्र से बन्धका विरोध सिद्ध होता है । परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अखण्ड और अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है । अहो ! ऐसे ज्ञान में (परद्रव्य के) कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का अवकाश कैसे हो सकता है ? तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है ?
पं.वि,/11/48 बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं भवेत्सदात्मानम् । याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते पान्थ: ।48।= जो जीव आत्मा को निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है किन्तु जो उसे मुक्त देखता है, वह मुक्त हो जाता है । ठीक है पथिक जिस मार्ग से जाता है उसी मार्ग को प्राप्त हो जाता है ।48।
- एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम द्रव्यबन्ध नहीं
- कर्म बन्ध के कारण प्रत्यय
- कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना
षट्खण्डागम/12/4,2,4/ सू.213/505 जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि । ... ।213। = जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्ध स्थान हैं ।
पं.सं.प्रा./4/513 जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ ।513। = जीव प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध को योग से, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध को कषाय से करता है । ( सर्वार्थसिद्धि/8/3/379 पर उद्धृत) ( धवला 12/4,2,8/13/ गा. 4/289) ( राजवार्तिक 8/3/9/10/567/16,18 ) ( नयचक्र बृहद्/155 ) ( द्रव्यसंग्रह 33 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/257/364 ) पं.सं./सं./4/965) (देखें अनुभाग - 2.1) ।
- प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ?
धवला 12/4,2,8,2/276/9 पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबंधस्स पच्चओ-होज्ज तो तिहुवणेट्ठिदकम्मइयखंधा णाणावरणीयपच्चएण अक्कमेण किण्ण परिणमंते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो । ण, तिहुवणब्भंतरकम्मइयक्खंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो ... जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्वलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा । अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होंति । ... पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दज्झं दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णत्थि । साभावियादो । = प्रश्न - यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही) ज्ञानावरणीय (आदि) के बन्ध का कारण हैं तो तीनों लोकों में स्थित कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय पर्यायस्वरूप से एक साथ क्यों नहीं परिणत होते हैं, क्योंकि, उनमें कर्म योग्यता की अपेक्षा समानता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, तीनों लोकों के भीतर स्थित कार्मण स्कन्धों में देश विषयक प्रत्यासत्ति का अभाव है । प्रश्न - यदि एक क्षेत्रावगाहरूप हुए कार्मण स्कन्ध प्राणातिपात के निमित्त से कर्म पर्यायरूप परिणमते हैं तो समस्त लोक में स्थित जीवों के प्राणातिपात प्रत्यय के द्वारा सभी कार्मण स्कन्ध एक साथ ज्ञानावरणीयरूप पर्याय से परिणत हो जाने चाहिए । ... उत्तर- एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्ति के होने पर भी सब कार्मण स्कन्ध एक समय में ज्ञानावरणीय स्वरूप में नहीं परिणमते हैं, क्योंकि, प्राप्तईंधन आदि दाह्य वस्तु को जलाने वाली अग्नि के समान जीव में उस प्रकार की शक्ति नहीं है । प्रश्न - जीव में वैसी शक्ति न होने का कारण क्या है । उत्तर- उसमें वैसी शक्ति न होने का कारण स्वभाव ही है ।
धवला 15/34/6 जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणक्खंधा अट्ठ-कम्मागारेण परिणमंति तो एगसमएण सव्वकम्मइयवग्गणक्खंधा कम्मागारेण (किं ण) परिणमंति, णियमाभावादो । ण; दव्व-खेल-काल-भावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाणं परिणामुवलंभादो । दव्वेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ एगसमएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणमंति । =प्रश्न - यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययों के द्वारा कार्मण वर्गणा के स्कन्ध आठ कर्मरूप से परिणमन करते हैं,तो समस्त कार्मण वर्गणा के स्कन्ध एक समय में आठ कर्मरूप से क्यों नहीं परिणत हो जाते, क्योंकि, उनके परिणमन का कोई नियामक नहीं है ? = उत्तर- नहीं, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार नियामकों द्वारा नियम को प्राप्त हुए उक्त स्कन्धों का कर्मरूप से परिणमन पाया जाता है । यथा - द्रव्य की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवों से अनन्तगुणी और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही वर्गणाएँ एक समय में एक जीव के साथ कर्मस्वरूप से परिणत होती हैं ।
- एक प्रत्यय के अनन्त वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?
धवला 12/4,2,82/278/12 कधमेगो पाणादिवासो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो । = प्रश्न -प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्मण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारण के अनन्त शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता ।
- बन्ध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधानता क्यों ?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1037-1038 सर्वे जीवमया भावाः दृष्टान्तो बन्धसाधकः । एकत्र व्यापकः कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् ।1037। अथ तत्रापि केषांचित्संज्ञिनां बुद्धिपूर्वकः मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्था-कृतिसंस्थितः ।1038। =प्रश्न - जबकि सब ही भाव जीवमय हैं तो कहीं पर कोई एक भाव (मिथ्यात्व भाव) व्यापक रूप से बन्ध का साधक दृष्टान्त क्यों, और कहीं पर कोई एक भाव (इतर भाव) व्याप्य रूप सेही बन्ध के साधक दृष्टान्त क्यों । उत्तर- उस में व्यापक रूप से बन्ध के साधक भावों में भी किन्हीं संज्ञी प्राणियों के वस्तु के स्वरूप को मिथ्याकारक में गृहीत रखने वाला गृहीत नामक बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व भाव पाया जाता है ।1038।
- कषाय और योग दो प्रत्ययों से बन्ध में इतने भेद क्यों ?
धवला 12/4,2,8,14/290/4 कधं दो चेव पच्चयो अट्ठण्णं कम्माणं वत्तीसाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जंते । ण, असुद्धपज्जवट्ठिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडिविरोहाभावादो । = प्रश्न - उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बत्तीस बन्धों की कारणता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि अशुद्ध पर्यायार्थिक रूप ऋजुसूत्र नय में अनन्त शक्ति युक्त एक द्रव्य के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है ।
- अविरति कर्मबन्ध में कारण कैसे ?
धवला 12/4,2,8,3/279-281/6 कम्मबंधो हि णाम, सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे, ... असंतवयणं पुण ण सुहपिरणामो, णो असुहपरिणामो पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो । तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं . ... ण पाणादिवाद-पच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस्स पाण-पाणिविओगस्स कम्मबंध-हेउत्तविरोहादो । ... णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाण-पाणिवियोगो वयणकलावो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं । = प्रश्न - कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है । ...- परन्तु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम हैं; क्योंकि पुद्गल के अथवा उसके परिणाम के जीव परिणाम होने का विरोध है । इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीय के बन्ध का कारण नहीं हो सकता । ...
- इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीय का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, अन्य जीव विषयक प्राण- प्राणि वियोग के कर्मबन्ध में कारण होने का विरोध है ? उत्तर- प्रकृत में प्राण-प्राणि वियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बन्ध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव उससे अभिन्न हैं । इस कारण वे ज्ञानावरणीय बन्ध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं ।
- कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना