बंध: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText">अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना बंध कहलाता है । वह तीन प्रकार का है , जीवबंध, अजीवबंध और उभयबंध । संसार व धन आदि बाह्य पदार्थों के साथ जीव को बाँध देने के कारण जीव के पर्यायभूत मिथ्यात्व व रागादि प्रत्यय जीवबंध या भावबंध हैं । स्कंधनिर्माण का कारणभूत परमाणुओं का पारस्परिक बंध अजीवबंध या पुद्गलबंध है । और जीव के प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का अथवा शरीर का बंध उभयबंध या द्रव्यबंध है । इनके अतिरिक्त भी पारस्परिक संयोग से बंध के अनेक भेद किये जा सकते हैं । द्रव्य व भावबंध में भावबंध ही प्रधान हैं, क्योंकि इसके बिना कर्मों व शरीर का जीव के साथ बंध होना संभव नहीं है । मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के निरोध द्वारा द्रव्यबंध का निरोध हो जाने से जीव को मोक्ष प्रकट होता है ।</p> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong>[[ | <li><span class="HindiText"><strong>[[ बंध सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #1.1 | बंध सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.1.1 | निरुक्ति अर्थ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.1.2 | गति निरोध हेतु ; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.1.3 | जीव व कर्म प्रदेशों का परस्पर बंध ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #1.2 | बंध के भेद-प्रभेद ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.2.1 | बंध के सामान्य भेद; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.2.2 | नोआगम द्रव्यबंध के भेद; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.2.3 | नोआगम भावबंध के भेद ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #1.3 | वैस्रसिक व प्रायोगिक बंध के भेद]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.3.1 | वैस्रसिक व प्रायोगिक सामान्य; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.3.2 | सादि अनादि वैस्रसिक ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #1.4 | कर्म व नोकर्म बंध के लक्षण]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.4.1 | कर्म व नोकर्म सामान्य; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.4.2 | आलापनादि नोकर्म बंध ]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #1.5 | जीव व अजीव बंध के लक्षण]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.5.1 | जीव भावबंध सामान्य; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.5.2 | भावबंधरूप जीवबंध; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.5.3 | द्रव्यबंधरूप उभयबंध]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> अजीव | <li class="HindiText"> अजीव बंध । - देखें [[ स्कंध ]]।0<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध और युति में अंतर । - देखें [[ युति ]]।3<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.6 | अनंतर व परंपरा बंध का लक्षण ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.7 | विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध के लक्षण ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.8 | विपाक व अविपाक प्रत्ययिक अजीव भावबंध ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #1.9 | बंध, अबंध व उपरतबंध के लक्षण ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> एक सामयिक | <li class="HindiText"> एक सामयिक बंध को बंध नहीं कहते । - देखें [[ स्थिति#2. | स्थिति - 2.]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रकृति, स्थिति आदि । - देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | <li class="HindiText"> प्रकृति, स्थिति आदि । - देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> स्थिति व | <li class="HindiText"> स्थिति व अनुभागबंध की प्रधानता । -देखें [[ स्थिति#2. | स्थिति - 2.]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आस्रव व | <li class="HindiText"> आस्रव व बंध में अंतर । - देखें [[ आस्रव#2. | आस्रव - 2.]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध के साथ भी कथंचित् संवर का अंश । - देखें [[ संवर#2.5 | संवर - 2.5 ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मूल-उत्तर प्रकृतियों के | <li class="HindiText"> मूल-उत्तर प्रकृतियों के बंध की प्ररूपणाएँ- देखें [[ प्रकृति बंध#6 | प्रकृति बंध - 6]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सत्त्व के साथ | <li class="HindiText"> सत्त्व के साथ बंध का सामानाधिकरण्य नहीं है । - देखें [[ सत्त्व#2 8 | सत्त्व - 2 8]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध, उदय व सत्त्व में अंतर ।-देखें [[ उदय#2 8 | उदय - 2 8]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[ | <li><span class="HindiText"><strong> [[ #2 | द्रव्यबंध की सिद्धि]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.1 | शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.2 | जीव व कर्म का बंध कैसे जाना जाये ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.3 | जीव-प्रदेशों में कर्म स्थित हैं या अस्थित ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.4 | जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे संभव है ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText">[[ | <li><span class="HindiText">[[ #2.5 | अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे-]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.5.1 | क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है ; ]]</strong></li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.5.2 | जीव-कर्मबंध अनादि है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.6 | मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बंध में दृष्टांत ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.7 | कर्म जीव क साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.8 | कर्मबद्ध जीव में चेतना न रहेगी ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.9 | बंधपदार्थ की क्या प्रामाणिकता ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #2.10 | विस्रसोपचयरूप से स्थित वर्गणाएँ ही बँधती हैं ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[ | <li><span class="HindiText"><strong> [[ #3 | कर्मबंध में रागादि भावबंध की प्रधानता]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> द्रव्य व भाव-कर्म | <li class="HindiText"> द्रव्य व भाव-कर्म संबंधी । - देखें [[ कर्म#3 | कर्म - 3 ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.1 | द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबंध होता है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.2 | अज्ञान व रागादि ही वास्तव में बंध के कारण हैं ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.3 | ज्ञानआदि भी कथंचित् बंध के कारण हैं ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.4 | ज्ञान की कमी बंध का कारण नहीं, तत्सहभावी कर्म ही बंध का कारण है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.5 | जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बंध करने में असमर्थ है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.6 | परंतु उससे बंध सामान्य तो होता ही है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.7 | भावबंध के अभाव में द्रव्यबंध नहीं होता ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.8 | कर्मोदय बंध का कारण नहीं, रागादि ही है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #3.9 | रागादि बंध के कारण हैं तो बाह्य द्रव्य का निषेध क्यों ?]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[द्रव्य व | <li><span class="HindiText"><strong> [[ #4 | द्रव्य व भावबंध का समन्वय]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.1 | एक क्षेत्रावगाहमात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.2 | जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.3 | जीव व शरीर में निमित्त व नैमित्तिकपना भी कथंचित् मिथ्या है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.4 | जीव व कर्मबंध केवल निमित्त की अपेक्षा है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.5 | निश्चय से कर्म जीव से बँधे ही नहीं ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.6 | बंध-अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.7 | जीवबंध बताने का प्रयोजन ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.8 | उभयबंध बताने का प्रयोजन ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.9 | उभयबंध का मतार्थ ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #4.10 | बंध टालने का उपाय ।]]</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[ | <li><span class="HindiText"><strong> [[#5 | कर्मबंध के कारण प्रत्यय]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध के कारण प्रत्ययों का निर्देश व स्वामित्वादि । - देखें [[ प्रत्यय ]]।<strong>]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.1 | कर्मबंध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना ।]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.2 | प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं होता ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.3 | एक प्रत्यय से अनंत वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.4 | बंध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधाना क्यों ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.5 | कषाय और योग दो प्रत्ययों से बंध में इतने भेद क्यों ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[ #5.6 | अविरति कर्मबंध में कारण कैसे ?]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> योग में | <li class="HindiText"> योग में बंध के कारणपने संबंधी शंका समानधान । - देखें [[ योग ]]। 2<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> बंध सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> बंध-सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/4/10/26/3 <span class="SanskritText">बध्यतेऽनेन | राजवार्तिक/1/4/10/26/3 <span class="SanskritText">बध्यतेऽनेन बंधनमात्रं वा बंधः ।10। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/4/17/26/30 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/1/4/17/26/30 <span class="SanskritText">बंध इव बंधः । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/5/24/1/485/10 <span class="SanskritText">वघ्नाति, बध्यतेऽसौ, बध्यतेऽनेन | राजवार्तिक/5/24/1/485/10 <span class="SanskritText">वघ्नाति, बध्यतेऽसौ, बध्यतेऽनेन बंधनमात्रंवा बंधः ।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/8/2/11/566/14 <span class="SanskritText">करणादिसाधनेष्वयं | राजवार्तिक/8/2/11/566/14 <span class="SanskritText">करणादिसाधनेष्वयं बंधशब्दो द्रष्टव्यः । तत्र करणसाधनस्तावत् - बध्यतेऽनेनात्मेति बंधः ।</span> = | ||
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<li> <span class="HindiText">जिनसे कर्म बँधे वह कर्मों का बंधना | <li> <span class="HindiText">जिनसे कर्म बँधे वह कर्मों का बंधना बंध है । (1/4/10) । </span></li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध की भाँति होने से बंध है । (1/4/17) । </li> | ||
<li class="HindiText"> जो | <li class="HindiText"> जो बंधे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बंधनमात्र को बंध कहते हैं । (5/24/1) । </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> बंध शब्द करणादि साधन में देखा जाता है । करण साधन की विवक्षा में जिनके द्वारा कर्म बँधता है , वह बंध है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> गतिनिरोध हेतु </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> गतिनिरोध हेतु </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/2 <span class="SanskritText"> अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुबंधः । </span>=<span class="HindiText"> किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के कारण | सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/2 <span class="SanskritText"> अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुबंधः । </span>=<span class="HindiText"> किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के कारण बंध कहते हैं । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/25/1/553/16 <span class="SanskritText">अभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य | राजवार्तिक/7/25/1/553/16 <span class="SanskritText">अभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबंधहेतुः कीलादिषु रज्जवादिभिर्व्यतिषंगो बंध इत्युच्यते ।</span> = <span class="HindiText">खूँटा आदि में रस्सी से इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्ट देश को गमन न कर सके, उसको बंध कहते हैं । ( चारित्रसार/8/6 ) ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.1.3" id="1.1.3"><strong> जीव व कर्म प्रदेशों का परस्पर | <li><span class="HindiText" name="1.1.3" id="1.1.3"><strong> जीव व कर्म प्रदेशों का परस्पर बंध </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/4/17/26/29 <span class="SanskritText"> आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशलक्षणो | राजवार्तिक/1/4/17/26/29 <span class="SanskritText"> आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशलक्षणो बंधः ।17।</span> = <span class="HindiText">कर्म प्रदेशों का आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बंध है । </span><br /> | ||
धवला 14/5,6,1/2/3 <span class="PrakritText">दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जो संयोग और समवाय है वही | धवला 14/5,6,1/2/3 <span class="PrakritText">दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जो संयोग और समवाय है वही बंध कहलाता है । विशेष - देखें [[ बंध#1.5 | बंध - 1.5]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> | <li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> बंध के भेद-प्रभेद</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> बंध सामान्य के भेद </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/7/14/40/5 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/1/7/14/40/5 <span class="SanskritText"> बंधः सामान्यादेशात् एक: द्विविधः शुभाशुभभेदात्, त्रिधा द्रव्यभावोभयविकल्पात्, चतुर्धा प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदात्, पंचधा मिथ्यादर्शनादिहेतुभेदात्, षोढा नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः, सप्तधा तैरेव भवाधिकैः, अष्टधाज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पश्च भवति हेतुफलभेदात् ।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/2/10/2/124/24 <span class="SanskritText">बंधो द्विविधो द्रव्यबंधो भावबंधश्चेति । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/5/24/6/487/17 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/5/24/6/487/17 <span class="SanskritText"> बंधोऽपि द्विधा विस्रसाप्रयोगभेदात् ।6। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/8/4/15/569/10 <span class="SanskritText">एकादयः संख्येया विकल्पा | राजवार्तिक/8/4/15/569/10 <span class="SanskritText">एकादयः संख्येया विकल्पा भवंति - शब्दतः तत्रैकस्तावत् सामान्यादेकः कर्मबंधः ... स एव पुण्यपापभेदाद् द्विविधः, ... त्रिविधो बंध: ... अनादिः सांतः, अनादिरनंतः, सादिः सांतश्चेति, भुजाकाराल्पतरावस्थितभेदाद्वा । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशाच्चतुर्विधः । द्रव्यक्षेत्रकालभवभावनिमित्तभेदात् पंचविधः । षड्जीवनिकायविकल्पात् षोडा व्यपदिश्यते । रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभहेतुभेदात् सप्ततयीं वृत्तिमनुभवति । ज्ञानावरणादिविकल्पादष्टधा । एवं संख्येया विकल्पाः शब्दतो योज्याः । च- शब्देनाध्यवसायस्थानविकल्पात् असंख्येयाः । अनंतानंतप्रदेशस्कंधपरिणामविधिरनंतः, ज्ञानावरणाद्यनुभवाविभागपरिच्छेदापेक्षया वा अनंत: ।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> सामान्य से एक प्रकार है - ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ) । </li> | <li class="HindiText"> सामान्य से एक प्रकार है - ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/1/ तथा राजवार्तिक/8 ) । अथवा द्रव्यभाव के भेद से दो प्रकार का है - ( राजवार्तिक/2 ) । अथवा वैस्रसिक या प्रायोगिक के भेद से दो प्रकार है - ( | <li class="HindiText"> पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/1/ तथा राजवार्तिक/8 ) । अथवा द्रव्यभाव के भेद से दो प्रकार का है - ( राजवार्तिक/2 ) । अथवा वैस्रसिक या प्रायोगिक के भेद से दो प्रकार है - ( षट्खंडागम 14/5,6/ सु. 26/28); ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ); ( राजवार्तिक/5 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> द्रव्य, भाव व उभय या जीव, पुद्गल व उभय के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/1 ), ( प्रवचनसार/177 ), ( धवला 13/5,5,82/347/7 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/46 ), अथवा अनादि | <li class="HindiText"> द्रव्य, भाव व उभय या जीव, पुद्गल व उभय के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/1 ), ( प्रवचनसार/177 ), ( धवला 13/5,5,82/347/7 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/46 ), अथवा अनादि सांत, अनादि-अनंत व सादि-सांत के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/8 ), </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रकृति, स्थिति, अनुभव व प्रदेश के भेद से चार प्रकार हैं - (मू.आ./1221), ( तत्त्वार्थसूत्र/8/3 ), ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), ( गोम्मटसार | <li class="HindiText"> प्रकृति, स्थिति, अनुभव व प्रदेश के भेद से चार प्रकार हैं - (मू.आ./1221), ( तत्त्वार्थसूत्र/8/3 ), ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/89/73 ), ( द्रव्यसंग्रह/33 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/935 ); </li> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के भेद से पाँच प्रकार का है । ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से पाँच प्रकार है । ( राजवार्तिक/8 ) । </li> | <li class="HindiText"> मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के भेद से पाँच प्रकार का है । ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से पाँच प्रकार है । ( राजवार्तिक/8 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेद से छह प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/8 ) । </li> | <li class="HindiText"> नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेद से छह प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/8 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से सात प्रकार है- ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा राग, द्वेष मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सात प्रकार है - ( राजवार्तिक/8 ) ।</li> | <li class="HindiText"> नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से सात प्रकार है- ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा राग, द्वेष मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सात प्रकार है - ( राजवार्तिक/8 ) ।</li> | ||
<li class="HindiText"> ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियों के भेद से आठ प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), (प्रकृति | <li class="HindiText"> ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियों के भेद से आठ प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), (प्रकृति बंध/1) । </li> | ||
<li class="HindiText"> वाचक शब्दों की अपेक्षा संख्यात; अध्यवसाय स्थानों की अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्म प्रदेशों की अथवा कर्मों के अनुभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा | <li class="HindiText"> वाचक शब्दों की अपेक्षा संख्यात; अध्यवसाय स्थानों की अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्म प्रदेशों की अथवा कर्मों के अनुभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनंत प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> नोआगम | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> नोआगम द्रव्यबंध के भेद </strong></span><br /> | ||
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. <span class="PrakritText">जो सो णो आगमदो दव्वबंधो सो दुविहो- पओअबंधो चेव विस्ससाबंधो चेव (26/28) । जो सो विस्ससाबंधो णाम सो दुविहो- सादियविस्ससाबंधो चेव अणादियविस्ससाबंधो चेव (28/28) ।जो सो थप्पो पओअबंधो णाम सो दुविहो- कम्मबंधो चेव णोकम्मबंधो - चेव (38/36) । जो सो णोकम्मबंधो णाम सो पंचविहो-आलावबंधो अल्लीवणबंधो संसिलेसबंधो सरीरबंदो सरीरिबंधो चेदि (40/37) । जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो-ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीबंधो आहारसरीबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधो चेदि (44/41) . जो सो सरीरिबंधो णाम सो दुविहो - सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरिबंधो चेव (61/44) । जो सो थप्पोकम्मबंधो णाम यथा कम्मेत्ति तहा णेदव्वं (64/46) ।</span> | |||
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<li> <span class="HindiText">नोआगम | <li> <span class="HindiText">नोआगम द्रव्यबंध दो प्रकार का है - प्रायोगिक व वैस्रसिक ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ), ( राजवार्तिक/5/24/6/487/17 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) । </span></li> | ||
<li class="HindiText"> वैस्रसिक दो प्रकार का है — सादी व अनादी । ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) । </li> | <li class="HindiText"> वैस्रसिक दो प्रकार का है — सादी व अनादी । ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रायोगिक दो प्रकार का है — कर्म व नोकर्म ( सर्वार्थसिद्धि 5/24/295/10 ), ( राजवार्तिक 5/24/9/487/34 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।</li> | <li class="HindiText"> प्रायोगिक दो प्रकार का है — कर्म व नोकर्म ( सर्वार्थसिद्धि 5/24/295/10 ), ( राजवार्तिक 5/24/9/487/34 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।</li> | ||
<li class="HindiText"> नोकर्म | <li class="HindiText"> नोकर्म बंध पाँच प्रकार का है - आलापन, अल्ललीवन, संश्लेष, शरीर व शरीरी ( राजवार्तिक/5/24/9/487/35 ) ।</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> शरीरबंध पाँच प्रकार है - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस व कार्मण ( राजवार्तिक/5/24/9/488/3 ), (विशेष - देखें [[ शरीर ]]) । </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> शरीरबंध दो प्रकार है - सादि व अनादि ( राजवार्तिक/5/24/9/488/14 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> कर्मबंध कर्म अनुयोग द्वारवत् जानना अर्थात् ज्ञानावरणादिरूप मूल व उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा अनेक भेद-प्रभेदरूप है ।( राजवार्तिक/5/24/9/487/34 ), (विशेष - देखें [[ प्रकृतिबंध#1 | प्रकृतिबंध - 1]]) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> नोआगम | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> नोआगम भावबंध के भेद</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. <span class="PrakritText">जो सो णोआगमदो भावबंधो णाम सो दुविहो-जीवभावबंधो चेव अजीवभावबंधो चेव (13/9) ।जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो - विवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो जीवभाव-बंधो चेव (14/9) । जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहो-उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव (16/12) । जो सो अजीवभावबंधो णाम सो तिविहो विवागपच्चइयो अजीवभावबंदो चेव अविवागपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव (2/220) ।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText">नो आगम | <li> <span class="HindiText">नो आगम भावबंध दो प्रकार का है - जीव भावबंध और अजीव भावबंध (13/9) । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जीव | <li><span class="HindiText"> जीव भावबंध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध, अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध, और तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबंध (14/9) । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अविपाक प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"> अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध दो प्रकार का है — औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध और क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध (16/12) । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अजीव | <li><span class="HindiText"> अजीव भावबंध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक अजीवभाबवंध, अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध और तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध (20/12) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> वैस्रसिक व प्रायोगिक | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> वैस्रसिक व प्रायोगिक बंध के लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> सादि-अनादि वैस्रसिक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> सादि-अनादि वैस्रसिक </strong></span><br /> | ||
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. <span class="PrakritText">जो सो अणादियविस्ससाबंधो णाम सो तिविहो- धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि (3/29) । जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो (32/30) । से तं बंधणपरिणामं पप्प से अव्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उडुं पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अमंगलप्पहुडीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्वो सादियविस्ससाबंधो णाम (37/34) ।</span> = <span class="HindiText">अनादि वैस्रसिक बंध तीन प्रकार का है - धर्म, अधर्म तथा आकाश (30/29) । इनके अतिरिक्त इनके भी तीन-तीन प्रकार हैं - सामान्य, देश व प्रदेश में परस्पर बंध । स्निग्ध, रूक्ष गुण के कारण पुद्गल परमाणु में बंध सादि वैस्रसिक है (32/30) वे पुद्गल बंधन को प्राप्त होकर विविध प्रकार के अभ्ररूप से, मेघ, संध्या, बिजली, उल्का, कनक, दिशादाह, धूमकेतु, इंद्रधनुष रूप से, तथा क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गल के अनुसार जो बंधन परिणामरुप से परिणत होते हैं, तथा इनको लेकर अन्य जो अमंगलप्रभृति बंधन परिणामरूप से परिणत होते हैं, वह सब सादि विस्रसाबंध हैं । (37/34), ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) ।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/5/24/7/487/25 <span class="SanskritText">कालाणूनामपि सततं परस्परविश्लेषाभावात् अनादिः ।</span> = <span class="HindiText">इसी प्रकार काल, द्रव्य आदि में भी | राजवार्तिक/5/24/7/487/25 <span class="SanskritText">कालाणूनामपि सततं परस्परविश्लेषाभावात् अनादिः ।</span> = <span class="HindiText">इसी प्रकार काल, द्रव्य आदि में भी बंध अनादि है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कर्म व | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कर्म व नोकर्मबंध के लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4.1" id="1.4.1"> कर्म व नोकर्म सामान्य </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4.1" id="1.4.1"> कर्म व नोकर्म सामान्य </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/5/24/9/487/34 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/5/24/9/487/34 <span class="SanskritText"> कर्मबंधो ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः । नोकर्मबंधः औदारिकादिविषयः । </span>= <span class="HindiText">ज्ञानावरणादि कर्मबंध है - विशेष देखें [[ ]]प्रकृतिबंध 1/2। और औदारिकादि नोकर्मबंध है । विशेष देखें [[ शरीर ]]। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/8/ भूमिका/561/5 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/8/ भूमिका/561/5 <span class="SanskritText">मातापितृपुत्रस्नेहसंबंधः नोकर्मबंधः ।</span> = <span class="HindiText">माता, पिता, पुत्र आदि का स्नेह संबंध नोकर्म बंध है ।<br /> | ||
देखें [[ आगे बं धवला#2.5.3 | आगे बं धवला - 2.5.3 ]](जीव व पुद्गल | देखें [[ आगे बं धवला#2.5.3 | आगे बं धवला - 2.5.3 ]](जीव व पुद्गल उभयबंध भी कर्मबंध कहलाता है ।) <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4.2" id="1.4.2"> आलापन आदि नोकर्म | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4.2" id="1.4.2"> आलापन आदि नोकर्म बंध </strong></span><br /> | ||
षट्खंडागम 14/5, 6/ सू. 41-63/38-46 <span class="PrakritText">जो सो आलावणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - सेसगहाणं वा जावाणं वा जुगाणं वा गड्डीणं वा गिल्लीणं वा रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पासादाणं वा गोवुराणं वा तोरणाणं वा से कट्ठेण वा लोहेण या रज्जुणा वा वब्भेण वा दब्भेण वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि आलावियाणं बंधो होदि सो सव्वो आलावणबंधो णाम ।41। जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लोवणबंधोणाम ।42। जो सो संसिलेसबंधो णाम तस्स इमोणिद्देसो-जहा कट्ठ-जदणं अण्णोण्णसं सिलेसिदाणं बंधो संभवदि सो सव्वो संसिलेसबंधो णाम ।43। जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो - ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीरबंधो आहारसरीरबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधोचेदि ।44। ओरालिय-ओरालिय- सरीरबंधो ।45। ओरालिय-तेयासरीरबंधो ।46। ओरालिय-कम्मइय- सरीरबंधो ।47। ओरालिय-तेयाकंभइयसरीरबंधो । 48। वेउव्विय-वेउव्वियसरीरबंधो ।49। वेउव्विय-तेयासरीरबंधो ।50। वेउव्विय-कम्मइयसरीरबंधो ।51। वेउव्विय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।52। आहार-आहारसरीरबंधो ।53। आहार-तेयासरीरबंधो ।54 । आहार- कम्मइयसरीरबंधो ।55। आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।56। तेयातेयासरीरबंधो ।57। तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।58। कम्मइय-कम्मइय- सरीरबंधो ।59। सो सव्वो सरीरबंधो णाम ।60। जो सो सरीरिबंधो णामसो दुविहो-सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरबंधो चेव ।61। जो सो सादियसरीरिबंधो णाम सो जहा सरीरबंधो तहा णेदव्वो ।62। जो अणादियसरीरिबंधो णामयथा अट्ठण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सव्वो अणादियसरीरिबंधो णाम ।63। (इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तसंहरणविसर्पणस्वभावत्वादादिमान् । राजवार्तिक ) ।</span> = | |||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> जो | <li><span class="HindiText"> जो आलापनबंध है उसका यह निर्देश है - जो शकटों का, यानों का, युगों का, गड्डियों का, गिल्लियों का, रथों का, स्यंदनों का, शिविकाओं, गृहों, प्रासादों, गोपुरों और तोरणों का काष्ट से, लोह, रस्सी, चमड़े की रस्सी और दर्भ से जो बंध होता है तथा इनसे लेकर अन्य द्रव्यों से लालापित अन्य द्रव्यों का जो बंध होता है वह सब आलापनबंध है ।41। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो | <li><span class="HindiText"> जो अल्लीवणबंध है उसका यह निर्देश है - कटकों का, कुंडों, गोबरपीड़ों, प्राकारों और शाटिकाओं का तथा इनसे लेकर और जो दूसरे पदार्थ हैं उनका जो बंध होता है अर्थात् अन्य 4द्रव्यद से संबंध को प्राप्त हुए अन्य का जो बंध होता है वह सब अल्लीवणबंध है ।42। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो | <li><span class="HindiText"> जो संश्लेषबंध है उसका यह निर्देश है - जैसे परस्पर संश्लेष को प्राप्त हुए काष्ठ और लाख का बंध होता है वह सब संश्लेषबंध है । 43। - विशेष देखें [[ श्लेष ]]। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो | <li><span class="HindiText"> जो शरीरबंध है वह पाँच प्रकार का है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरबंध ।44। औदारिक - औदारिक शरीरबंध ।45। औदारिक-तैजसशरीरबंध ।46। औदारिक-कार्मण शरीरबंध ।47. औदारिक-तैजस-कार्मण शरीरबंध।48। वैक्रियिक-वैक्रियिक शरीरबंध ।49। वैक्रियिक-तैजस शरीरबंध ।50। वैक्रियिक-कार्मण शरीरबंध ।51। वैक्रियिक-तैजस-कार्मण शरीरबंध ।52। आहारक-आहारक शरीरबंध ।53। आहारकतैजस शरीरबंध ।54। आहारक-कार्मण शरीरबंध ।55। आहारक-तैजस-कार्मण शरीरबंध ।56। तैजस-तैजस शरीरबंध ।57। तैजस-कार्मण शरीरबंध ।58। कार्मण-कार्मण शरीरबंध ।59। वह सब शरीरबंध है ।60। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो | <li><span class="HindiText"> जो शरीरिबंध है वह दो प्रकार का है - सादि शरीरिबंध और अनादि शरीरिबंध ।62। जो सादि शरीरिबंध है - वह शरीरबंध के समान जानना चाहिए ।62। जो अनादि शरीरिबंध है । यथा - जीव के आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेश-बंध होता है यह सब अनादि शरीरिबंध है ।63। (जीव के इतर प्रदेशों का बंध सादि शरीरिबंद है राजवार्तिक ), ( राजवार्तिक/5/24/9/488/36 ) ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> जीव व | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> जीव व अजीवबंध के कारण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.1" id="1.5.1"> जीव | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5.1" id="1.5.1"> जीव बंध सामान्य </strong></span><br /> | ||
धवला 13/5 .5,82/347/8,11 <span class="PrakritText">एगसरीरट्ठिदाणमणंताणंताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो ... (तथा) जेण कम्मेण जीवा अणंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">एक शरीर में स्थित | धवला 13/5 .5,82/347/8,11 <span class="PrakritText">एगसरीरट्ठिदाणमणंताणंताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो ... (तथा) जेण कम्मेण जीवा अणंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">एक शरीर में स्थित अनंतानंत निगोद जीव तथा जिस कर्म के कारण वे इस प्रकार रहते हैं, वह कर्म भी जीवबंध है ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.2" id="1.5.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5.2" id="1.5.2"> भावबंधरूप जीवबंध</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार/175 <span class="PrakritGatha">उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदिवा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ।175। </span>= <span class="HindiText">जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा | प्रवचनसार/175 <span class="PrakritGatha">उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदिवा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ।175। </span>= <span class="HindiText">जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा बंधरूप है ।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 <span class="SanskritText">क्रोधादिपरिणामवशीकृतो | राजवार्तिक/2/10/2/124/24 <span class="SanskritText">क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबंधः ।</span> =<span class="HindiText"> क्रोधादि परिणाम भावबंध है । </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/9 <span class="SanskritText"> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/9 <span class="SanskritText">बध्यंते अस्वतंत्रीक्रियंते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स बंधः । </span>= <span class="HindiText">कर्म को परतंत्र करने वाले आत्मपरिणामों का नाम बंध-भावबंध है । </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176-177 <span class="SanskritText">येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176-177 <span class="SanskritText">येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबंधः ।176। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबंधः ।177। </span>= <span class="HindiText">जिस मोह-राग वा द्वेषरूप भाव से देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है, यह तो उपराग है यह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है ।176। जीव का औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्याय के साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीवबंध है ।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह 32 <span class="PrakritText">वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो ।32।</span> = <span class="HindiText">जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधता है, वह | द्रव्यसंग्रह 32 <span class="PrakritText">वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो ।32।</span> = <span class="HindiText">जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबंध है ।32।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 <span class="SanskritText">मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स | द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 <span class="SanskritText">मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबंधो भण्यते ।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध चेतन भावस्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं वह परिणाम भावबंध कहलाता है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.3" id="1.5.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5.3" id="1.5.3"> द्रव्यबंधरूप जीवपुद्गल उभयबंध </strong></span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/8/2 <span class="SanskritText">सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स | तत्त्वार्थसूत्र/8/2 <span class="SanskritText">सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः ।2।</span> = <span class="HindiText">कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है ।2।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/4 <span class="SanskritText">आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीव: । </span>=<span class="HindiText"> आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना अजीव | सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/4 <span class="SanskritText">आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीव: । </span>=<span class="HindiText"> आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना अजीव बंध है । ( राजवार्तिक/1/4/17/26/29 ) । </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/11 <span class="SanskritText">अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां | सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/11 <span class="SanskritText">अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनंतानंतप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यनामविभागेनोपश्लेषो बंध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषाय- वशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः । </span>= <span class="HindiText">मिथ्यादर्शनादि के अभिनिवेश द्वारा गीले किये गये आत्मा के सब अवस्थाओं में योग विशेष से उन सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाही अनंतानंत कर्मभाव को प्राप्त होने योग्य पुद्गलों का उपश्लेष होना बंध है । यह कहा गया है । जिस प्रकार पात्र विशेष में प्रक्षिप्त हुए विविध रसवाले बीज, फूल और फलों का मदिरा रूप से परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलोंका भी योग और कषाय के निमित्त से कर्मरूप से परिणमन जानना चाहिए । ( राजवार्तिक/8/2/8-0/566/5 ); ( कषायपाहुड़/1/13,14/250-291/4 ) ( धवला 13/5,5,82/347/13 ); ( द्रव्यसंग्रह व.टी./32); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/2 ) । </span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/154 <span class="PrakritGatha">अप्पपएसामुत्ता पुग्गलसत्ती तहाविहा णेया । अण्णोण्णं मिल्लंता बंधो खलु होइ निद्धाइ ।154।</span> = <span class="HindiText">आत्म प्रदेश और पुद्गल का अन्योन्य मिलन | नयचक्र बृहद्/154 <span class="PrakritGatha">अप्पपएसामुत्ता पुग्गलसत्ती तहाविहा णेया । अण्णोण्णं मिल्लंता बंधो खलु होइ निद्धाइ ।154।</span> = <span class="HindiText">आत्म प्रदेश और पुद्गल का अन्योन्य मिलन बंध है (जीव बंध है कार्तिकेयानुप्रेक्षा ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/203 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/28/85/11 ) ।</span><br /> | ||
धवला 13/5,5,82/347/10 <span class="PrakritText">ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बंधो सो जीवपोग्गलबंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">औदारिक - वैक्रियक-आहारक- तैजस और कार्मण वर्गणाएँ ; इनका और जीवों का जो बंध है वह जीव-पुद्गल बंध है ।</span><br /> | धवला 13/5,5,82/347/10 <span class="PrakritText">ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बंधो सो जीवपोग्गलबंधो णाम ।</span> = <span class="HindiText">औदारिक - वैक्रियक-आहारक- तैजस और कार्मण वर्गणाएँ ; इनका और जीवों का जो बंध है वह जीव-पुद्गल बंध है ।</span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/10 <span class="SanskritText">बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/10 <span class="SanskritText">बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म बंधः ।</span> =<span class="HindiText"> स्थिति परिणत जिस कर्म के द्वारा आत्मा परतंत्र किया जाता है वह कर्म ‘बंध’ है ।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 <span class="SanskritText">य: पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह: स | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 <span class="SanskritText">य: पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह: स तदुभयबंधः ।</span> = <span class="HindiText">जीव और कर्मपुद्गल के परस्पर परिणाम के निमित्त मात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 ) । </span><br /> | ||
गोम्मटसार | गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/438/591/14 <span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिपरिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबंधो बंधः ।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादिरूप परिणमित होकर ज्ञानादि को आवरण करता है । इनका यह संबंध है सो बंध है । </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/104 <span class="PrakritGatha">जीवकर्मोभयो | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/104 <span class="PrakritGatha">जीवकर्मोभयो बंधः स्यान्मिथः साभिलाषुकः । जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ।104। </span>= <span class="HindiText">जो जीव और कर्म का परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा से बंध होता है, वह उभयबंध कहलाता है क्योंकि जीव कर्म से बँधा हुआ है तथा वह कर्म जीव से बँधा हुआ है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> अनंतर व परंपराबंध का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 12/4,2,12,1/370/7 <span class="PrakritText">कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा । कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपच्चएण परिणयत्तादो । ... बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ... पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंधो, चेव, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपरंपरा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दट्ठव्वा ।</span><br /> | धवला 12/4,2,12,1/370/7 <span class="PrakritText">कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा । कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपच्चएण परिणयत्तादो । ... बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ... पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंधो, चेव, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपरंपरा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दट्ठव्वा ।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,12,4/372/2 <span class="PrakritText">णाणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणंता णिरंतरमण्मोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिट्ठा ते अणंतरबंधा णाम । ... अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदूण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम ।</span> = | धवला 12/4,2,12,4/372/2 <span class="PrakritText">णाणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणंता णिरंतरमण्मोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिट्ठा ते अणंतरबंधा णाम । ... अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदूण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम ।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> कार्मणवर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल | <li class="HindiText"> कार्मणवर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल स्कंधों का मिथ्यात्वादिक प्रत्ययकों के द्वारा कर्मस्वरूप से परिणत होने के प्रथम समय में जो बंध होता है उसे अंतरबंध कहते हैं । ... चूँकि वे कार्मण-वर्गणारूप पर्याय को छोड़ने के अनंतर समय में ही कर्मरूप पर्याय से परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनंतरबंध संज्ञा है । ... बंध होने के द्वितीय समय से लेकर कर्म रूप पुद्गल स्कंधों और जीवप्रदेशों का जो बंध होता है उसे परंपरा बंध कहते हैं । ... प्रथम समय में बंध हुआ, द्वितीय समय में भी उन पुद्गलों का बंध ही है, तृतीय समय में भी बंध ही है, इस प्रकार से बंध की निरंतरता का नाम बंध-परंपरा है । उस परंपरा से होने वाले बंधों को परंपरा-बंध समझना चाहिए । </li> | ||
<li class="HindiText"> जो | <li class="HindiText"> जो अनंतानंत ज्ञानावरणीय कर्मरूप स्कंध निरंतर परस्पर में संबद्ध होकर स्थित हैं वे अनंतर बंध हैं ।... जो अनंतानंत कर्म-पुद्गल स्कंध परस्पर में संबद्ध होकर शेषकर्म संबद्धों से असंबद्ध होते हुए जीव के द्वारा इतर स्कंधों से संबंध को प्राप्त होते हैं, वे परंपरा बंध कहे जाते हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> विपाक व अविपाक प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 14/5,6,14/10/2 <span class="PrakritText">कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविवागो णाम । कम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिदं होदि । अविवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । कम्माणुदय-उदीरणाहिंतो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।</span> =<span class="HindiText"> कर्मों के उदय और उदीरणाको विपाक कहते है; और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे विपाक प्रत्ययिक | धवला 14/5,6,14/10/2 <span class="PrakritText">कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविवागो णाम । कम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिदं होदि । अविवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । कम्माणुदय-उदीरणाहिंतो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।</span> =<span class="HindiText"> कर्मों के उदय और उदीरणाको विपाक कहते है; और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे विपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध कहते हैं (अर्थात् जीव के औदयिक भाव देखें [[ उदय#9 | उदय - 9]]) । कर्मों के उदय और उदीरणा के अभाव को अविपाक कहते हैं । कर्मों के उपशम और क्षय को अविपाक कहते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अविपाक जिस भाव का प्रत्यय है उसे अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध कहते हैं । (अर्थात् जीव के औपशमिक व क्षायिक भाव (देखें [[ उपशम#6 | उपशम - 6]]) । कर्मों के उदय और उदीरणा से तथा इनके उपशम से जो भाव उत्पन्न होता है, उसे तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबंध कहते हैं । (अर्थात् जीव के क्षायोपशमिक भाव - देखें [[ क्षायोपशम#2.3 | क्षायोपशम - 2.3]]) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> विपाक अविपाक प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> विपाक अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 14/5,6/ सू. 21-23/23-26 - <span class="PrakritText">पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा सद्दा पओगपरिणदा गंधा पओगपरिणदा रसा पओगपरिणदा फासा पओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा खंधदेसा पओगपरिणदा खंधपदेशा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसंजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीव भावबंधो णाम ।21। ... जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।22। ... जे चामण्णे एवमादिया पओअविस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।23।</span><br /> | |||
धवला 14/5,6,20/22/13 <span class="PrakritText">मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगेहिंतो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसिं विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणेहि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । </span>= | धवला 14/5,6,20/22/13 <span class="PrakritText">मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगेहिंतो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसिं विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणेहि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । </span>= | ||
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<li><span class="HindiText"> मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से या पुरुष के प्रयत्न से जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं उनकी विपाक प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"> मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से या पुरुष के प्रयत्न से जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं उनकी विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध संज्ञा है । जैसे प्रयोगपरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गंध, प्रयोगपरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति, प्रयोगपरिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कंध, प्रयोगपरिणत-स्कंधदेश और प्रयोग परिणत स्कंधप्रदेश; ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव होते हैं वह सब विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध हैं ।21. </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जोअजीव भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविवाक प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"> जोअजीव भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविवाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध यह संज्ञा है । जैसे पूर्व कथित वर्ण, गंध आदि से लेकर इसी प्रकार के विस्रसापरिणत जो दूसरे संयुक्त भाव हैं वह अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध है ।22। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो दोनों ही कारणों से उत्पन्न होते हैं उनको तदुभय प्रत्ययिक | <li><span class="HindiText"> जो दोनों ही कारणों से उत्पन्न होते हैं उनको तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध यह संज्ञा है । यथा पूर्व कथित ही वर्ण-गंध आदि से लेकर प्रयोग और विस्रसा दोनों से परिणत जितने भी संयुक्त भाव हैं वह सब तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> बंध, अबंध व उपरतबंध के लक्षण</strong> <br /> | ||
गो.कं./भाषा/644/838 वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव | गो.कं./भाषा/644/838 वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव संबंधी आगामी आयु का बंध होई ... तहाँ बंध कहिये जो आगामी आयु का अतीतकाल विषै बंधन भया, वर्तमान काल विषै भी न हो है ... तहाँ अबंध कहिये । जहाँ आगामी आयु का पूर्व बंध भया हो और वर्तमान काल विषै बंध न होता हो ... तहाँ उपरतबंध कहिये ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> द्रव्यबंध की सिद्धि</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?</strong></span><br /> | ||
धवला 9/4,1,63/270/5 <span class="PrakritText"> कधं सरीरादो सरीरी अभिण्णो । सरीरदाहे जीवे दाहोपलंभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवलंभादो सरीरागरिसणे जीवागरिसणदंसणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमणदंसणादो, पडियारखंडयाणं व दोण्णं भेदाणुवलंभादो, एगीभूददुद्धोदयं व एगत्तेणुवलंभादो ।</span> = <strong>प्रश्न -</strong> <span class="HindiText">शरीर से शरीरधारी जीव अभिन्न कैसे है ।<strong> उत्तर- </strong>चूँकि शरीर का दाह होने पर जीव में दाह पाया जाता है, शरीर के भेदे जाने और छेदे जाने पर जीव में वेदना पायी जाती है, शरीर के खींचने में जीव का आकर्षण देखा जाता है, शरीर के गमनागमन में जीव का गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और | धवला 9/4,1,63/270/5 <span class="PrakritText"> कधं सरीरादो सरीरी अभिण्णो । सरीरदाहे जीवे दाहोपलंभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवलंभादो सरीरागरिसणे जीवागरिसणदंसणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमणदंसणादो, पडियारखंडयाणं व दोण्णं भेदाणुवलंभादो, एगीभूददुद्धोदयं व एगत्तेणुवलंभादो ।</span> = <strong>प्रश्न -</strong> <span class="HindiText">शरीर से शरीरधारी जीव अभिन्न कैसे है ।<strong> उत्तर- </strong>चूँकि शरीर का दाह होने पर जीव में दाह पाया जाता है, शरीर के भेदे जाने और छेदे जाने पर जीव में वेदना पायी जाती है, शरीर के खींचने में जीव का आकर्षण देखा जाता है, शरीर के गमनागमन में जीव का गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और खंडक (तलवार) के समान दोनों में भेद नहीं पाया जाता है । तथा एकरूप हुए दूध और पानी के समान दोनों एकरूप से पाये जाते हैं । इस कारण शरीर से शरीरधारी अभिन्न है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> जीव व कर्म का | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> जीव व कर्म का बंध कैसे जाना जाये ?</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,1/40/57/7 <span class="PrakritText">तं च जीवसंबद्धं चेव । तं कुदो णव्वदे । मुत्तेण सरीरेण कम्मकज्जेण जीवस्स संवंधण्णहाणुववत्तीदो ... । ण च संबंधो; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंभादो । ... जीवे गच्छंते ण सरीरेण गंतव्वं,... जीवे रुट्ठे कंप... पुलउग्गमधम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज ... सव्वेसिं जीवाणं केवलणाण ...सम्मत्तादओ होज्ज; ... सिद्धाणं वा तदो चेव अणंतणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एवं ; तहाणब्भुवगमादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> कर्म जीव से | कषायपाहुड़ 1/1,1/40/57/7 <span class="PrakritText">तं च जीवसंबद्धं चेव । तं कुदो णव्वदे । मुत्तेण सरीरेण कम्मकज्जेण जीवस्स संवंधण्णहाणुववत्तीदो ... । ण च संबंधो; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंभादो । ... जीवे गच्छंते ण सरीरेण गंतव्वं,... जीवे रुट्ठे कंप... पुलउग्गमधम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज ... सव्वेसिं जीवाणं केवलणाण ...सम्मत्तादओ होज्ज; ... सिद्धाणं वा तदो चेव अणंतणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एवं ; तहाणब्भुवगमादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> कर्म जीव से संबद्ध ही है यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर-</strong> | ||
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<li class="HindiText"> यदि कर्म को जीव से | <li class="HindiText"> यदि कर्म को जीव से संबद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्यरूप मूर्त शरीर से जीव का संबंध नहीं बन सकता है, इस अन्यथानुपपत्ति से प्रतीत होता है कि कर्म जीव से संबद्ध ही है । </li> | ||
<li class="HindiText"> शरीरादि के साथ जीव का | <li class="HindiText"> शरीरादि के साथ जीव का संबंध नहीं है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के छेदे जाने पर जीव को दुःख की उपलब्धि होती है । </li> | ||
<li class="HindiText"> .. जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।</li> | <li class="HindiText"> .. जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।</li> | ||
<li class="HindiText"> ... जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह .. पसीना आदि कार्य नहीं होने चाहिए . </li> | <li class="HindiText"> ... जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह .. पसीना आदि कार्य नहीं होने चाहिए . </li> | ||
<li class="HindiText"> ... जीव की इच्छा से शरीर का गमन .. सिर और अंगुलियों का संचालन नहीं होना चाहिए । </li> | <li class="HindiText"> ... जीव की इच्छा से शरीर का गमन .. सिर और अंगुलियों का संचालन नहीं होना चाहिए । </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> संपूर्ण जीवों के केवलज्ञान ... सम्यक्त्वादि गुण हो जाने चाहिए । </li> | ||
<li class="HindiText"> ... या सिद्धों के भी (यह केवलज्ञानादि गुण) नहीं होने चाहिए । </li> | <li class="HindiText"> ... या सिद्धों के भी (यह केवलज्ञानादि गुण) नहीं होने चाहिए । </li> | ||
<li class="HindiText"> यदि कहा जाये कि | <li class="HindiText"> यदि कहा जाये कि अनंताज्ञानादि गुण सिद्धों के नहीं होते हैं तो मत होओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माना नहीं गया है ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हों तो | <li class="HindiText"> यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हों तो देशांतर को प्राप्त हुए जीव को सिद्ध जीव के समान हो जाना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके समस्त कर्मों का अभाव है । </li> | ||
<li class="HindiText"> मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है । | <li class="HindiText"> मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है । परंतु जीव प्रदेशों मे कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि, जीव प्रदेशों के पूर्व के देश को छोड़कर देशांतर में जाकर स्थित होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्म स्कंध पाये जाते हैं । ... इससे जाना जाता है कि जीवप्रदेशों के देशांतर को प्राप्त होने पर उनमें कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं । </li> | ||
<li class="HindiText"> छद्मस्थ के किन्हीं जीव प्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं । तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूँकि संचार पाया जाता है अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं ।<br /> | <li class="HindiText"> छद्मस्थ के किन्हीं जीव प्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं । तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूँकि संचार पाया जाता है अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे संभव है ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,11,1/364/4 <span class="HindiText">कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे । ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहाभावादो ।</span><br /> | धवला 12/4,2,11,1/364/4 <span class="HindiText">कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे । ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहाभावादो ।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,11, 2/365/11 <span class="PrakritText">अट्ठण्हं म ज्झमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्त-वयणं ण घडदे । ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो । </span>=<span class="HindiText"><strong> प्रश्न - </strong>जीव प्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मों का गमन कैसे | धवला 12/4,2,11, 2/365/11 <span class="PrakritText">अट्ठण्हं म ज्झमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्त-वयणं ण घडदे । ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो । </span>=<span class="HindiText"><strong> प्रश्न - </strong>जीव प्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मों का गमन कैसे संभव है ? <strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग के कारण जीवप्रदेशों का संचरण होने पर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कंधों के भी संचार में कोई विरोध नहीं आता । <strong>प्रश्न -</strong>यतः जीव के आठ मध्यप्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थितपना नहीं बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्र वचन घटित नहीं होता । <strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीव के उन आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर शेष जीव प्रदेशों का आश्रय करके इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे ?</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे ?</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5.1" id="2.5.1"> क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5.1" id="2.5.1"> क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 <span class="SanskritText">न चामूर्ते: कर्मणां | सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 <span class="SanskritText">न चामूर्ते: कर्मणां बंधो युज्यत इति । तन्न; अनेकांतात् । नायमेकांतः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबंधपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्तः ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न - </strong>अमूर्त आत्मा के कर्मों का बंध नहीं बनता है ? <strong>उत्तर-</strong> आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकांत है । यह कोई एकांत नहीं कि आत्मा अमूर्ति ही है । कर्म बंधरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । ( तत्त्वसार/5/16 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/27 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 ) ।</span><br /> | ||
धवला 13/5,3,12/11/9 <span class="PrakritText">जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक | धवला 13/5,3,12/11/9 <span class="PrakritText">जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक संबंध कैसे हो सकता है ?<strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसारअवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता । = <strong>प्रश्न -</strong> यदि संसारअवस्था में जीव मूर्त हैं, तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? <strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव में मूर्तत्व का कारण कर्म है अत: कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है । ( योगसार (अमितगति)/4/35 ) ।</span><br /> | ||
धवला 13/5,5,63/333/6 <span class="PrakritText">मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो ।</span> = <span class="HindiText">क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन | धवला 13/5,5,63/333/6 <span class="PrakritText">मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो ।</span> = <span class="HindiText">क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बंधन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । ( धवला 15/32/8 ) ।</span><br /> | ||
धवला 15/33-34/1 <span class="PrakritText">ण च वट्टमाणबंधघडावणट्ठं जीवस्स वि रूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, .... - मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा जीवादो अपुधभूदा कम्मइयवग्गणक्खंधाणं तत्तो पुधभूदाणं कधं परिणामांतरं संपादेंति । ण एस दोसो, ... वुत्तं च - राग- द्वेषाद्यूष्मासयोग-वर्त्यात्मदीप आवर्ते ।</span> <span class="SanskritText"> | धवला 15/33-34/1 <span class="PrakritText">ण च वट्टमाणबंधघडावणट्ठं जीवस्स वि रूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, .... - मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा जीवादो अपुधभूदा कम्मइयवग्गणक्खंधाणं तत्तो पुधभूदाणं कधं परिणामांतरं संपादेंति । ण एस दोसो, ... वुत्तं च - राग- द्वेषाद्यूष्मासयोग-वर्त्यात्मदीप आवर्ते ।</span> <span class="SanskritText">स्कंधानादाय पुनः परिणमयति तांश्च कर्मतया ।18।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> वर्तमान बंध को घटित कराने के लिए पुद्गल के समान जीव को भी रूपी कहना योग्य नहीं है ... तथा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये जीव से अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणा के स्कंधों- के परिणामांतर (रूपित्व) को कैसे उत्पन्न करा सकते हैं ?<strong>उत्तर-</strong> यह कोई दोष नहीं है । ... कहा भी है - संसार में रागद्वेषरूपी उष्णता से संयुक्त यह आत्मारूपी दीपक योगरूप बत्ती के द्वारा (कार्मण वर्गणा के) स्कंधों (रूप तेल) को ग्रहण करके फिर उन्हें कर्मरूपी (कज्जल) स्वरूप से परिणमाता है ।<br /> | ||
देखें [[ मूर्त#9 | मूर्त - 9]]-10 (कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथंचित् मूर्त हैं ।) <br /> | देखें [[ मूर्त#9 | मूर्त - 9]]-10 (कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथंचित् मूर्त हैं ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5.2" id="2.5.2"> जीव | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5.2" id="2.5.2"> जीव कर्मबंध अनादि है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/4 <span class="SanskritText">कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति - ‘कर्मणः’ इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतोर्जीवः सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो | सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/4 <span class="SanskritText">कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति - ‘कर्मणः’ इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतोर्जीवः सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो जीवकर्मणोरनादिसंबंध इत्युक्तं भवति । तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृतं भवति । इतरथा हि बंधस्यादिमत्त्वे आत्यंतिकीं शुद्धिं दधतः सिद्धस्येव बंधाभाव: प्रसज्येत ।</span> =<span class="SanskritText">‘कर्मणो जीवः सकषायो भवति’</span> <span class="HindiText">यह एक वाक्य है । इसका अभिप्राय है कि ‘कर्मण:’ यह हेतुपरक निर्देश है । जिसका अर्थ है कि कर्म के कारण जीव कषायसहित होता है, कषायरहित जीव के कषाय का लेप नहीं होता । इससे जीव और कर्मका अनादि संबंध है यह कथन निष्पन्न होता है । और इससे अमूर्त जीव मूर्त कर्म के साथ कैसे बँधता है इस प्रश्न का निराकरण हो जाता है । अन्यथा बंधको सादि मानने पर आत्यंतिक शुद्धि को धारण करने वाले सिद्ध जीव के समान संसारी जीव के बंध का अभाव प्राप्त होता है । ( राजवार्तिक/8/2/4/565/22 ); ( कषायपाहुड़ 1/1,1/41/59/3 ); ( तत्त्वसार/5/17-18 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/4 ) ।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./1/59 <span class="PrakritGatha">जीवहें कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण ।59।</span>= <span class="HindiText">हे आत्मा ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं, उस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मों ने भी जीव नहीं उपजाया, क्योंकि जीव और कर्म इन दोनों का ही आदि नहीं है, | परमात्मप्रकाश/ मू./1/59 <span class="PrakritGatha">जीवहें कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण ।59।</span>= <span class="HindiText">हे आत्मा ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं, उस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मों ने भी जीव नहीं उपजाया, क्योंकि जीव और कर्म इन दोनों का ही आदि नहीं है, किंतु अनादि के हैं ।59।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/134 <span class="SanskritText">अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्त- रागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैमूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको | पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/134 <span class="SanskritText">अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्त- रागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैमूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बंधप्रकारः । एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथंचिट्बंधो न विरुध्यते ।134। </span>= <span class="HindiText">निश्चय से अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त कर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि परिणाम के द्वारा स्निग्ध वर्तता है, मूर्तकर्मों को विशिष्ट रूप से अवगाहता है, और उस परिणाम के निमित्त से अपने परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे मूर्त कर्म भी जीव को विशिष्ट रूप से अवगाहते हैं । यह जीव और मूर्तकर्म का अन्योन्य अवगाहस्वरूप बंध प्रकार है । इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीव का भी मूर्त पुण्य-पाप के साथ कथंचित् बंध विरोध को प्राप्त नहीं होता ।134।</span><br /> | ||
गोम्मटसार | गोम्मटसार कर्मकांड/2/3 ... <span class="PrakritText">जीवंगाणं अणाइ संबंधो । कणयोवलेमलं वा ताण-त्थित्तं सयं सिद्धं ।2।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, तथापि इनका संबंध अनादि है, नये नहीं मिले हैं । उसी प्रकार जीव और कर्म का संबंध भी अनादि हैं ।2। इनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है ।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 55 <span class="SanskritGatha"> तथानादिः स्वतो | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 55 <span class="SanskritGatha"> तथानादिः स्वतो बंधो जीवपुद्गलकर्मणोः । कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोऽयं व्योमपुष्पवत् ।55।</span> = <span class="HindiText">जीव और पुद्गल स्वरूप कर्म का बंध स्वयं अनादि है इसलिए किस कारण से हुआ, किसने किया तथा कहाँ हुआ, यह प्रश्न आकाश के फूल की तरह व्यर्थ है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/6,9-70 ) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बंध में दृष्टांत</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार व त.प्र./174 उत्थानिका - <span class="SanskritText">अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो | प्रवचनसार व त.प्र./174 उत्थानिका - <span class="SanskritText">अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बंधो भवतीति सिद्धांतयति- रूवादिएहिंरहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।174। ... दृष्टांतद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवदं बलीवदं व पश्यतो जान- तश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबंधः, विषयबावावस्थितबलीवर्दनि- मित्तोपयोगाधिरूढवलबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबंध- व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंधः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गल- निमित्तोपयोगाधिरूढ़रागद्वेषादिभावसंबंधः कर्मपुद्गलबंधव्यव- हारसाधकस्त्वस्त्येव ।</span> =<span class="HindiText"> अब यह सिद्धांत निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बंध होता है - जैसे रूपादि रहित (जीव) रूपादिक द्रव्यों को तथा गुणों को देखता है और जानता है, उसी प्रकार उसके साथ बंध जानो ।174। ... आबाल-गोपाल सभी को प्रगट हो जाय इसलिए दृष्टांत द्वारा समझाया गया है । यथा- बाल-गोपाल का पृथक् रहने वाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषय रूप से रहने वाले बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगरूढ़ वृषभाकार दर्शन ज्ञान के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंद रूप व्यवहार का साधक अवश्य है । इसी प्रकार आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्श शून्य है । इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाह रूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ़ राग द्वेषादि भावों के साथ का संबंध कर्मपुदगलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> कर्म जीव के साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> कर्म जीव के साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर</strong> </span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,2/277/11 <span class="SanskritText">कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा । णादिपक्खो ... णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । ... ण विदिओ वि पक्खो जुज्जदे, जीवे असमवेदाणं कम्मइयक्खंधाण णाणावरणीयसरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाए अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वेहि संबंधाभावादो । ण च एवं, जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आगमणप्पसंगादो, जीवादोपुधभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, ... एत्त परिहारो वुच्चदे - जीव समवेद-काले चेव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीयसरूवेण परिणमंति (त्ति) ण पुव्वुत्तदोसा ढुक्कंति ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> | धवला 12/4,2,8,2/277/11 <span class="SanskritText">कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा । णादिपक्खो ... णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । ... ण विदिओ वि पक्खो जुज्जदे, जीवे असमवेदाणं कम्मइयक्खंधाण णाणावरणीयसरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाए अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वेहि संबंधाभावादो । ण च एवं, जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आगमणप्पसंगादो, जीवादोपुधभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, ... एत्त परिहारो वुच्चदे - जीव समवेद-काले चेव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीयसरूवेण परिणमंति (त्ति) ण पुव्वुत्तदोसा ढुक्कंति ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> कार्मणस्कंध क्याजीव में समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्याय रूप से परिणमते हैं , अथवा असमवेत होकर ? | ||
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<li class="HindiText"> प्रथम पक्ष तो | <li class="HindiText"> प्रथम पक्ष तो संभव नहीं है, क्योंकि ... नोकर्म से भिन्न और कर्मस्वरूप से अपरिणत हुआ कार्मणस्कंध जीव में समवेत नहीं पाया जाता । ... </li> | ||
<li class="HindiText"> दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीव में असमवेत | <li class="HindiText"> दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीव में असमवेत कार्मणस्कंधों के ज्ञानावरणीय स्वरूप से परिणत होने का विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो संसार अवस्था- में जीव को अमूर्त होना चाहिए, क्योंकि, मूर्त द्रव्यों से उसका कोई संबंध नहीं है । परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीव के गमन करने पर शरीर का संबंध न रहने से उसके गमन न करने का प्रसंग आता है । दूसरे, जीव से शरीर पृथक् है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनों का संबंध होता है, ऐसा भी संभव नहीं है । <strong>उत्तर-</strong> जीव से समवेत होने के समय में ही कार्मणस्कंध ज्ञानावरणीय स्वरूप से नहीं परिणमते हैं । अतएव पूर्वोक्त दोष यहाँ नहीं ढूँकते ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> कर्मबद्ध जीव में चेतनता न रहेगी </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> कर्मबद्ध जीव में चेतनता न रहेगी </strong> </span><br /> | ||
धवला 12/4,2,9,6/297/2 <span class="PrakritText">णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण भट्ठसगसरूवस्स कधं जीवत्तं जुज्जदे । ण, अविणट्ठणाण-दंसणणाणमुवलंभेण जीवत्थित्तसिद्धीदो । ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अत्थि, पहाणीकय- जीवभावादो । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वितत्तो तेसिमभेदुवलंभादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न - </strong>चेतनारहित मूर्त पुद्गल | धवला 12/4,2,9,6/297/2 <span class="PrakritText">णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण भट्ठसगसरूवस्स कधं जीवत्तं जुज्जदे । ण, अविणट्ठणाण-दंसणणाणमुवलंभेण जीवत्थित्तसिद्धीदो । ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अत्थि, पहाणीकय- जीवभावादो । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वितत्तो तेसिमभेदुवलंभादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न - </strong>चेतनारहित मूर्त पुद्गल स्कंधों के साथ समवाय होने के कारण अपने स्वरूप (चैतन्य व अमूर्तत्व) से रहित हुए जीव के जीवत्व स्वीकार करना कैसे युक्ति- युक्त है ? <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुए ज्ञान-दर्शन के पाये जाने से उसमें जीवत्वका अस्तित्व सिद्ध है । वस्तुतः उसमें पुद्गल स्कंध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीवभाव की प्रधानता की गयी है । दूसरे, जीव में पुद्गल स्कंधों का प्रवेश बुद्धिपूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थतः भी उससे उनका अभेद पाया जाता है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> बंधपदार्थ की क्या प्रामाणिकता ?</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/26/405/3 <span class="SanskritText">एवं व्याख्यातो | सर्वार्थसिद्धि/8/26/405/3 <span class="SanskritText">एवं व्याख्यातो सप्रपंचः बंधपदार्थः । अवधि-मनःपर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः । </span>= <span class="HindiText">इस प्रकार विस्तार से बंधपदार्थ का व्याख्यान किया । यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगम से अनुमेय है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10">विस्रसोपचय रूप से स्थित वर्गणाएँ ही बँधती हैं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10">विस्रसोपचय रूप से स्थित वर्गणाएँ ही बँधती हैं </strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/8/28 <span class="SanskritText"> नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः | तत्त्वार्थसूत्र/8/28 <span class="SanskritText"> नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24।</span> = <span class="HindiText">कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रतिसमय योग परमाणु योग विशेष से सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंतपुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेश में (संबंध को प्राप्त) होते हैं । </span><br /> | ||
प्रवचनसार 168, 170 <span class="PrakritGatha">ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।168। ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायंते देहा देहंतर-संकमं पप्पा ।170।</span> = <span class="HindiText">लोक सर्वतः सूक्ष्म तथा बादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल | प्रवचनसार 168, 170 <span class="PrakritGatha">ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।168। ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायंते देहा देहंतर-संकमं पप्पा ।170।</span> = <span class="HindiText">लोक सर्वतः सूक्ष्म तथा बादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्कंधों के द्वारा (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है ।168। (इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिंडों का लानेवाला आत्मा नहीं है । ( प्रवचनसार/ टी./168) कर्मरूप परिणत वे वे पुद्गलपिंड देहांतररूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः-पुनः जीव के शरीर होते हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> कर्म | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> कर्म बंध में रागादि भाव बंध की प्रधानता </strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबंध होता है </strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/37/2/205/4 <span class="SanskritText">द्रव्य-भव-क्षेत्र- कालभावापेक्षत्वात् | राजवार्तिक/3/37/2/205/4 <span class="SanskritText">द्रव्य-भव-क्षेत्र- कालभावापेक्षत्वात् कर्मबंधस्य ।</span> =<span class="HindiText"> द्रव्य, भव, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से कर्म का बंध होता है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> अज्ञान व राग आदि ही वास्तव में | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> अज्ञान व राग आदि ही वास्तव में बंध के कारण हैं</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.2.1" id="3.2.1"><strong> अज्ञान </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.2.1" id="3.2.1"><strong> अज्ञान </strong></span><br /> | ||
समयसार/153 उत्थानिका - <span class="PrakritText">अथ ज्ञानाज्ञाने | समयसार/153 उत्थानिका - <span class="PrakritText">अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबंधहेतू नियमयति- वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।153।</span> = <span class="HindiText">ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है और अज्ञान ही बंध का हेतु है यह नियम है - व्रत नियम को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य हैं वे निर्वाणको प्राप्त नहीं होते । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1035 ) । </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/311/ क. 195 <span class="SanskritText">तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल | समयसार / आत्मख्याति/311/ क. 195 <span class="SanskritText">तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ।195। </span>=<span class="HindiText"> इस जगत् में प्रकृतियों के साथ यह (प्रगट) बंध होता है, सो वास्तव में अज्ञान की कोई गहन महिमा स्फुरायमान है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2">रागादि </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2">रागादि </strong></span><br /> | ||
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<li> <span class="HindiText">जो वास्तव में संसार-स्थित जीव है, उससे (स्निग्ध) परिणाम होता है । परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है ।128। ( पंचास्तिकाय/129-930 ) ।</span></li> | <li> <span class="HindiText">जो वास्तव में संसार-स्थित जीव है, उससे (स्निग्ध) परिणाम होता है । परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है ।128। ( पंचास्तिकाय/129-930 ) ।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> बंध का निमित्त भाव है । भाव रति-राग-द्वेष मोह से युक्त है ।148। ( प्रवचनसार/179 ) ।</span><br /> | ||
समयसार/237-241 <span class="PrakritGatha">जह णाम को वि पुरिसो णेयब्भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठणम्मि य करेइ सत्थेहिं वायामं ।237। जो सो दु णेह भावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।240। एवं मिच्छादिट्ठी | समयसार/237-241 <span class="PrakritGatha">जह णाम को वि पुरिसो णेयब्भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठणम्मि य करेइ सत्थेहिं वायामं ।237। जो सो दु णेह भावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।240। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण ।241।</span> = <span class="HindiText">जैसे कोई पुरुष (अपने शरीर में ) तैलादि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी धूलिवाले स्थान में रहकर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है ।137। उस पुरुष में जो वह तेलादिकी चिकनाहट है उससे उसे धूलिका बंध होता है, ऐसा निश्चय से जानना चाहिए, शेष शारीरादिक चेष्टाओं से नहीं होता ।240। इसी प्रकार बहुत प्रकार की चेष्टाओं में वर्तता हुआ मिथ्यादृष्टि अपने उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्मरूपी रजसे लिप्त होता है ।241। (अतः निश्चित हुआ कि उपयोग में जो राग आदिक हैं, वही बंध के कारण हैं ।) ( योगसार (अमितगति) 4/4-5 ) । </span><br /> | ||
मू.आ./1219 <span class="PrakritGatha">मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगाहवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।1219। </span><span class="HindiText">मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयु का परिणाम - ये | मू.आ./1219 <span class="PrakritGatha">मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगाहवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।1219। </span><span class="HindiText">मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयु का परिणाम - ये कर्मबंध के कारण जानने चाहिए ।</span><br /> | ||
क.पा 1/1,1/गा. 51/105 <span class="PrakritText">वत्थुं पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ ववहारो । ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण ।</span> = <span class="HindiText">यद्यपि वस्तु की अपेक्षा करके अध्यवसान होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है, | क.पा 1/1,1/गा. 51/105 <span class="PrakritText">वत्थुं पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ ववहारो । ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण ।</span> = <span class="HindiText">यद्यपि वस्तु की अपेक्षा करके अध्यवसान होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है, परंतु केवल वस्तु के निमित्त से बंध नहीं होता, बंध तो आत्मपरिणामों (रागादि) से होता है । ( समयसार / आत्मख्याति/265 ) ।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,4/282/1 <span class="PrakritText">ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ठ गहिदबज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरोहादो ।</span> = <span class="HindiText">प्रमाद के बिना रत्नत्रय को सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीय के | धवला 12/4,2,8,4/282/1 <span class="PrakritText">ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ठ गहिदबज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरोहादो ।</span> = <span class="HindiText">प्रमाद के बिना रत्नत्रय को सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीय के बंध का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि जो प्रत्यय से उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे प्रत्यय स्वीकार करना विरुद्ध है ।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/366 <span class="PrakritText">असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध संवेदन से अर्थात् रागादि भावों से आत्मा कर्म और नोकर्म का | नयचक्र बृहद्/366 <span class="PrakritText">असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध संवेदन से अर्थात् रागादि भावों से आत्मा कर्म और नोकर्म का बंध करता है । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/147/313 ) । </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176 <span class="SanskritText">योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176 <span class="SanskritText">योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबंधः । अथ पुनस्तेनैवपौद्गलिकं कर्म बध्यत एव ।</span> = <span class="HindiText">जो यह राग है वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है । ( प्रवचनसार/ ता.प्र./178) । </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/179 <span class="SanskritText">अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते ... बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः । ... ततोऽवधार्यते | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/179 <span class="SanskritText">अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते ... बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः । ... ततोऽवधार्यते द्रव्यबंधस्य साधकतम- त्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बंधः ।</span> = <span class="HindiText">राग-परिणत आत्मा नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता । ... राग परिणत जीव संस्पर्श करने में आने वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता । ... इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम होने से राग परिणाम ही निश्चय से बंध है ।</span><br /> | ||
तत्त्वानुशासन/8 <span class="SanskritGatha">स्युर्मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । | तत्त्वानुशासन/8 <span class="SanskritGatha">स्युर्मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । बंधस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ।8। </span>= <span class="HindiText">मिथ्यादर्शन-ज्ञान व चारित्र ये तीनों संक्षेप से बंध के कारण हैं । बंध के कारणरूप में अन्य जो कुछ कथन है वह सब इन तीनों का विस्तार है ।8। </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 <span class="SanskritText">परमात्मनो ... निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म ।</span> = <span class="HindiText">परमात्मा की निर्मल अनुभूति से विरुद्ध मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं । <br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 <span class="SanskritText">परमात्मनो ... निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म ।</span> = <span class="HindiText">परमात्मा की निर्मल अनुभूति से विरुद्ध मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं । <br /> | ||
देखें [[ बं धवला#2.5.1 | बं धवला - 2.5.1 ]]में धवला 15 (राग-द्वेष संयुक्त आत्मा | देखें [[ बं धवला#2.5.1 | बं धवला - 2.5.1 ]]में धवला 15 (राग-द्वेष संयुक्त आत्मा कर्मबंध करता है ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">ज्ञान आदि भी कथंचित् | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">ज्ञान आदि भी कथंचित् बंध के कारण हैं </strong> </span><br /> | ||
समयसार/171 <span class="PrakritGatha">जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि । अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।171। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी अन्य रूप से परिणमन करता है, इसलिए (यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे ) वह (ज्ञानगुण) कर्मों का बंधक कहा गया है ।<br /> | समयसार/171 <span class="PrakritGatha">जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि । अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।171। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी अन्य रूप से परिणमन करता है, इसलिए (यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे ) वह (ज्ञानगुण) कर्मों का बंधक कहा गया है ।<br /> | ||
देखें [[ आयु#3.21 | आयु - 3.21 ]](सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायु के आस्रव का कारण है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/906 ) ।<br /> | देखें [[ आयु#3.21 | आयु - 3.21 ]](सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायु के आस्रव का कारण है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/906 ) ।<br /> | ||
देखें [[ प्रकृति बंध#5.7.3 | प्रकृति बंध - 5.7.3 ]](आहारक शरीर के बंध में 6-7 गुणस्थान का संयम ही कारण है ।) <br /> | देखें [[ प्रकृति बंध#5.7.3 | प्रकृति बंध - 5.7.3 ]](आहारक शरीर के बंध में 6-7 गुणस्थान का संयम ही कारण है ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> ज्ञानकीकमीबंधकाकारणनहीं, तत्सहभावीकर्महीबंधकाकारणहै</strong></span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/172 <span class="SanskritText">यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक | समयसार / आत्मख्याति/172 <span class="SanskritText">यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक- विपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबंधः स्यात् ।</span> = <span class="HindiText">ज्ञानी जब तक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यभाव से ही ज्ञान को देखता है, जानता और आचरण करता है, तब तक उसकी अन्यथा अनुपत्ति के द्वारा जिसका अनुमान हो सकता है, ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक के विपाक का सद्भाव होने से, पुद्गल कर्म का बंध होता है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बंध करने में असमर्थ है</strong> </span><br /> | ||
धवला 8/3, 22/54/7 <span class="PrakritText">उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंत-गुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । </span>= <span class="HindiText">उपशम श्रेणी में क्रोध के | धवला 8/3, 22/54/7 <span class="PrakritText">उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंत-गुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । </span>= <span class="HindiText">उपशम श्रेणी में क्रोध के अंतिम अनुभागोदय की अपेक्षा अनंतगुण हीन, अनुभागोदय से संज्वलन क्रोध का बंध नहीं पाया जाता । (इसी प्रकार मान, माया लोभ में भी जानना ) ।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/165/227/11 <span class="SanskritText">परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्व- भावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/165/227/11 <span class="SanskritText">परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्व- भावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य बंधो न भवति ।</span> = <span class="HindiText">परम चैतन्य परिणति है लक्षण जिसका ऐसे परमात्म तत्त्व की भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यान के बल से जैसे जघन्य-स्निग्ध-शक्ति स्थानीय क्षीण राग होने पर, और जघन्य-रूक्ष-शक्ति स्थानीय क्षीण द्वेष होने पर जल और रेत की भाँति जीव के बंध नहीं होता है ... ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> परंतु उससे बंधसामांय तो होता ही है</strong> </span><br /> | ||
धवला 8/3,39/77/3 <span class="PrakritText">सोलसकसायणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । </span>=<span class="HindiText"> सोलह (5 ज्ञानावरण, 5 | धवला 8/3,39/77/3 <span class="PrakritText">सोलसकसायणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । </span>=<span class="HindiText"> सोलह (5 ज्ञानावरण, 5 अंतराय, 4 दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्च गोत्र) कर्म कषाय सामान्य के निमित्त से बँधने वाले हैं, क्योंकि, अणुमात्र कषाय के भी होने पर उनका बंध पाया जाता है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">भावबंध के अभाव में द्रव्यबंध नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
समयसार/270 <span class="PrakritGatha">एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पंति ।270।</span> = <span class="HindiText">यह (अज्ञान-मिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनि अशुभ या शुभकर्म से लिप्त नहीं होते ।270। <br /> | समयसार/270 <span class="PrakritGatha">एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पंति ।270।</span> = <span class="HindiText">यह (अज्ञान-मिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनि अशुभ या शुभकर्म से लिप्त नहीं होते ।270। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> कर्मोदय | <li><span class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> कर्मोदय बंध का कारण नहीं रागादि ही है</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/43/56/12 उदयगता ... <span class="SanskritText">ज्ञानावरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा: स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/43/56/12 उदयगता ... <span class="SanskritText">ज्ञानावरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा: स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा गच्छंति न च रागादिपरिणामरहिताः संतो बंधं कुर्वंति । ... तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्माशेषु ... मूढोरक्तो दुष्टो व भवति सः ... बंधनमनुभवति । ततः स्थितमेतत् ज्ञानं बंधकारणं न भवति कर्मोदयेऽपि, किंतु रागादयो बंधकारणमिति ।43।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 <span class="SanskritText">औदयिका भावाः | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 <span class="SanskritText">औदयिका भावाः बंधकारणम् इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह - औदयिका भावा बंधकारणं भवंति, परं किंतु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः ।</span> = | ||
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<li><span class="HindiText"> उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण | <li><span class="HindiText"> उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण बंध नहीं करते हैं । ... परंतु जो उदय को प्राप्त कर्मांशों में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बंध को प्राप्त होता है । इसलिए यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बंध का कारण नहीं होता, न ही कर्म का उदय बंध का कारण होता है, किंतु रागादि ही बंध के कारण होते हैं । <strong>प्रश्न -</strong> औदयिक भावबंध के कारण हैं, यह आगम का वचन वृथा हो जायेगा । <strong>उत्तर -</strong> औदयिक भावबंध के कारण होते हैं, किंतु मोह के उदय सहित होने पर ही । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से परिणमन नहीं करता है, तो बंध नहीं होता है । यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण सदा ही बंध होता रहता, मोक्ष कभी न होता ।<br /> | ||
देखें [[ उदय#9.3 | उदय - 9.3]],4 (मोहजनित औदयिक भाव ही | देखें [[ उदय#9.3 | उदय - 9.3]],4 (मोहजनित औदयिक भाव ही बंध के कारण हैं अन्य नहीं । वास्तव में मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना सब क्षायिक है ।)</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064 <span class="SanskritGatha">जले | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064 <span class="SanskritGatha">जले जंबालवन्नूनं स भावे मलिनो भवेत् । बंधहेतुः स एव स्यादद्वैतश्चाष्टकर्मणाम् ।1064।</span> = <span class="HindiText">जल में काई की तरह निश्चय से वह औदयिक भावमोह ही मलिन होता है, और एक वह भावमोह ही आठों कर्मों के बंध का कारण है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">रागादि | <li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">रागादि बंध के कारण हैं तो बाह्यद्रव्य का निषेध क्यों ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,4/281/2 <span class="PrakritText">एवं विहववहारो किमट्ठं कीरदे सुहेण णाणा-वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> इस प्रकार का व्यवहार (व्रतादि) किस लिए किया जाता है ? <strong>उत्तर- </strong>सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है ।</span><br /> | धवला 12/4,2,8,4/281/2 <span class="PrakritText">एवं विहववहारो किमट्ठं कीरदे सुहेण णाणा-वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> इस प्रकार का व्यवहार (व्रतादि) किस लिए किया जाता है ? <strong>उत्तर- </strong>सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है ।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/265 <span class="SanskritText">अध्यवसानमेव | समयसार / आत्मख्याति/265 <span class="SanskritText">अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाह्यवस्तु । ... तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते ।</span> = <span class="HindiText">अध्यवसान ही बंध का कारण है, बाह्य वस्तु नहीं । प्रश्न - यदि बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है, तो बाह्यवस्तु का निषेध किस लिए किया जाता है ? उत्तर- अध्यवसान के निषेध के लिए बाह्य-वस्तु का निषेध किया जाता है । अध्यवसान को बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तु का आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् उत्पन्न नहीं होता ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> द्रव्य व भाव | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> द्रव्य व भाव बंध का समन्वय</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/ उ/44<span class="SanskritGatha"> न केवलं प्रदेशानां | पंचाध्यायी x`/ उ/44<span class="SanskritGatha"> न केवलं प्रदेशानां बंधः संबंधमात्रतः । सोऽपि भावैरशुद्धैः स्यात्सापेक्षस्तद्द्वयोरिति ।44।</span> =<span class="HindiText"> इस प्रकार उन जीव और कर्मों के अशुद्ध भावों से अपेक्षा रखनेवाला वह बंध भी केवल प्रदेशों के संबंध मात्र से ही नहीं होता है ।44। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/111 ) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु</strong> </span><br /> | ||
धवला 9/4,1,63/271/4 <span class="PrakritText">जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अणंतत्तादो सरीरे सादि-सांतभावदंसणादो; सव्वसरीरेसु जीवस्स अणुगमदंसणादो सरीरस्स तदणुवलंभादो; जीवसरीराणमकारणत्त (सकारणत्त) दंसणादो । सकारणं शरीरं, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो; णि-क्कारणो जीवो, जीवभावेण धुवत्तादो सरीरहादच्छेद-भेदे हि जीवस्स तदणुवलंभादो । </span>= | धवला 9/4,1,63/271/4 <span class="PrakritText">जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अणंतत्तादो सरीरे सादि-सांतभावदंसणादो; सव्वसरीरेसु जीवस्स अणुगमदंसणादो सरीरस्स तदणुवलंभादो; जीवसरीराणमकारणत्त (सकारणत्त) दंसणादो । सकारणं शरीरं, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो; णि-क्कारणो जीवो, जीवभावेण धुवत्तादो सरीरहादच्छेद-भेदे हि जीवस्स तदणुवलंभादो । </span>= | ||
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<li class="HindiText"> जीव शरीर से भिन्न है, क्योंकि वह अनादि | <li class="HindiText"> जीव शरीर से भिन्न है, क्योंकि वह अनादि अनंत है, परंतु शरीर में सादि सांतता पायी जाती है । </li> | ||
<li class="HindiText"> सब शरीरों में जीव का अनुगम देखा जाता है, | <li class="HindiText"> सब शरीरों में जीव का अनुगम देखा जाता है, किंतु शरीर के जीव का अनुगम नहीं पाया जाता । </li> | ||
<li class="HindiText"> तथा जीव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है । शरीर सकारण है, क्योंकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवों का कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योंकि वह चेतनभाव की अपेक्षा नित्य है । </li> | <li class="HindiText"> तथा जीव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है । शरीर सकारण है, क्योंकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवों का कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योंकि वह चेतनभाव की अपेक्षा नित्य है । </li> | ||
<li class="HindiText"> तथा शरीर के दाह और छेदन-भेदन से जीव का दाह एवं भेदन नहीं पाया जाता ।<br /> | <li class="HindiText"> तथा शरीर के दाह और छेदन-भेदन से जीव का दाह एवं भेदन नहीं पाया जाता ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">जीववशरीरमेंनिमित्तवनैमित्तिकपनाभीकथंचित्मिथ्याहै</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">जीववशरीरमेंनिमित्तवनैमित्तिकपनाभीकथंचित्मिथ्याहै</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,33/234/1 <span class="SanskritText">तद् (जीवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थायां तत् (शरीरस्य) समवायाभावात् ।</span> = <span class="HindiText">जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय | धवला 1/1,1,33/234/1 <span class="SanskritText">तद् (जीवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थायां तत् (शरीरस्य) समवायाभावात् ।</span> = <span class="HindiText">जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय संबंध नहीं रहता ।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270-271 <span class="SanskritGatha"> अपि भवति | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270-271 <span class="SanskritGatha"> अपि भवति बध्यबंधकभावो यदि वानयोर्न शंक्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तद्बंधस्य स्वतोऽप्यसिद्दत्वात् ।270। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वंय स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।271।</span> = <span class="HindiText">शरीर और आत्मा में बंध्यबंधक भाव है यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नियम से दोनों में एकत्व होने पर स्वयं उन दोनों का बंध भी असिद्ध है (270) यदि कहो कि परस्पर इन दोनों में निमित्त नैमित्तिकपना अवश्य है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अथवा स्वत: परिणममान वस्तु के निमित्त से क्या फायदा ।571।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> जीव व | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> जीव व कर्मबंध केवल निमित्त की अपेक्षा है</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/174 <span class="SanskritText">आत्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/174 <span class="SanskritText">आत्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंधः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबंधः कर्मपुद्गलबंधव्यवहारसाधकस्त्व- स्त्येव । </span>= <span class="HindiText">आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथा एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादि भाव के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> निश्चय से कर्म जीवसे बँधे ही नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> निश्चय से कर्म जीवसे बँधे ही नहीं</strong> </span><br /> | ||
समयसार/57 <span class="PrakritText">एएहि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।</span> =<span class="HindiText"> इन वर्णादि भावों के साथ जीवों का | समयसार/57 <span class="PrakritText">एएहि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।</span> =<span class="HindiText"> इन वर्णादि भावों के साथ जीवों का संबंध दूध औरपानी का एक क्षेत्रावगाह रूप संयोग संबंध है ऐसा जानना । क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुण से अधिकहै ।57। (वा.अनु./6) । </span><br /> | ||
समयसार/169 <span class="PrakritGatha">पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।169। </span>= <span class="HindiText">उस ज्ञानी के पूर्व बद्धकर्म समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं, और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं ।169। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1059 ) ।<br /> | समयसार/169 <span class="PrakritGatha">पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।169। </span>= <span class="HindiText">उस ज्ञानी के पूर्व बद्धकर्म समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं, और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं ।169। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1059 ) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> बंध अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/45 .109-110 <span class="SanskritText"> | पंचाध्यायी x`/45 .109-110 <span class="SanskritText">अयस्कांतोपलाकृष्टसूचीवत्तद्द्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिर्विभावाख्या मिथो बंधाधिकारिणी ।45। जीवभावविकारस्य हेतुः स्याद्द्रव्यकर्म तत् । तद्धेतुस्तद्विकारश्व यथा प्रत्युपकारकः ।109। तन्निमित्तात्पृथग्भूतोऽप्यर्थः स्यात्तन्निमित्तकः ।110।</span> = <span class="HindiText">दोनों जीव और कर्मों से भिन्न-भिन्न परस्पर में बंध को कराने वाली चुंबक-पत्थर के द्वारा खिंचने वाली लोहे की सुई के समान विभावनाम की शक्ति है ।44। वह द्रव्यकर्म जीव के ज्ञानादिक भावों के विकार का कारण होता है, और जीव के भावों का विकार द्रव्यकर्म के आस्रव का कारण होता है ।109। अर्थात् जीव के वैभाविक भाव के निमित्त से पृथक्भूत कार्मण पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाते हैं ।110।<br /> | ||
देखें [[ अशुद्धता ]](दोनों अपने गुणों से च्युत हो जाते हैं ) । <br /> | देखें [[ अशुद्धता ]](दोनों अपने गुणों से च्युत हो जाते हैं ) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> जीवबंध बताने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/179/243/9 <span class="SanskritText"> एवं रागपरिणाम एव | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/179/243/9 <span class="SanskritText"> एवं रागपरिणाम एव बंधकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वे निरंतरं भावना कर्त्तव्येति ।</span> =<span class="HindiText"> इस प्रकार राग परिणाम ही बंध का कारण है, ऐसा जानकर समस्त रागादि विकल्प के त्याग द्वारा विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन स्वभाव है जिसका ऐसे निजात्मतत्त्व में ही निरंतर भावना करनी चाहिए ।87।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> उभय | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> उभय बंध बताने का प्रयोजन</strong> <br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/20-22/48/ पर उद्धृत गा. 1 की टीका</span> - <span class="SanskritText">अत्रैवं ज्ञात्वा | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/20-22/48/ पर उद्धृत गा. 1 की टीका</span> - <span class="SanskritText">अत्रैवं ज्ञात्वा सहजानंदैकस्वभावे निजात्मनि रतिः कर्तव्या । तद्विलक्षणे परद्रव्ये विरतिरित्यभिप्रायः ।</span> = <span class="HindiText">यहाँ इस प्रकार (उभयबंध को) जानकर सहज आनंद एक निज आत्मस्वभाव में ही रति करनी चाहिए । उससे अर्थात् निजात्म स्वभाव से विलक्षण ऐसे परद्रव्य में विरति करनी चाहिए, ऐसा अभिप्राय है । ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/10 )।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/6 <span class="SanskritText">अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामूर्तो | द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/6 <span class="SanskritText">अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामूर्तो मूर्तपंचेंद्रियविषयत्यागेन निरंतरं ध्यातव्यः । </span>= <span class="HindiText">इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से इस जीवने अनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्तिक शुद्धस्वरूप आत्मा को मूर्त्त पाँचों इंद्रियों के विषयों का त्याग करके ध्याना चाहिए ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> उभय | <li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> उभय बंध का मतार्थ</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/13 <span class="SanskritText">द्रव्यभावकर्मसंयुक्तत्वव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्यः ।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य-भावकर्म के संयुक्तपने का व्याख्यान आत्मा को सदामुक्त मानने वाले सदाशिववादियों के निराकरणार्थ किया गया है, ऐसा मतार्थ जानना चाहिए । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128/192 ) ( परमात्मप्रकाश टीका/1/59 ) ।<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/13 <span class="SanskritText">द्रव्यभावकर्मसंयुक्तत्वव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्यः ।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य-भावकर्म के संयुक्तपने का व्याख्यान आत्मा को सदामुक्त मानने वाले सदाशिववादियों के निराकरणार्थ किया गया है, ऐसा मतार्थ जानना चाहिए । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128/192 ) ( परमात्मप्रकाश टीका/1/59 ) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10">बंध टालने का उपाय</strong> </span><br /> | ||
समयसार/ वआ./71 <span class="SanskritText">जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं सु तइया ण बंधो से ।71। ज्ञानमात्रादेव | समयसार/ वआ./71 <span class="SanskritText">जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं सु तइया ण बंधो से ।71। ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोधः सिद्धयेत् । </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/72/ क.47 <span class="SanskritText">परपरिणतिमुज्झत् | समयसार / आत्मख्याति/72/ क.47 <span class="SanskritText">परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबंधः ।47।</span> = <span class="HindiText">जब यह जीव आत्मा का और आस्रवों का अंतरऔर भेद जानता है तब उसे बंध नहीं होता ।71। ऐसा होने पर ज्ञान मात्र से बंधका विरोध सिद्ध होता है । परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अखंड और अत्यंत प्रचंड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है । अहो ! ऐसे ज्ञान में (परद्रव्य के) कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का अवकाश कैसे हो सकता है ? तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है ?</span><br /> | ||
पं.वि,/11/48 <span class="SanskritGatha">बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं भवेत्सदात्मानम् । याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते | पं.वि,/11/48 <span class="SanskritGatha">बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं भवेत्सदात्मानम् । याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते पांथ: ।48।</span>= <span class="HindiText">जो जीव आत्मा को निरंतर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है किंतु जो उसे मुक्त देखता है, वह मुक्त हो जाता है । ठीक है पथिक जिस मार्ग से जाता है उसी मार्ग को प्राप्त हो जाता है ।48। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> कर्म | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> कर्म बंध के कारण प्रत्यय</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">कर्मबंध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम/12/4,2,4/ सू.213/505 <span class="PrakritText">जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि । ... ।213।</span> = <span class="HindiText">जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबंध स्थान हैं ।</span><br /> | |||
पं.सं.प्रा./4/513 <span class="PrakritText">जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ ।513।</span> = <span class="HindiText">जीव | पं.सं.प्रा./4/513 <span class="PrakritText">जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ ।513।</span> = <span class="HindiText">जीव प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध को योग से, तथा स्थितिबंध और अनुभागबंध को कषाय से करता है । ( सर्वार्थसिद्धि/8/3/379 पर उद्धृत) ( धवला 12/4,2,8/13/ गा. 4/289) ( राजवार्तिक 8/3/9/10/567/16,18 ) ( नयचक्र बृहद्/155 ) ( द्रव्यसंग्रह 33 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड/257/364 ) पं.सं./सं./4/965) (देखें [[ अनुभाग#2.1 | अनुभाग - 2.1]]) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,2/276/9 <span class="PrakritText">पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबंधस्स पच्चओ-होज्ज तो तिहुवणेट्ठिदकम्मइयखंधा णाणावरणीयपच्चएण अक्कमेण किण्ण परिणमंते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो । ण, तिहुवणब्भंतरकम्मइयक्खंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो ... जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्वलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा । अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होंति । ... पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दज्झं दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णत्थि । साभावियादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही) ज्ञानावरणीय (आदि) के | धवला 12/4,2,8,2/276/9 <span class="PrakritText">पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबंधस्स पच्चओ-होज्ज तो तिहुवणेट्ठिदकम्मइयखंधा णाणावरणीयपच्चएण अक्कमेण किण्ण परिणमंते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो । ण, तिहुवणब्भंतरकम्मइयक्खंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो ... जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्वलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा । अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होंति । ... पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दज्झं दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णत्थि । साभावियादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही) ज्ञानावरणीय (आदि) के बंध का कारण हैं तो तीनों लोकों में स्थित कार्मण स्कंध ज्ञानावरणीय पर्यायस्वरूप से एक साथ क्यों नहीं परिणत होते हैं, क्योंकि, उनमें कर्म योग्यता की अपेक्षा समानता है ? <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि, तीनों लोकों के भीतर स्थित कार्मण स्कंधों में देश विषयक प्रत्यासत्ति का अभाव है । <strong>प्रश्न -</strong> यदि एक क्षेत्रावगाहरूप हुए कार्मण स्कंध प्राणातिपात के निमित्त से कर्म पर्यायरूप परिणमते हैं तो समस्त लोक में स्थित जीवों के प्राणातिपात प्रत्यय के द्वारा सभी कार्मण स्कंध एक साथ ज्ञानावरणीयरूप पर्याय से परिणत हो जाने चाहिए । ... <strong>उत्तर-</strong> एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्ति के होने पर भी सब कार्मण स्कंध एक समय में ज्ञानावरणीय स्वरूप में नहीं परिणमते हैं, क्योंकि, प्राप्तईंधन आदि दाह्य वस्तु को जलाने वाली अग्नि के समान जीव में उस प्रकार की शक्ति नहीं है । <strong>प्रश्न -</strong> जीव में वैसी शक्ति न होने का कारण क्या है । <strong>उत्तर-</strong> उसमें वैसी शक्ति न होने का कारण स्वभाव ही है ।</span><br /> | ||
धवला 15/34/6 <span class="SanskritText">जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणक्खंधा अट्ठ-कम्मागारेण परिणमंति तो एगसमएण सव्वकम्मइयवग्गणक्खंधा कम्मागारेण (किं ण) परिणमंति, णियमाभावादो । ण; दव्व-खेल-काल-भावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाणं परिणामुवलंभादो । दव्वेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ एगसमएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणमंति ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययों के द्वारा कार्मण वर्गणा के | धवला 15/34/6 <span class="SanskritText">जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणक्खंधा अट्ठ-कम्मागारेण परिणमंति तो एगसमएण सव्वकम्मइयवग्गणक्खंधा कम्मागारेण (किं ण) परिणमंति, णियमाभावादो । ण; दव्व-खेल-काल-भावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाणं परिणामुवलंभादो । दव्वेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ एगसमएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणमंति ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययों के द्वारा कार्मण वर्गणा के स्कंध आठ कर्मरूप से परिणमन करते हैं,तो समस्त कार्मण वर्गणा के स्कंध एक समय में आठ कर्मरूप से क्यों नहीं परिणत हो जाते, क्योंकि, उनके परिणमन का कोई नियामक नहीं है ? = <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार नियामकों द्वारा नियम को प्राप्त हुए उक्त स्कंधों का कर्मरूप से परिणमन पाया जाता है । यथा - द्रव्य की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवों से अनंतगुणी और सिद्ध जीवों के अनंतवें भाग मात्र ही वर्गणाएँ एक समय में एक जीव के साथ कर्मस्वरूप से परिणत होती हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">एक प्रत्यय के | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">एक प्रत्यय के अनंत वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,82/278/12 <span class="PrakritText"> कधमेगो पाणादिवासो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong>प्राणातिपात रूप एक ही कारण | धवला 12/4,2,82/278/12 <span class="PrakritText"> कधमेगो पाणादिवासो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong>प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनंत कार्मण स्कंधों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारण के अनंत शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> बंध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधानता क्यों ?</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1037-1038 <span class="SanskritGatha">सर्वे जीवमया भावाः | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1037-1038 <span class="SanskritGatha">सर्वे जीवमया भावाः दृष्टांतो बंधसाधकः । एकत्र व्यापकः कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् ।1037। अथ तत्रापि केषांचित्संज्ञिनां बुद्धिपूर्वकः मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्था-कृतिसंस्थितः ।1038।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> जबकि सब ही भाव जीवमय हैं तो कहीं पर कोई एक भाव (मिथ्यात्व भाव) व्यापक रूप से बंध का साधक दृष्टांत क्यों, और कहीं पर कोई एक भाव (इतर भाव) व्याप्य रूप सेही बंध के साधक दृष्टांत क्यों ।<strong> उत्तर-</strong> उस में व्यापक रूप से बंध के साधक भावों में भी किन्हीं संज्ञी प्राणियों के वस्तु के स्वरूप को मिथ्याकारक में गृहीत रखने वाला गृहीत नामक बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व भाव पाया जाता है ।1038।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> कषाय और योग दो प्रत्ययों से | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> कषाय और योग दो प्रत्ययों से बंध में इतने भेद क्यों ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,14/290/4 <span class="PrakritText">कधं दो चेव पच्चयो अट्ठण्णं कम्माणं वत्तीसाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जंते । ण, असुद्धपज्जवट्ठिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडिविरोहाभावादो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न - </strong>उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बत्तीस | धवला 12/4,2,8,14/290/4 <span class="PrakritText">कधं दो चेव पच्चयो अट्ठण्णं कम्माणं वत्तीसाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जंते । ण, असुद्धपज्जवट्ठिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडिविरोहाभावादो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न - </strong>उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बत्तीस बंधों की कारणता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि अशुद्ध पर्यायार्थिक रूप ऋजुसूत्र नय में अनंत शक्ति युक्त एक द्रव्य के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> अविरति | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> अविरति कर्मबंध में कारण कैसे ?</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,8,3/279-281/6 <span class="PrakritText">कम्मबंधो हि णाम, सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे, ... असंतवयणं पुण ण सुहपिरणामो, णो असुहपरिणामो पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो । तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं . ... ण पाणादिवाद-पच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस्स पाण-पाणिविओगस्स कम्मबंध-हेउत्तविरोहादो । ... णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाण-पाणिवियोगो वयणकलावो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> कर्मका | धवला 12/4,2,8,3/279-281/6 <span class="PrakritText">कम्मबंधो हि णाम, सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे, ... असंतवयणं पुण ण सुहपिरणामो, णो असुहपरिणामो पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो । तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं . ... ण पाणादिवाद-पच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस्स पाण-पाणिविओगस्स कम्मबंध-हेउत्तविरोहादो । ... णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाण-पाणिवियोगो वयणकलावो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> कर्मका बंध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है । ... | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> परंतु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम हैं; क्योंकि पुद्गल के अथवा उसके परिणाम के जीव परिणाम होने का विरोध है । इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीय के बंध का कारण नहीं हो सकता । ... </li> | ||
<li class="HindiText"> इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीय का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, अन्य जीव विषयक प्राण- प्राणि वियोग के | <li class="HindiText"> इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीय का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, अन्य जीव विषयक प्राण- प्राणि वियोग के कर्मबंध में कारण होने का विरोध है ? <strong>उत्तर-</strong> प्रकृत में प्राण-प्राणि वियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बंध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव उससे अभिन्न हैं । इस कारण वे ज्ञानावरणीय बंध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं ।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना । कषाय-कलुषित जीव प्रत्येक क्षण बंध करता है । सामान्य रूप से इसके चार भेद कहे हैं― प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । यह पांच कारणों से होता है वे हैं― मिथ्यात्व, अव्रताचरण, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व के पांच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पंद्रह, कषाय के चार और योग के पंद्रह भेद होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 2.118,47.309-312, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.202-203 </span></p> | |||
<p id="2">(2) जीवों की गति का निरोधक तत्त्व-वन्य । यह अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.164 </span></p> | |||
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[[Category: पुराण-कोष]] | |||
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Revision as of 16:29, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना बंध कहलाता है । वह तीन प्रकार का है , जीवबंध, अजीवबंध और उभयबंध । संसार व धन आदि बाह्य पदार्थों के साथ जीव को बाँध देने के कारण जीव के पर्यायभूत मिथ्यात्व व रागादि प्रत्यय जीवबंध या भावबंध हैं । स्कंधनिर्माण का कारणभूत परमाणुओं का पारस्परिक बंध अजीवबंध या पुद्गलबंध है । और जीव के प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का अथवा शरीर का बंध उभयबंध या द्रव्यबंध है । इनके अतिरिक्त भी पारस्परिक संयोग से बंध के अनेक भेद किये जा सकते हैं । द्रव्य व भावबंध में भावबंध ही प्रधान हैं, क्योंकि इसके बिना कर्मों व शरीर का जीव के साथ बंध होना संभव नहीं है । मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के निरोध द्वारा द्रव्यबंध का निरोध हो जाने से जीव को मोक्ष प्रकट होता है ।
- बंध सामान्य निर्देश
- बंध सामान्य निर्देश
- बंध के भेद-प्रभेद
- वैस्रसिक व प्रायोगिक बंध के भेद
- कर्म व नोकर्म बंध के लक्षण
- जीव व अजीव बंध के लक्षण
- अनंतर व परंपरा बंध का लक्षण ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध के लक्षण ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक अजीव भावबंध ।
- बंध, अबंध व उपरतबंध के लक्षण ।
- एक सामयिक बंध को बंध नहीं कहते । - देखें स्थिति - 2.
- प्रकृति, स्थिति आदि । - देखें वह वह नाम ।
- स्थिति व अनुभागबंध की प्रधानता । -देखें स्थिति - 2.
- आस्रव व बंध में अंतर । - देखें आस्रव - 2.
- बंध के साथ भी कथंचित् संवर का अंश । - देखें संवर - 2.5 ।
- मूल-उत्तर प्रकृतियों के बंध की प्ररूपणाएँ- देखें प्रकृति बंध - 6
- सत्त्व के साथ बंध का सामानाधिकरण्य नहीं है । - देखें सत्त्व - 2 8
- बंध, उदय व सत्त्व में अंतर ।-देखें उदय - 2 8
- बंध सामान्य निर्देश
- द्रव्यबंध की सिद्धि
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- जीव व कर्म का बंध कैसे जाना जाये ।
- जीव-प्रदेशों में कर्म स्थित हैं या अस्थित ।
- जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे संभव है ।
- अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे-
- मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बंध में दृष्टांत ।
- कर्म जीव क साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर ।
- कर्मबद्ध जीव में चेतना न रहेगी ।
- जीव व शरीर का एकत्व व्यवहार से है । - देखें कारक - 2.2
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- कर्मबंध में रागादि भावबंध की प्रधानता
- द्रव्य व भाव-कर्म संबंधी । - देखें कर्म - 3 ।
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबंध होता है ।
- अज्ञान व रागादि ही वास्तव में बंध के कारण हैं ।
- ज्ञानआदि भी कथंचित् बंध के कारण हैं ।
- ज्ञान की कमी बंध का कारण नहीं, तत्सहभावी कर्म ही बंध का कारण है ।
- जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बंध करने में असमर्थ है ।
- परंतु उससे बंध सामान्य तो होता ही है ।
- भावबंध के अभाव में द्रव्यबंध नहीं होता ।
- कर्मोदय बंध का कारण नहीं, रागादि ही है ।
- रागादि बंध के कारण हैं तो बाह्य द्रव्य का निषेध क्यों ?
- द्रव्य व भाव-कर्म संबंधी । - देखें कर्म - 3 ।
- द्रव्य व भावबंध का समन्वय
- एक क्षेत्रावगाहमात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं ।
- जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु ।
- जीव व शरीर में निमित्त व नैमित्तिकपना भी कथंचित् मिथ्या है ।
- जीव व कर्मबंध केवल निमित्त की अपेक्षा है ।
- निश्चय से कर्म जीव से बँधे ही नहीं ।
- बंध-अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है ।
- जीवबंध बताने का प्रयोजन ।
- उभयबंध बताने का प्रयोजन ।
- उभयबंध का मतार्थ ।
- बंध टालने का उपाय ।
- एक क्षेत्रावगाहमात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं ।
- अनादि के कर्म कैसे कटें । - देखें मोक्ष - 6.4
- कर्मबंध के कारण प्रत्यय
- बंध के कारण प्रत्ययों का निर्देश व स्वामित्वादि । - देखें प्रत्यय ।]]
- बंध के कारण प्रत्ययों का निर्देश व स्वामित्वादि । - देखें प्रत्यय ।]]
- कर्मबंध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना ।
- प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं होता ?
- एक प्रत्यय से अनंत वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?
- बंध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधाना क्यों ?
- कषाय और योग दो प्रत्ययों से बंध में इतने भेद क्यों ?
- अविरति कर्मबंध में कारण कैसे ?
- योग में बंध के कारणपने संबंधी शंका समानधान । - देखें योग । 2
- बंध सामान्य निर्देश
- बंध-सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/1/4/10/26/3 बध्यतेऽनेन बंधनमात्रं वा बंधः ।10।
राजवार्तिक/1/4/17/26/30 बंध इव बंधः ।
राजवार्तिक/5/24/1/485/10 वघ्नाति, बध्यतेऽसौ, बध्यतेऽनेन बंधनमात्रंवा बंधः ।
राजवार्तिक/8/2/11/566/14 करणादिसाधनेष्वयं बंधशब्दो द्रष्टव्यः । तत्र करणसाधनस्तावत् - बध्यतेऽनेनात्मेति बंधः । =- जिनसे कर्म बँधे वह कर्मों का बंधना बंध है । (1/4/10) ।
- बंध की भाँति होने से बंध है । (1/4/17) ।
- जो बंधे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बंधनमात्र को बंध कहते हैं । (5/24/1) ।
- बंध शब्द करणादि साधन में देखा जाता है । करण साधन की विवक्षा में जिनके द्वारा कर्म बँधता है , वह बंध है ।
- गतिनिरोध हेतु
सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/2 अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुबंधः । = किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के कारण बंध कहते हैं ।
राजवार्तिक/7/25/1/553/16 अभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबंधहेतुः कीलादिषु रज्जवादिभिर्व्यतिषंगो बंध इत्युच्यते । = खूँटा आदि में रस्सी से इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्ट देश को गमन न कर सके, उसको बंध कहते हैं । ( चारित्रसार/8/6 ) ।
- जीव व कर्म प्रदेशों का परस्पर बंध
राजवार्तिक/1/4/17/26/29 आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशलक्षणो बंधः ।17। = कर्म प्रदेशों का आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना बंध है ।
धवला 14/5,6,1/2/3 दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम । = द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जो संयोग और समवाय है वही बंध कहलाता है । विशेष - देखें बंध - 1.5।
- निरुक्ति अर्थ
- बंध के भेद-प्रभेद
- बंध सामान्य के भेद
राजवार्तिक/1/7/14/40/5 बंधः सामान्यादेशात् एक: द्विविधः शुभाशुभभेदात्, त्रिधा द्रव्यभावोभयविकल्पात्, चतुर्धा प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदात्, पंचधा मिथ्यादर्शनादिहेतुभेदात्, षोढा नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः, सप्तधा तैरेव भवाधिकैः, अष्टधाज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पश्च भवति हेतुफलभेदात् ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 बंधो द्विविधो द्रव्यबंधो भावबंधश्चेति ।
राजवार्तिक/5/24/6/487/17 बंधोऽपि द्विधा विस्रसाप्रयोगभेदात् ।6।
राजवार्तिक/8/4/15/569/10 एकादयः संख्येया विकल्पा भवंति - शब्दतः तत्रैकस्तावत् सामान्यादेकः कर्मबंधः ... स एव पुण्यपापभेदाद् द्विविधः, ... त्रिविधो बंध: ... अनादिः सांतः, अनादिरनंतः, सादिः सांतश्चेति, भुजाकाराल्पतरावस्थितभेदाद्वा । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशाच्चतुर्विधः । द्रव्यक्षेत्रकालभवभावनिमित्तभेदात् पंचविधः । षड्जीवनिकायविकल्पात् षोडा व्यपदिश्यते । रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभहेतुभेदात् सप्ततयीं वृत्तिमनुभवति । ज्ञानावरणादिविकल्पादष्टधा । एवं संख्येया विकल्पाः शब्दतो योज्याः । च- शब्देनाध्यवसायस्थानविकल्पात् असंख्येयाः । अनंतानंतप्रदेशस्कंधपरिणामविधिरनंतः, ज्ञानावरणाद्यनुभवाविभागपरिच्छेदापेक्षया वा अनंत: । =- सामान्य से एक प्रकार है - ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ) ।
- पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/1/ तथा राजवार्तिक/8 ) । अथवा द्रव्यभाव के भेद से दो प्रकार का है - ( राजवार्तिक/2 ) । अथवा वैस्रसिक या प्रायोगिक के भेद से दो प्रकार है - ( षट्खंडागम 14/5,6/ सु. 26/28); ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ); ( राजवार्तिक/5 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- द्रव्य, भाव व उभय या जीव, पुद्गल व उभय के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/1 ), ( प्रवचनसार/177 ), ( धवला 13/5,5,82/347/7 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/46 ), अथवा अनादि सांत, अनादि-अनंत व सादि-सांत के भेद से तीन प्रकार हैं । ( राजवार्तिक/8 ),
- प्रकृति, स्थिति, अनुभव व प्रदेश के भेद से चार प्रकार हैं - (मू.आ./1221), ( तत्त्वार्थसूत्र/8/3 ), ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/89/73 ), ( द्रव्यसंग्रह/33 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/935 );
- मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के भेद से पाँच प्रकार का है । ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से पाँच प्रकार है । ( राजवार्तिक/8 ) ।
- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेद से छह प्रकार हैं - ( राजवार्तिक/8 ) ।
- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से सात प्रकार है- ( राजवार्तिक/1 ) । अथवा राग, द्वेष मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सात प्रकार है - ( राजवार्तिक/8 ) ।
- ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियों के भेद से आठ प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 ), (प्रकृति बंध/1) ।
- वाचक शब्दों की अपेक्षा संख्यात; अध्यवसाय स्थानों की अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्म प्रदेशों की अथवा कर्मों के अनुभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनंत प्रकार है । ( राजवार्तिक/1 तथा राजवार्तिक/8 )
- नोआगम द्रव्यबंध के भेद
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो णो आगमदो दव्वबंधो सो दुविहो- पओअबंधो चेव विस्ससाबंधो चेव (26/28) । जो सो विस्ससाबंधो णाम सो दुविहो- सादियविस्ससाबंधो चेव अणादियविस्ससाबंधो चेव (28/28) ।जो सो थप्पो पओअबंधो णाम सो दुविहो- कम्मबंधो चेव णोकम्मबंधो - चेव (38/36) । जो सो णोकम्मबंधो णाम सो पंचविहो-आलावबंधो अल्लीवणबंधो संसिलेसबंधो सरीरबंदो सरीरिबंधो चेदि (40/37) । जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो-ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीबंधो आहारसरीबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधो चेदि (44/41) . जो सो सरीरिबंधो णाम सो दुविहो - सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरिबंधो चेव (61/44) । जो सो थप्पोकम्मबंधो णाम यथा कम्मेत्ति तहा णेदव्वं (64/46) ।- नोआगम द्रव्यबंध दो प्रकार का है - प्रायोगिक व वैस्रसिक ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 ), ( राजवार्तिक/5/24/6/487/17 ); ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- वैस्रसिक दो प्रकार का है — सादी व अनादी । ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) ।
- प्रायोगिक दो प्रकार का है — कर्म व नोकर्म ( सर्वार्थसिद्धि 5/24/295/10 ), ( राजवार्तिक 5/24/9/487/34 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- नोकर्म बंध पाँच प्रकार का है - आलापन, अल्ललीवन, संश्लेष, शरीर व शरीरी ( राजवार्तिक/5/24/9/487/35 ) ।
- शरीरबंध पाँच प्रकार है - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस व कार्मण ( राजवार्तिक/5/24/9/488/3 ), (विशेष - देखें शरीर ) ।
- शरीरबंध दो प्रकार है - सादि व अनादि ( राजवार्तिक/5/24/9/488/14 ) ।
- कर्मबंध कर्म अनुयोग द्वारवत् जानना अर्थात् ज्ञानावरणादिरूप मूल व उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा अनेक भेद-प्रभेदरूप है ।( राजवार्तिक/5/24/9/487/34 ), (विशेष - देखें प्रकृतिबंध - 1) ।
- नोआगम भावबंध के भेद
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो णोआगमदो भावबंधो णाम सो दुविहो-जीवभावबंधो चेव अजीवभावबंधो चेव (13/9) ।जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो - विवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो जीवभाव-बंधो चेव (14/9) । जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहो-उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव (16/12) । जो सो अजीवभावबंधो णाम सो तिविहो विवागपच्चइयो अजीवभावबंदो चेव अविवागपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव (2/220) । =- नो आगम भावबंध दो प्रकार का है - जीव भावबंध और अजीव भावबंध (13/9) ।
- जीव भावबंध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध, अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध, और तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबंध (14/9) ।
- अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध दो प्रकार का है — औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध और क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध (16/12) ।
- अजीव भावबंध तीन प्रकार का है - विपाक प्रत्ययिक अजीवभाबवंध, अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध और तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध (20/12) ।
- बंध सामान्य के भेद
- वैस्रसिक व प्रायोगिक बंध के लक्षण
- वैस्रसिक व प्रायोगिक सामान्य
सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/7 पुरुषप्रयोगानपेक्षो वैस्रसिकः । .... पुरुषप्रयोग-निमित्तः प्रायोगिकः । = पुरुषप्रयोग से निरपेक्ष वैस्रसिक है और पुरुषप्रयोग सापेक्ष प्रायोगिक । ( राजवार्तिक/5/24/8-9/487/30 ), ( धवला 14/5,6/38/37/1 ), ( तत्त्वसार/3/67 ) ।
- सादि-अनादि वैस्रसिक
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र नं./पृष्ठ नं. जो सो अणादियविस्ससाबंधो णाम सो तिविहो- धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि (3/29) । जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो (32/30) । से तं बंधणपरिणामं पप्प से अव्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उडुं पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अमंगलप्पहुडीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्वो सादियविस्ससाबंधो णाम (37/34) । = अनादि वैस्रसिक बंध तीन प्रकार का है - धर्म, अधर्म तथा आकाश (30/29) । इनके अतिरिक्त इनके भी तीन-तीन प्रकार हैं - सामान्य, देश व प्रदेश में परस्पर बंध । स्निग्ध, रूक्ष गुण के कारण पुद्गल परमाणु में बंध सादि वैस्रसिक है (32/30) वे पुद्गल बंधन को प्राप्त होकर विविध प्रकार के अभ्ररूप से, मेघ, संध्या, बिजली, उल्का, कनक, दिशादाह, धूमकेतु, इंद्रधनुष रूप से, तथा क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गल के अनुसार जो बंधन परिणामरुप से परिणत होते हैं, तथा इनको लेकर अन्य जो अमंगलप्रभृति बंधन परिणामरूप से परिणत होते हैं, वह सब सादि विस्रसाबंध हैं । (37/34), ( राजवार्तिक/5/24/7/487/19 ) ।
राजवार्तिक/5/24/7/487/25 कालाणूनामपि सततं परस्परविश्लेषाभावात् अनादिः । = इसी प्रकार काल, द्रव्य आदि में भी बंध अनादि है ।
- वैस्रसिक व प्रायोगिक सामान्य
- कर्म व नोकर्मबंध के लक्षण
- कर्म व नोकर्म सामान्य
राजवार्तिक/5/24/9/487/34 कर्मबंधो ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः । नोकर्मबंधः औदारिकादिविषयः । = ज्ञानावरणादि कर्मबंध है - विशेष देखें [[ ]]प्रकृतिबंध 1/2। और औदारिकादि नोकर्मबंध है । विशेष देखें शरीर ।
राजवार्तिक/8/ भूमिका/561/5 मातापितृपुत्रस्नेहसंबंधः नोकर्मबंधः । = माता, पिता, पुत्र आदि का स्नेह संबंध नोकर्म बंध है ।
देखें आगे बं धवला - 2.5.3 (जीव व पुद्गल उभयबंध भी कर्मबंध कहलाता है ।)
- आलापन आदि नोकर्म बंध
षट्खंडागम 14/5, 6/ सू. 41-63/38-46 जो सो आलावणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - सेसगहाणं वा जावाणं वा जुगाणं वा गड्डीणं वा गिल्लीणं वा रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पासादाणं वा गोवुराणं वा तोरणाणं वा से कट्ठेण वा लोहेण या रज्जुणा वा वब्भेण वा दब्भेण वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि आलावियाणं बंधो होदि सो सव्वो आलावणबंधो णाम ।41। जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो - से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लोवणबंधोणाम ।42। जो सो संसिलेसबंधो णाम तस्स इमोणिद्देसो-जहा कट्ठ-जदणं अण्णोण्णसं सिलेसिदाणं बंधो संभवदि सो सव्वो संसिलेसबंधो णाम ।43। जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो - ओरालियसरीरबंधो वेउव्वियसरीरबंधो आहारसरीरबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधोचेदि ।44। ओरालिय-ओरालिय- सरीरबंधो ।45। ओरालिय-तेयासरीरबंधो ।46। ओरालिय-कम्मइय- सरीरबंधो ।47। ओरालिय-तेयाकंभइयसरीरबंधो । 48। वेउव्विय-वेउव्वियसरीरबंधो ।49। वेउव्विय-तेयासरीरबंधो ।50। वेउव्विय-कम्मइयसरीरबंधो ।51। वेउव्विय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।52। आहार-आहारसरीरबंधो ।53। आहार-तेयासरीरबंधो ।54 । आहार- कम्मइयसरीरबंधो ।55। आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।56। तेयातेयासरीरबंधो ।57। तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।58। कम्मइय-कम्मइय- सरीरबंधो ।59। सो सव्वो सरीरबंधो णाम ।60। जो सो सरीरिबंधो णामसो दुविहो-सादियसरीरिबंधो चेव अणादियसरीरबंधो चेव ।61। जो सो सादियसरीरिबंधो णाम सो जहा सरीरबंधो तहा णेदव्वो ।62। जो अणादियसरीरिबंधो णामयथा अट्ठण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सव्वो अणादियसरीरिबंधो णाम ।63। (इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तसंहरणविसर्पणस्वभावत्वादादिमान् । राजवार्तिक ) । =- जो आलापनबंध है उसका यह निर्देश है - जो शकटों का, यानों का, युगों का, गड्डियों का, गिल्लियों का, रथों का, स्यंदनों का, शिविकाओं, गृहों, प्रासादों, गोपुरों और तोरणों का काष्ट से, लोह, रस्सी, चमड़े की रस्सी और दर्भ से जो बंध होता है तथा इनसे लेकर अन्य द्रव्यों से लालापित अन्य द्रव्यों का जो बंध होता है वह सब आलापनबंध है ।41।
- जो अल्लीवणबंध है उसका यह निर्देश है - कटकों का, कुंडों, गोबरपीड़ों, प्राकारों और शाटिकाओं का तथा इनसे लेकर और जो दूसरे पदार्थ हैं उनका जो बंध होता है अर्थात् अन्य 4द्रव्यद से संबंध को प्राप्त हुए अन्य का जो बंध होता है वह सब अल्लीवणबंध है ।42।
- जो संश्लेषबंध है उसका यह निर्देश है - जैसे परस्पर संश्लेष को प्राप्त हुए काष्ठ और लाख का बंध होता है वह सब संश्लेषबंध है । 43। - विशेष देखें श्लेष ।
- जो शरीरबंध है वह पाँच प्रकार का है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरबंध ।44। औदारिक - औदारिक शरीरबंध ।45। औदारिक-तैजसशरीरबंध ।46। औदारिक-कार्मण शरीरबंध ।47. औदारिक-तैजस-कार्मण शरीरबंध।48। वैक्रियिक-वैक्रियिक शरीरबंध ।49। वैक्रियिक-तैजस शरीरबंध ।50। वैक्रियिक-कार्मण शरीरबंध ।51। वैक्रियिक-तैजस-कार्मण शरीरबंध ।52। आहारक-आहारक शरीरबंध ।53। आहारकतैजस शरीरबंध ।54। आहारक-कार्मण शरीरबंध ।55। आहारक-तैजस-कार्मण शरीरबंध ।56। तैजस-तैजस शरीरबंध ।57। तैजस-कार्मण शरीरबंध ।58। कार्मण-कार्मण शरीरबंध ।59। वह सब शरीरबंध है ।60।
- जो शरीरिबंध है वह दो प्रकार का है - सादि शरीरिबंध और अनादि शरीरिबंध ।62। जो सादि शरीरिबंध है - वह शरीरबंध के समान जानना चाहिए ।62। जो अनादि शरीरिबंध है । यथा - जीव के आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेश-बंध होता है यह सब अनादि शरीरिबंध है ।63। (जीव के इतर प्रदेशों का बंध सादि शरीरिबंद है राजवार्तिक ), ( राजवार्तिक/5/24/9/488/36 ) ।
- कर्म व नोकर्म सामान्य
- जीव व अजीवबंध के कारण
- जीव बंध सामान्य
धवला 13/5 .5,82/347/8,11 एगसरीरट्ठिदाणमणंताणंताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो ... (तथा) जेण कम्मेण जीवा अणंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो णाम । = एक शरीर में स्थित अनंतानंत निगोद जीव तथा जिस कर्म के कारण वे इस प्रकार रहते हैं, वह कर्म भी जीवबंध है ।
- भावबंधरूप जीवबंध
प्रवचनसार/175 उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदिवा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ।175। = जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा बंधरूप है ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/24 क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबंधः । = क्रोधादि परिणाम भावबंध है ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/9 बध्यंते अस्वतंत्रीक्रियंते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स बंधः । = कर्म को परतंत्र करने वाले आत्मपरिणामों का नाम बंध-भावबंध है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176-177 येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबंधः ।176। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबंधः ।177। = जिस मोह-राग वा द्वेषरूप भाव से देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है, यह तो उपराग है यह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है ।176। जीव का औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्याय के साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीवबंध है ।
द्रव्यसंग्रह 32 वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो ।32। = जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबंध है ।32।
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबंधो भण्यते । = मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध चेतन भावस्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं वह परिणाम भावबंध कहलाता है ।
- द्रव्यबंधरूप जीवपुद्गल उभयबंध
तत्त्वार्थसूत्र/8/2 सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः ।2। = कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है ।2।
सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/4 आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीव: । = आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना अजीव बंध है । ( राजवार्तिक/1/4/17/26/29 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/11 अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनंतानंतप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यनामविभागेनोपश्लेषो बंध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषाय- वशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः । = मिथ्यादर्शनादि के अभिनिवेश द्वारा गीले किये गये आत्मा के सब अवस्थाओं में योग विशेष से उन सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाही अनंतानंत कर्मभाव को प्राप्त होने योग्य पुद्गलों का उपश्लेष होना बंध है । यह कहा गया है । जिस प्रकार पात्र विशेष में प्रक्षिप्त हुए विविध रसवाले बीज, फूल और फलों का मदिरा रूप से परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलोंका भी योग और कषाय के निमित्त से कर्मरूप से परिणमन जानना चाहिए । ( राजवार्तिक/8/2/8-0/566/5 ); ( कषायपाहुड़/1/13,14/250-291/4 ) ( धवला 13/5,5,82/347/13 ); ( द्रव्यसंग्रह व.टी./32); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/2 ) ।
नयचक्र बृहद्/154 अप्पपएसामुत्ता पुग्गलसत्ती तहाविहा णेया । अण्णोण्णं मिल्लंता बंधो खलु होइ निद्धाइ ।154। = आत्म प्रदेश और पुद्गल का अन्योन्य मिलन बंध है (जीव बंध है कार्तिकेयानुप्रेक्षा ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/203 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/28/85/11 ) ।
धवला 13/5,5,82/347/10 ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बंधो सो जीवपोग्गलबंधो णाम । = औदारिक - वैक्रियक-आहारक- तैजस और कार्मण वर्गणाएँ ; इनका और जीवों का जो बंध है वह जीव-पुद्गल बंध है ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/10 बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म बंधः । = स्थिति परिणत जिस कर्म के द्वारा आत्मा परतंत्र किया जाता है वह कर्म ‘बंध’ है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 य: पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह: स तदुभयबंधः । = जीव और कर्मपुद्गल के परस्पर परिणाम के निमित्त मात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/47 ) ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/438/591/14 मिथ्यात्वादिपरिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबंधो बंधः । = मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादिरूप परिणमित होकर ज्ञानादि को आवरण करता है । इनका यह संबंध है सो बंध है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/104 जीवकर्मोभयो बंधः स्यान्मिथः साभिलाषुकः । जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ।104। = जो जीव और कर्म का परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा से बंध होता है, वह उभयबंध कहलाता है क्योंकि जीव कर्म से बँधा हुआ है तथा वह कर्म जीव से बँधा हुआ है ।
- जीव बंध सामान्य
- अनंतर व परंपराबंध का लक्षण
धवला 12/4,2,12,1/370/7 कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा । कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपच्चएण परिणयत्तादो । ... बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ... पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंधो, चेव, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपरंपरा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दट्ठव्वा ।
धवला 12/4,2,12,4/372/2 णाणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणंता णिरंतरमण्मोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिट्ठा ते अणंतरबंधा णाम । ... अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदूण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । =- कार्मणवर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल स्कंधों का मिथ्यात्वादिक प्रत्ययकों के द्वारा कर्मस्वरूप से परिणत होने के प्रथम समय में जो बंध होता है उसे अंतरबंध कहते हैं । ... चूँकि वे कार्मण-वर्गणारूप पर्याय को छोड़ने के अनंतर समय में ही कर्मरूप पर्याय से परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनंतरबंध संज्ञा है । ... बंध होने के द्वितीय समय से लेकर कर्म रूप पुद्गल स्कंधों और जीवप्रदेशों का जो बंध होता है उसे परंपरा बंध कहते हैं । ... प्रथम समय में बंध हुआ, द्वितीय समय में भी उन पुद्गलों का बंध ही है, तृतीय समय में भी बंध ही है, इस प्रकार से बंध की निरंतरता का नाम बंध-परंपरा है । उस परंपरा से होने वाले बंधों को परंपरा-बंध समझना चाहिए ।
- जो अनंतानंत ज्ञानावरणीय कर्मरूप स्कंध निरंतर परस्पर में संबद्ध होकर स्थित हैं वे अनंतर बंध हैं ।... जो अनंतानंत कर्म-पुद्गल स्कंध परस्पर में संबद्ध होकर शेषकर्म संबद्धों से असंबद्ध होते हुए जीव के द्वारा इतर स्कंधों से संबंध को प्राप्त होते हैं, वे परंपरा बंध कहे जाते हैं ।
- विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध के लक्षण
धवला 14/5,6,14/10/2 कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविवागो णाम । कम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिदं होदि । अविवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । कम्माणुदय-उदीरणाहिंतो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । = कर्मों के उदय और उदीरणाको विपाक कहते है; और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे विपाक प्रत्ययिक जीवभावबंध कहते हैं (अर्थात् जीव के औदयिक भाव देखें उदय - 9) । कर्मों के उदय और उदीरणा के अभाव को अविपाक कहते हैं । कर्मों के उपशम और क्षय को अविपाक कहते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अविपाक जिस भाव का प्रत्यय है उसे अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध कहते हैं । (अर्थात् जीव के औपशमिक व क्षायिक भाव (देखें उपशम - 6) । कर्मों के उदय और उदीरणा से तथा इनके उपशम से जो भाव उत्पन्न होता है, उसे तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबंध कहते हैं । (अर्थात् जीव के क्षायोपशमिक भाव - देखें क्षायोपशम - 2.3) ।
- विपाक अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध
षट्खंडागम 14/5,6/ सू. 21-23/23-26 - पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा सद्दा पओगपरिणदा गंधा पओगपरिणदा रसा पओगपरिणदा फासा पओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा खंधदेसा पओगपरिणदा खंधपदेशा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसंजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीव भावबंधो णाम ।21। ... जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।22। ... जे चामण्णे एवमादिया पओअविस्ससापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।23।
धवला 14/5,6,20/22/13 मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगेहिंतो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसिं विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणेहि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । =- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से या पुरुष के प्रयत्न से जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं उनकी विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध संज्ञा है । जैसे प्रयोगपरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गंध, प्रयोगपरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति, प्रयोगपरिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कंध, प्रयोगपरिणत-स्कंधदेश और प्रयोग परिणत स्कंधप्रदेश; ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव होते हैं वह सब विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध हैं ।21.
- जोअजीव भाव मिथ्यात्व आदि कारणों के बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविवाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध यह संज्ञा है । जैसे पूर्व कथित वर्ण, गंध आदि से लेकर इसी प्रकार के विस्रसापरिणत जो दूसरे संयुक्त भाव हैं वह अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबंध है ।22।
- जो दोनों ही कारणों से उत्पन्न होते हैं उनको तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध यह संज्ञा है । यथा पूर्व कथित ही वर्ण-गंध आदि से लेकर प्रयोग और विस्रसा दोनों से परिणत जितने भी संयुक्त भाव हैं वह सब तदुभय प्रत्ययिक अजीवभावबंध हैं ।
- बंध, अबंध व उपरतबंध के लक्षण
गो.कं./भाषा/644/838 वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव संबंधी आगामी आयु का बंध होई ... तहाँ बंध कहिये जो आगामी आयु का अतीतकाल विषै बंधन भया, वर्तमान काल विषै भी न हो है ... तहाँ अबंध कहिये । जहाँ आगामी आयु का पूर्व बंध भया हो और वर्तमान काल विषै बंध न होता हो ... तहाँ उपरतबंध कहिये ।
- बंध-सामान्य का लक्षण
- द्रव्यबंध की सिद्धि
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
धवला 9/4,1,63/270/5 कधं सरीरादो सरीरी अभिण्णो । सरीरदाहे जीवे दाहोपलंभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवलंभादो सरीरागरिसणे जीवागरिसणदंसणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमणदंसणादो, पडियारखंडयाणं व दोण्णं भेदाणुवलंभादो, एगीभूददुद्धोदयं व एगत्तेणुवलंभादो । = प्रश्न - शरीर से शरीरधारी जीव अभिन्न कैसे है । उत्तर- चूँकि शरीर का दाह होने पर जीव में दाह पाया जाता है, शरीर के भेदे जाने और छेदे जाने पर जीव में वेदना पायी जाती है, शरीर के खींचने में जीव का आकर्षण देखा जाता है, शरीर के गमनागमन में जीव का गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और खंडक (तलवार) के समान दोनों में भेद नहीं पाया जाता है । तथा एकरूप हुए दूध और पानी के समान दोनों एकरूप से पाये जाते हैं । इस कारण शरीर से शरीरधारी अभिन्न है ।
- जीव व कर्म का बंध कैसे जाना जाये ?
कषायपाहुड़ 1/1,1/40/57/7 तं च जीवसंबद्धं चेव । तं कुदो णव्वदे । मुत्तेण सरीरेण कम्मकज्जेण जीवस्स संवंधण्णहाणुववत्तीदो ... । ण च संबंधो; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंभादो । ... जीवे गच्छंते ण सरीरेण गंतव्वं,... जीवे रुट्ठे कंप... पुलउग्गमधम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज ... सव्वेसिं जीवाणं केवलणाण ...सम्मत्तादओ होज्ज; ... सिद्धाणं वा तदो चेव अणंतणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एवं ; तहाणब्भुवगमादो । = प्रश्न - कर्म जीव से संबद्ध ही है यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर-- यदि कर्म को जीव से संबद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्यरूप मूर्त शरीर से जीव का संबंध नहीं बन सकता है, इस अन्यथानुपपत्ति से प्रतीत होता है कि कर्म जीव से संबद्ध ही है ।
- शरीरादि के साथ जीव का संबंध नहीं है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के छेदे जाने पर जीव को दुःख की उपलब्धि होती है ।
- .. जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।
- ... जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कंप, दाह .. पसीना आदि कार्य नहीं होने चाहिए .
- ... जीव की इच्छा से शरीर का गमन .. सिर और अंगुलियों का संचालन नहीं होना चाहिए ।
- संपूर्ण जीवों के केवलज्ञान ... सम्यक्त्वादि गुण हो जाने चाहिए ।
- ... या सिद्धों के भी (यह केवलज्ञानादि गुण) नहीं होने चाहिए ।
- यदि कहा जाये कि अनंताज्ञानादि गुण सिद्धों के नहीं होते हैं तो मत होओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माना नहीं गया है ।
- जीवप्रदेशों में कर्म स्थित हैं या अस्थित
धवला 12/4,2,11,1/364/6 जदि कम्मपदेसा ट्ठिदा चेव होंति तो जीवेण देसंतरगदेण सिद्धसमासेण होदव्वं । कुदो । सयलकम्माभावादो ।
धवला 12/4,2,11,2/365/7 जीवपदेसेसु ट्ठिदअद्दजलं व संचरंतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाणं पि संचरणुवलंभादो । जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा ट्ठिदा चेव, पुव्विल्लदेसं मोत्तूण देसंतरे ट्ठिदजीवपदेसेसु समवेदकम्मक्खंधुवलंभादो ।
धवला 12/4,2,11,3/366/5 छदुमत्थस्स जीवपदेसाणं केसिं पि चलणा-भावादो तत्थ ट्ठिदकम्मखंधावि ट्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ट्ठिदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अट्ठिदा त्ति भण्णंति । = प्रश्न - (जीव प्रदेश में समवाय को प्राप्त कर्म प्रदेश स्थित हैं कि अस्थित) उत्तर-- यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हों तो देशांतर को प्राप्त हुए जीव को सिद्ध जीव के समान हो जाना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके समस्त कर्मों का अभाव है ।
- मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है । परंतु जीव प्रदेशों मे कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि, जीव प्रदेशों के पूर्व के देश को छोड़कर देशांतर में जाकर स्थित होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्म स्कंध पाये जाते हैं । ... इससे जाना जाता है कि जीवप्रदेशों के देशांतर को प्राप्त होने पर उनमें कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं ।
- छद्मस्थ के किन्हीं जीव प्रदेशों का चूँकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं । तथा उसी छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूँकि संचार पाया जाता है अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं ।
- जीव के साथ कर्मों का गमन कैसे संभव है ?
धवला 12/4,2,11,1/364/4 कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे । ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहाभावादो ।
धवला 12/4,2,11, 2/365/11 अट्ठण्हं म ज्झमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अट्ठिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होंति त्ति सुत्त-वयणं ण घडदे । ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो । = प्रश्न - जीव प्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मों का गमन कैसे संभव है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग के कारण जीवप्रदेशों का संचरण होने पर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कंधों के भी संचार में कोई विरोध नहीं आता । प्रश्न -यतः जीव के आठ मध्यप्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थितपना नहीं बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्र वचन घटित नहीं होता । उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीव के उन आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर शेष जीव प्रदेशों का आश्रय करके इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है ।
- अमूर्त जीव से मूर्त कर्म कैसे बँधे ?
- क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है
सर्वार्थसिद्धि/2,7/161/9 न चामूर्ते: कर्मणां बंधो युज्यत इति । तन्न; अनेकांतात् । नायमेकांतः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबंधपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्तः । = प्रश्न - अमूर्त आत्मा के कर्मों का बंध नहीं बनता है ? उत्तर- आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकांत है । यह कोई एकांत नहीं कि आत्मा अमूर्ति ही है । कर्म बंधरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । ( तत्त्वसार/5/16 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/27 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/1 ) ।
धवला 13/5,3,12/11/9 जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो । ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणमसुत्तत्ताभावादो । जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्त- मल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो । = प्रश्न - जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है । इनका एकमेक संबंध कैसे हो सकता है ?उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसारअवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता । = प्रश्न - यदि संसारअवस्था में जीव मूर्त हैं, तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव में मूर्तत्व का कारण कर्म है अत: कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तत्व का भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है । ( योगसार (अमितगति)/4/35 ) ।
धवला 13/5,5,63/333/6 मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो । = क्योंकि संसारी जीव मूर्तआठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बंधन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । ( धवला 15/32/8 ) ।
धवला 15/33-34/1 ण च वट्टमाणबंधघडावणट्ठं जीवस्स वि रूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, .... - मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा जीवादो अपुधभूदा कम्मइयवग्गणक्खंधाणं तत्तो पुधभूदाणं कधं परिणामांतरं संपादेंति । ण एस दोसो, ... वुत्तं च - राग- द्वेषाद्यूष्मासयोग-वर्त्यात्मदीप आवर्ते । स्कंधानादाय पुनः परिणमयति तांश्च कर्मतया ।18। = प्रश्न - वर्तमान बंध को घटित कराने के लिए पुद्गल के समान जीव को भी रूपी कहना योग्य नहीं है ... तथा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये जीव से अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणा के स्कंधों- के परिणामांतर (रूपित्व) को कैसे उत्पन्न करा सकते हैं ?उत्तर- यह कोई दोष नहीं है । ... कहा भी है - संसार में रागद्वेषरूपी उष्णता से संयुक्त यह आत्मारूपी दीपक योगरूप बत्ती के द्वारा (कार्मण वर्गणा के) स्कंधों (रूप तेल) को ग्रहण करके फिर उन्हें कर्मरूपी (कज्जल) स्वरूप से परिणमाता है ।
देखें मूर्त - 9-10 (कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथंचित् मूर्त हैं ।)
- जीव कर्मबंध अनादि है
सर्वार्थसिद्धि/8/2/377/4 कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति - ‘कर्मणः’ इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतोर्जीवः सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो जीवकर्मणोरनादिसंबंध इत्युक्तं भवति । तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृतं भवति । इतरथा हि बंधस्यादिमत्त्वे आत्यंतिकीं शुद्धिं दधतः सिद्धस्येव बंधाभाव: प्रसज्येत । =‘कर्मणो जीवः सकषायो भवति’ यह एक वाक्य है । इसका अभिप्राय है कि ‘कर्मण:’ यह हेतुपरक निर्देश है । जिसका अर्थ है कि कर्म के कारण जीव कषायसहित होता है, कषायरहित जीव के कषाय का लेप नहीं होता । इससे जीव और कर्मका अनादि संबंध है यह कथन निष्पन्न होता है । और इससे अमूर्त जीव मूर्त कर्म के साथ कैसे बँधता है इस प्रश्न का निराकरण हो जाता है । अन्यथा बंधको सादि मानने पर आत्यंतिक शुद्धि को धारण करने वाले सिद्ध जीव के समान संसारी जीव के बंध का अभाव प्राप्त होता है । ( राजवार्तिक/8/2/4/565/22 ); ( कषायपाहुड़ 1/1,1/41/59/3 ); ( तत्त्वसार/5/17-18 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/4 ) ।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/59 जीवहें कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण ।59।= हे आत्मा ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं, उस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मों ने भी जीव नहीं उपजाया, क्योंकि जीव और कर्म इन दोनों का ही आदि नहीं है, किंतु अनादि के हैं ।59।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/134 अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्त- रागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैमूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बंधप्रकारः । एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथंचिट्बंधो न विरुध्यते ।134। = निश्चय से अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त कर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि परिणाम के द्वारा स्निग्ध वर्तता है, मूर्तकर्मों को विशिष्ट रूप से अवगाहता है, और उस परिणाम के निमित्त से अपने परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे मूर्त कर्म भी जीव को विशिष्ट रूप से अवगाहते हैं । यह जीव और मूर्तकर्म का अन्योन्य अवगाहस्वरूप बंध प्रकार है । इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीव का भी मूर्त पुण्य-पाप के साथ कथंचित् बंध विरोध को प्राप्त नहीं होता ।134।
गोम्मटसार कर्मकांड/2/3 ... जीवंगाणं अणाइ संबंधो । कणयोवलेमलं वा ताण-त्थित्तं सयं सिद्धं ।2। = जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, तथापि इनका संबंध अनादि है, नये नहीं मिले हैं । उसी प्रकार जीव और कर्म का संबंध भी अनादि हैं ।2। इनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 55 तथानादिः स्वतो बंधो जीवपुद्गलकर्मणोः । कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोऽयं व्योमपुष्पवत् ।55। = जीव और पुद्गल स्वरूप कर्म का बंध स्वयं अनादि है इसलिए किस कारण से हुआ, किसने किया तथा कहाँ हुआ, यह प्रश्न आकाश के फूल की तरह व्यर्थ है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/6,9-70 ) ।
- क्योंकि जीव भी कथंचित् मूर्त है
- मूर्त कर्म व अमूर्त जीव के बंध में दृष्टांत
प्रवचनसार व त.प्र./174 उत्थानिका - अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बंधो भवतीति सिद्धांतयति- रूवादिएहिंरहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।174। ... दृष्टांतद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवदं बलीवदं व पश्यतो जान- तश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबंधः, विषयबावावस्थितबलीवर्दनि- मित्तोपयोगाधिरूढवलबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबंध- व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंधः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गल- निमित्तोपयोगाधिरूढ़रागद्वेषादिभावसंबंधः कर्मपुद्गलबंधव्यव- हारसाधकस्त्वस्त्येव । = अब यह सिद्धांत निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बंध होता है - जैसे रूपादि रहित (जीव) रूपादिक द्रव्यों को तथा गुणों को देखता है और जानता है, उसी प्रकार उसके साथ बंध जानो ।174। ... आबाल-गोपाल सभी को प्रगट हो जाय इसलिए दृष्टांत द्वारा समझाया गया है । यथा- बाल-गोपाल का पृथक् रहने वाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषय रूप से रहने वाले बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगरूढ़ वृषभाकार दर्शन ज्ञान के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंद रूप व्यवहार का साधक अवश्य है । इसी प्रकार आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्श शून्य है । इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाह रूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ़ राग द्वेषादि भावों के साथ का संबंध कर्मपुदगलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
- कर्म जीव के साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर
धवला 12/4,2,8,2/277/11 कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा । णादिपक्खो ... णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । ... ण विदिओ वि पक्खो जुज्जदे, जीवे असमवेदाणं कम्मइयक्खंधाण णाणावरणीयसरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाए अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वेहि संबंधाभावादो । ण च एवं, जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आगमणप्पसंगादो, जीवादोपुधभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, ... एत्त परिहारो वुच्चदे - जीव समवेद-काले चेव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीयसरूवेण परिणमंति (त्ति) ण पुव्वुत्तदोसा ढुक्कंति । = प्रश्न - कार्मणस्कंध क्याजीव में समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्याय रूप से परिणमते हैं , अथवा असमवेत होकर ?- प्रथम पक्ष तो संभव नहीं है, क्योंकि ... नोकर्म से भिन्न और कर्मस्वरूप से अपरिणत हुआ कार्मणस्कंध जीव में समवेत नहीं पाया जाता । ...
- दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीव में असमवेत कार्मणस्कंधों के ज्ञानावरणीय स्वरूप से परिणत होने का विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो संसार अवस्था- में जीव को अमूर्त होना चाहिए, क्योंकि, मूर्त द्रव्यों से उसका कोई संबंध नहीं है । परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीव के गमन करने पर शरीर का संबंध न रहने से उसके गमन न करने का प्रसंग आता है । दूसरे, जीव से शरीर पृथक् है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनों का संबंध होता है, ऐसा भी संभव नहीं है । उत्तर- जीव से समवेत होने के समय में ही कार्मणस्कंध ज्ञानावरणीय स्वरूप से नहीं परिणमते हैं । अतएव पूर्वोक्त दोष यहाँ नहीं ढूँकते ।
- कर्मबद्ध जीव में चेतनता न रहेगी
धवला 12/4,2,9,6/297/2 णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण भट्ठसगसरूवस्स कधं जीवत्तं जुज्जदे । ण, अविणट्ठणाण-दंसणणाणमुवलंभेण जीवत्थित्तसिद्धीदो । ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अत्थि, पहाणीकय- जीवभावादो । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वितत्तो तेसिमभेदुवलंभादो । = प्रश्न - चेतनारहित मूर्त पुद्गल स्कंधों के साथ समवाय होने के कारण अपने स्वरूप (चैतन्य व अमूर्तत्व) से रहित हुए जीव के जीवत्व स्वीकार करना कैसे युक्ति- युक्त है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुए ज्ञान-दर्शन के पाये जाने से उसमें जीवत्वका अस्तित्व सिद्ध है । वस्तुतः उसमें पुद्गल स्कंध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीवभाव की प्रधानता की गयी है । दूसरे, जीव में पुद्गल स्कंधों का प्रवेश बुद्धिपूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थतः भी उससे उनका अभेद पाया जाता है ।
- बंधपदार्थ की क्या प्रामाणिकता ?
सर्वार्थसिद्धि/8/26/405/3 एवं व्याख्यातो सप्रपंचः बंधपदार्थः । अवधि-मनःपर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः । = इस प्रकार विस्तार से बंधपदार्थ का व्याख्यान किया । यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगम से अनुमेय है ।
- विस्रसोपचय रूप से स्थित वर्गणाएँ ही बँधती हैं
तत्त्वार्थसूत्र/8/28 नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24। = कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रतिसमय योग परमाणु योग विशेष से सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंतपुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेश में (संबंध को प्राप्त) होते हैं ।
प्रवचनसार 168, 170 ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।168। ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायंते देहा देहंतर-संकमं पप्पा ।170। = लोक सर्वतः सूक्ष्म तथा बादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्कंधों के द्वारा (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है ।168। (इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिंडों का लानेवाला आत्मा नहीं है । ( प्रवचनसार/ टी./168) कर्मरूप परिणत वे वे पुद्गलपिंड देहांतररूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः-पुनः जीव के शरीर होते हैं ।
- शरीर से शरीरधारी अभिन्न कैसे है ?
- कर्म बंध में रागादि भाव बंध की प्रधानता
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबंध होता है
राजवार्तिक/3/37/2/205/4 द्रव्य-भव-क्षेत्र- कालभावापेक्षत्वात् कर्मबंधस्य । = द्रव्य, भव, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से कर्म का बंध होता है ।
- अज्ञान व राग आदि ही वास्तव में बंध के कारण हैं
- अज्ञान
समयसार/153 उत्थानिका - अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबंधहेतू नियमयति- वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।153। = ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है और अज्ञान ही बंध का हेतु है यह नियम है - व्रत नियम को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य हैं वे निर्वाणको प्राप्त नहीं होते । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1035 ) ।
समयसार / आत्मख्याति/311/ क. 195 तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ।195। = इस जगत् में प्रकृतियों के साथ यह (प्रगट) बंध होता है, सो वास्तव में अज्ञान की कोई गहन महिमा स्फुरायमान है ।
- रागादि
पंचास्तिकाय/128,148 जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तोदुपरिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।128। भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदो समोह जुदो ।148। =- जो वास्तव में संसार-स्थित जीव है, उससे (स्निग्ध) परिणाम होता है । परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है ।128। ( पंचास्तिकाय/129-930 ) ।
- बंध का निमित्त भाव है । भाव रति-राग-द्वेष मोह से युक्त है ।148। ( प्रवचनसार/179 ) ।
समयसार/237-241 जह णाम को वि पुरिसो णेयब्भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठणम्मि य करेइ सत्थेहिं वायामं ।237। जो सो दु णेह भावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।240। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण ।241। = जैसे कोई पुरुष (अपने शरीर में ) तैलादि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी धूलिवाले स्थान में रहकर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है ।137। उस पुरुष में जो वह तेलादिकी चिकनाहट है उससे उसे धूलिका बंध होता है, ऐसा निश्चय से जानना चाहिए, शेष शारीरादिक चेष्टाओं से नहीं होता ।240। इसी प्रकार बहुत प्रकार की चेष्टाओं में वर्तता हुआ मिथ्यादृष्टि अपने उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्मरूपी रजसे लिप्त होता है ।241। (अतः निश्चित हुआ कि उपयोग में जो राग आदिक हैं, वही बंध के कारण हैं ।) ( योगसार (अमितगति) 4/4-5 ) ।
मू.आ./1219 मिच्छादंसण अविरदि कसाय जोगाहवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।1219। मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयु का परिणाम - ये कर्मबंध के कारण जानने चाहिए ।
क.पा 1/1,1/गा. 51/105 वत्थुं पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ ववहारो । ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण । = यद्यपि वस्तु की अपेक्षा करके अध्यवसान होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है, परंतु केवल वस्तु के निमित्त से बंध नहीं होता, बंध तो आत्मपरिणामों (रागादि) से होता है । ( समयसार / आत्मख्याति/265 ) ।
धवला 12/4,2,8,4/282/1 ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ठ गहिदबज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरोहादो । = प्रमाद के बिना रत्नत्रय को सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीय के बंध का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि जो प्रत्यय से उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे प्रत्यय स्वीकार करना विरुद्ध है ।
नयचक्र बृहद्/366 असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । =अशुद्ध संवेदन से अर्थात् रागादि भावों से आत्मा कर्म और नोकर्म का बंध करता है । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/147/313 ) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/176 योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबंधः । अथ पुनस्तेनैवपौद्गलिकं कर्म बध्यत एव । = जो यह राग है वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है । ( प्रवचनसार/ ता.प्र./178) ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/179 अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते ... बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः । ... ततोऽवधार्यते द्रव्यबंधस्य साधकतम- त्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बंधः । = राग-परिणत आत्मा नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता । ... राग परिणत जीव संस्पर्श करने में आने वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता । ... इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम होने से राग परिणाम ही निश्चय से बंध है ।
तत्त्वानुशासन/8 स्युर्मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । बंधस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ।8। = मिथ्यादर्शन-ज्ञान व चारित्र ये तीनों संक्षेप से बंध के कारण हैं । बंध के कारणरूप में अन्य जो कुछ कथन है वह सब इन तीनों का विस्तार है ।8।
द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 परमात्मनो ... निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म । = परमात्मा की निर्मल अनुभूति से विरुद्ध मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं ।
देखें बं धवला - 2.5.1 में धवला 15 (राग-द्वेष संयुक्त आत्मा कर्मबंध करता है ।)
- अज्ञान
- ज्ञान आदि भी कथंचित् बंध के कारण हैं
समयसार/171 जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि । अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।171। = क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी अन्य रूप से परिणमन करता है, इसलिए (यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे ) वह (ज्ञानगुण) कर्मों का बंधक कहा गया है ।
देखें आयु - 3.21 (सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायु के आस्रव का कारण है । ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/906 ) ।
देखें प्रकृति बंध - 5.7.3 (आहारक शरीर के बंध में 6-7 गुणस्थान का संयम ही कारण है ।)
- ज्ञानकीकमीबंधकाकारणनहीं, तत्सहभावीकर्महीबंधकाकारणहै
समयसार / आत्मख्याति/172 यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक- विपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबंधः स्यात् । = ज्ञानी जब तक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यभाव से ही ज्ञान को देखता है, जानता और आचरण करता है, तब तक उसकी अन्यथा अनुपत्ति के द्वारा जिसका अनुमान हो सकता है, ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक के विपाक का सद्भाव होने से, पुद्गल कर्म का बंध होता है ।
- जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बंध करने में असमर्थ है
धवला 8/3, 22/54/7 उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंत-गुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । = उपशम श्रेणी में क्रोध के अंतिम अनुभागोदय की अपेक्षा अनंतगुण हीन, अनुभागोदय से संज्वलन क्रोध का बंध नहीं पाया जाता । (इसी प्रकार मान, माया लोभ में भी जानना ) ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/165/227/11 परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्व- भावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य बंधो न भवति । = परम चैतन्य परिणति है लक्षण जिसका ऐसे परमात्म तत्त्व की भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यान के बल से जैसे जघन्य-स्निग्ध-शक्ति स्थानीय क्षीण राग होने पर, और जघन्य-रूक्ष-शक्ति स्थानीय क्षीण द्वेष होने पर जल और रेत की भाँति जीव के बंध नहीं होता है ... ।
- परंतु उससे बंधसामांय तो होता ही है
धवला 8/3,39/77/3 सोलसकसायणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । = सोलह (5 ज्ञानावरण, 5 अंतराय, 4 दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्च गोत्र) कर्म कषाय सामान्य के निमित्त से बँधने वाले हैं, क्योंकि, अणुमात्र कषाय के भी होने पर उनका बंध पाया जाता है ।
- भावबंध के अभाव में द्रव्यबंध नहीं होता
समयसार/270 एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पंति ।270। = यह (अज्ञान-मिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनि अशुभ या शुभकर्म से लिप्त नहीं होते ।270।
- कर्मोदय बंध का कारण नहीं रागादि ही है
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/43/56/12 उदयगता ... ज्ञानावरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा: स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा गच्छंति न च रागादिपरिणामरहिताः संतो बंधं कुर्वंति । ... तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्माशेषु ... मूढोरक्तो दुष्टो व भवति सः ... बंधनमनुभवति । ततः स्थितमेतत् ज्ञानं बंधकारणं न भवति कर्मोदयेऽपि, किंतु रागादयो बंधकारणमिति ।43।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 औदयिका भावाः बंधकारणम् इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह - औदयिका भावा बंधकारणं भवंति, परं किंतु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः । =- उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण बंध नहीं करते हैं । ... परंतु जो उदय को प्राप्त कर्मांशों में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बंध को प्राप्त होता है । इसलिए यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बंध का कारण नहीं होता, न ही कर्म का उदय बंध का कारण होता है, किंतु रागादि ही बंध के कारण होते हैं । प्रश्न - औदयिक भावबंध के कारण हैं, यह आगम का वचन वृथा हो जायेगा । उत्तर - औदयिक भावबंध के कारण होते हैं, किंतु मोह के उदय सहित होने पर ही । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से परिणमन नहीं करता है, तो बंध नहीं होता है । यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण सदा ही बंध होता रहता, मोक्ष कभी न होता ।
देखें उदय - 9.3,4 (मोहजनित औदयिक भाव ही बंध के कारण हैं अन्य नहीं । वास्तव में मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना सब क्षायिक है ।)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1064 जले जंबालवन्नूनं स भावे मलिनो भवेत् । बंधहेतुः स एव स्यादद्वैतश्चाष्टकर्मणाम् ।1064। = जल में काई की तरह निश्चय से वह औदयिक भावमोह ही मलिन होता है, और एक वह भावमोह ही आठों कर्मों के बंध का कारण है ।
- उदय को प्राप्तज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति के भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड़ जाते हैं । ... रागादि परिणाम होने के कारण बंध नहीं करते हैं । ... परंतु जो उदय को प्राप्त कर्मांशों में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बंध को प्राप्त होता है । इसलिए यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बंध का कारण नहीं होता, न ही कर्म का उदय बंध का कारण होता है, किंतु रागादि ही बंध के कारण होते हैं । प्रश्न - औदयिक भावबंध के कारण हैं, यह आगम का वचन वृथा हो जायेगा । उत्तर - औदयिक भावबंध के कारण होते हैं, किंतु मोह के उदय सहित होने पर ही । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से परिणमन नहीं करता है, तो बंध नहीं होता है । यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण सदा ही बंध होता रहता, मोक्ष कभी न होता ।
- रागादि बंध के कारण हैं तो बाह्यद्रव्य का निषेध क्यों ?
धवला 12/4,2,8,4/281/2 एवं विहववहारो किमट्ठं कीरदे सुहेण णाणा-वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च । = प्रश्न - इस प्रकार का व्यवहार (व्रतादि) किस लिए किया जाता है ? उत्तर- सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है ।
समयसार / आत्मख्याति/265 अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाह्यवस्तु । ... तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते । = अध्यवसान ही बंध का कारण है, बाह्य वस्तु नहीं । प्रश्न - यदि बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है, तो बाह्यवस्तु का निषेध किस लिए किया जाता है ? उत्तर- अध्यवसान के निषेध के लिए बाह्य-वस्तु का निषेध किया जाता है । अध्यवसान को बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तु का आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् उत्पन्न नहीं होता ।
- द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्मबंध होता है
- द्रव्य व भाव बंध का समन्वय
- एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं
पंचाध्यायी x`/ उ/44 न केवलं प्रदेशानां बंधः संबंधमात्रतः । सोऽपि भावैरशुद्धैः स्यात्सापेक्षस्तद्द्वयोरिति ।44। = इस प्रकार उन जीव और कर्मों के अशुद्ध भावों से अपेक्षा रखनेवाला वह बंध भी केवल प्रदेशों के संबंध मात्र से ही नहीं होता है ।44। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/111 ) ।
- जीव व शरीर की भिन्नता में हेतु
धवला 9/4,1,63/271/4 जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अणंतत्तादो सरीरे सादि-सांतभावदंसणादो; सव्वसरीरेसु जीवस्स अणुगमदंसणादो सरीरस्स तदणुवलंभादो; जीवसरीराणमकारणत्त (सकारणत्त) दंसणादो । सकारणं शरीरं, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो; णि-क्कारणो जीवो, जीवभावेण धुवत्तादो सरीरहादच्छेद-भेदे हि जीवस्स तदणुवलंभादो । =- जीव शरीर से भिन्न है, क्योंकि वह अनादि अनंत है, परंतु शरीर में सादि सांतता पायी जाती है ।
- सब शरीरों में जीव का अनुगम देखा जाता है, किंतु शरीर के जीव का अनुगम नहीं पाया जाता ।
- तथा जीव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है । शरीर सकारण है, क्योंकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवों का कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योंकि वह चेतनभाव की अपेक्षा नित्य है ।
- तथा शरीर के दाह और छेदन-भेदन से जीव का दाह एवं भेदन नहीं पाया जाता ।
- जीववशरीरमेंनिमित्तवनैमित्तिकपनाभीकथंचित्मिथ्याहै
धवला 1/1,1,33/234/1 तद् (जीवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थायां तत् (शरीरस्य) समवायाभावात् । = जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का उनसे समवाय संबंध नहीं रहता ।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270-271 अपि भवति बध्यबंधकभावो यदि वानयोर्न शंक्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तद्बंधस्य स्वतोऽप्यसिद्दत्वात् ।270। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वंय स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।271। = शरीर और आत्मा में बंध्यबंधक भाव है यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नियम से दोनों में एकत्व होने पर स्वयं उन दोनों का बंध भी असिद्ध है (270) यदि कहो कि परस्पर इन दोनों में निमित्त नैमित्तिकपना अवश्य है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अथवा स्वत: परिणममान वस्तु के निमित्त से क्या फायदा ।571।
- जीव व कर्मबंध केवल निमित्त की अपेक्षा है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/174 आत्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंधः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबंधः कर्मपुद्गलबंधव्यवहारसाधकस्त्व- स्त्येव । = आत्मा अरुपित्व के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिए उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथा एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादि भाव के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
- निश्चय से कर्म जीवसे बँधे ही नहीं
समयसार/57 एएहि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा । = इन वर्णादि भावों के साथ जीवों का संबंध दूध औरपानी का एक क्षेत्रावगाह रूप संयोग संबंध है ऐसा जानना । क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुण से अधिकहै ।57। (वा.अनु./6) ।
समयसार/169 पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।169। = उस ज्ञानी के पूर्व बद्धकर्म समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं, और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं ।169। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1059 ) ।
- बंध अवस्था में दोनों द्रव्यों का विभाव परिणमन हो जाता है
पंचाध्यायी x`/45 .109-110 अयस्कांतोपलाकृष्टसूचीवत्तद्द्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिर्विभावाख्या मिथो बंधाधिकारिणी ।45। जीवभावविकारस्य हेतुः स्याद्द्रव्यकर्म तत् । तद्धेतुस्तद्विकारश्व यथा प्रत्युपकारकः ।109। तन्निमित्तात्पृथग्भूतोऽप्यर्थः स्यात्तन्निमित्तकः ।110। = दोनों जीव और कर्मों से भिन्न-भिन्न परस्पर में बंध को कराने वाली चुंबक-पत्थर के द्वारा खिंचने वाली लोहे की सुई के समान विभावनाम की शक्ति है ।44। वह द्रव्यकर्म जीव के ज्ञानादिक भावों के विकार का कारण होता है, और जीव के भावों का विकार द्रव्यकर्म के आस्रव का कारण होता है ।109। अर्थात् जीव के वैभाविक भाव के निमित्त से पृथक्भूत कार्मण पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाते हैं ।110।
देखें अशुद्धता (दोनों अपने गुणों से च्युत हो जाते हैं ) ।
- जीवबंध बताने का प्रयोजन
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/179/243/9 एवं रागपरिणाम एव बंधकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वे निरंतरं भावना कर्त्तव्येति । = इस प्रकार राग परिणाम ही बंध का कारण है, ऐसा जानकर समस्त रागादि विकल्प के त्याग द्वारा विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन स्वभाव है जिसका ऐसे निजात्मतत्त्व में ही निरंतर भावना करनी चाहिए ।87।
- उभय बंध बताने का प्रयोजन
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/20-22/48/ पर उद्धृत गा. 1 की टीका - अत्रैवं ज्ञात्वा सहजानंदैकस्वभावे निजात्मनि रतिः कर्तव्या । तद्विलक्षणे परद्रव्ये विरतिरित्यभिप्रायः । = यहाँ इस प्रकार (उभयबंध को) जानकर सहज आनंद एक निज आत्मस्वभाव में ही रति करनी चाहिए । उससे अर्थात् निजात्म स्वभाव से विलक्षण ऐसे परद्रव्य में विरति करनी चाहिए, ऐसा अभिप्राय है । ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/10 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/7/20/6 अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामूर्तो मूर्तपंचेंद्रियविषयत्यागेन निरंतरं ध्यातव्यः । = इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से इस जीवने अनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्तिक शुद्धस्वरूप आत्मा को मूर्त्त पाँचों इंद्रियों के विषयों का त्याग करके ध्याना चाहिए ।
- उभय बंध का मतार्थ
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/13 द्रव्यभावकर्मसंयुक्तत्वव्याख्यानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्यः । = द्रव्य-भावकर्म के संयुक्तपने का व्याख्यान आत्मा को सदामुक्त मानने वाले सदाशिववादियों के निराकरणार्थ किया गया है, ऐसा मतार्थ जानना चाहिए । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128/192 ) ( परमात्मप्रकाश टीका/1/59 ) ।
- बंध टालने का उपाय
समयसार/ वआ./71 जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं सु तइया ण बंधो से ।71। ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोधः सिद्धयेत् ।
समयसार / आत्मख्याति/72/ क.47 परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबंधः ।47। = जब यह जीव आत्मा का और आस्रवों का अंतरऔर भेद जानता है तब उसे बंध नहीं होता ।71। ऐसा होने पर ज्ञान मात्र से बंधका विरोध सिद्ध होता है । परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अखंड और अत्यंत प्रचंड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है । अहो ! ऐसे ज्ञान में (परद्रव्य के) कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का अवकाश कैसे हो सकता है ? तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है ?
पं.वि,/11/48 बद्धं पश्यन् बद्धो मुक्तं भवेत्सदात्मानम् । याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते पांथ: ।48।= जो जीव आत्मा को निरंतर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है किंतु जो उसे मुक्त देखता है, वह मुक्त हो जाता है । ठीक है पथिक जिस मार्ग से जाता है उसी मार्ग को प्राप्त हो जाता है ।48।
- एक क्षेज्ञावगाह मात्र का नाम द्रव्यबंध नहीं
- कर्म बंध के कारण प्रत्यय
- कर्मबंध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना
षट्खंडागम/12/4,2,4/ सू.213/505 जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि । ... ।213। = जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबंध स्थान हैं ।
पं.सं.प्रा./4/513 जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ ।513। = जीव प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध को योग से, तथा स्थितिबंध और अनुभागबंध को कषाय से करता है । ( सर्वार्थसिद्धि/8/3/379 पर उद्धृत) ( धवला 12/4,2,8/13/ गा. 4/289) ( राजवार्तिक 8/3/9/10/567/16,18 ) ( नयचक्र बृहद्/155 ) ( द्रव्यसंग्रह 33 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड/257/364 ) पं.सं./सं./4/965) (देखें अनुभाग - 2.1) ।
- प्रत्ययों के सद्भाव में वर्गणाओं का युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ?
धवला 12/4,2,8,2/276/9 पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबंधस्स पच्चओ-होज्ज तो तिहुवणेट्ठिदकम्मइयखंधा णाणावरणीयपच्चएण अक्कमेण किण्ण परिणमंते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो । ण, तिहुवणब्भंतरकम्मइयक्खंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो ... जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्वलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा । अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होंति । ... पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दज्झं दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णत्थि । साभावियादो । = प्रश्न - यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही) ज्ञानावरणीय (आदि) के बंध का कारण हैं तो तीनों लोकों में स्थित कार्मण स्कंध ज्ञानावरणीय पर्यायस्वरूप से एक साथ क्यों नहीं परिणत होते हैं, क्योंकि, उनमें कर्म योग्यता की अपेक्षा समानता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, तीनों लोकों के भीतर स्थित कार्मण स्कंधों में देश विषयक प्रत्यासत्ति का अभाव है । प्रश्न - यदि एक क्षेत्रावगाहरूप हुए कार्मण स्कंध प्राणातिपात के निमित्त से कर्म पर्यायरूप परिणमते हैं तो समस्त लोक में स्थित जीवों के प्राणातिपात प्रत्यय के द्वारा सभी कार्मण स्कंध एक साथ ज्ञानावरणीयरूप पर्याय से परिणत हो जाने चाहिए । ... उत्तर- एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्ति के होने पर भी सब कार्मण स्कंध एक समय में ज्ञानावरणीय स्वरूप में नहीं परिणमते हैं, क्योंकि, प्राप्तईंधन आदि दाह्य वस्तु को जलाने वाली अग्नि के समान जीव में उस प्रकार की शक्ति नहीं है । प्रश्न - जीव में वैसी शक्ति न होने का कारण क्या है । उत्तर- उसमें वैसी शक्ति न होने का कारण स्वभाव ही है ।
धवला 15/34/6 जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणक्खंधा अट्ठ-कम्मागारेण परिणमंति तो एगसमएण सव्वकम्मइयवग्गणक्खंधा कम्मागारेण (किं ण) परिणमंति, णियमाभावादो । ण; दव्व-खेल-काल-भावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाणं परिणामुवलंभादो । दव्वेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ एगसमएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणमंति । =प्रश्न - यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययों के द्वारा कार्मण वर्गणा के स्कंध आठ कर्मरूप से परिणमन करते हैं,तो समस्त कार्मण वर्गणा के स्कंध एक समय में आठ कर्मरूप से क्यों नहीं परिणत हो जाते, क्योंकि, उनके परिणमन का कोई नियामक नहीं है ? = उत्तर- नहीं, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार नियामकों द्वारा नियम को प्राप्त हुए उक्त स्कंधों का कर्मरूप से परिणमन पाया जाता है । यथा - द्रव्य की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवों से अनंतगुणी और सिद्ध जीवों के अनंतवें भाग मात्र ही वर्गणाएँ एक समय में एक जीव के साथ कर्मस्वरूप से परिणत होती हैं ।
- एक प्रत्यय के अनंत वर्गणाओं में परिणमन कैसे ?
धवला 12/4,2,82/278/12 कधमेगो पाणादिवासो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो । = प्रश्न -प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनंत कार्मण स्कंधों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारण के अनंत शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता ।
- बंध के प्रत्ययों में मिथ्यात्व की प्रधानता क्यों ?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1037-1038 सर्वे जीवमया भावाः दृष्टांतो बंधसाधकः । एकत्र व्यापकः कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् ।1037। अथ तत्रापि केषांचित्संज्ञिनां बुद्धिपूर्वकः मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्था-कृतिसंस्थितः ।1038। =प्रश्न - जबकि सब ही भाव जीवमय हैं तो कहीं पर कोई एक भाव (मिथ्यात्व भाव) व्यापक रूप से बंध का साधक दृष्टांत क्यों, और कहीं पर कोई एक भाव (इतर भाव) व्याप्य रूप सेही बंध के साधक दृष्टांत क्यों । उत्तर- उस में व्यापक रूप से बंध के साधक भावों में भी किन्हीं संज्ञी प्राणियों के वस्तु के स्वरूप को मिथ्याकारक में गृहीत रखने वाला गृहीत नामक बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व भाव पाया जाता है ।1038।
- कषाय और योग दो प्रत्ययों से बंध में इतने भेद क्यों ?
धवला 12/4,2,8,14/290/4 कधं दो चेव पच्चयो अट्ठण्णं कम्माणं वत्तीसाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जंते । ण, असुद्धपज्जवट्ठिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडिविरोहाभावादो । = प्रश्न - उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बत्तीस बंधों की कारणता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि अशुद्ध पर्यायार्थिक रूप ऋजुसूत्र नय में अनंत शक्ति युक्त एक द्रव्य के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है ।
- अविरति कर्मबंध में कारण कैसे ?
धवला 12/4,2,8,3/279-281/6 कम्मबंधो हि णाम, सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे, ... असंतवयणं पुण ण सुहपिरणामो, णो असुहपरिणामो पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो । तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं . ... ण पाणादिवाद-पच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस्स पाण-पाणिविओगस्स कम्मबंध-हेउत्तविरोहादो । ... णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाण-पाणिवियोगो वयणकलावो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं । = प्रश्न - कर्मका बंध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है । ...- परंतु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम हैं; क्योंकि पुद्गल के अथवा उसके परिणाम के जीव परिणाम होने का विरोध है । इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीय के बंध का कारण नहीं हो सकता । ...
- इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीय का प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, अन्य जीव विषयक प्राण- प्राणि वियोग के कर्मबंध में कारण होने का विरोध है ? उत्तर- प्रकृत में प्राण-प्राणि वियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बंध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव उससे अभिन्न हैं । इस कारण वे ज्ञानावरणीय बंध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं ।
- कर्मबंध में सामान्य प्रत्ययों का कारणपना
पुराणकोष से
(1) आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना । कषाय-कलुषित जीव प्रत्येक क्षण बंध करता है । सामान्य रूप से इसके चार भेद कहे हैं― प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । यह पांच कारणों से होता है वे हैं― मिथ्यात्व, अव्रताचरण, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व के पांच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पंद्रह, कषाय के चार और योग के पंद्रह भेद होते हैं । महापुराण 2.118,47.309-312, हरिवंशपुराण 58.202-203
(2) जीवों की गति का निरोधक तत्त्व-वन्य । यह अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार है । हरिवंशपुराण 58.164