क्षेत्र
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
मध्य लोकस्थ एक-एक द्वीप में भरतादि अनेक क्षेत्र हैं। जो वर्षधर पर्वतों के कारण एक-दूसरे से विभक्त हैं—देखें लोक - 7।
क्षेत्र नाम स्थान का है। किस गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानादि वाले जीव इस लोक में कहाँ तथा कितने भाग में पाये जाते हैं, इस बात का ही इस अधिकार में निर्देश किया गया है।
- भेद व लक्षण
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण।
- क्षेत्रानुगम का लक्षण।
- क्षेत्र जीव के अर्थ में।
- क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)।
- लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।
- क्षेत्र के भेद स्वस्थानादि।
- निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।
- स्वपर क्षेत्र के लक्षण।
- सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण।
- क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण।
- स्वस्थनादि क्षेत्रपदों के लक्षण।
- समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार संबंधी—देखें वह वह नाम ।
- निक्षेपोंरूप क्षेत्र के लक्षण।–देखें निक्षेप ।
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण।
- क्षेत्र सामान्य निर्देश
- क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें वह वह नाम ।
- जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3।
- भोग व कर्मभूमि में जीवों का अवस्थान—देखें भूमि - 8।
- मुक्त जीवों का लोक में अवस्थान—देखें मोक्ष - 5।
- एकेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान—देखें स्थावर ।
- विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3।
- तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें काय - 2.5
- त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, जीवों का लोक में अवस्थान–देखें वह वह नाम ।
- नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें वह वह नाम ।
- क्षेत्र प्ररूपणाएँ
- अन्य प्ररूपणाएँ
- अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- 23 प्रकार की वर्गणाओं की जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा।
- प्रयोग समवदान, अध:, तप, ईयापथ व कृतिकर्म इन षट् कर्मों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- उत्कृष्ट आयुवाले तिर्यंचों के योग्य क्षेत्र–देखें आयु - 6.1।
- भेद व लक्षण
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ‘‘क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषय:।’’
सर्वार्थसिद्धि/1/25/132/4 क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते।=वर्तमान काल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/10 ) जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है वह (उस उस ज्ञान का) नाम क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/1/25 ।..../15/86)।
कषायपाहुड़/2/2,22/11/1/7 खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च हवदि णोखेत्तं/1।=क्षेत्र नियम से आकाश है और आकाश से विपरीत नोक्षेत्र है।
धवला 13/5,3,8/6/3 क्षियंति निवसंति यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम् ।=क्षि धातु का अर्थ ‘निवास करना’ है। इसलिए क्षेत्र शब्द का यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं। ( महापुराण/4/14 )
- क्षेत्रानुगम का लक्षण
धवला 1/1,1,7/102/158 अत्थित्तं पुण संतं अत्थित्तस्स यत्तदेव परिमाणं। पच्चुप्पण्णं खेत्तं अदीद-पदुप्पण्णाणं फसणं।102।
धवला 1/1,1,7/156/1 णिय-संखा-गुणिदोगाहणखेत्तं खेत्तं उच्चदे दि।=1. वर्तमान क्षेत्र का प्ररूपण करने वाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीत स्पर्श और वर्तमान स्पर्श का कथन करने वाली स्पर्शन प्ररूपणा है। 2. अपनी अपनी संख्या से गुणित अवगाहनारूप क्षेत्र को ही क्षेत्रानुगम कहते हैं।
- क्षेत्र जीव के अर्थ में
महापुराण/24/105 क्षेत्रस्वरूपस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्चते।105।=इसके (जीव के) स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है।
- क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)
पंचाध्यायी x`/5/270 क्षेत्रं द्विधावधानात् सामान्यमथ च विशेषमात्रं स्यात् । तत्र प्रदेशमात्रं प्रथमं प्रथमेतरं तदंशमयम् ।270।=विवक्षा वश से क्षेत्र सामान्य और विशेष रूप इस प्रकार का है।
- लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद
धवला 4/1,3,1/8/6 दव्वट्ठियणयं च पडुच्च एगविधं। अथवा पओजणमभिसमिच्च दुविहं लोगागासमलोगागासं चेदि।...अथवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।=द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के आश्रय से (पर्यायार्थिक नय से) क्षेत्र दो प्रकार का है—लोकाकाश व अलोकाकाश।...अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है=मंदराचल (सुमेरूपर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है, मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
- क्षेत्र के भेद—स्वस्थानादि
धवला 4/1,3,2/26/1 सव्वजीवाणमवत्था तिविहा भवदि, सत्थाणसमुग्घादुववादभेदेण। तत्थ सत्थाणं दुविहं, सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणं चेदि। समुग्घादो सत्तविधो, वेदणसमुग्घादो कसायसमुग्घादो वेउव्वियसमुग्घादो मारणांतियसमुग्घादो तेजासरीरसमुग्घादो आहारसमुग्घादो केवलिसमुग्घादो चेदि।=स्वस्थान, समुद्घात और उपादान के भेद से सर्व जीवों की अवस्था तीन प्रकार की है। उनमें से स्वस्थान दो प्रकार का है—स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान। समुद्घात सात प्रकार का है—वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियक समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, तैजस शरीर समुद्घात, आहारक शरीर समुद्घात और केवली समुद्घात। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/12 )।
- . निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद
धवला 4/1,3,1/ पृष्ठ 3-7।
पृ.3/1
चार्ट
- स्वपर क्षेत्र के लक्षण
प.का./त.प्र./43 द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् ।=परमार्थ से गुण और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होने के कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं। अर्थात् द्रव्य का क्षेत्र उसके अपने प्रदेश है, और उन्हीं प्रदेशों में ही गुण भी रहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 लोकाकाशप्रमिता: शुद्धासंख्येयप्रदेशा: क्षेत्रं भण्यते।=लोकाकाश प्रमाण जीव के शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है। (अर्थापत्ति से अन्य द्रव्यों के प्रदेश उसके परक्षेत्र हैं।)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/148,449 अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक:।148। क्षेत्रं इति वा सदभिष्ठानं च भूर्निवासश्च। तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।449।=जो एक देश जितने क्षेत्र को रोक करके रहता है वह उस देश का—द्रव्य का क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता। किंतु दूसरा दूसरा ही रहता है, पहला नहीं। यह क्षेत्र व्यतिरेक है।148। प्रदेश यह अथवा सत् का आधार और सत् की भूमि तथा सत् का निवास क्षेत्र है और वह क्षेत्र भी स्वयं सत् रूप ही है किंतु प्रदेशों में रहने वाला जितना सत् है उतना वह क्षेत्र नहीं है।449।
राजवार्तिक/ हिंदी/1/6/49
देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये (जीव प्रदेश) क्षेत्र हैं।
राजवार्तिक/ हिंदी/9/7/672>
जन्म योनि के भेद करि (जीव) लोक में उपजै, लोक कूं स्पर्शे सो परक्षेत्र संसार है।
- सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270 तत्र प्रदेशमात्रं प्रथमं प्रथमेतरं तदंशमयम् ।=केवल ‘प्रदेश’ यह तो सामान्य क्षेत्र कहलाता है, तथा यह वस्तु का प्रदेशरूप अंशमयी अर्थात् अमुक द्रव्य इतने प्रदेशवाला है इत्यादि विशेष क्षेत्र कहलाता है।
- क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण
धवला 4/1,3,1/3-4/7 खेत्तं खलु आगासं तव्वदिरितं च होदि णोखेत्तं। जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो।3। आगासं सपेदसं तु उड्ढाघो तिरियो विय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं।4।=आकाश द्रव्य नियम से तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल द्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं।3। आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान् ने अनंत कहा है। ( कषायपाहुड़ 2/2,22/11/6/9 )।
- स्वस्थानादि क्षेत्र पदों के लक्षण
धवला 4/1,3,2/26/2 सत्थाणसत्थाणणाम अप्पणो उप्पणण्गामे णयरे रण्णे वा सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारजुत्तेणच्छणं। विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगाम-णयर-रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारेणच्छणं।
धवला/4/1,3,2/29/6 उववादो एयविहो। सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि।=1. अपने उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में, अथवा अरण्य में—सोना, बैठना, चलना आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थान-स्वस्थान अवस्थान है। ( धवला 4/1,3,58/121/3 ) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादि को छोड़कर अन्यत्र गमन, निषीदन और परिभ्रमण आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत् स्वस्थान है। ( धवला/7/2,6,1/300/5 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/11 )। 2. उपपाद (अवस्थान क्षेत्र) एक प्रकार का है। और वह उत्पन्न होने (जन्मने) के पहले समय में ही होता है—इसमें जीव के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है।
- निष्कुट क्षेत्र का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/28/ टिप्पणी। पृष्ठ 108 जगरूपसहायकृत-लोकाग्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं।=लोक शिखर का कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष देखें विग्रह गति - 6)। - नो आगम क्षेत्र के लक्षण
धवला 4/1,3,1/6/9 वदिरित्तदव्वखेत्तं दुविहं, कम्मदव्वखेत्तं णोकम्मदव्वखेत्तं चेदि। तत्थ कम्मदव्वक्खेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं।...णोकम्मदव्वखेत्तं तु दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि। तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासद्रव्यं। धवला 4/1,3,1/8/2 आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचरिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाधारो भूमि त्ति एयट्ठो।=1. तो तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य क्षेत्र है वह कर्मद्रव्यक्षेत्र और नोकर्म द्रव्य क्षेत्र के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मद्रव्य को कर्मद्रव्यक्षेत्र कहते हैं। (क्योंकि जिसमें जीव निवास करते हैं, इस प्रकार की निरुक्ति के बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है)। नोकर्मद्रव्य क्षेत्र भी औपचारिक और पारमार्थिक के भेद से दो प्रकार है। उनमें से लोक में प्रसिद्ध शालि-क्षेत्र, ब्रीहि (धान्य) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम-द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है। 2. आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित (यक्षों के विचरण का स्थान) अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नोआगमद्रव्य के क्षेत्र के एकार्थनाम हैं।
- क्षेत्र सामान्य निर्देश
- क्षेत्र व अधिकरण में अंतर
राजवार्तिक/1/8/16/43/6 स्यादेतत्-यदेवाधिकरणं तदेव क्षेत्रम्, अतस्तयोरभेदात् पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम् । उक्तार्थत्वात् । उक्तमेतत्-सर्वभावाधिगमार्थत्वादिति। =प्रश्न–जो अधिकरण है वही क्षेत्र है, इसलिए इन दोनों में अभेद होने के कारण यहाँ क्षेत्र का पृथक् ग्रहण अनर्थक है? उत्तर—अधिकृत और अनधिकृत सभी पदार्थों का क्षेत्र बताने के लिए विशेष रूप से क्षेत्र का ग्रहण किया गया है।
- क्षेत्र व स्पर्शन में अंतर
राजवार्तिक/1/8/17-19/43/9 यथेह सति घटे क्षेत्रे अंबुनोऽवस्थानात् नियमाद् घटस्पर्शनम्, न ह्येतदस्ति—‘घटे अंबु अवतिष्ठते न च घटं स्पृशति’ इति। तथा आकाशक्षेत्रे जीवावस्थानां नियमादाकाशे स्पर्शनमिति क्षेत्राभिधानेनैव स्पर्शनस्यार्थगृहीतत्वात् पृथग्ग्रहणमनर्थकम् ।...न वैष दोष:। किं कारणम् । विषयवाचित्वात् । विषयवाची क्षेत्रशब्द: यथा राजा जनपदक्षेत्रेऽवतिष्ठते, न च कृत्स्नं जनपदं स्पृशति। स्पर्शनं तु कृत्स्नविषयमिति। यथा सांप्रतिकेनांबुना सांप्रतिकं घटक्षेत्रं स्पृष्टं नातीतानागतम्, नैवमात्मन: सांप्रतिकक्षेत्रस्पर्शने स्पर्शनाभिप्राय: स्पर्शनस्य त्रिकालगोचरत्वात् ।17-18।=प्रश्न–जिस प्रकार से घट रूप क्षेत्र के रहने पर ही, जल का उसमें अवस्थान होने के कारण, नियम से जल का घट के साथ स्पर्श होता है। ऐसा नहीं है कि घट में जल का अवस्थान होते हुए भी, वह उसे स्पर्श न करें। इसी प्रकार आकाश क्षेत्र में जीवों के अवस्थान होने के कारण नियम से उनका आकाश से स्पर्श होता है। इसलिए क्षेत्र के कथन से ही स्पर्श के अर्थ का ग्रहण हो जाता है। अत: स्पर्श का पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्षेत्र शब्द विषयवाची है, जैसे राजा जनपद में रहता है। यहाँ राजा का विषय जनपद है न कि वह संपूर्ण जनपद के स्पर्श करता है। स्पर्शन तो संपूर्ण विषयक होता है। दूसरे जिस प्रकार वर्तमान में जल के द्वारा वर्तमानकालवर्ती घट क्षेत्र का ही स्पर्श हुआ है, अतीत व अनागत कालगत क्षेत्र का नहीं, उसी प्रकार मात्र वर्तमान कालवर्ती क्षेत्र के साथ जीव का स्पर्श वास्तव में स्पर्शन शब्द का अभिधेय नहीं है। क्योंकि क्षेत्र तो केवल वर्तमानवाची है और स्पर्श त्रिकालगोचर होता है। धवला 1/1,1,7/156/8 वट्टमाण-फासं वण्णेदि खेत्तं। फोसणं पुण अदीदं वट्टमाणं च वण्णेदि।=क्षेत्रानुगम वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है। और स्पर्शनानुयोग अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है।
धवला 4/1,4,2/145/8 खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिट्ठं खेत्तं पदुप्पादिदं, संपदि पोसणाणिओगद्दारेण किं परूविज्जदे? चोद्दस मग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं अदीदकालविसेसिदखेत्तं फोसणं वुच्चदे। एत्थ वट्टमाणखेत्तं परूवणं पि सुत्तणिवद्धसेव दीसदि। तदो ण पोसणमदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पाइयं, किंतु वट्टमाणादीदकालविसेसिदखेत्तपदुप्पाइयमिदि ? एत्थ ण खेत्तपरूवणं, तं वं पुव्वं खेत्ताणिओगद्दारपरूविदवट्टमाणखेत्तं संभराविय अदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पायणट्ठं तस्सुवादाणा। तदो फोसणमदीदकालविसेसिदखेत्ते पदुप्पाइयमेवेत्ति सिद्धं। प्रश्न—क्षेत्रानुयोग में सर्व मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन कर दिया गया है। अब पुन: स्पर्शनानुयोग द्वार से क्या प्ररूपण किया जाता है? उत्तर—चौदह मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर के सभी गुणस्थानों के अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र को स्पर्शन कहा गया है। अतएव यहाँ उसी का ग्रहण किया गया समझना। प्रश्न—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल संबंधी क्षेत्र की प्ररूपणा भी सूत्र निबद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला नहीं है, किंतु वर्तमानकाल और अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला है? उत्तर—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल की प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किंतु पहले क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्र का स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र के प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार में अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का ही प्रतिपादन करने वाला है, यह सिद्ध हुआ। - वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अंतर
धवला 4/1,3,58/121/1 ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादो त्ति। ण एस दोसो वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणामेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवदो।=प्रश्न—इस प्रकार स्वस्थान पद अयोगकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेश को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किंतु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है, क्योंकि इसमें ममेदंभाव संभव है। ( धवला 4/1,3,3/47/8 )।
- क्षेत्र व अधिकरण में अंतर
- क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा
- मिथ्यादृष्टि
- सासादन
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि
- असंयत सम्यग्दृष्टि
- संयतासंयत
- प्रमत्तसंयत
- अप्रमत्तसंयत
- चारों उपशामक
- चारों क्षपक
- सयोगी केवली
- अयोग केवली
- गति मार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा
- इंद्रिय आदि शेष मार्गणाओं में संभव पदों की अपेक्षा
- इंद्रिय मार्गणा
- काय मार्गणा
- योग मार्गणा
- वेद मार्गणा
- ज्ञान मार्गणा
- संयम मार्गणा
- सम्यक्त्व मार्गणा
- आहारक मार्गणा
- मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद
- क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा
- मिथ्यादृष्टि
धवला 4/1,3,2/38/9 मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणामभावादो। =मिथ्यादृष्टि जीवराशि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारक समुद्घात, तैजस समुद्घात, और केवली समुद्घात संभव नहीं हैं, क्योंकि इनके कारणभूत संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टि के अभाव है।
- सासादन
धवला 4/1,3,3/39/9 सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउव्वियसमुग्घादपरिणदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
धवला 4/1,3,3/43/3 मारणांतिय-उववादगद-सासणसम्मादिट्ठी-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव वत्तव्वं।
धवला 4/1,4,4/150/1 तसजीवविरहिदेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु णवरि सासणा णत्थि। वेरियवेंतरदेवेहि घित्ताणमत्थि संभवो, णवरि ते सत्थाणत्था ण होंति, विहारेण परिणत्तादो।=प्रश्न–1. स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात और वैक्रियक समुद्घात रूप से परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्र में होते हैं? उत्तर—लोक के असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में। अर्थात् सासादनगुणस्थान में यह पाँच होने संभव हैं। 2. मारणांतिक समुद्घात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियों का इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थान में ये दो पद भी संभव है। (विशेष देखें सासादन ।1।10) 3. त्रस जीवों से विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतों के मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। यद्यपि वैर भाव रखने वाले व्यंतर देवों के द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवों की वहाँ संभावना है। किंतु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थान नहीं कहलाते हैं क्योंकि उस समय वे विहार रूप से परिणत हो जाते हैं।
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि
धवला 4/1,3,3/44/5 सम्मामिच्छाइट्ठियस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि, तग्गुणस्स तदुहयविरोहित्तादो।=सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मारणांतिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थान का इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के साथ विरोध है। नोट—स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय व वैक्रियक समुद्घात ये पाँचों पद यहाँ होने संभव है। दे.–ऊपर सासादन के अंतर्गत प्रमाण नं.1। - असंयत सम्यग्दृष्टि
(स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक व मारणांतिक समुद्घात तथा उपपाद, यह सातों ही पद यहाँ संभव हैं–देखें ऊपर सासादन के अंतर्गत प्रमाण नं.1)
- संयतासंयत
धवला 4/1,3,3/44/6 एवं संजदासंजदाणं। णवरि उववादो णत्थि, अपज्जत्तकाले संजमासंजमगुणस्स अभावादो।...संजदासंजदाणं कधं वेउव्वियसमुग्घादस्स संभवो। ण, ओरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयस्स विण्हुकुमारादिसु दंसणादो।
धवला 4/1,4,8/169/7 कधं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो। ण, पुव्वववेरियदेवेहि तत्थ घित्ताणं संभवं पडिविरोधाभावा।=1. इसी प्रकार (असंयत सम्यग्दृष्टिवत्) संयतासंयतों का क्षेत्र जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संयतासंयतों के उपपाद नहीं होता है, क्योंकि अपर्याप्त काल में संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता है।...प्रश्न—संयता-संयतों के वैक्रियक समुद्घात कैसे संभव है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, विष्णुकुमार मुनि आदि में विक्रियात्मक औदारिक शरीर देखा जाता है। 2. प्रश्न—मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की संभावना कैसे है? उत्तर—नहीं, क्योंकि पूर्व भव के वैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यंच संयतासंयत जीवों की संभावना की अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। ( धवला 1/1,1,158/402/1 ); ( धवला 6/1,9-9,18/426/10 )
- प्रमत्तसंयत
धवला 4/1,3,3/45-47/ सारार्थ—प्रमत्त संयतों में अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा आहारक व तैजस समुद्घात अधिक है, केवल इतना अंतर है। अत: दे.—अगला ‘अप्रमत्तसंयत’
- अप्रमत्तसंयत
धवला 4/1,3,3/47/4 अप्पमत्तसंजदा सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणत्था केवडिखेत्ते,...मारणंतिय-अप्पमत्ताणं पमत्तसंजदभंगो। अपमत्ते सेसपदा णत्थि।=स्वस्थान स्वस्थान और विहारवत् स्वस्थान रूप से परिणत अप्रमत्त संयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं।...मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त हुए अप्रमत्त संयतों का क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उक्त तीन स्थान को छोड़कर शेष स्थान नहीं होते।
- चारों उपशामक
धवला 4/1,3,3/47/6 चदुण्हमुवसमा सत्थाणसत्थाण-मारणंतियपदेसु पमत्तसमा...णत्थि वुत्तसेसपदाणि।=उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थानस्वस्थान और मारणांतिक समुद्घात, इन दोनों पदों में प्रमत्तसंयतों के समान होते हैं।...(इन जीवों में) उक्त स्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। [स्वस्थान स्वस्थान संबंधी शंका समाधान देखें अगला क्षपक ]
- चारों क्षपक
धवला 4/1,3,3/47/7 चदुण्हं खवगाणं...सत्थाणसत्थाणं पमत्तसमं। खवगुवसामगाणं णत्थि वुत्तसेसपदाणि। खवगुवसामगाणं ममेदंभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदस्स संभवो। ण एस दोसो, ममेदंभावसमण्णिदगुणेसु तहा गहणादो। एत्थ पुण अवट्ठाणमेत्तगहणादो।=क्षपक श्रेणी के चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों का स्वस्थान स्वस्थान प्रमत्तसंयतों के समान होता है। क्षपक और उपशामक जीवों के उक्त गुणस्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। प्रश्न—यह मेरा है, इस प्रकार के भाव से रहित क्षपक और उपशामक जीवों के स्वस्थानस्वस्थान नाम का पद कैसे संभव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जिन गुणस्थानों में ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का भाव पाया जाता है, वहाँ वैसा ग्रहण किया है। परंतु यहाँ पर तो अवस्थान मात्र का ग्रहण किया है।
धवला 6/1,9-8,11/245/9 मणुसेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। =प्रश्न—मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवसमुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं? उत्तर—नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।
- सयोगी केवली
धवला 4/1,3,4/48/3 एत्थ सजोगिकेवलियस्स सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणाणं पमत्तमंगो। दंडगदोकेवली (पृ.48)...कवाइगदो केवली पृ.49...पदरगदो केवली (पृ.50)...लोगपूरणगदो केवली (पृ.56) केवडि खेत्ते।=सयोग केवली का स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। दंड समुद्घातगत केवली...कपाट समुद्घातगत केवली...प्रतर समुद्घातगत केवली...और लोकपूरण समुद्घातगत केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं।
- अयोग केवली
धवला 4/1,3,57/120/9 सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे।=अयोग केवली के विहारवत् स्वस्थानादि शेष अशेष पद संभव न होने से वे स्वस्थानस्वस्थानपद में रहते हैं।
धवला 4/1,3,57/121/1 ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धिए अभावादो त्ति। ण एस दोसो, वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणमेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवादो।=प्रश्न—स्वस्थानपद अयोग केवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है, इसलिए अयोगिकेवली के स्वस्थानपद नहीं बनता है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेशों को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किंतु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है। क्योंकि, इनमें ममेदं भाव संभव है।
- मिथ्यादृष्टि
- गति मार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा
- नरक गति
धवला 4/1,3,5/64/12 सासणस्स। णवरि उववादो णत्थि।
धवला 4/1,3,6/65/9 ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघप्ररूवणाए पदंपडितुल्ला, तत्थ असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो। ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारणंतियपदस्स असंजदसम्माइट्ठिमारणंतिय उववादपदाणं च तत्थ अभावादो। 1. इसी प्रकार (मिथ्यादृष्टिवत् ही) सासादन सम्यग्दृष्टि नारकियों के भी स्वस्थानस्वस्थानादि समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। (अर्थात् यहाँ केवल स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियक व मारणांतिक समुद्घात रूप छ: पद ही संभव हैं। 2. द्वितीयादि पाँच पृथिवियों की प्ररूपणा ओघ अर्थात् नरक सामान्य की प्ररूपणा के समान नहीं है, क्योंकि इन पृथिवियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। सातवीं पृथिवी की प्ररूपणा भी नारक सामान्य प्ररूपणा के तुल्य नहीं है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में सासादन सम्यग्दृष्टियों संबंधी मारणांतिक पद का और असंयत सम्यग्दृष्टि संबंधी मारणांतिक और उपपाद (दोनों) पद का अभाव है।
- तिर्यंच गति
धवला 1/1,1,85/327/1 न तिर्यक्षूत्पन्ना अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽणुव्रतान्यादधते भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपपत्ते:। तिर्यंचों में उत्पन्न हुए भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं; और भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण करना बन नहीं सकता। ( धवला 1/1,1,159/402/9 )।
षट्खंडागम 4/1,3/ सू.10/76 पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता...।
धवला 4/1,3,10/73/5 विहारवदिसत्थाणं वेउव्वियसमुग्घादो य णत्थि।
धवला 4/1,3,9/72/8 णवरि जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।
धवला 4/1,3,21/87/3 सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदपंचिंदियअपज्जत्ता...मारणांतियउववादगदा।=1-2. पंचेंद्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवों के विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक समुद्घात नहीं पाया जाता (73)। 3. योनिमति तिर्यंचों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। 4. स्वस्थानस्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात तथा उपपादगत पंचेंद्रिय अपर्याप्त (परंतु वैक्रियक समुद्घात नहीं होता)।
- मनुष्य गति
षट्खंडागम 4/1,3/ सू.13/76 मणुसअपज्जता केयडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदि भागे।13।
धवला 4/1,3,13/76/2 सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादेहि परिणदा-मारणंतियसमुग्घादो।...एवमुववादस्सावि।=अपर्याप्त मनुष्य स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात से परिणत, मारणांतिक समुद्घातगत तथा उपपाद में भी होते हैं। (इसके अतिरिक्त अन्य पदों में नहीं होते)।
धवला 4/1,3,12/75/7 मणुसिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो णत्थि। पमत्ते तेजाहारसमुग्घादो णत्थि।=मनुष्यनियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार उन्हीं के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस व आहारक समुद्घात नहीं पाया जाता है।
- देव गति
धवला 4/1,3,15/79/3 णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि। वाणवेंतर-जोइसियाणं देवोधभंगो। णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।=असंयत सम्यग्दृष्टियों का भवनवासियों में उपपाद नहीं होता। वानव्यंतर और ज्योतिषी देवों का क्षेत्र देव सामान्य के क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों को वानव्यंतर और ज्योतिषियों में उपपाद नहीं होता है।
- नरक गति
- इंद्रिय आदि शेष मार्गणाओं में संभव पदों की अपेक्षा
- इंद्रिय मार्गणा
षट्खंडागम 4/1,3/ सू. 18/84-तीइंदिय-वीइंदिय चउरिंदिया...तस्सेव पज्जत्ता अपज्जतां...।18।
धवला 4/1,3,18/85/1 सत्थाणसत्थाण...वेदण-कसाय समुग्घादपरिणदा...मारणांतिय उववादगदा।
धवला 4/1,3,17/84/6 बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियभंगो। णवरि वेउव्वियपदं णत्थि। सुहुमेइंदिया तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणांतिय उववादगदा सव्वलोगे।=1.2. दो इंद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय तथा उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषायसमुद्घात तथा मारणांतिक व उपपाद (पद में होते हैं। वैक्रियक समुद्घात से परिणत नहीं होते)। 3. बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तकों का क्षेत्र बादर एकेंद्रिय (सामान्य) के समान है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तकों के वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता है। (तैजस, आहारक, केवली व वैक्रियक समुद्घात तथा विहारवत्स्वस्थान के अतिरिक्त सर्वपद होते हैं) स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात और उपपाद को प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेंद्रिय जीव और उन्हीं के पर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं।
- काय मार्गणा
धवला 4/1,3,22/92/2 एवं बादरतेउकाइयाणं तस्सेव अपज्जत्ताणं च। णवरि वेउव्वियपदमत्थि।...एवं वाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च।...सव्व अपज्जत्तेसु वेउव्वियपदं णत्थि।=इसी प्रकार (अर्थात् बादर अप्कायिक व इनही के अपर्याप्त जीवों के समान, बादर तैजसकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों की (स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात, मारणांतिक व उपपाद पद संबंधी) प्ररूपणा करनी चाहिए।...इतनी विशेषता है कि बादर तैजस कायिक जीवों के वैक्रियक समुद्घात पद भी होता है।...इसी प्रकार बादर वायुकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों के पदों का कथन करना चाहिए। सर्व अपर्याप्तक जीवों में वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता।
- योग मार्गणा
धवला 4/1,3,29/103/1 मणवचिजोगेसु उववादो णत्थि।=मनोयोगी और वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं होता।
षट्खंडागम 4/1,3/ सू.33/104 ओरालियकाजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं।33।...उववादो णत्थि (धवला टी॰)।
धवला 4/1,3,34/105/3 ओरालियकायजोगे...सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो णत्थि। पमत्ते आहारसमुग्घादो णत्थि।
धवला 4/1,3,36/106/4 ओरालियमिस्सजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे। विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियसमुग्घादा णत्थि, तेण तेसिं विरोहादो।
धवला 4/1,3,36/107/7 ओरालियमिस्सम्हि ट्ठिदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च।=1. औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र मूल ओघ के समान सर्वलोक है।33।...किंतु उक्त जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. औदारिक काययोग में...सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुद्घात पद नहीं होता है। 3. औदारिक मिश्र काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोक में रहते हैं। यहाँ पर विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक स्वस्थान ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि औदारिक मिश्र काययोग के साथ इन पदों का विरोध है। 4. औदारिक-मिश्रकाययोग में स्थित जीवों का पुन: औदारिकमिश्र काययोगियों में उपपाद नहीं हो है। (क्योंकि अपर्याप्त जीव पुन: नहीं मरता) अथवा उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के साथ अक्रम से उपात्त भव शरीर के प्रथम समय में (अर्थात् पूर्व भव के शरीर को छोड़कर उत्तर भव के प्रथम समय में) उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है, कि स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, केवलिसमुद्घात और उपपाद इन पाँच अवस्थाओं के अतिरिक्त औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का अभाव है।
षट्खंडागम 7/2,6/59,61/343 वेउव्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडि खेत्ते।59। उववादो णत्थि।61।
धवला 4/1,3,37/109/3 (वेउव्वियकायजोगीसु) सव्वत्थ उववादो णत्थि।
धवला 7/2,3,64/344/9 वेउव्वियमिस्सेण सह-मारणांतियउववादेहि सह विरोहो। 1. वैक्रियक काययोगी जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. वैक्रियक काययोगियों में सभी गुणस्थानों में उपपाद नहीं होता है। 3. वैक्रियक मिश्रयोग के साथ मारणांतिक व उपपाद पदों का विरोध है।
धवला 4/2,3,39/110/3 आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा....सत्थाणगदा...।
धवला 7/2,6,65/345/10 (आहारकायजोगी)–सत्थाण-विहारवदि सत्था णपरिणदा...मारणंतियसमुग्घादगदा। 1. आहारक मिश्रकाययोगी स्वस्थानस्वस्थान गत (ही है। अन्य पदों का निर्देश नहीं है)। 2. आहारककाययोगी स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान से परिणत तथा मारणांतिक समुद्घातगत (से अतिरिक्त अन्यपदों का निर्देश नहीं है।)
धवला 4/1,3,40/110/7 सत्थाण-वेदण-कसाय-उववादगदाकम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्ठिणो। =स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, और उपपाद इन पदों को प्राप्त कार्माण काययोगी मिथ्यादृष्टि (तथा अन्य गुणस्थानवर्ती में भी इनसे अतिरिक्त अन्यपदों में पाये जाने का निर्देश नहीं मिलता)।
- वेद मार्गणा
धवला 4/1,343/111/8 इत्थिवेद...असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उववादो णत्थि। पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा।
धवला 4/1,3,44/113/1 (णवुंसयवेदेसु) पमत्ते तेजाहारपदं णत्थि।=1. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्त्रीवेदियों के उपपाद पद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस समुद्घात नहीं होते हैं। 2. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नपुंसकवेदियों के तैजस आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते हैं। (असंयत सम्यग्दृष्टि में उपपाद पद का यहाँ निषेध नहीं किया गया है।)
- ज्ञान मार्गणा
धवला 4/1,3,53/118/9 ...विभंगण्णाणी मिच्छाइट्ठी...उववाद पदं णत्थि। सासणसम्मदिट्ठी...वि उववादो णत्थि। =विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में उपपाद पद नहीं होता। - संयम मार्गणा
धवला/4/1,61/123/7 (परिहारविसुद्धिसंजदेसु (मूलसूत्र में) पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि।=परिहार विशुद्धि संयतों में प्रमत्त गुणस्थानवर्ती को तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात यह दो पद नहीं होते हैं। - सम्यक्त्व मार्गणा
धवला 4/1,3,82/135/6 पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि।=प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात नहीं होते हैं। - आहारक मार्गणा
षट्खंडागम 4/1,3/ सू.88/137 आहाराणुवादेण...।88। धवला 4/1,3,89/137/6 सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोग-पूरणसमुग्घादा वि णत्थि, आहारित्ताभावादो।=आहारक सयोगीकेवली के भी प्रतर और लोकपूरण समुद्घात नहीं होते हैं; क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओं में केवली के आहारपने का अभाव है।
षट्खंडागम/4/3/ सू.90/137 अणाहारएसु...।90। धवला 4/1,3/92/138 पदरगतो सजोगिकेवली...लोकपूरणे-पुणभवदि।=अनाहारक जीवों में प्रतर समुद्घातगत सयोगिकेवली तथा लोकपूरण समुद्घातगत भी होते हैं।
- इंद्रिय मार्गणा
- मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद
धवला 11/4,2,5,12/22/7 के वि आइरिया एवं होदि त्ति भणंति। तं जहाअवरदिसादो मारणंतियसमुग्घादं कादूण पुव्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति। पुणो विग्गहं करिय हेट्ठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्गहं करिय वारुणदिसाए अद्घरज्जुपमाणं गंतूण अवहिट्ठाणम्मि उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति। एदं ण घडदे, उववादट्ठाणं बोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जंत उवदेसेण सिद्धत्तादो।=ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं—यथा पश्चिम दिशा से मारणांतिक समुद्घात को करके लोकनाली का अंत प्राप्त होने तक पूर्व दिशा में आया। फिर विग्रह करके नीचे छह राजू मात्र जाकर पुन: विग्रह करके पश्चिम दिशा में (पूर्व File:JSKHtmlSample clip image002 0036.gif पश्चिम) (इस प्रकार) आध राजू प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरक में उत्पन्न होने पर उसका (मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त महा मत्स्य का) उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। किंतु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह ‘उपपादस्थान का अतिक्रमण करके गमन नहीं करता’ इस परंपरागत उपदेश से सिद्ध है।
- गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा
- सारणी में प्रयुक्त संकेत परिचय
4.क्षेत्र प्ररूपणाएँ
सर्व |
सर्व लोक |
त्रि |
त्रिलोक अर्थात् सर्वलोक |
ति |
तिर्यक्लोक (एक राजू×9900योजना) |
द्वि |
ऊर्ध्व व अधो दो लोक। |
च |
चतु लोक अर्थात् मनुष्य लोक रहित सर्व लोक |
म |
मनुष्य लोक या अढ़ाई द्वीप। |
असं |
असंख्यात। |
सं |
संख्यात। |
सं.ब. |
संख्यात बहुभाग। |
सं.घ. |
संख्यात घनांगुल। |
/ |
भाग |
× |
गुणा। |
क |
पल्योपम का असंख्यात बहु भाग। |
ख |
पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग। |
स्व ओघ |
गुणस्थान निरपेक्ष अपनी अपनी सामान्य प्ररूपणा। |
मूलोघ |
गुणस्थानों की मूल प्रथम प्ररूपण। |
और भी देखो आगे।
नोट—क 2 इत्यादि को क2 इत्यादि रूप ग्रहण करो
मा/क File:JSKHtmlSample clip image002 0038.gif×File:JSKHtmlSample clip image004 0003.gif×क×सं.प्रतरांगुल×1 राजू=मारणांतिक समुद्घात संबंधी क्षेत्र।
उप/क File:JSKHtmlSample clip image006 0002.gif×File:JSKHtmlSample clip image008 0002.gif×सं.प्रतरांगुल×1 राजू=उपपाद क्षेत्र।
मा/ख File:JSKHtmlSample clip image010 0004.gif×क-1×सं.प्रतरांगुल×1 राजू= मारणांतिक समुद्घात संबंधी क्षेत्र।
उप/ख File:JSKHtmlSample clip image012 0018.gif×क-1×संख्यात प्रतरांगुल×3 राजू=उपपाद क्षेत्र।
मा/ग ×क-1×संख्यात प्रतरांगुल×1 राजू= मारणांतिक समुद्घात संबंधी क्षेत्र।
उप/ग File:JSKHtmlSample clip image016 0002.gif×क-1×संख्यात प्रतरांगुल×1 राजू= उपपाद क्षेत्र।
प्रमाण |
मार्गणा |
गुणस्थान |
स्वस्थानस्वस्थान |
विहारवत्स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समुद्घात |
|
नं.1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
10-43 |
मिथ्यादृष्टि |
1 |
सर्व पृ.36 (देवसामान्य प्रधान) |
ति/सं; द्वि/असं;म×असं |
ति/सं |
ति/सं; द्वि/असं; म×असं (ज्योतिष देवों प्रधान ) |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
39-43 |
सासादन |
2 |
त्रि./असं;म×असं पृ.40 (सौधर्मेशान प्रधान |
त्रि/असं;सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं;म×असं |
मारणांतिकवत् |
||
39-43 |
सम्यग्मिथ्यात्व |
3 |
त्रि./असं;म×असं पृ.40 (सौधर्मेशान प्रधान |
त्रि/असं;सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|||
39-43 |
असंयत सम्यक्त्व |
4 |
त्रि./असं;म×असं पृ.40 (सौधर्मेशान प्रधान |
त्रि/असं;सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं;म×असं |
मारणांतिकवत् |
||
44 |
संयतासंयत |
5 |
त्रि./असं;म×असं पृ.40 (सौधर्मेशान प्रधान |
त्रि/असं;सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
त्रि/असं×सं.घ.; म×असं |
" |
|||
46 |
प्रमत्त संयत |
6 |
च/असं;म/सं |
च/असं;म/सं |
च/असं;म/सं |
(विष्णुकुमार मुनिवत) च/असं; म/सं. |
चा/असं;म/असं |
आहारक: च/असं.म/सं. तेजस: आहारक/असं. केवली: |
||
47 |
अप्रमत्त संयत |
7 |
च/असं;म/सं |
च/असं;म/सं |
" |
|||||
47 |
उपशामक |
8-11 |
च/असं;म/सं |
" |
||||||
47 |
क्षपक |
8-12 |
च/असं;म/सं |
|||||||
48 |
सयोग केवली |
13 |
च/असं;म/सं |
च/असं;म/सं |
दंड: च/ असं.म×असं. कपाट: ति/सं; म×असं प्रतर: वातवलय हीन सर्व लोकपूर्ण सर्वं |
|||||
48 |
अयोग केवली |
14 |
- जीवों के क्षेत्र की आदेश प्ररूपणा
संकेत—देखें क्षेत्र - 4.1. प्रमाण–1. ( धवला 4/1,3,2-92/10-138 ); 2. ( धवला 7/2,6,1-124/299-366 )- गति मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समुद्घात |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|
||||||||||
नरक गति |
||||||||||
301‐303 |
|
File:JSKHtmlSample clip image002 0044.gif;File:JSKHtmlSample clip image004 0007.gif |
File:JSKHtmlSample clip image006 0004.gif;File:JSKHtmlSample clip image008 0004.gif |
मारणांतिकवत् |
||||||
57‐66 |
301‐303 |
1‐7 पृथिवी सामान्य |
1 |
च/असं;मसं |
च/असं;मसं |
च/असं;मसं |
च/असं;मसं |
च/असं;तिअसंमसं |
मारणांतिकवत् |
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समुद्घात |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
64-65 |
|
|
2 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
65 |
|
|
3 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
65 |
|
|
4 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
मारणांतिकवत् |
|
57 |
|
प्रथम पृथिवी |
1-4 |
— |
— |
स्व ओघ (नारकी |
— |
— |
|
|
65 |
|
2-6 पृथिवी |
1 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
मारणांतिकवत् |
|
65 |
|
|
2 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
65 |
|
|
3 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
|
65 |
|
|
4 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
मारणांतिकवत् |
|
65 |
|
सप्तम पृथिवी |
1 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
मारणांतिकवत् |
|
65 |
|
|
2 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
|
65 |
|
|
3-4 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
|
|
|
|
|
तिर्यंच गति |
||||||||
|
304 |
सामान्य |
|
सर्व |
ति/सं; त्रि/असं; म×असं |
सर्व |
च/असं; म×असं |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
306 |
पंचेंद्रिय तिर्य.सामान्य |
|
त्रि/असं; म×असं |
त्रि/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति×असं; त्रि/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
306 |
पंचेंद्रिय तिर्य. पर्याप्त |
|
त्रि/असं; म×असं |
त्रि/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति×असं; त्रि/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
306 |
पंचेंद्रिय तिर्य. योनिमति |
|
त्रि/असं; म×असं |
त्रि/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति/असं; म×असं |
ति×असं; त्रि/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
308 |
पंचेंद्रिय तिर्य.लब्ध्यपर्याप्त |
|
च/असं; म×असं |
|
च/असं; म×असं |
|
ति×असं; त्रि/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
66 |
|
सामान्य |
1 |
सर्व |
ति/सं; द्वि/असं |
ति/सं; द्वि/असं |
ति/असं. |
मा./क. |
मारणांतिकवत् |
|
67 |
|
|
2 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
मा./क. |
मारणांतिकवत् |
|
68 |
|
|
3 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
|
मारणांतिकवत् |
|
67 |
|
|
4 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
मा./क. |
मारणांतिकवत् |
|
68 |
|
|
5 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
मा./क; च/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
70 |
|
पंचेंद्रिय सामान्य |
1 |
त्रि/असं; ति/सं; म×असं |
स्वस्थान से कुछ कम |
स्वस्थान से कुछ कम |
च/असं; म×असं |
पा./ख. |
मारणांतिकवत् |
|
70 |
|
|
2 |
त्रि/असं; ति/सं; म×असं |
स्वस्थान से कुछ कम |
स्वस्थान से कुछ कम |
च/असं; म×असं |
पा./ख. |
मारणांतिकवत् |
|
70 |
|
|
3 |
त्रि/असं; ति/सं; म×असं |
स्वस्थान से कुछ कम |
स्वस्थान से कुछ कम |
च/असं; म×असं |
... |
... |
|
70-7 |
|
|
4 |
त्रि/असं; ति/सं; म×असं |
स्वस्थान से कुछ कम |
स्वस्थान से कुछ कम |
च/असं; म×असं |
मा/ख (त्रि/असं;/ति×असं) |
मारणांतिकवत् |
|
70-7 |
|
|
5 |
त्रि/असं; ति/सं; म×असं |
स्वस्थान से कुछ कम |
स्वस्थान से कुछ कम |
च/असं; म×असं |
मा/ख (त्रि/असं;/ति×असं) |
... |
|
70-7 |
|
पंचेंद्रिय पर्याप्त |
1-5 |
— |
— |
स्व ओघ (तिर्यंच सामान्य) वत् |
— |
— |
|
|
70 |
|
पंचेंद्रिय योनिमति |
1-3 |
— |
— |
— |
स्व ओघ (तिर्यंच सामान्य) वत् |
— |
— |
|
70-72 |
|
|
4-5 |
— |
— |
— |
स्व ओघ (तिर्यंच सामान्य) वत् |
— |
— |
|
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत्स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
73 |
|
पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त |
1 |
त्रि/असं; म×असं |
... |
त्रि/असं; म×असं |
|
मा/ख (त्रि/असं; म×असं) |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
मनुष्य गति— |
||||||||
|
309 |
सामान्य |
... |
च/असं |
च/असं |
च/असं;म×सं. |
च/असं;म×सं. |
त्रि/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
मूलोघवत् |
|
309-310 |
मनुष्य पर्याप्त |
... |
च/असं |
च/असं |
च/असं;म×सं. |
च/असं;म×सं. |
च/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
मूलोघवत् |
|
309-310 |
मनुष्यणी |
... |
च/असं |
च/असं |
च/असं;म×सं. |
च/असं;म×सं. |
च/असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
311 |
लब्ध्यपर्याप्त |
... |
च/असं; म×असं |
... |
च/असं; प×असं |
च/असं;म×सं. |
त्रि/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
74 |
|
सामान्य |
1 |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
च/असं; म×सं |
त्रि/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
74 |
|
|
2 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
त्रि/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
75 |
|
|
3 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
|
|
|
74 |
|
|
4 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
त्रि/असं; ति×असं; म×अ |
मारणांतिकवत् |
|
75 |
|
|
5 |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
च/असं; म×असं |
त्रि/असं; ति×असं; म×अ |
मारणांतिकवत् |
|
75 |
|
|
6-13 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
74-75 |
|
मनुष्य पर्याप्त |
1-13 |
— |
— |
स्व ओघवत् |
— |
— |
— |
|
74-75 |
|
मनुष्यणी |
1-5 |
— |
— |
स्व ओघवत् |
— |
— |
4 गुणस्थान में भी |
|
74-75 |
|
|
6 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
उपपाद नहीं है |
|
74-75 |
|
|
7-13 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
76 |
|
लब्घ्यपर्याप्त |
1 |
च/असं; म×सं |
|
च/असं; म×सं. |
|
त्रि/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
|
|
देव गति— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
314-315 |
सामान्य (ज्योतिषी प्रधान) |
|
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ति/असं; ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
316 |
भवनवासी |
|
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File:JSKHtmlSample clip image018 0002.gif File:JSKHtmlSample clip image020 0000.gif |
ति×असं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
||
|
317 |
व्यंतर ज्योतिषी |
|
— |
— |
देव सामान्यवत् |
— |
— |
— |
|
|
318 |
सौधर्म-ईशान |
|
— |
— |
भवनवासी वत् |
— |
— |
— |
|
|
319 |
सनत्कुमार-अपराजित |
|
— |
— |
भवनवासी वत् |
— |
— |
— |
|
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
|
319 |
सर्वार्थसिद्धि |
|
म+सं/सं.व |
म+सं/सं |
म+सं/सं |
म+सं/सं |
म+सं/सं |
मारणांतिकवत् |
|
77 |
|
सामान्य |
1 |
त्रि×असं; ति/सं; म×असं |
त्रि×असं; ति/सं; म×असं |
त्रि×असं; ति/असं; म×असं |
त्रि×असं; ति/सं; म×असं |
त्रि×असं; ति/सं; म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
77 |
|
|
2-4 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
77-79 |
|
भवनवासी |
1 |
च/असं, ति/असं, म×असं |
च/असं, ति/असं, म×असं |
त्रि×असं; ति/असं; म×असं |
च/असं, ति/असं, म×असं |
च/असं, ति/असं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
79 |
|
|
2-4 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
4थे गुणस्थानमें |
|
79 |
|
व्यंतर ज्योतिषी |
1-4 |
— |
— |
स्वओघ (देवसामान्य) वत् |
|
— |
उपपाद नहीं |
|
79-80 |
|
सौधर्म ईशान |
1 |
— |
भवनवासी वत् |
— |
— |
स्वओघ (देखें [[ ]] |
मारणांतिकवत् |
|
80 |
|
|
2-4 |
|
|
स्वओघ (देवसामान्य) वत् |
— |
— |
— |
|
80 |
|
सनत्कुमार से उपरिमग्रैवेयक तक |
1 |
— |
— |
स्वओघ (देवसामान्य) वत् मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
81 |
|
अनुदिश से जयंत |
4 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
81 |
|
सर्वार्थसिद्धि |
4 |
म/सं |
म/सं |
म/सं |
म/सं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
- इंद्रियमार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
||||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|||
|
321 |
एकेंद्रिय सामान्य |
|
सर्व |
|
सर्व |
च/असं |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
321 |
एकेंद्रिय सामान्य सू.प.अप. |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
322 |
एकेंद्रिय सामान्य बा.प.अप. |
|
त्रि/सं,ति×असं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
पर्याप्तमें च/असं व अप.में× |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
324 |
विकलेंद्रिय सामान्य |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
324 |
विकलेंद्रिय पर्याप्त |
|
— |
— |
विकलेंद्रिय सामान्य |
— |
— |
— |
|
|
|
325 |
विकलेंद्रिय अपर्याप्त |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
326 |
पंचेंद्रिय सामान्य |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
मूलोघवत् |
|
|
326 |
पंचेंद्रिय पर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
|
326 |
पंचेंद्रिय अपर्याप्त |
|
च/असं, म×असं |
|
च/असं, म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
82-84 |
|
एकेंद्रिय सर्व विकल्प |
1 |
— |
— |
स्व सामान्यवत् |
— |
— |
— |
|
|
85 |
|
विकलेंद्रिय सर्व विकल्प |
1 |
— |
— |
स्व सामान्यवत् |
— |
— |
— |
|
|
86 |
|
पंचेंद्रिय सा.व प. |
1 |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
86 |
|
|
2-14 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
|
87 |
|
पंचेंद्रिय अपर्याप्त |
1 |
च/असं, म×असं |
|
च/असं, म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
- काय मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
||
|
329 |
पृथिवी सूक्ष्म पर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
329 |
पृथिवी सूक्ष्म अपर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
334 |
पृथिवी बादर पर्याप्त |
|
च/असं, म×असं |
|
च/असं, म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
330-333 |
पृथिवी बादर अपर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
329 |
अप. के सर्व विकल्प |
|
— |
— |
पृथिवी वत् |
— |
— |
— |
— |
|
329 |
तेज सूक्ष्म पर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
सर्व/असं |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
329 |
तेज सूक्ष्म अपर्याप्त |
|
— |
— |
पृथिवी वत् |
— |
— |
— |
— |
|
335 |
तेज बादर पर्याप्त |
|
सर्व/असं |
|
सर्व/असं |
सर्व/असं,ति/सं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
330-330 |
तेज बादर अपर्याप्त |
|
— |
— |
पृथिवी वत् |
— |
— |
— |
— |
|
339 |
वायु सूक्ष्म पर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
च/असं |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
339 |
वायु सूक्ष्म अपर्याप्त |
|
— |
— |
पृथिवी वत् |
— |
— |
— |
— |
|
337 |
वायु बादर पर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
च/असं |
त्रि/सं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
346 |
वायु बादर अपर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×असं,म×असं |
|
त्रि/सं,ति×असं,म×असं |
च/असं |
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
335 |
वन.अप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त |
|
ति/सं |
|
ति/सं |
|
त्रि/सं,ति×असं,म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
330-333 |
वन.अप्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्त |
|
— |
— |
पृथिवी वत् |
— |
— |
— |
— |
|
337-339 |
वन. प्रतिष्ठित सू.पर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
वन. प्रतिष्ठित सू. अपर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
वन. प्रतिष्ठित बा.पर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
वन. प्रतिष्ठित बा. अपर्याप्त |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं,म×असं |
|
त्रि/असं,ति×सं, म×असं |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
साधारण निगोद सू.पर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
साधारण निगोद सू. अपर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
साधारण निगोद बा.पर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
साधारण निगोद बा.अपर्याप्त |
|
सर्व |
|
सर्व |
|
सर्व |
मारणांतिकवत् |
|
|
337-339 |
त्रस के सर्व विकल्प |
|
— |
— |
पंचेंद्रिय वत् |
— |
— |
— |
— |
88-100 |
|
स्थावर के सर्व विकल्प |
1 |
— |
— |
स्व स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
|
101 |
|
त्रस काय पर्याप्त |
1 |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/असं |
मारणांतिकवत् |
|
101 |
|
|
2-14 |
— |
— |
मूलोघवत् |
— |
— |
— |
|
101 |
|
त्रस काय अपर्याप्त |
1 |
च/असं, म×असं |
|
च/असं, म×असं |
|
त्रि×असं, ति/असं |
मारणांतिकवत् |
|
- वेद मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
||||||||||
|
|||||||||||
|
347 |
स्त्रीवेदी (देवी प्रधान) |
|
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
|
|
347 |
पुरुष वेदी |
|
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
केवल तैजस व आहारक मूलोघ वत् |
|
|
348 |
नपुंसक वेदी |
|
सर्व |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
|
|
|
348 |
अपगत वेदी |
|
च/असं, म×सं |
|
|
|
च/असं, म×असं |
|
|
|
111 |
|
स्त्री वेदी |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
|
|
111 |
|
|
2-9 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
चौथे में उपपाद नहीं |
|
|
112 |
|
पुरुषवेदी |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
|
|
112 |
|
|
2-9 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
केवल तै.आ. |
|
113 |
|
नपुंसक वेदी |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
113 |
|
|
2-9 |
— |
— |
मूलोघ वत |
— |
— |
— |
|
|
114 |
|
अपगत वेदी (उप.) |
9-11 |
च/असं, म×सं |
|
|
|
च/असं, म×असं |
|
|
|
114 |
|
अपगत वेदी (क्षपक) |
9-12 |
च/असं, म×सं |
|
|
|
|
|
|
|
114 |
|
|
13-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- कषाय मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||
|
||||||||||
|
350 |
चारों कषाय |
|
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
केवल तै.अ. मूलोघ वत् |
|
350 |
अकषाय |
|
— |
— |
अपगत वेदी वत् |
— |
— |
— |
— |
115 |
|
चारों कषाय |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
|
116 |
|
|
2,4 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
116 |
|
|
2,4 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
|
|
|
116 |
|
|
5 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
|
|
116 |
|
|
6-9 |
च/असं, म×सं |
यथायोग्य च/सं, म×सं |
यथायोग्य च/असं, म×सं |
यथायोग्य च/असं, म×सं |
च/असं, म×असं |
|
केवल तै.आ.मूलोघ वत् |
117 |
|
लोभ कषाय |
10 |
च/असं, म×सं |
|
|
|
त्रि/असं |
|
|
116 |
|
अकषाय |
11-13 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- संयम मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
||||||||||
|
|||||||||||
|
354 |
संयम सामान्य |
|
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×असं |
|
मूलोघ वत् |
|
|
354 |
सामायिक छेदोप. |
|
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×असं |
|
केवल तै.आ.मूलोघवत् |
|
|
352 |
परिहार विशुद्धि |
|
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
|
|
|
|
|
352 |
सूक्ष्मसांपराय |
|
च/असं, म×सं |
|
|
|
च/असं, म×असं |
|
|
|
|
354 |
यथाख्यात |
|
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×सं |
च/असं, म×असं |
|
केवली केवली समु.मूलोघ वत् |
|
|
355 |
संयतासंयत |
|
त्रि/असं, म×असं |
त्रि/असं, म×असं |
त्रि/असं, म×असं |
त्रि/असं, म×असं |
त्रि/असं, म×असं |
|
|
|
|
355 |
असंयत |
|
— |
— |
नपुंसक वेद वत् |
— |
— |
— |
— |
|
121 |
|
संयत सामान्य |
6×14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
122 |
|
सामायिक छेदोप. |
6-9 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
123 |
|
परिहार विशुद्धि |
6-7 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
124 |
|
सूक्ष्म सांपराय |
10 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
124 |
|
यथाख्यात |
11-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
124 |
|
संयमासंयम |
5 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
|
124 |
|
असंयम |
1-4 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- दर्शन मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||||
|
||||||||||||
|
356 |
चक्षुदर्शन |
|
त्रि/असं,ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं,ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं,ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् केवल लब्ध्यपेक्षा |
तै. व आ.ओघवत् केवली समुद्घात नहीं |
||
|
356 |
अचक्षुर्दर्शन |
|
— |
— |
नपुंसक वेद वत् |
— |
— |
— |
— |
||
|
357 |
अवधिदर्शन |
|
— |
— |
अवधि ज्ञान वत् |
— |
— |
— |
— |
||
|
357 |
केवलदर्शन |
|
— |
— |
केवल ज्ञान वत् |
— |
— |
— |
— |
||
126 |
|
चक्षुर्दर्शन |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
|
||
127 |
|
|
2-12 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||
127 |
|
अचक्षुदर्शन |
1-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||
127 |
|
अवधिदर्शन |
4-12 |
— |
— |
अवधि ज्ञान वत् |
— |
— |
— |
— |
||
127 |
|
केवलदर्शन |
13-14 |
— |
— |
केवल ज्ञान वत् |
— |
— |
— |
— |
- लेश्या मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
||||||||||
|
|||||||||||
|
357 |
कृष्णनील कापोत |
|
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
|
|
|
358 |
तेज (देवप्रधान) |
|
त्रि/असं,ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं,ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं,ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
|
359 |
पद्म |
|
तेज (तिर्यंच प्रधान) |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
त्रि×असं, ति/सं, म×असं |
च/असं, म×असं |
त्रि×असं, ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
|
359 |
शुक्ल |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
मूलोघ वत् |
128 |
|
कृष्णानील कापोत् |
1 |
— |
— |
स्वओघवत् |
— |
— |
— |
— |
128 |
|
कृष्णानील कापोत् |
2-4 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
129 |
|
तेज |
1 |
— |
— |
स्वओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
130 |
|
|
2-7 |
— |
— |
मूल ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
130 |
|
पद्म |
1 |
— |
— |
स्वओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
130 |
|
|
2-7 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
130 |
|
शुक्ल |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
130 |
|
|
2-13 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- भव्यत्व मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||||
|
||||||||||||
|
360 |
भव्य |
|
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||
|
|
अभव्य |
|
सर्व |
च/असं, म×असं |
सर्व |
च/असं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
|
||
131 |
|
भव्य |
1-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||
132 |
|
अभव्य |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- सम्यक्त्व मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
|||||||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
|||||||||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
||||||
|
361 |
सम्यक्त्व सामान्य |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
मूलोघ वत् |
||||||
|
361 |
क्षायिक |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
मूलोघ वत् |
||||||
|
362 |
वेदक |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
केवल तैजस व आहारक मूलोघ वत् |
||||||
|
362 |
उपशम |
|
— |
उपशम सम्यग्दृष्टि संख्या में वेदक से कुछ कम है अत: वेदक वत् अर्थात् उससे किंचित् ऊन उनका क्षेत्र है |
— |
||||||||||
|
362 |
सासादन |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
— |
||||||
|
364 |
सम्यग्मिथ्यात्व |
|
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
|
|
|
||||||
|
364 |
मिथ्यात्व |
|
— |
— |
नपुंसक वेद वत् |
— |
— |
— |
— |
||||||
133 |
|
सम्यक्त्व सामान्य |
4-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||||||
133 |
|
क्षायिक |
4 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||||||
133 |
|
|
5 |
— |
— |
मनुष्य पर्याप्त वत् |
— |
— |
— |
— |
||||||
133 |
|
|
6-14 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
||||||
134 |
|
वेदक |
4-7 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
135 |
|
उपशम |
4 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
|
136 |
|
|
5 |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
च/असं, म×असं |
|
|
135 |
|
|
6-11 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
|
135 |
|
सासादन |
2 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
135 |
|
सम्यग्मिथ्यादृष्टि |
3 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
135 |
|
मिथ्यादृष्टि |
1 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- संज्ञी मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
||
नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
||||||||||
|
|||||||||||
|
364 |
संज्ञी |
|
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
त्रि/असं, ति/असं, म×असं |
मारणांतिक वत् |
मूलोघ वत् |
|
|
365 |
असंज्ञी |
|
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
|
|
136 |
|
संज्ञी |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
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136 |
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2-4 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
— |
— |
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136 |
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असंज्ञी |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
— |
- आहारक मार्गणा
प्रमाण |
मार्गणा |
गुण स्थान |
स्वस्थान स्वस्थान |
विहारवत् स्वस्थान |
वेदना व कषाय समुद्घात |
वैक्रियक समुद्घात |
मारणांतिक समुद्घात |
उपपाद |
तैजस, आहारक व केवली समु. |
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नं. 1 पृ. |
नं. 2 पृ. |
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366 |
आहारक |
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सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
त्रि/असं, ति/सं, म×असं |
सर्व |
मारणांतिक वत् |
केवल दंड कपाट समु. मूलोघ वत् |
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366 |
अनाहारक |
|
सर्व |
|
|
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|
सर्व |
केवल प्रतर व लोकपूर्ण मूलोघवत् |
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137 |
|
आहारक |
1 |
— |
— |
स्व ओघ वत् |
— |
— |
— |
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137 |
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2-4 |
— |
— |
मूलोघ वत् |
— |
— |
शरीर ग्रहण के प्रथम समय में मूलोघ वत् |
केवल दंड व प्रतर मूलोघ वत् |
|||||
137 |
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अनाहारक |
1 |
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|
|
|
सर्व |
|
|||||
137 |
|
|
2-4 |
|
|
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|
च/असं, म×असं |
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137 |
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13 |
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प्रतर व लोक पूर्ण मूलोघ वत् |
- अन्य प्ररूपणाएँ
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नं |
पद विशेष |
प्रकृति |
स्थिति |
अनुभाग |
प्रदेश |
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मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
मूल प्रकृति |
उत्तर प्रकृति |
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(1) |
अष्टकर्मों के बंध के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा प्रमाण—(महाबंध/पुस्तक नं./.../पृष्ठ संख्या) |
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1 |
ज.उ.पद |
|
1/281-291/186-19. |
2/161-169/93-101 |
3/471-477/213-217 |
4/203-207/87-91 |
5/338-347/142-151 |
|
|
||||
2 |
भुजगारादि पद |
|
|
2/3.9/162-163 |
3/772-474/365-367 |
4/289/134 |
5/510-512/283-285 |
6/131-132/69-71 |
|
||||
3 |
वृद्धि हानि |
|
|
2/390/117-198 |
3/929-932/453-455 |
5/363/165 |
5/620/365 |
|
|
||||
(2) |
अष्ट कर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा |
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1 |
ज. उ. पद |
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|
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||||
2 |
भुजगारादि पद |
|
|
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|
|
|
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|
||||
3 |
वृद्धि हानि |
|
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|
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||||
(3) |
मोहनीय के सत्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा प्रमाण—( कषायपाहुड़/ पुस्तक नं./पृष्ठ नं....) |
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1 |
येज्ज दोस सामान्य |
1/383/398-399 |
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|
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|
||||
2 |
24,28 आदि स्थान |
|
2/360-361/324-326 |
|
|
|
|
|
|
||||
3 |
ज. उ. पद |
2/77-80/53-60 |
2/175/163-165 |
3/112-118/64-68 |
3/616-621/364-368 |
5/98-102/62-65 |
5/357-385/326-327 |
|
|
||||
4 |
भुजगारादि पद |
2/453/408-409 |
|
3/203-205/116-117 |
4/114-117/59-60 |
5/155/103 |
5/496/290-291 |
|
|
||||
5 |
वृद्धि हानि |
2/515-517/463 |
|
3/306-307/168-169 |
4/374/231 |
5/180/121 |
5/553/321 |
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||||
(4) |
पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो धवला 9/ पृष्ठ 364-370) |
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(5) |
पाँचों शरीरों में 2,3,4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो धवला 14/ पृष्ठ 253-256) |
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(6) |
23 प्रकार वर्गणाओं की जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा (देखो षट्खंडागम 14/ सूत्र 1/पृष्ठ 149/1) |
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(7) |
प्रयोग, समवदान, अध:, तप, ईर्यापथ व कृति कर्म इन षट्कर्मों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो धवला 9/ पृष्ठ 364-370) |
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पुराणकोष से
(1) जीव आदि पदार्थों का निवास स्थान-लोक । महापुराण 4.14
(2) छ: कुलाचलों से विभाजित सात क्षेत्र, भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । महापुराण 4.49, 63.191-192, पद्मपुराण 3.37