कर्म: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #1 |समवदान आदि कर्म निर्देश ]]</strong> | ||
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<li class="HindiText"> समवदान आदि कर्मों की सत् संख्या आदि आठ प्ररूपणाएँ—देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | <li class="HindiText"> समवदान आदि कर्मों की सत् संख्या आदि आठ प्ररूपणाएँ—देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #2 | द्रव्य भावकर्म व नोकर्म रूप भेद व लक्षण ]]—</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>[[ #3 | द्रव्यभाव कर्म निर्देश---]]</strong> | ||
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<li id="1.2"><span class="HindiText"><strong> कर्म के समावदान आदि अनेक भेद</strong> <br /> | <li id="1.2"><span class="HindiText"><strong> कर्म के समावदान आदि अनेक भेद</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">( षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 4-28/38-88)</span>, प्रमाण=सूत्र/पृष्ठ<br /> | |||
कर्म<br /> | कर्म<br /> | ||
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<li class="HindiText">कारणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल-अकुशल कर्मों को करता है अत: वही कर्म है। </li> | <li class="HindiText">कारणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल-अकुशल कर्मों को करता है अत: वही कर्म है। </li> | ||
<li class="HindiText">आत्मा की प्रधानता में वह कर्ता होता है और परिणाम करण तब ‘जिनके द्वारा किया जाये वह कर्म’ यह विग्रह भी होता है। </li> | <li class="HindiText">आत्मा की प्रधानता में वह कर्ता होता है और परिणाम करण तब ‘जिनके द्वारा किया जाये वह कर्म’ यह विग्रह भी होता है। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> साध्यसाधन भाव की विवक्षा न होने पर स्वरूपमात्र कथन करने से कृति को भी कर्म कहते हैं। इसी तरह अन्य कारक भी लगा लेने चाहिए। <br /> | ||
<span class="GRef">आप्त परीक्षा/टीका/113/296</span> <span class="SanskritText"> जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै: क्रियंते इति कर्माणि। = | <span class="GRef">आप्त परीक्षा/टीका/113/296</span> <span class="SanskritText"> जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै: क्रियंते इति कर्माणि। = | ||
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<li class="HindiText"> जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं या उपार्जित होते हैं - वे कर्म हैं। | <li class="HindiText"> अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं या उपार्जित होते हैं - वे कर्म हैं। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/20/71/8 )</span> केवल लक्षण नं. 2। </li> | ||
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<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/6/6 </span><span class="PrakritText"> कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु।</span>=<span class="HindiText">कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्वकरि एक प्रकार का है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है।</span></span> | <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/6/6 </span><span class="PrakritText"> कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु।</span>=<span class="HindiText">कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्वकरि एक प्रकार का है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है।</span></span> | ||
<li id="2.3"><span class="HindiText"><strong class="HindiText"> द्रव्य भाव या जीव अजीव कर्मों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li id="2.3"><span class="HindiText"><strong class="HindiText"> द्रव्य भाव या जीव अजीव कर्मों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/88 </span><span class="PrakritGatha">पुग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीवं। उवओगो अण्णाणं अविरइ मिच्छं च जीवो दु।88/5</span>=<span class="HindiText">जो मिथ्यात्व योग अविरति और अज्ञान अजीव है सो तो पुद्गल कर्म हैं और जो मिथ्यात्व अविरति और अज्ञान जीव है वह उपयोग है। (पुद्गल याके द्रव्य भाये गये कर्म अर्थात् उन कार्मण स्कंधों की अवस्था अजीव कर्म है और जीव के द्वारा भाये गये अर्थात् उपयोगस्वरूप राग-द्वेषादिक जीव कर्म है— | <span class="GRef"> समयसार/88 </span><span class="PrakritGatha">पुग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीवं। उवओगो अण्णाणं अविरइ मिच्छं च जीवो दु।88/5</span>=<span class="HindiText">जो मिथ्यात्व योग अविरति और अज्ञान अजीव है सो तो पुद्गल कर्म हैं और जो मिथ्यात्व अविरति और अज्ञान जीव है वह उपयोग है। (पुद्गल याके द्रव्य भाये गये कर्म अर्थात् उन कार्मण स्कंधों की अवस्था अजीव कर्म है और जीव के द्वारा भाये गये अर्थात् उपयोगस्वरूप राग-द्वेषादिक जीव कर्म है—<span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/87 )</span>, <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117,124 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/8 </span><span class="SanskritText">सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मण शरीरं कर्मेत्युच्यते। </span>=<span class="HindiText">सब शरीरों की उत्पत्ति के मूलकारण कार्मण शरीर को कर्म (द्रव्यकर्म) कहते हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/8 </span><span class="SanskritText">सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मण शरीरं कर्मेत्युच्यते। </span>=<span class="HindiText">सब शरीरों की उत्पत्ति के मूलकारण कार्मण शरीर को कर्म (द्रव्यकर्म) कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/25/3/137/6 )</span>, <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/ </span><span class="GRef">मूलाचार/113-114</span> <span class="SanskritGatha">द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा।113। भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मनि भांति नु:। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदत:।114</span>।=<span class="HindiText">जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं।113। तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं, क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्न रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं।114। | <span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/ </span><span class="GRef">मूलाचार/113-114</span> <span class="SanskritGatha">द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा।113। भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मनि भांति नु:। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदत:।114</span>।=<span class="HindiText">जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं।113। तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं, क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्न रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं।114। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1058/1060 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,71/52/5</span><span class="PrakritText">तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा।</span>=<span class="HindiText">उनमें से आठ प्रकार के कर्मस्कंधों के भेद कर्म वर्गणा (द्रव्य कर्मवर्गणा) है। | <span class="GRef"> धवला 14/5,6,71/52/5</span><span class="PrakritText">तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा।</span>=<span class="HindiText">उनमें से आठ प्रकार के कर्मस्कंधों के भेद कर्म वर्गणा (द्रव्य कर्मवर्गणा) है। <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 )</span><br /> | ||
और भी (देखें [[ कर्म#3.5 | कर्म - 3.5]]) </span></li> | और भी (देखें [[ कर्म#3.5 | कर्म - 3.5]]) </span></li> | ||
<li id="2.4"><span class="HindiText"><strong> नोकर्म का लक्षण</strong></span><br /> | <li id="2.4"><span class="HindiText"><strong> नोकर्म का लक्षण</strong></span><br /> | ||
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<li id="3.1"><span class="HindiText"><strong> कर्म जगत् का सृष्टा है</strong></span><br /> | <li id="3.1"><span class="HindiText"><strong> कर्म जगत् का सृष्टा है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पद्मपुराण | <span class="GRef"> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#37|पद्मपुराण - 4.37]]) </span><span class="SanskritGatha"> विधि: स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया: कर्मवेधस:।।37।।</span>=<span class="HindiText">विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर से सब कर्मरूपी ईश्वर के पर्याय वाचक शब्द हैं। अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोक का बनानेवाला नहीं।</span></li> | ||
<li id="3.2"><span class="HindiText"><strong> कर्म सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि</strong></span><br /> | <li id="3.2"><span class="HindiText"><strong> कर्म सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/37-38/56/4 </span><span class="PrakritText"> एदस्स पमाणस्स वड्ढिहाणि-तर-तमभावो ण ताव णिक्कारणो; वड्ढिहाणि हि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। ण चं एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वं। जं तं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।37।...कम्मं पि सहेउअं तव्विणासण्णाहाणुववत्तीदो णव्वदे। ण च कम्मविणासो असिद्धो। </span>=<span class="HindiText">ज्ञानप्रमाण का वृद्धिह्रास के द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उस वृद्धि हानि का ही अभाव हो जायेगा और उसके न होने से ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं, क्योंकि एकरूप से अवस्थित ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए वह सकारण होना चाहिए। अत: उसमें जो हानि के तरतमभाव का कारण है वह आवरण कर्म है यह सिद्ध हो जाता है।37। तथा कर्म भी अहेतुक नहीं है, क्योंकि उनको अहेतुक माना जायेगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है। <strong>कर्म का विनाश असिद्ध नहीं है।</strong>–देखें [[ मोक्ष#6 | मोक्ष - 6]],--देखें [[ राग#5.1 | राग - 5.1]]। </span><br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/37-38/56/4 </span><span class="PrakritText"> एदस्स पमाणस्स वड्ढिहाणि-तर-तमभावो ण ताव णिक्कारणो; वड्ढिहाणि हि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। ण चं एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वं। जं तं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।37।...कम्मं पि सहेउअं तव्विणासण्णाहाणुववत्तीदो णव्वदे। ण च कम्मविणासो असिद्धो। </span>=<span class="HindiText">ज्ञानप्रमाण का वृद्धिह्रास के द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उस वृद्धि हानि का ही अभाव हो जायेगा और उसके न होने से ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं, क्योंकि एकरूप से अवस्थित ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए वह सकारण होना चाहिए। अत: उसमें जो हानि के तरतमभाव का कारण है वह आवरण कर्म है यह सिद्ध हो जाता है।37। तथा कर्म भी अहेतुक नहीं है, क्योंकि उनको अहेतुक माना जायेगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है। <strong>कर्म का विनाश असिद्ध नहीं है।</strong>–देखें [[ मोक्ष#6 | मोक्ष - 6]],--देखें [[ राग#5.1 | राग - 5.1]]। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117 </span><span class="SanskritText"> क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कम, तन्निमित्तप्राप्तपरिणाम: पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूताया: प्रवृत्तत्वात् क्रियाफलमेव स्यु:। क्रियाभावे पुद्गलानां कर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मण: कार्यभावमायांति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपवत् । तथाहि—यथा ज्योति: स्वाभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाण: प्रदीपो ज्योति:कार्यं तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्याया: कर्म कार्यम् । </span>=<span class="HindiText">क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से कर्म है। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूल कारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मत्व का अभाव होने से उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है। प्रश्न—मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं ? उत्तर—वे कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके ही की जाती हैं। यथा—ज्योति: (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का परभाव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का परभाव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117 </span><span class="SanskritText"> क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कम, तन्निमित्तप्राप्तपरिणाम: पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूताया: प्रवृत्तत्वात् क्रियाफलमेव स्यु:। क्रियाभावे पुद्गलानां कर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मण: कार्यभावमायांति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपवत् । तथाहि—यथा ज्योति: स्वाभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाण: प्रदीपो ज्योति:कार्यं तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्याया: कर्म कार्यम् । </span>=<span class="HindiText">क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से कर्म है। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूल कारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मत्व का अभाव होने से उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है। प्रश्न—मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं ? उत्तर—वे कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके ही की जाती हैं। यथा—ज्योति: (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का परभाव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का परभाव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/3/6 </span><span class="SanskritText">तयोरस्तित्वं कुत: सिद्धं। स्वत: सिद्धं। अहंप्रत्यमवेद्यत्वेन आत्मन: दरिद्रश्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धे:</span>। <span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>—जीव और कर्म इन दोनों का अस्तित्व काहे ते सिद्ध है ?<strong> उत्तर</strong>—स्वत: सिद्ध है। जातै ‘अहं’ इत्यादिक मानना जीव बिना नहीं संभवै है। दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचित्रता कर्म बिना नाहीं संभवै है। | <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/3/6 </span><span class="SanskritText">तयोरस्तित्वं कुत: सिद्धं। स्वत: सिद्धं। अहंप्रत्यमवेद्यत्वेन आत्मन: दरिद्रश्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धे:</span>। <span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>—जीव और कर्म इन दोनों का अस्तित्व काहे ते सिद्ध है ?<strong> उत्तर</strong>—स्वत: सिद्ध है। जातै ‘अहं’ इत्यादिक मानना जीव बिना नहीं संभवै है। दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचित्रता कर्म बिना नाहीं संभवै है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/50 )</span></span></li> | ||
<li id="3.3"><span class="HindiText"><strong> कर्म व नोकर्ममें अंतर</strong></span><br /> | <li id="3.3"><span class="HindiText"><strong> कर्म व नोकर्ममें अंतर</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488/20 </span><span class="SanskritText">अत्राह—कर्मनोकर्मण: क: प्रतिविशेष इति। उच्चते—आत्मभावेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म। तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् । तदुदयापादित: पुद्-गलपरिणाम आत्मन: सुखदु:खबलाधानहेतु: औदारिक शरीरादि: ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते। किं च स्थितिभेदाद्भेद:।</span> <span class="HindiText"><strong>=प्रश्न—</strong>कर्म और नोकर्म में क्या विशेष है ? <strong>उत्तर</strong>—आत्मा के योग परिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्मा को परतंत्र बनाने का मूलकारण है। कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक शरीर आदिरूप पुद्गल परिणाम जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है; नोकर्म कहलाता है। स्थिति के भेद से भी कर्म और नोकर्म में भेद है।–देखें [[ स्थिति ]]।</span></li> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488/20 </span><span class="SanskritText">अत्राह—कर्मनोकर्मण: क: प्रतिविशेष इति। उच्चते—आत्मभावेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म। तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् । तदुदयापादित: पुद्-गलपरिणाम आत्मन: सुखदु:खबलाधानहेतु: औदारिक शरीरादि: ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते। किं च स्थितिभेदाद्भेद:।</span> <span class="HindiText"><strong>=प्रश्न—</strong>कर्म और नोकर्म में क्या विशेष है ? <strong>उत्तर</strong>—आत्मा के योग परिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्मा को परतंत्र बनाने का मूलकारण है। कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक शरीर आदिरूप पुद्गल परिणाम जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है; नोकर्म कहलाता है। स्थिति के भेद से भी कर्म और नोकर्म में भेद है।–देखें [[ स्थिति ]]।</span></li> | ||
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<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/233 </span><span class="SanskritText">न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तनरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात् । तथाहि...मोहरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्यमाकलयतो बध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत् । तथा च ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानाया: परमात्मनिष्ठत्वमंतरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत् ।</span>=<span class="HindiText">आगम के बिना परात्मज्ञान व परमात्मज्ञान नहीं होता और उन दोनों से शून्य के मोहादि द्रव्यभाव कर्मों का या ज्ञप्ति परिवर्तन रूप कर्मों का क्षय नहीं होता। वह इस प्रकार है कि—मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से बध्यघातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य व भाव कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता। तथा ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पानेवाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्मों का क्षय भी सिद्ध नहीं होता।</span></li> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/233 </span><span class="SanskritText">न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तनरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात् । तथाहि...मोहरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्यमाकलयतो बध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत् । तथा च ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानाया: परमात्मनिष्ठत्वमंतरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत् ।</span>=<span class="HindiText">आगम के बिना परात्मज्ञान व परमात्मज्ञान नहीं होता और उन दोनों से शून्य के मोहादि द्रव्यभाव कर्मों का या ज्ञप्ति परिवर्तन रूप कर्मों का क्षय नहीं होता। वह इस प्रकार है कि—मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से बध्यघातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य व भाव कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता। तथा ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पानेवाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्मों का क्षय भी सिद्ध नहीं होता।</span></li> | ||
<li id="3.7"><span class="HindiText"><strong>7. शरीर की उत्पत्ति कर्माधीन है</strong></span><br /> | <li id="3.7"><span class="HindiText"><strong>7. शरीर की उत्पत्ति कर्माधीन है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व टीका/3-2/63/219</span><span class="SanskritText"> पूर्वकृतफलानुबंधात्तदुत्पत्ति:।63। पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारंभलक्षणा तत्पूर्वकृतं कर्मोक्तं, तस्य फलं तज्जनितौ धर्माधर्मौ तत्फलस्यानुबंध आत्मसमवेतस्यावस्थानं तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्ति: शरीरस्य न स्वतंत्रेभ्य इति।</span> =<span class="HindiText ">पूर्वकृत फल के अनुबंध से उसकी उत्पत्ति होती है।63। पूर्व शरीरों में किये मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप कर्मों के फलानुबंध से देह की उत्पत्ति होती है, अर्थात् धर्माधर्मरूप अदृष्ट से प्रेरित पंचभूतों से शरीर की उत्पत्ति होती है स्वतंत्र भूतों से नहीं। | <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व टीका/3-2/63/219</span><span class="SanskritText"> पूर्वकृतफलानुबंधात्तदुत्पत्ति:।63। पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारंभलक्षणा तत्पूर्वकृतं कर्मोक्तं, तस्य फलं तज्जनितौ धर्माधर्मौ तत्फलस्यानुबंध आत्मसमवेतस्यावस्थानं तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्ति: शरीरस्य न स्वतंत्रेभ्य इति।</span> =<span class="HindiText ">पूर्वकृत फल के अनुबंध से उसकी उत्पत्ति होती है।63। पूर्व शरीरों में किये मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप कर्मों के फलानुबंध से देह की उत्पत्ति होती है, अर्थात् धर्माधर्मरूप अदृष्ट से प्रेरित पंचभूतों से शरीर की उत्पत्ति होती है स्वतंत्र भूतों से नहीं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/28/9/484/21 )</span>।</span></li> | ||
<li id="3.8"><span class="HindiText"><strong> 8. कर्मसिद्धांत जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li id="3.8"><span class="HindiText"><strong> 8. कर्मसिद्धांत जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/126 </span><span class="PrakritGatha">कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।</span><span class="HindiText">=यदि श्रमण ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/126 </span><span class="PrakritGatha">कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।</span><span class="HindiText">=यदि श्रमण ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।</span><br /> | ||
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<span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.147-155 </span>लोक की अनेक रूपता में मूलरूप से ये ही हेतु हैं । विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये इन्हीं के पर्यायवाचक नाम है । मधुर एवं कटुफल प्रदाता होने से इन्हें द्विविध (पाप-पुण्य) रूप भी कहा गया है तथा यह भी बताया गया है कि अपने कर्मों के अनुसार जीव को उसके शुभाशुभ फल भोगने पड़ते हैं । ये तब तक जीव के साथ रहते हैं जब तक उसके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का सद्भाव रहता है । इन कर्मों की निर्जरा का साधन तप है । ध्यानाग्नि से इनके भस्मीभूत होने पर परमपद को प्राप्ति होती है । <span class="GRef"> महापुराण </span> 1. 89, 4.36-37, 9.147, 11.219, 54.151-152, <span class="GRef"> पद्मपुराण 6.147, 123.41 </span></br><span class="HindiText"> | <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.147-155 </span>लोक की अनेक रूपता में मूलरूप से ये ही हेतु हैं । विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये इन्हीं के पर्यायवाचक नाम है । मधुर एवं कटुफल प्रदाता होने से इन्हें द्विविध (पाप-पुण्य) रूप भी कहा गया है तथा यह भी बताया गया है कि अपने कर्मों के अनुसार जीव को उसके शुभाशुभ फल भोगने पड़ते हैं । ये तब तक जीव के साथ रहते हैं जब तक उसके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का सद्भाव रहता है । इन कर्मों की निर्जरा का साधन तप है । ध्यानाग्नि से इनके भस्मीभूत होने पर परमपद को प्राप्ति होती है । <span class="GRef"> महापुराण </span> 1. 89, 4.36-37, 9.147, 11.219, 54.151-152, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#147|पद्मपुराण - 6.147]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#123|पद्मपुराण - 6.123]].41 </span></br><span class="HindiText"> | ||
(2) अग्रायणीय पूर्व के चतुर्थ प्राभृत का योगद्बार । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 82 </span> | (2) अग्रायणीय पूर्व के चतुर्थ प्राभृत का योगद्बार । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#82|हरिवंशपुराण - 10.82]] </span> | ||
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
परंतु तीसरे प्रकार का कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैन सिद्धांत ही उसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है। वास्तव में कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव-मन-वचन काय के द्वारा कुछ न कुछ करता है। वह सब उसकी क्रिया या कर्म है और मन, वचन व काय ये तीन उसके द्वार हैं। इसे जीव कर्म या भाव कर्म कहते हैं।
यहाँ तक तो सबको स्वीकार है। परंतु इस भाव कर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कंध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बँधते हैं यह बात केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म स्कंध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि धारक मूर्तीक होते हैं। जैसे-जैसे कर्म जीव करता है वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्य कर्म उसके साथ बँधते हैं और कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलदान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं हैं।- समवदान आदि कर्म निर्देश
- अध:कर्म, ईर्यापथ कर्म, कृतिकर्म, तप:कर्म और सावद्यकर्म—देखें वह वह नाम ।
- आजीविका संबंधी असि मसि आदि कर्म
- कर्म व नोकर्म आगम द्रव्य निक्षेप—देखें निक्षेप - 5।
- समवदान आदि कर्मों की सत् संख्या आदि आठ प्ररूपणाएँ—देखें वह वह नाम ।
- द्रव्य भावकर्म व नोकर्म रूप भेद व लक्षण —
- कर्मों के ज्ञानावरणादि भेद व उनका कार्य—देखें प्रकृतिबंध - 1।
- गुणिक्षपित कर्माशिक—देखें क्षपित ।
- कर्मफल का अर्थ—विशेष देखें उदय ।
- द्रव्यभाव कर्म निर्देश---
- * कर्म नोकर्म द्रव्य निक्षेप व संसार—देखें निक्षेप - 5 व संसार 3.2
- छहों ही द्रव्यों में कंथचित् द्रव्यकर्मपना देखा जा सकता है।
- जीव व पुद्गल दोनों में कंथचित् भावकर्मपना देखा जा सकता है।
- ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसार का कारण है।
- शरीर की उत्पत्ति कर्माधीन है।
- * कर्मों का मूर्तत्व व रसत्व आदि उसमें हेतु—देखें मूर्त - 2।
- * अमूर्त जीव से मूर्तकर्म कैसे बँधे—देखें बंध - 2।
- * द्रव्यकर्म को नोजीव भी कहते हैं—देखें जीव - 1।
- * कर्म सूक्ष्म स्कंध हैं स्थूल नहीं—देखें स्कंध - 8।
- * द्रव्यकर्म को अवधि मन:पर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष जानते हैं—देखें बंध - 2 व स्वाध्याय 1 |।
- * द्रव्यकर्म को या जीव को ही क्रोध आदि संज्ञा कैसे प्राप्त होती है—देखें कषाय - 2।
- * कर्म नोकर्म द्रव्य निक्षेप व संसार—देखें निक्षेप - 5 व संसार 3.2
- अन्य संबंधित विषय
- * कर्मों के बंध उदय सत्त्व की प्ररूपणाएँ—देखें वह वह नाम ।
- * कर्म प्रकृतियों में 10 करणों का अधिकार—देखें करण - 2।
- * कर्मों के क्षय उपशम आदि व शुद्धाभिमुख परिणाम में केवल भाषा का भेद है—देखें पद्धति ।
- * जीव कर्म निमित्त नैमित्तिक भाव—देखें कारण - III.3,5।
- * भाव कर्म का सहेतुक अहेतुकपना—देखें विभाव - 3-5।
- * अकृत्रिम कर्मों का नाश कैसे हो—देखें मोक्ष - 6।
- * उदीर्णं कर्म—देखें उदीरणा - 1।
- * आठ कर्मों के आठ उदाहरण—देखें प्रकृतिबंध - 3।
- * जीव प्रदेशों के साथ कर्म स्कंध भी चलते हैं—देखें जीव - 4।
- * क्रिया के अर्थ में कर्म—देखें योग ।
- * कर्म कथंचित् चेतन है और कथंचित अचेतन—देखें मन - 12
- समवदान आदि कर्म-निर्देश
- कर्म सामान्य का लक्षण
वैशेषिक दर्शन/1-1/17/31 एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम् ।17। वैशेषिक दर्शन/5-1/1/150 आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म।1।=1. द्रव्य के आश्रय रहने वाला तथा अपने में अन्य गुण न रखने वाला बिना किसी दूसरे की अपेक्षा के संयोग और विभागों में कारण होने वाला कर्म है। गुण व कर्म में यह भेद है कि गुण तो संयोग विभाग का कारण नहीं है और कर्म उनका कारण है।17।
2. आत्मा के संयोग और प्रयत्न से हाथ में कर्म होता है।1।
नोट—जैन वांगमय में यही लक्षण पर्याय व क्रिया के हैं—देखें वह वह नाम । अंतर इतना ही है कि वैशेषिक जन परिणमन रूप भावात्मक पर्याय को कर्म न कहकर केवल परिस्पंदन रूप क्रियात्मक पर्याय को ही कहता है, जबकि जैनदर्शन दोनों प्रकार की पर्यायों को।राजवार्तिक/6/1/3/504/11 कर्मशब्दोऽनेकार्थ:--क्वचित्कर्तुरीप्सिततमे वर्तते—यथा घटं करोतीति। क्वचित्पुण्यापुण्यवचन:--यथा ‘‘कुशलाकुशलं कर्म’’ [आप्त मीमांसा 8] इति। क्वचिच्च क्रियावचन:--यथा उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुन्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि [वैशेषिक दर्शन/1/1/7] इति। तत्रेह क्रियावाचिनो ग्रहणम् । =कर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं--‘घटं करोति’ में कर्मकारक कर्म शब्द का अर्थ है। ‘कुशल अकुशल कर्म’ में पुण्य पाप अर्थ है। उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि में कर्म का क्रिया अर्थ विवक्षित है। यहाँ आश्रव के प्रकरण में क्रिया अर्थ विवक्षित है अन्य नहीं (क्योंकि वही जड़ कर्मों के प्रवेश का द्वार है)।
- कर्म के समावदान आदि अनेक भेद
( षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 4-28/38-88), प्रमाण=सूत्र/पृष्ठ
कर्म
insert chart from book page no 26 - समवदान कर्म का लक्षण
षट्खंडागम 13/5,4/ सूत्र 20/45 तं अट्ठविहस्स वा सत्तविहस्स वा छब्विहस्स वा कम्मस्स समुदाणदाए गहणं पवत्तदि ते सव्वं समुदाणकम्मं णाम।20।=यत: सात प्रकार के, आठ प्रकार के और छह प्रकार के कर्म का भेदरूप से ग्रहण होता है अत: वह सब समवदान कर्म है।
धवला 13/5,4,20/45/9 समयाविरोधेन समवदीयते खंडयत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलणं मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूपेण वा भेदो समुदाणद त्ति वुत्तं होदि। =[समवदान शब्द में ‘सम्’ और ‘अव’ उपसर्ग पूर्वक ‘दाप् लवने’ धातु है। जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--] जो यथाविधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है। और समवदान ही समवदानता कहलाती है। कार्मण पुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषाय के निमित्त से आठ कर्मरूप, सात कर्मरूप और छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। - प्रयोग कर्म का लक्षण
षट्खंडागम 13/5,4/ सूत्र 16-17/44 ते तिविहं—मणपओअकम्मं वचिपओअकम्मं कायपओअकम्मं।16। तं संसारावत्थाणं वा जीवाणं सजोगिकेवलीणं वा।17। =वह तीन प्रकार का है—मन:प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म।16। वह संसार अवस्था में स्थित जीवों के और सयोगकेवलियों के होता है।17। (अन्यत्र इस प्रयोग कर्म को ही ‘योग’ कहा गया है।)
- चितिकर्म आदि कर्मों का निर्देश व लक्षण
मूलाचार/428/576 अप्पासुएण मिस्सं पासुगदव्वं तु पूदिकम्मं तं। चुल्ली उक्खलि दव्वी भायणगंधत्ति पंचविहं।428। किदियकम्मं चिदियकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च। कादव्वं केण कस्स व कथं व कहिं व कदिखुत्तो।576। =प्रासुक आहारादि वस्तु सचित्तादि वस्तु से मिश्रित हों वह पूति दोष है—देखें आहार - II.4। प्रासुक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके पाँच भेद हैं—चूली, ओखली, कड़छी, पकाने के वासन, गंधयुक्त द्रव्य। इन पाँचों में संकल्प करना कि चूलि आदि में पका हुआ भोजन जब तक साधु को न दे दें तब तक किसी को नहीं देंगे। ये ही पाँच आरंभ दोष हैं।428। जिससे आठ प्रकार के कर्मों का छेद हो वह कृतिकर्म है, जिससे पुण्य कर्म का संचय हो वह चित्कर्म है, जिससे पूजा की जाती है वह माला चंदन आदि पूजा कर्म है, शुश्रुषा का करना विनयकर्म है।
- जीव को ही प्रयोगकर्म कैसे कहते हो
धवला 13/5,4,17/45/2 कधं जीवाणं पओअकम्मववएसो। ण, पओअं करेदि त्ति पओअकम्मसद्दणिप्पत्तीए कत्तारकारए कीरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्तसिद्धीदो। =प्रश्न—जीवों को प्रयोग संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि ‘प्रयोग को करता है’ इस व्युत्पत्ति के आधार से प्रयोगकर्म शब्द की सिद्धि कर्ता कारक में करने पर जीवों के भी प्रयोगकर्म संज्ञा बन जाती है।
- समवदान आदि कर्मों में स्थित जीवों में द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थता का निर्देश
धवला 13/5,4,31/93/1 दव्वपमाणाणुगमे भण्णमाणे ताव दव्वट्ठद-पदेसट्ठदाणं अत्थपरूवणं कस्सामो। त जहा-पओअकम्म-तवोकम्मकिरियाकम्मेसु जीवाणं दव्वट्ठदा त्ति सण्णा। जीवपदेसाणं पदेसट्ठदा त्ति ववएसो। समोदाणकम्म-इरियावथकम्मेसु जीवाणं दव्वट्ठदा त्ति ववएसो। तेसु चेव जीवेसु ट्ठिदकम्मपरमाणूणं...पदेसट्ठदा त्ति सण्णा। आधाकम्मम्मि....ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधाणं दव्वट्ठदा त्ति सण्णा। तेसु चेव ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधेसु ट्ठिदपरमाणूणं...पदेसट्ठदा त्ति सण्णा। =द्रव्य प्रमाणानुगमक का कथन करते समय सर्वप्रथम द्रव्यार्थता के अर्थ का कथन करते हैं। यथा प्रयोगकर्म, तप:कर्म और क्रियाकर्म में जीवों की द्रव्यार्थता संज्ञा है, और जीवप्रदेशों की प्रदेशार्थता संज्ञा है। समवधान और ईर्यापथ कर्म के जीवों की द्रव्यार्थता संज्ञा है, और उन्हीं जीवों में स्थित कर्म परमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है। अधःकर्म में औदारिक शरीर के नोकर्मस्कंधों की द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं शरीरों में स्थित परमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है। -
द्रव्य भाव व नोकर्म रूप भेद व लक्षण
- कर्म सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/6/1/7/504/26 कर्मशब्दस्य कर्त्रादिषु साधनेषु संभवत्सु इच्छातो विशेषोऽध्यवसेय:। वीर्यांतरायज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमापेक्षेण आत्मनात्मपरिणाम: पुद्गलेन च स्वपरिणाम: व्यत्ययेन च निश्चयव्यवहारनयापेक्षया क्रियत इति कर्म। करणप्रशंसा विवक्षायां कर्तृधर्माध्यारोपे सति स परिणाम: कुशलमकुशलं वा द्रव्यभावरूपं करोतीति कर्म। आत्मन: प्राधान्यविवक्षायां कर्तृत्वे सति परिणामस्य करणत्वोपपत्ते: बहुलापेक्षया क्रियतेऽनेन कर्मेत्यपि भवति। साध्यसाधन भावानभिधित्सायां स्वरूपावस्थिततत्त्वकथनात् कृति: कर्मेत्यपि भवति। एवं शेषकारकोपपत्तिश्च योज्या। =कर्म शब्द कर्ता, कर्म और भाव - तीनों साधनों में निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों यहाँ (कर्मास्रव के प्रकरण में) परिगृहीत हैं।- वीर्यांतराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के द्वारा निश्चय नय से आत्म-परिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गल-परिणाम; तथा व्यवहारनय से आत्मा के द्वारा पुद्गल-परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्म-परिणाम भी जो किये जायें वह कर्म हैं।
- कारणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल-अकुशल कर्मों को करता है अत: वही कर्म है।
- आत्मा की प्रधानता में वह कर्ता होता है और परिणाम करण तब ‘जिनके द्वारा किया जाये वह कर्म’ यह विग्रह भी होता है।
- साध्यसाधन भाव की विवक्षा न होने पर स्वरूपमात्र कथन करने से कृति को भी कर्म कहते हैं। इसी तरह अन्य कारक भी लगा लेने चाहिए।
आप्त परीक्षा/टीका/113/296 जीवं परतंत्रीकुर्वंति, स परतंत्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै: क्रियंते इति कर्माणि। =- जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं।
- अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं या उपार्जित होते हैं - वे कर्म हैं। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/20/71/8 ) केवल लक्षण नं. 2।
- कर्म के भेद-प्रभेद समयसार/87 मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा।87।=मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, मोह तथा क्रोधादि कषाय -ये भाव जीव और अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
- द्रव्य भाव या जीव अजीव कर्मों के लक्षण
समयसार/88 पुग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीवं। उवओगो अण्णाणं अविरइ मिच्छं च जीवो दु।88/5=जो मिथ्यात्व योग अविरति और अज्ञान अजीव है सो तो पुद्गल कर्म हैं और जो मिथ्यात्व अविरति और अज्ञान जीव है वह उपयोग है। (पुद्गल याके द्रव्य भाये गये कर्म अर्थात् उन कार्मण स्कंधों की अवस्था अजीव कर्म है और जीव के द्वारा भाये गये अर्थात् उपयोगस्वरूप राग-द्वेषादिक जीव कर्म है—( समयसार / आत्मख्याति/87 ), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117,124 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/25/182/8 सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मण शरीरं कर्मेत्युच्यते। =सब शरीरों की उत्पत्ति के मूलकारण कार्मण शरीर को कर्म (द्रव्यकर्म) कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/25/3/137/6 ), ( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 )।
आप्तपरीक्षा/ मूलाचार/113-114 द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा।113। भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मनि भांति नु:। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदत:।114।=जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं।113। तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं, क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्न रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं।114। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1058/1060 )
धवला 14/5,6,71/52/5तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा।=उनमें से आठ प्रकार के कर्मस्कंधों के भेद कर्म वर्गणा (द्रव्य कर्मवर्गणा) है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 )
और भी (देखें कर्म - 3.5) - नोकर्म का लक्षण
धवला 14/5,6,71/52/6 सेस एक्कोणवीसवग्गणाओ णोकम्मवग्गणाओ।= (कार्माण वर्गणा को छोड़कर) शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ नोकर्म वर्गणाएँ हैं। (अर्थात् कुल 23 प्रकार की वर्गणाओं में से कार्माण, भाषा, मनो व तैजस इन चार को छोड़कर शेष 19 वर्गणाएँ नोकर्म वर्गणाएँ हैं)।
गोम्मटसार जीवकांड/244/507 ओरालियवेगुव्वियआहारयतेजणामकम्मुदये। चउणोकम्मसरीरा कम्मेव य होदि कम्मइयं। =औदारिक, वैक्रियक, आहारक और तैजस नामकर्म के उदय से चार प्रकार के शरीर होते हैं। वे नोकर्म शरीर हैं। पाँचवाँ जो कार्मण शरीर सो कर्म रूप ही है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि। =औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण शरीर- वे नोकर्म हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/244/508/2 नोशब्दस्य विपर्यये ईषदर्थे च वृत्ते:। तेषां शरीराणां कर्मवदात्मगुणघातित्वगत्यादिपारतंत्र्यहेतुत्वाभावेन कर्मविपर्ययत्वात् कर्मसहकारित्वेन ईषत्कर्मत्वाच्च नोकर्मशरीरत्वसंभवात् नोइंद्रियवत् ।=नो शब्द का दोय अर्थ है—एक तौ निषेधरूप और एक ईषत् अर्थात् स्तोकरूप। सो इहाँ कार्माण की ज्यों ये चार शरीर आत्मा के गुणों का घातै नाहीं वा गत्यादिक रूप पराधीन न करि सकैं तातैं कर्मतै विपरीत लक्षण धरनेकरि इनिकौ अकर्मशरीर कहिए। अथवा कर्मशरीर के ए सहकारी हैं तातैं ईषत् कर्मशरीर कहिए। ऐसै इनिको नोकर्म शरीर कहैं जैसे मन को नोइंद्रिय कहिए है। - कर्मफल का अर्थ
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/124 तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्यं सुखदु:खं तत्कर्मफलम् । =उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है। (विशेष देखो ‘उदय ’)
आप्त परीक्षा/मूल /113 कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभावविकल्पत:।=कर्म दो प्रकार के हैं—द्रव्यकर्म और भावकर्म।
धवला 14/5,6,71/52/5 दव्ववग्गणा दुविहा—कम्म-वग्गणा, णोकम्मवग्गणा चेति।=द्रव्य वर्गणा दो प्रकार की है - कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा।
गोम्मटसार कर्मकांड/6/6 कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु।=कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्वकरि एक प्रकार का है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है। - कर्म सामान्य का लक्षण
- द्रव्यभाव कर्म निर्देश
- कर्म जगत् का सृष्टा है
(पद्मपुराण - 4.37) विधि: स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया: कर्मवेधस:।।37।।=विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर से सब कर्मरूपी ईश्वर के पर्याय वाचक शब्द हैं। अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोक का बनानेवाला नहीं। - कर्म सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि
कषायपाहुड़ 1/1,1/37-38/56/4 एदस्स पमाणस्स वड्ढिहाणि-तर-तमभावो ण ताव णिक्कारणो; वड्ढिहाणि हि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। ण चं एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वं। जं तं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।37।...कम्मं पि सहेउअं तव्विणासण्णाहाणुववत्तीदो णव्वदे। ण च कम्मविणासो असिद्धो। =ज्ञानप्रमाण का वृद्धिह्रास के द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उस वृद्धि हानि का ही अभाव हो जायेगा और उसके न होने से ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं, क्योंकि एकरूप से अवस्थित ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए वह सकारण होना चाहिए। अत: उसमें जो हानि के तरतमभाव का कारण है वह आवरण कर्म है यह सिद्ध हो जाता है।37। तथा कर्म भी अहेतुक नहीं है, क्योंकि उनको अहेतुक माना जायेगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है। कर्म का विनाश असिद्ध नहीं है।–देखें मोक्ष - 6,--देखें राग - 5.1।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/117 क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कम, तन्निमित्तप्राप्तपरिणाम: पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूताया: प्रवृत्तत्वात् क्रियाफलमेव स्यु:। क्रियाभावे पुद्गलानां कर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मण: कार्यभावमायांति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपवत् । तथाहि—यथा ज्योति: स्वाभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाण: प्रदीपो ज्योति:कार्यं तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्याया: कर्म कार्यम् । =क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से कर्म है। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूल कारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मत्व का अभाव होने से उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है। प्रश्न—मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं ? उत्तर—वे कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके ही की जाती हैं। यथा—ज्योति: (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का परभाव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का परभाव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/3/6 तयोरस्तित्वं कुत: सिद्धं। स्वत: सिद्धं। अहंप्रत्यमवेद्यत्वेन आत्मन: दरिद्रश्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धे:। =प्रश्न—जीव और कर्म इन दोनों का अस्तित्व काहे ते सिद्ध है ? उत्तर—स्वत: सिद्ध है। जातै ‘अहं’ इत्यादिक मानना जीव बिना नहीं संभवै है। दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचित्रता कर्म बिना नाहीं संभवै है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/50 ) - कर्म व नोकर्ममें अंतर
राजवार्तिक/5/24/9/488/20 अत्राह—कर्मनोकर्मण: क: प्रतिविशेष इति। उच्चते—आत्मभावेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म। तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् । तदुदयापादित: पुद्-गलपरिणाम आत्मन: सुखदु:खबलाधानहेतु: औदारिक शरीरादि: ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते। किं च स्थितिभेदाद्भेद:। =प्रश्न—कर्म और नोकर्म में क्या विशेष है ? उत्तर—आत्मा के योग परिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्मा को परतंत्र बनाने का मूलकारण है। कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक शरीर आदिरूप पुद्गल परिणाम जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है; नोकर्म कहलाता है। स्थिति के भेद से भी कर्म और नोकर्म में भेद है।–देखें स्थिति । - छहों ही द्रव्यों में कथंचित् द्रव्य कर्मपना देखा जा सकता है षट्खंडागम 13/5,4/ सूत्र.14/43 जाणि दव्वाणि सभावकिरियाणिप्फण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम।14। धवला/13/5,4,14/43/7 जीवदव्वस्स णाणदंसणेहि परिणामो सव्भावकिरिया, पोग्गलदव्वस्स वण्ण-गंध-रस-फास-विसेसेहि परिणामो सव्भावकिरिया।...एवमादीहि किरियाहि जाणि णिप्पण्णाणि सहावदो चेव दव्वाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम। = 1. जो द्रव्य सद्भाव क्रियानिष्पन्न हैं वह सब द्रव्यकर्म हैं।14। 2. जीवद्रव्य का ज्ञानदर्शन आदि रूप से होने वाला परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है। पुद्गल द्रव्य का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श विशेष रूप से होने वाला परिणाम उसकी सद्भाव-क्रिया है। (धर्म व अधर्म द्रव्य का जीव व पुद्गलों की गति व स्थिति में हेतुरूप होना तथा काल व आकाश में सभी द्रव्यों को परिणमन व अवगाह में निमित्त रूप होनेवाला परिणाम उन-उन की सद्भाव क्रिया है) इत्यादि क्रियाओं के द्वारा जो द्रव्य–स्वभाव से ही निष्पन्न है वह सब द्रव्य कर्म है।
- जीव व पुद्गल दोनों में कथंचित् भावकर्मपना देखा जा सकता है
गोम्मटसार कर्मकांड/6/6 कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु। पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु।6।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/6/6/9 कार्ये कारणोपचारात्तु शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति। =कर्म सामान्यभावरूप कर्मत्व करि एक प्रकार का है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य और भाव से दोय प्रकार है। तहाँ ज्ञानावरणादि पुद्गलद्रव्य का पिंड सो द्रव्यकर्म है, बहुरि तिस पिंड विषै फल देने की शक्ति है सो भावकर्म है। अथवा कार्य विषै कारण के उपचारतै तिस शक्तितै उत्पन्न भए अज्ञानादिक व क्रोधादिक, सो भी भावकर्म कहिए।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/190-192 में प्रक्षेपक गाथाके पश्चात् की टीका--
भावकर्म द्विविधा भवति। जीवगतं पुद्गलकर्मगतं च। तथाहि-भावक्रोधादिव्यक्तिरूपं जीवभावगतं भण्यते। पुद्गलपिंडशक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं। तथा चोक्तं—(उपरोक्त गाथा) ।। अत्र दृष्टांतो यथा—मधुरकटुकादिद्रव्यस्य भक्षणकाले जीवस्य मधुरकटुकस्वादव्यक्तिविकल्परूपं जीवभावगतं, तद्वयक्तिकारणभूतं मधुरकटुकद्रव्यगतं शक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं। एवं भावकर्मस्वरूपं जीवगतं पुद्-गलगतं च द्विधेति भावकर्म व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् । =भावकर्म दो प्रकार का होता है—जीवगत व पुद्गलगत। भाव क्रोधादि की व्यक्तिरूप जीवगत भावकर्म है और पुद्गलपिंड की शक्तिरूप पुद्गल द्रव्यगत भावकर्म है। कहा भी है—(यहाँ उपरोक्त गाथा ही उद्धृत की गयी है)। यहाँ दृष्टांत देकर समझाते हैं—जैसे कि मीठे या खट्टे द्रव्य को खाने के समय जीव को जो मीठे खट्टे की व्यक्ति का विकल्प उत्पन्न होता है वह जीवगत भाव है; और उस व्यक्ति के कारणभूत मीठे-खट्टे द्रव्य की जो शक्ति है, सो पुद्गलद्रव्यगत भाव है। इस प्रकार जीवगत व पुद्गलगत के भेद से दो प्रकार भावकर्म का स्वरूप भावकर्म का कथन करते समय सर्वत्र जानना चाहिए।
- 6. ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसार का कारण है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/233 न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तनरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात् । तथाहि...मोहरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्यमाकलयतो बध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत् । तथा च ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानाया: परमात्मनिष्ठत्वमंतरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत् ।=आगम के बिना परात्मज्ञान व परमात्मज्ञान नहीं होता और उन दोनों से शून्य के मोहादि द्रव्यभाव कर्मों का या ज्ञप्ति परिवर्तन रूप कर्मों का क्षय नहीं होता। वह इस प्रकार है कि—मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से बध्यघातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य व भाव कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता। तथा ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पानेवाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्मों का क्षय भी सिद्ध नहीं होता। - 7. शरीर की उत्पत्ति कर्माधीन है
न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व टीका/3-2/63/219 पूर्वकृतफलानुबंधात्तदुत्पत्ति:।63। पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारंभलक्षणा तत्पूर्वकृतं कर्मोक्तं, तस्य फलं तज्जनितौ धर्माधर्मौ तत्फलस्यानुबंध आत्मसमवेतस्यावस्थानं तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्ति: शरीरस्य न स्वतंत्रेभ्य इति। =पूर्वकृत फल के अनुबंध से उसकी उत्पत्ति होती है।63। पूर्व शरीरों में किये मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप कर्मों के फलानुबंध से देह की उत्पत्ति होती है, अर्थात् धर्माधर्मरूप अदृष्ट से प्रेरित पंचभूतों से शरीर की उत्पत्ति होती है स्वतंत्र भूतों से नहीं। ( राजवार्तिक/5/28/9/484/21 )। - 8. कर्मसिद्धांत जानने का प्रयोजन
प्रवचनसार/126 कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।=यदि श्रमण ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/55/105/17 अत्र यदेव शुद्धनिश्चयनयेन मूलोत्तरप्रकृतिरहितं वीतरागपरमाह्लादै- करूपचैतन्यप्रकाशसहितं शुद्धजीवास्तिकायस्वरूपं तदेवोपादेयमिति भावार्थ:। =यहाँ (मनुष्यादि नामप्रकृति युक्त जीवों के उत्पाद विनाश के प्रकरण में) जो शुद्धनिश्चयनय से मूलोत्तर प्रकृतियों से रहित और वीतराग परमाह्लाद रूप एक चैतन्यप्रकाश सहित शुद्ध जीवास्तिकाय का स्वरूप है वह ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।
विशेषार्थ—मूल द्रव्य छह हैं और वे स्वभाव से ही परिणमनशील हैं। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप उनमें प्रतिसमय परिणमन क्रिया होती रहती है और क्रिया कर्म का पर्यायवाची है। यही कारण है कि यहाँ –‘द्रव्यकर्म’ शब्द से मूलभूत छह द्रव्यों का ग्रहण किया है। - कर्म जगत् का सृष्टा है
पुराणकोष से
1.ज्ञानावरण - जीवों के ज्ञान गुण का आच्छादन करता है,
2.दर्शनावरण - दर्शन नहीं होने देता,
3.वेदनीय - सुख-दुःख देता है,
4.मोहनीय - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और धार्मिक कार्यों में विकल करता है,
5.आयुकर्म - अभीष्ट स्थान पर नहीं जाने देता,
6.नामकर्म - अनेक योनियों में जन्म देता है,
7.गोत्रकर्म - उच्च-नीच कुलों में उत्पन्न करता है और
8.अंतराय - दान, लाभ, भोग, उपभोग और बीच की उपलब्धि में विघ्न करता है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय घातिकर्म और आयुकर्म,नामकर्म, गोत्रकर्म और अंतराय अघातिकर्म कहलाते हैं ।
वीरवर्द्धमान चरित्र 16.147-155 लोक की अनेक रूपता में मूलरूप से ये ही हेतु हैं । विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये इन्हीं के पर्यायवाचक नाम है । मधुर एवं कटुफल प्रदाता होने से इन्हें द्विविध (पाप-पुण्य) रूप भी कहा गया है तथा यह भी बताया गया है कि अपने कर्मों के अनुसार जीव को उसके शुभाशुभ फल भोगने पड़ते हैं । ये तब तक जीव के साथ रहते हैं जब तक उसके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का सद्भाव रहता है । इन कर्मों की निर्जरा का साधन तप है । ध्यानाग्नि से इनके भस्मीभूत होने पर परमपद को प्राप्ति होती है । महापुराण 1. 89, 4.36-37, 9.147, 11.219, 54.151-152, पद्मपुराण - 6.147,पद्मपुराण - 6.123.41
(2) अग्रायणीय पूर्व के चतुर्थ प्राभृत का योगद्बार । हरिवंशपुराण - 10.82