भीम: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) कृष्ण का पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48.69 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) कृष्ण का पुत्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_48#69|हरिवंशपुराण - 48.69]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) भरतक्षेत्र का प्रथम नारद । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.548 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) भरतक्षेत्र का प्रथम नारद । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#548|हरिवंशपुराण - 60.548]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) भरतक्षेत्र के मनोहर नगर का समीपवर्ती एक वन । इस वन के निवासी भीमासुर को पांडव भीम ने मुष्टि-प्रहार से इतना अधिक मारा था कि विवश होकर वह उसके चरणों में पड़कर उसका दास बन गया था । <span class="GRef"> महापुराण 59. 116, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 14.67, 75-78 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) भरतक्षेत्र के मनोहर नगर का समीपवर्ती एक वन । इस वन के निवासी भीमासुर को पांडव भीम ने मुष्टि-प्रहार से इतना अधिक मारा था कि विवश होकर वह उसके चरणों में पड़कर उसका दास बन गया था । <span class="GRef"> महापुराण 59. 116, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 14.67, 75-78 </span></p> | ||
<p id="4">(4) भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर का दूसरा स्वामी । मांसभोजी कुंभ इस नगर का पहला स्वामी था । <span class="GRef"> महापुराण 62.205, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 4. 119 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर का दूसरा स्वामी । मांसभोजी कुंभ इस नगर का पहला स्वामी था । <span class="GRef"> महापुराण 62.205, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 4. 119 </span></p> | ||
<p id="5">(5) मुंडरीकिणी नगरी के शिवंकर उद्यान में स्थित एक मुनि । इन्होंने हिरण्यवर्मा और प्रभावती के जीव देव और देवी को धर्मोपदेश दिया था । पूर्वभव में ये म्णालवती नगरी में भवदेव वैश्य थे । इस पर्याय में इन्होंने रतिवेगा और सुकांत को मारा था । उनके कबूतर-कबूतरी होने पर इन्होंने उन्हें विलाव होकर मारा । जब ये विद्याधर और विद्याधरी हुए तब इन्होंने विद्युच्चोर होकर उन्हें मारा था । अंत में बहुत दुःख भोगने के पश्चात् ये इस पर्याय में आये और केवली हुए । <span class="GRef"> महापुराण 46.262-266, 343-349, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 3. 244-252 </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) मुंडरीकिणी नगरी के शिवंकर उद्यान में स्थित एक मुनि । इन्होंने हिरण्यवर्मा और प्रभावती के जीव देव और देवी को धर्मोपदेश दिया था । पूर्वभव में ये म्णालवती नगरी में भवदेव वैश्य थे । इस पर्याय में इन्होंने रतिवेगा और सुकांत को मारा था । उनके कबूतर-कबूतरी होने पर इन्होंने उन्हें विलाव होकर मारा । जब ये विद्याधर और विद्याधरी हुए तब इन्होंने विद्युच्चोर होकर उन्हें मारा था । अंत में बहुत दुःख भोगने के पश्चात् ये इस पर्याय में आये और केवली हुए । <span class="GRef"> महापुराण 46.262-266, 343-349, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 3. 244-252 </span></p> | ||
<p id="6">(6) व्यंतर देवों का इंद्र । इसने सगर चक्रवर्ती के शत्रु पूर्णधन के पुत्र मेघवाहन को अजितनाथ भगवान् की शरण में प्रवेश कराया था और उसे राक्षसी-विद्या दी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#149|पद्मपुराण - 5.149-151]], 160-168, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.61 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) व्यंतर देवों का इंद्र । इसने सगर चक्रवर्ती के शत्रु पूर्णधन के पुत्र मेघवाहन को अजितनाथ भगवान् की शरण में प्रवेश कराया था और उसे राक्षसी-विद्या दी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#149|पद्मपुराण - 5.149-151]], 160-168, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14.61 </span></p> | ||
<p id="7">(7) बलाहक और संध्यावर्त पर्वतों के बीच स्थित एक अंधकारमय महावन । यह हिंसक प्राणियों से व्याप्त था । रावण, भानुकर्ण और विभीषण ने यहाँ तप किया तथा एक लाख जप करके सर्वकामान्नदा आठ अक्षरों की विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध की थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_7#255|पद्मपुराण - 7.255-264]], 8.21-24 </span></p> | <p id="7" class="HindiText">(7) बलाहक और संध्यावर्त पर्वतों के बीच स्थित एक अंधकारमय महावन । यह हिंसक प्राणियों से व्याप्त था । रावण, भानुकर्ण और विभीषण ने यहाँ तप किया तथा एक लाख जप करके सर्वकामान्नदा आठ अक्षरों की विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध की थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_7#255|पद्मपुराण - 7.255-264]], 8.21-24 </span></p> | ||
<p id="8">(8) एक विद्याधर । यह रावण का अनेक विद्याओं का धारक तेजस्वी सामंत था । गजरथ पर आरूढ़ होकर इसने राम के विरुद्ध ससैन्य युद्ध किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_45#86|पद्मपुराण - 45.86-87]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_57#57|पद्मपुराण - 57.57-58]] </span></p> | <p id="8" class="HindiText">(8) एक विद्याधर । यह रावण का अनेक विद्याओं का धारक तेजस्वी सामंत था । गजरथ पर आरूढ़ होकर इसने राम के विरुद्ध ससैन्य युद्ध किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_45#86|पद्मपुराण - 45.86-87]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_57#57|पद्मपुराण - 57.57-58]] </span></p> | ||
<p id="9">(9) राम का एक महारथी योद्धा विद्याधर । यह रावण के विरुद्ध लड़ा था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 54-34-35, 58.14, 17 </span></p> | <p id="9" class="HindiText">(9) राम का एक महारथी योद्धा विद्याधर । यह रावण के विरुद्ध लड़ा था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 54-34-35, 58.14, 17 </span></p> | ||
<p id="10">(10) एक देश । लवण और अंकुश ने यहाँ के राजा को जीतकर पश्चिम समुद्र की ओर प्रयाण किया और वहाँ के राजाओं को अपने अधीन किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_101#77|पद्मपुराण - 101.77]] </span></p> | <p id="10">(10) एक देश । लवण और अंकुश ने यहाँ के राजा को जीतकर पश्चिम समुद्र की ओर प्रयाण किया और वहाँ के राजाओं को अपने अधीन किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_101#77|पद्मपुराण - 101.77]] </span></p> | ||
<p id="11">(11) एक शक्तिशाली नृप । यह अयोध्या के राजा मधु की आज्ञा नहीं मानता था । फलस्वरूप अपने भक्त सामंत वीरसेन का पत्र पाकर मधु ने इसे युद्ध में जीत लिया था । इसका अपर नाम भीमक था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_109#131|पद्मपुराण - 109.131-140]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 43. 162-163 </span></p> | <p id="11">(11) एक शक्तिशाली नृप । यह अयोध्या के राजा मधु की आज्ञा नहीं मानता था । फलस्वरूप अपने भक्त सामंत वीरसेन का पत्र पाकर मधु ने इसे युद्ध में जीत लिया था । इसका अपर नाम भीमक था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_109#131|पद्मपुराण - 109.131-140]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_43#162|हरिवंशपुराण - 43.162-163]] </span></p> | ||
<p id="12">(12) राजा वसु की वंश-परंपरा में हुआ सुभानु नृप का पुत्र। <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18.3 </span></p> | <p id="12">(12) राजा वसु की वंश-परंपरा में हुआ सुभानु नृप का पुत्र। <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#3|हरिवंशपुराण - 18.3]] </span></p> | ||
<p id="13">(13) यादवों का भानजा । यह हस्तिनापुर के कुरुवंशी राजा पांडु और उनकी पत्नी कुंती का पुत्र था । पाँच पांडवों में यह दूसरा पांडव था । युधिष्ठिर इसका अग्रज और अर्जुन अनुज था । पराक्रम पूर्वक लड़ने वाले शत्रु वीरों को भी इससे भय उत्पन्न होने के कारण इसे यह सार्थक नाम प्राप्त हुआ था । पितामह भीष्माचार्य ने इसे पाला तथा द्रोणाचार्य ने इसे शिक्षित किया था । कौरवों ने इसे वृक्ष से नीचे गिराने के लिए वृक्ष उखाड़ना चाहा किंतु कौरव तो वृक्ष न उखाड़ सके । कौरवों ने इसे मारने के लिए पानी में डुबाया था किंतु यह वहाँ भी बच गया था । सोया हुआ जानकर कपटपूर्वक दुर्योधन ने इसे गंगा में फेंका था किंतु यह तैरकर घर आ गया था । दुर्योधन ने भोजन में विष देकर भी इसे मारना चाहा था किंतु इसे वह विष भी अमृत हो गया था । कौरवों ने सर्प द्वारा दंश कराया था परंतु सर्प-विष भी इसका घात नहीं कर सका था । लाक्षागृह में जलाकर मारने का यत्न भी किया गया था किंतु इसने भूमि में निर्मित सुरंग की खोज कर अपना और अपने भाइयों का बचाव कर लिया था । इसने मगर रूप में नदी में विद्यमान तुलादेवी से युद्ध किया था । देवी इसे निगल गयी थी किंतु इसने अपने हाथ से उसका पेट फाड़कर उसकी पीठ की हड्डी को उखाड़ दिया था । अंत में इसके पौरुष से पराजित होकर देवी इसे गंगा में छोड़कर भाग गयी थी । इसने पिशाच विद्याधर को हराकर उसकी पुत्री हिडिंबा को विवाहा था । हिडिंबा से इसका एक पुत्र हुआ था जिसका नाम मुद्रक था । इसने भीम वन में असुर राक्षस को हराया तथा मनुष्य भक्षी राजा बक को पराजित किया था । राजा कर्ण के हाथी को मद रहित कर भयभीत जन-समूह को निर्भय बनाया था । राजा वृषभध्वज ने अपनी दिशानंदा कन्या इसको विवाही थी । मणिभद्र यक्ष ने इसे शत्रुक्षयकारिणी गदा प्रदान की थी । चूलिका नगरी का राजकुमार कीचक द्रोपदी पर मोहित था । उसकी कुटिलताओं को देखकर द्रौपदी का वेष धारण कर इसने उसे मारा था । कौरव-पांडव युद्ध में इसने निन्यानवे कौरवों का वध किया था । दुर्योधन इसी की गदा की मार से मरणोन्मुख होकर पृथिवी पर गिरा था । आयु के अंत में नेमिनाथ तीर्थंकर से इसने तेरह प्रकार का चरित्र धारण कर लिया था । महातपश्चरण में लीन रहते हुए इसने कुर्यधर द्वारा किया गया उपसर्ग सहा । कुर्यधर ने गर्म लोहवस्त्र भी इसे पहनाये । फिर भी यह ध्यान में ही लीन रहा । इस उपसर्ग को जीतकर एवं कर्मों का क्षय करके यह केवली हुआ और इसे मुक्ति प्राप्त हुई । इसका अपर नाम भीमसेन था । <span class="GRef"> महापुराण 72.208, 266-270, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45.1-7, 37-38, 93-118, 46.27-41, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 8.167-168, 208-220, 10.52-65, 73-76, 92-117, 12. 166-168, 356-361, 14. 55-65, 75-78, 131-134, 168-169, 188, 203-206, 17.245-246, 289-295, 20.266-267, 294-296, 25.12-14, 62-74, 131-133 </span></p> | <p id="13">(13) यादवों का भानजा । यह हस्तिनापुर के कुरुवंशी राजा पांडु और उनकी पत्नी कुंती का पुत्र था । पाँच पांडवों में यह दूसरा पांडव था । युधिष्ठिर इसका अग्रज और अर्जुन अनुज था । पराक्रम पूर्वक लड़ने वाले शत्रु वीरों को भी इससे भय उत्पन्न होने के कारण इसे यह सार्थक नाम प्राप्त हुआ था । पितामह भीष्माचार्य ने इसे पाला तथा द्रोणाचार्य ने इसे शिक्षित किया था । कौरवों ने इसे वृक्ष से नीचे गिराने के लिए वृक्ष उखाड़ना चाहा किंतु कौरव तो वृक्ष न उखाड़ सके । कौरवों ने इसे मारने के लिए पानी में डुबाया था किंतु यह वहाँ भी बच गया था । सोया हुआ जानकर कपटपूर्वक दुर्योधन ने इसे गंगा में फेंका था किंतु यह तैरकर घर आ गया था । दुर्योधन ने भोजन में विष देकर भी इसे मारना चाहा था किंतु इसे वह विष भी अमृत हो गया था । कौरवों ने सर्प द्वारा दंश कराया था परंतु सर्प-विष भी इसका घात नहीं कर सका था । लाक्षागृह में जलाकर मारने का यत्न भी किया गया था किंतु इसने भूमि में निर्मित सुरंग की खोज कर अपना और अपने भाइयों का बचाव कर लिया था । इसने मगर रूप में नदी में विद्यमान तुलादेवी से युद्ध किया था । देवी इसे निगल गयी थी किंतु इसने अपने हाथ से उसका पेट फाड़कर उसकी पीठ की हड्डी को उखाड़ दिया था । अंत में इसके पौरुष से पराजित होकर देवी इसे गंगा में छोड़कर भाग गयी थी । इसने पिशाच विद्याधर को हराकर उसकी पुत्री हिडिंबा को विवाहा था । हिडिंबा से इसका एक पुत्र हुआ था जिसका नाम मुद्रक था । इसने भीम वन में असुर राक्षस को हराया तथा मनुष्य भक्षी राजा बक को पराजित किया था । राजा कर्ण के हाथी को मद रहित कर भयभीत जन-समूह को निर्भय बनाया था । राजा वृषभध्वज ने अपनी दिशानंदा कन्या इसको विवाही थी । मणिभद्र यक्ष ने इसे शत्रुक्षयकारिणी गदा प्रदान की थी । चूलिका नगरी का राजकुमार कीचक द्रोपदी पर मोहित था । उसकी कुटिलताओं को देखकर द्रौपदी का वेष धारण कर इसने उसे मारा था । कौरव-पांडव युद्ध में इसने निन्यानवे कौरवों का वध किया था । दुर्योधन इसी की गदा की मार से मरणोन्मुख होकर पृथिवी पर गिरा था । आयु के अंत में नेमिनाथ तीर्थंकर से इसने तेरह प्रकार का चरित्र धारण कर लिया था । महातपश्चरण में लीन रहते हुए इसने कुर्यधर द्वारा किया गया उपसर्ग सहा । कुर्यधर ने गर्म लोहवस्त्र भी इसे पहनाये । फिर भी यह ध्यान में ही लीन रहा । इस उपसर्ग को जीतकर एवं कर्मों का क्षय करके यह केवली हुआ और इसे मुक्ति प्राप्त हुई । इसका अपर नाम भीमसेन था । <span class="GRef"> महापुराण 72.208, 266-270, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_45#1|हरिवंशपुराण - 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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- वर्तमान कालीन नारद थे–देखें शलाका पुरुष - 6।
- राक्षस जाति के व्यंतर देवों का एक भेद–देखें राक्षस ।
- रक्षासों का इंद्र (देखें व्यंतर - 2.1) जिसने सगर चक्रवर्ती के शत्रु पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन को अजितनाथ भगवान् की शरण में आने पर लंका दी थी जिससे राक्षस वंश की उत्पत्ति हुई ( पद्मपुराण/5/160 )।
- पांडवपुराण/सर्ग/श्लोक– पूर्व के दूसरे भव में सोमिल ब्राह्मण के पुत्र थे (23/81) पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव हुए (33/105)। वर्तमान भव में पांडु का कुंती रानी से पुत्र थे (8/167-24/75) ताऊ भीष्म तथा गुरुद्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त की।(8/204-214)। लाक्षा गृह दहन के पश्चात् तुंडी नामक देवी से नदी में युद्ध किया। विजय प्राप्त कर नदी से बाहर आये (12/343) फिर पिशाच विद्याधर को हराकर उसकी पुत्री हिडंबा से विवाह किया, जिससे घुटुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (14/51-65)। फिर असुर राक्षस (14/75) मनुष्यभक्षी राजा बक को हराया (14/131-134)। कर्ण के मदमस्त हाथी को वश में किया (14/168) यक्ष द्वारा गदा प्राप्त की (14/103) द्रौपदी पर कीचक के मोहित होने पर द्रौपदी के वेश में कीचक को मार डाला (17/278) फिर कृष्ण व जरासंघ के युद्ध में दुर्योधन के 99 भाई तथा और भी अनेकों को मारा (20/266)। अंत में नेमिनाथ भगवान् के समवसरण में अपने पूर्वभव सुनकर विरक्त हो दीक्षा धारण की (25/12-) घोर तपकर अंत में दुर्योधन के भांजेकृत उपसर्ग को जीत मोक्ष प्राप्त किया। (25/52-133)। और भी–देखें पांडव ।
पुराणकोष से
(1) कृष्ण का पुत्र । हरिवंशपुराण - 48.69
(2) भरतक्षेत्र का प्रथम नारद । हरिवंशपुराण - 60.548
(3) भरतक्षेत्र के मनोहर नगर का समीपवर्ती एक वन । इस वन के निवासी भीमासुर को पांडव भीम ने मुष्टि-प्रहार से इतना अधिक मारा था कि विवश होकर वह उसके चरणों में पड़कर उसका दास बन गया था । महापुराण 59. 116, पांडवपुराण 14.67, 75-78
(4) भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर का दूसरा स्वामी । मांसभोजी कुंभ इस नगर का पहला स्वामी था । महापुराण 62.205, पांडवपुराण 4. 119
(5) मुंडरीकिणी नगरी के शिवंकर उद्यान में स्थित एक मुनि । इन्होंने हिरण्यवर्मा और प्रभावती के जीव देव और देवी को धर्मोपदेश दिया था । पूर्वभव में ये म्णालवती नगरी में भवदेव वैश्य थे । इस पर्याय में इन्होंने रतिवेगा और सुकांत को मारा था । उनके कबूतर-कबूतरी होने पर इन्होंने उन्हें विलाव होकर मारा । जब ये विद्याधर और विद्याधरी हुए तब इन्होंने विद्युच्चोर होकर उन्हें मारा था । अंत में बहुत दुःख भोगने के पश्चात् ये इस पर्याय में आये और केवली हुए । महापुराण 46.262-266, 343-349, पांडवपुराण 3. 244-252
(6) व्यंतर देवों का इंद्र । इसने सगर चक्रवर्ती के शत्रु पूर्णधन के पुत्र मेघवाहन को अजितनाथ भगवान् की शरण में प्रवेश कराया था और उसे राक्षसी-विद्या दी थी । पद्मपुराण - 5.149-151, 160-168, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.61
(7) बलाहक और संध्यावर्त पर्वतों के बीच स्थित एक अंधकारमय महावन । यह हिंसक प्राणियों से व्याप्त था । रावण, भानुकर्ण और विभीषण ने यहाँ तप किया तथा एक लाख जप करके सर्वकामान्नदा आठ अक्षरों की विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध की थी । पद्मपुराण - 7.255-264, 8.21-24
(8) एक विद्याधर । यह रावण का अनेक विद्याओं का धारक तेजस्वी सामंत था । गजरथ पर आरूढ़ होकर इसने राम के विरुद्ध ससैन्य युद्ध किया था । पद्मपुराण - 45.86-87,पद्मपुराण - 57.57-58
(9) राम का एक महारथी योद्धा विद्याधर । यह रावण के विरुद्ध लड़ा था । पद्मपुराण 54-34-35, 58.14, 17
(10) एक देश । लवण और अंकुश ने यहाँ के राजा को जीतकर पश्चिम समुद्र की ओर प्रयाण किया और वहाँ के राजाओं को अपने अधीन किया था । पद्मपुराण - 101.77
(11) एक शक्तिशाली नृप । यह अयोध्या के राजा मधु की आज्ञा नहीं मानता था । फलस्वरूप अपने भक्त सामंत वीरसेन का पत्र पाकर मधु ने इसे युद्ध में जीत लिया था । इसका अपर नाम भीमक था । पद्मपुराण - 109.131-140, हरिवंशपुराण - 43.162-163
(12) राजा वसु की वंश-परंपरा में हुआ सुभानु नृप का पुत्र। हरिवंशपुराण - 18.3
(13) यादवों का भानजा । यह हस्तिनापुर के कुरुवंशी राजा पांडु और उनकी पत्नी कुंती का पुत्र था । पाँच पांडवों में यह दूसरा पांडव था । युधिष्ठिर इसका अग्रज और अर्जुन अनुज था । पराक्रम पूर्वक लड़ने वाले शत्रु वीरों को भी इससे भय उत्पन्न होने के कारण इसे यह सार्थक नाम प्राप्त हुआ था । पितामह भीष्माचार्य ने इसे पाला तथा द्रोणाचार्य ने इसे शिक्षित किया था । कौरवों ने इसे वृक्ष से नीचे गिराने के लिए वृक्ष उखाड़ना चाहा किंतु कौरव तो वृक्ष न उखाड़ सके । कौरवों ने इसे मारने के लिए पानी में डुबाया था किंतु यह वहाँ भी बच गया था । सोया हुआ जानकर कपटपूर्वक दुर्योधन ने इसे गंगा में फेंका था किंतु यह तैरकर घर आ गया था । दुर्योधन ने भोजन में विष देकर भी इसे मारना चाहा था किंतु इसे वह विष भी अमृत हो गया था । कौरवों ने सर्प द्वारा दंश कराया था परंतु सर्प-विष भी इसका घात नहीं कर सका था । लाक्षागृह में जलाकर मारने का यत्न भी किया गया था किंतु इसने भूमि में निर्मित सुरंग की खोज कर अपना और अपने भाइयों का बचाव कर लिया था । इसने मगर रूप में नदी में विद्यमान तुलादेवी से युद्ध किया था । देवी इसे निगल गयी थी किंतु इसने अपने हाथ से उसका पेट फाड़कर उसकी पीठ की हड्डी को उखाड़ दिया था । अंत में इसके पौरुष से पराजित होकर देवी इसे गंगा में छोड़कर भाग गयी थी । इसने पिशाच विद्याधर को हराकर उसकी पुत्री हिडिंबा को विवाहा था । हिडिंबा से इसका एक पुत्र हुआ था जिसका नाम मुद्रक था । इसने भीम वन में असुर राक्षस को हराया तथा मनुष्य भक्षी राजा बक को पराजित किया था । राजा कर्ण के हाथी को मद रहित कर भयभीत जन-समूह को निर्भय बनाया था । राजा वृषभध्वज ने अपनी दिशानंदा कन्या इसको विवाही थी । मणिभद्र यक्ष ने इसे शत्रुक्षयकारिणी गदा प्रदान की थी । चूलिका नगरी का राजकुमार कीचक द्रोपदी पर मोहित था । उसकी कुटिलताओं को देखकर द्रौपदी का वेष धारण कर इसने उसे मारा था । कौरव-पांडव युद्ध में इसने निन्यानवे कौरवों का वध किया था । दुर्योधन इसी की गदा की मार से मरणोन्मुख होकर पृथिवी पर गिरा था । आयु के अंत में नेमिनाथ तीर्थंकर से इसने तेरह प्रकार का चरित्र धारण कर लिया था । महातपश्चरण में लीन रहते हुए इसने कुर्यधर द्वारा किया गया उपसर्ग सहा । कुर्यधर ने गर्म लोहवस्त्र भी इसे पहनाये । फिर भी यह ध्यान में ही लीन रहा । इस उपसर्ग को जीतकर एवं कर्मों का क्षय करके यह केवली हुआ और इसे मुक्ति प्राप्त हुई । इसका अपर नाम भीमसेन था । महापुराण 72.208, 266-270, हरिवंशपुराण - 45.1-7,हरिवंशपुराण - 45.37-38, 93-118, 46.27-41, पांडवपुराण 8.167-168, 208-220, 10.52-65, 73-76, 92-117, 12. 166-168, 356-361, 14. 55-65, 75-78, 131-134, 168-169, 188, 203-206, 17.245-246, 289-295, 20.266-267, 294-296, 25.12-14, 62-74, 131-133