मार्गणा: Difference between revisions
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<li class="HindiText">[[ #8 |20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अंतर्भाव]]</li></ol><br /> | <li class="HindiText">[[ #8 |20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अंतर्भाव]]</li></ol><br /> | ||
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<li | <li name="1" id="1"><span class="HindiText"><strong> मार्गणा का स्वरूप </span></strong> <span class="HindiText"><br /> | ||
[[ ऊहा ]] [[ईहा]], [[अपोह | अपोहा]], मार्गणा, [[गवेषणा]] और [[मीमांसा]] ये एकार्थवाचक नाम हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/56</span> <span class="PrakritText">जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा। ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति।</span> = <span class="HindiText">जिन-प्रवचनदृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गण किये जाते हैं अर्थात् खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवों का अन्वेषण करने वाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में 14 कही गयी हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/ गाथा 83/132); ( गोम्मटसार जीवकांड/141/354 )</span>।</span><br /> | <span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/56</span> <span class="PrakritText">जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा। ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति।</span> = <span class="HindiText">जिन-प्रवचनदृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गण किये जाते हैं अर्थात् खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवों का अन्वेषण करने वाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में 14 कही गयी हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/ गाथा 83/132); ( गोम्मटसार जीवकांड/141/354 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,2/131/3</span> <span class="SanskritText">चतुर्दशानां जीवस्थानानां चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थ:। तेषां मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ:। ... चतुर्दश जीवसमासा: सदादिविशिष्टा: मार्ग्यंतेऽस्मिंननेन वेति मार्गणा।</span> = <span class="HindiText">चौदह जीवसमासों से यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित हैं। मार्गणा, गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं।<span class="GRef"> ( धवला 7/2,1,3/7/8 )</span>।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,2/131/3</span> <span class="SanskritText">चतुर्दशानां जीवस्थानानां चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थ:। तेषां मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ:। ... चतुर्दश जीवसमासा: सदादिविशिष्टा: मार्ग्यंतेऽस्मिंननेन वेति मार्गणा।</span> = <span class="HindiText">चौदह जीवसमासों से यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित हैं। मार्गणा, गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं।<span class="GRef"> ( धवला 7/2,1,3/7/8 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 13/5,5,50/282/8</span> <span class="SanskritText">गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा: मृग्यंते अंविष्यंते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुति:।</span> = <span class="HindiText">गतियों में अर्थात् मार्गणास्थानों में (देखें [[ #2 | आगे मार्गणा के भेद ]]) चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति हैं।<br /> | <span class="GRef">धवला 13/5,5,50/282/8</span> <span class="SanskritText">गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा: मृग्यंते अंविष्यंते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुति:।</span> = <span class="HindiText">गतियों में अर्थात् मार्गणास्थानों में (देखें [[ #2 | आगे मार्गणा के भेद ]]) चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति हैं।<br /> | ||
देखें [[ आदेश#1 | आदेश - 1 ]](आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना मार्गणा है)। </span></li> | देखें [[ आदेश#1 | आदेश - 1 ]](आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना मार्गणा है)। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="2" id="2"><strong> चौदह मार्गणास्थानों के नाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 4/132</span> <span class="PrakritText">गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।2।</span> = <span class="HindiText">गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं। <span class="GRef">( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 2/6); ( बोधपाहुड़/ मूल/33); (मूलाचार/1197); (पंचसंग्रह/प्राकृत/1/57); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/26 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/142/355 ); ( समयसार / आत्मख्याति/53 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/42 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/1 पर उद्धृत गाथा )</span>।</span></li> | <span class="GRef">षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 4/132</span> <span class="PrakritText">गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।2।</span> = <span class="HindiText">गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं। <span class="GRef">( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 2/6); ( बोधपाहुड़/ मूल/33); (मूलाचार/1197); (पंचसंग्रह/प्राकृत/1/57); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/26 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/142/355 ); ( समयसार / आत्मख्याति/53 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/42 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/1 पर उद्धृत गाथा )</span>।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> सांतर मार्गणा निर्देश</strong> <br /> | ||
एक मार्गणा को छोड़ने के पश्चात् पुन: उसी में लौटने के लिए कुछ काल का अंतर पड़ता हो तब वह मार्गणा सांतर कहलाती है। वे आठ हैं। </span><br /> | एक मार्गणा को छोड़ने के पश्चात् पुन: उसी में लौटने के लिए कुछ काल का अंतर पड़ता हो तब वह मार्गणा सांतर कहलाती है। वे आठ हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/58</span><span class="PrakritText"> मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि। सुहमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतराअट्ठं</span> =<span class="HindiText"> अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियक मिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसांपराय संयम, सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशम सम्यक्त्व ये आठ सांतर मार्गणा होती हैं।</span></li> | <span class="GRef">पंचसंग्रह/प्राकृत/1/58</span><span class="PrakritText"> मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि। सुहमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतराअट्ठं</span> =<span class="HindiText"> अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियक मिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसांपराय संयम, सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशम सम्यक्त्व ये आठ सांतर मार्गणा होती हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="4" id="4"><strong> मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,4/133/4</span> <span class="SanskritText">अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते। तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति। नात्र ते संति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलंभात्; तद्यथा, मृगयिता भव्यपुंडरीक: तत्त्वार्थश्रद्धालुर्जीवः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजीवा मृग्यं मृग्यस्याधारतामास्कंदंति मृगयितु: करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकार से अन्वेषण देखा जाता है–मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परंतु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य-पुंडरीक <strong>मृगयिता</strong> है, चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव <strong>मृग्य</strong> हैं, जो इस मृग्य के आधारभूत हैं अर्थात् मृगयिता को अन्वेषण करने में अत्यंत सहायक हैं ऐसी गति आदि <strong>मार्गणा</strong> हैं तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक <strong>मार्गणा</strong> के उपाय हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 )</span>।</span></li> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,4/133/4</span> <span class="SanskritText">अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते। तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति। नात्र ते संति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलंभात्; तद्यथा, मृगयिता भव्यपुंडरीक: तत्त्वार्थश्रद्धालुर्जीवः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजीवा मृग्यं मृग्यस्याधारतामास्कंदंति मृगयितु: करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकार से अन्वेषण देखा जाता है–मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परंतु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य-पुंडरीक <strong>मृगयिता</strong> है, चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव <strong>मृग्य</strong> हैं, जो इस मृग्य के आधारभूत हैं अर्थात् मृगयिता को अन्वेषण करने में अत्यंत सहायक हैं ऐसी गति आदि <strong>मार्गणा</strong> हैं तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक <strong>मार्गणा</strong> के उपाय हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 )</span>।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,2/131/6</span> <span class="SanskritText">‘इमानि’ इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यंते। नार्थमार्गणास्थानानि। तेषां देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते:।</span> = <span class="HindiText">‘इमानि’ सूत्र में आये हुए इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। और भी देखें | <span class="GRef">धवला 1/1,1,2/131/6</span> <span class="SanskritText">‘इमानि’ इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यंते। नार्थमार्गणास्थानानि। तेषां देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते:।</span> = <span class="HindiText">‘इमानि’ सूत्र में आये हुए इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। </span><br/> | ||
<li | <span class="HindiText">और भी देखें गति मार्गणा में भावगति इष्ट है–देखें [[ गति#2.5 | गति - 2.5]] </span><br/> | ||
<span class="GRef">धवला 4/1,3,78/133/4</span> <span class="PrakritText">सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवलंभादो। जेण एइंदिएसु आओ | <span class="HindiText">इंद्रिय मार्गणा में भावइंद्रिय इष्ट है–देखें [[ इंद्रिय#3.1 | इंद्रिय - 3.1]] </span><br/> | ||
<span class="HindiText">वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है–देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1 ]] </span><br/> | |||
<span class="HindiText">संयम मार्गणा में भावसंयम इष्ट है–देखें [[ चारित्र#3.8 | चारित्र - 3.8]], [[संयतासंयत#2 | संयतासंयत - 2]]</span><br/> | |||
<span class="HindiText"> लेश्या मार्गणा में भावलेश्या इष्ट है–देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]]।</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="6" id="6"><strong> सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है</strong> </span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 4/1,3,78/133/4</span> <span class="PrakritText">सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवलंभादो। जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्वं। तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्ता त्ति। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेंद्रियों में आय का प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि त्रसराशि में सादिबंधक जीव पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 15/262/4</span> <span class="SanskritText">केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे। जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भुजगार व अल्पतर उदीरकों की समानता किस कारण से कही जाती है ? <strong>उत्तर</strong>–जितने जीव मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यकत्व को प्राप्त होते हैं ( इस कारण उनकी समानता है)।<br /> | <span class="GRef">धवला 15/262/4</span> <span class="SanskritText">केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे। जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भुजगार व अल्पतर उदीरकों की समानता किस कारण से कही जाती है ? <strong>उत्तर</strong>–जितने जीव मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यकत्व को प्राप्त होते हैं ( इस कारण उनकी समानता है)।<br /> | ||
देखें [[ मोक्ष#2.5 | मोक्ष - 2.5 ]]जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही निगोद से निकलते हैं।</span></li> | देखें [[ मोक्ष#2.5 | मोक्ष - 2.5 ]]जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही निगोद से निकलते हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="7" id="7"><strong> मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,115/353/7</span> <span class="SanskritText"> ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्।</span | <span class="GRef">धवला 1/1,1,115/353/7</span> <span class="SanskritText"> ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्।</span> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,144/395/5</span> <span class="SanskritText">आंरवनांतस्थनिंबानामांरवनव्यपदेशवंमिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्यायः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से ज्ञान के प्रतिपक्षभूत अज्ञान का ज्ञानमार्गणा में अंतर्भाव कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे–पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है। अथवा जिस प्रकार आम्रवन के भीतर रहने वाले नीम के वृक्षों को आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि को सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,144/395/5</span> <span class="SanskritText">आंरवनांतस्थनिंबानामांरवनव्यपदेशवंमिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्यायः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से ज्ञान के प्रतिपक्षभूत अज्ञान का ज्ञानमार्गणा में अंतर्भाव कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे–पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है। अथवा जिस प्रकार आम्रवन के भीतर रहने वाले नीम के वृक्षों को आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि को सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है। </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 4/1,4,138/287/10</span> <span class="PrakritText">जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण जुज्जदे। ण, अंब णिंबवणं व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणा में संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनों का ग्रहण होता है तो इस मार्गणा को संयमानुवाद का नाम देना युक्त नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ‘आम्रवन’ वा ‘निंबवन’ इन नामों के समान प्राधान्यपद का आश्रय लेकर ‘संयमानुवाद से’ यह व्यवपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।</span></li> | <span class="GRef">धवला 4/1,4,138/287/10</span> <span class="PrakritText">जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण जुज्जदे। ण, अंब णिंबवणं व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणा में संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनों का ग्रहण होता है तो इस मार्गणा को संयमानुवाद का नाम देना युक्त नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ‘आम्रवन’ वा ‘निंबवन’ इन नामों के समान प्राधान्यपद का आश्रय लेकर ‘संयमानुवाद से’ यह व्यवपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText" name="8" id="8"><strong> 20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अंतर्भाव</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">( धवला 2/1,1/414/2 )</span> | <span class="GRef">(धवला 2/1,1/414/2)</span></span></li> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="655"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="655"> | ||
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<tr> | <tr> | ||
<td width="42" valign="top"><p> </p></td> | <td width="42" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">भय </span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">क्रोध | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">क्रोध व मान में </span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">भय | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">भय संज्ञा द्वेषरूप है। </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="42" valign="top"><p> </p></td> | <td width="42" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">मैथुन</span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">वेद | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">वेद मार्गणा</span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञा | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">संज्ञा स्त्री आदि वेद के तीव्रोदयरूप हैं।</span></p></td> | ||
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<td width="42" valign="top"><p> </p></td> | <td width="42" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">परिग्रह</span></p></td> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">परिग्रह</span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">लोभ</span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">परिग्रह | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">परिग्रह लोभ का कार्य है।</span></p></td> | ||
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<tr> | <tr> | ||
Line 121: | Line 126: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="42" valign="top"><p> </p></td> | <td width="42" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">साकार</span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">ज्ञान</span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">साकारोपयोग | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">साकारोपयोग ज्ञानरूप है। </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="42" valign="top"><p> </p></td> | <td width="42" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="177" valign="top"><p><span class="HindiText">अनाकार</span></p></td> | ||
<td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="124" valign="top"><p><span class="HindiText">दर्शन</span></p></td> | ||
<td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">अनाकारोपयोग | <td width="313" valign="top"><p><span class="HindiText">अनाकारोपयोग दर्शनरूप है।</span></p></td> | ||
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<li | <li class="HindiText"> मार्गणाएँ विशेष–देखें [[ गति_आदि_की_अपेक्षा_वेद_मार्गणा_का_स्वामित्व | गति ]] [[ इंद्रिय | इंद्रिय 4]] ; [[ काय#2.1 | काय 2.1 ]] ; [[ योग#3.1 | योग 3.1 ]] ; [[ वेद_निर्देश | वेद_निर्देश]] ; [[ कषाय#1.4 | कषाय 1.4 ]]; [[ ज्ञान#1.1.4 | ज्ञान 1.1.4 ]] ; [[ संयम#1.4 | संयम 1.4 ]] ; [[ दर्शन_उपयोग_1#5.1 | दर्शन_उपयोग_1 5.1 ]]; [[ लेश्या#1.2 | लेश्या 1.2 ]] ; [[ भव्य ]] ; [[ सम्यग्दर्शन#4.1.1 | सम्यग्दर्शन 4.1.1 ]] ; [[ संज्ञी | संज्ञी 2,3 ]]; [[ आहारक#1.1 | आहारक 1.1 ]] । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> 20 प्ररूपणा निर्देश।–देखें [[ प्ररूपणा ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> 14 मार्गणाओं में 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> 14 मार्गणाओं में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व ये 8 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]] ; [[ संख्या ]] ; [[ क्षेत्र ]]; [[ स्पर्शन ]] ; [[ काल ]] ; [[ अंतर ]]; [[ भाव ]]; [[ अल्पबहुत्व ]] । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> मार्गणाओं में कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व।–देखें [[ बंध ]] ; [[ उदय ]]; [[ सत्त्व ]] । </span></li> | ||
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Latest revision as of 21:57, 14 February 2024
- मार्गणा का स्वरूप
- चौदह मार्गणास्थानों के नाम
- सांतर मार्गणा निर्देश
- मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार
- मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं
- सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है
- मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?
- 20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अंतर्भाव
- मार्गणा का स्वरूप
ऊहा ईहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये एकार्थवाचक नाम हैं।
पंचसंग्रह/प्राकृत/1/56 जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा। ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति। = जिन-प्रवचनदृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गण किये जाते हैं अर्थात् खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवों का अन्वेषण करने वाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में 14 कही गयी हैं। ( धवला 1/1,1,4/ गाथा 83/132); ( गोम्मटसार जीवकांड/141/354 )।
धवला 1/1,1,2/131/3 चतुर्दशानां जीवस्थानानां चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थ:। तेषां मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ:। ... चतुर्दश जीवसमासा: सदादिविशिष्टा: मार्ग्यंतेऽस्मिंननेन वेति मार्गणा। = चौदह जीवसमासों से यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित हैं। मार्गणा, गवेषणा और अन्वेषण ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं। ( धवला 7/2,1,3/7/8 )।
धवला 13/5,5,50/282/8 गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा: मृग्यंते अंविष्यंते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुति:। = गतियों में अर्थात् मार्गणास्थानों में (देखें आगे मार्गणा के भेद ) चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति हैं।
देखें आदेश - 1 (आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना मार्गणा है)। - चौदह मार्गणास्थानों के नाम
षट्खंडागम/1/1,1/ सूत्र 4/132 गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।2। = गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं। ( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 2/6); ( बोधपाहुड़/ मूल/33); (मूलाचार/1197); (पंचसंग्रह/प्राकृत/1/57); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/26 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/142/355 ); ( समयसार / आत्मख्याति/53 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/42 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/1 पर उद्धृत गाथा )। - सांतर मार्गणा निर्देश
एक मार्गणा को छोड़ने के पश्चात् पुन: उसी में लौटने के लिए कुछ काल का अंतर पड़ता हो तब वह मार्गणा सांतर कहलाती है। वे आठ हैं।
पंचसंग्रह/प्राकृत/1/58 मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि। सुहमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतराअट्ठं = अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियक मिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसांपराय संयम, सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशम सम्यक्त्व ये आठ सांतर मार्गणा होती हैं। - मार्गणा प्रकरण के चार अधिकार
धवला 1/1,1,4/133/4 अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते। तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति। नात्र ते संति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलंभात्; तद्यथा, मृगयिता भव्यपुंडरीक: तत्त्वार्थश्रद्धालुर्जीवः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजीवा मृग्यं मृग्यस्याधारतामास्कंदंति मृगयितु: करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति। = प्रश्न–लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकार से अन्वेषण देखा जाता है–मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परंतु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य-पुंडरीक मृगयिता है, चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव मृग्य हैं, जो इस मृग्य के आधारभूत हैं अर्थात् मृगयिता को अन्वेषण करने में अत्यंत सहायक हैं ऐसी गति आदि मार्गणा हैं तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक मार्गणा के उपाय हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 )। - मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भावमार्गणा इष्ट हैं
धवला 1/1,1,2/131/6 ‘इमानि’ इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यंते। नार्थमार्गणास्थानानि। तेषां देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते:। = ‘इमानि’ सूत्र में आये हुए इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है।
और भी देखें गति मार्गणा में भावगति इष्ट है–देखें गति - 2.5
इंद्रिय मार्गणा में भावइंद्रिय इष्ट है–देखें इंद्रिय - 3.1
वेद मार्गणा में भाववेद इष्ट है–देखें वेद - 2.1
संयम मार्गणा में भावसंयम इष्ट है–देखें चारित्र - 3.8, संयतासंयत - 2
लेश्या मार्गणा में भावलेश्या इष्ट है–देखें लेश्या - 4। - सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होता है
धवला 4/1,3,78/133/4 सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवलंभादो। जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्वं। तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्ता त्ति। = क्योंकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेंद्रियों में आय का प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि त्रसराशि में सादिबंधक जीव पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं।
धवला 15/262/4 केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे। जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छंति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति। = प्रश्न–भुजगार व अल्पतर उदीरकों की समानता किस कारण से कही जाती है ? उत्तर–जितने जीव मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्व से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यकत्व को प्राप्त होते हैं ( इस कारण उनकी समानता है)।
देखें मोक्ष - 2.5 जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने ही निगोद से निकलते हैं। - मार्गणा प्रकरण में प्रतिपक्षी स्थानों का भी ग्रहण क्यों ?
धवला 1/1,1,115/353/7 ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्। धवला 1/1,1,144/395/5 आंरवनांतस्थनिंबानामांरवनव्यपदेशवंमिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्यायः। = प्रश्न–ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से ज्ञान के प्रतिपक्षभूत अज्ञान का ज्ञानमार्गणा में अंतर्भाव कैसे संभव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे–पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है। अथवा जिस प्रकार आम्रवन के भीतर रहने वाले नीम के वृक्षों को आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि को सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है।
धवला 4/1,4,138/287/10 जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण जुज्जदे। ण, अंब णिंबवणं व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए। = प्रश्न–यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणा में संयम, संयमासंयम और असंयम इन तीनों का ग्रहण होता है तो इस मार्गणा को संयमानुवाद का नाम देना युक्त नहीं है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ‘आम्रवन’ वा ‘निंबवन’ इन नामों के समान प्राधान्यपद का आश्रय लेकर ‘संयमानुवाद से’ यह व्यवपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है। - 20 प्ररूपणाओं का 14 मार्गणाओं में अंतर्भाव
(धवला 2/1,1/414/2)
सं. |
अंतर्मांय प्ररूपणा |
मार्गणा |
हेतु |
1 |
पर्याप्ति |
काय व इंद्रिय |
एकेंद्रिय आदि सूक्ष्म बादर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेदों का कथन दोनों में समान है। |
2 |
जीव समास |
||
3 |
प्राण― |
|
|
|
उच्छ्वास, वचनबल, मनोबल |
काय व इंद्रिय |
तीनों प्राण पर्याप्तियों के कार्य है। |
|
काय बल |
योग |
‘योग’ मन वचन काय के बलरूप हैं। |
|
आयु |
गति |
दोनों अविनाभावी हैं। |
|
इंद्रिय |
ज्ञान |
इंद्रिय ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप है। |
4 |
संज्ञा― |
कषाय में |
संज्ञा में राग या द्वेष रूप हैं। |
|
आहार |
माया व लोभ में |
आहार संज्ञा रागरूप है। |
|
भय |
क्रोध व मान में |
भय संज्ञा द्वेषरूप है। |
|
मैथुन |
वेद मार्गणा |
संज्ञा स्त्री आदि वेद के तीव्रोदयरूप हैं। |
|
परिग्रह |
लोभ |
परिग्रह लोभ का कार्य है। |
5 |
उपयोग― |
|
|
|
साकार |
ज्ञान |
साकारोपयोग ज्ञानरूप है। |
|
अनाकार |
दर्शन |
अनाकारोपयोग दर्शनरूप है। |
- अन्य संबंधित विषय
- मार्गणाएँ विशेष–देखें गति इंद्रिय 4 ; काय 2.1 ; योग 3.1 ; वेद_निर्देश ; कषाय 1.4 ; ज्ञान 1.1.4 ; संयम 1.4 ; दर्शन_उपयोग_1 5.1 ; लेश्या 1.2 ; भव्य ; सम्यग्दर्शन 4.1.1 ; संज्ञी 2,3 ; आहारक 1.1 ।
- 20 प्ररूपणा निर्देश।–देखें प्ररूपणा ।
- 14 मार्गणाओं में 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- 14 मार्गणाओं में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व ये 8 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ; संख्या ; क्षेत्र ; स्पर्शन ; काल ; अंतर ; भाव ; अल्पबहुत्व ।
- मार्गणाओं में कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व।–देखें बंध ; उदय ; सत्त्व ।
- मार्गणाएँ विशेष–देखें गति इंद्रिय 4 ; काय 2.1 ; योग 3.1 ; वेद_निर्देश ; कषाय 1.4 ; ज्ञान 1.1.4 ; संयम 1.4 ; दर्शन_उपयोग_1 5.1 ; लेश्या 1.2 ; भव्य ; सम्यग्दर्शन 4.1.1 ; संज्ञी 2,3 ; आहारक 1.1 ।