तीर्थंकर: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
|||
(38 intermediate revisions by 6 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText"> संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक | <span class="HindiText"> संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में वे 24 होते हैं। उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पाँच अवसरों पर महान् उत्सव होते हैं जिन्हें पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बनने के संस्कार षोडशकारण रूप अत्यंत विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बँधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थंकर वा केवली के पादमूल में होने संभव है। ऐसे व्यक्ति प्राय: देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और पीछे तीर्थंकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनंतर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं। </span> <br /><br> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li><strong>[[#1 |तीर्थंकर निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[#1 |तीर्थंकर निर्देश]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#1.1 | तीर्थंकर का लक्षण। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.1 | तीर्थंकर का लक्षण। ]] | ||
<li> [[#1.2 | तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते।]] | <li class="HindiText"> [[#1.2 | तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते।]] | ||
<li> [[#1.3 | गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.3 | गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते। ]] | ||
<li> [[#1.4 | तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.4 | तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं। ]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> तीर्थंकर के जन्म पर रत्नवृष्टि आदि ‘अतिशय’।–देखें [[ कल्याणक ]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर के जन्म पर रत्नवृष्टि आदि ‘अतिशय’।–देखें [[ कल्याणक ]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li> [[#1.5 | कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् प्रकृति का बंध करके उसी भव से मुक्त हो सकता है ? ]] | <li class="HindiText"> [[#1.5 | कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् प्रकृति का बंध करके उसी भव से मुक्त हो सकता है ? ]] | ||
<li> [[#1.6 | तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.6 | तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ। ]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> केवलज्ञान के पश्चात् शरीर 5000 धनुष ऊपर चला जाता है।–देखें [[ केवली#2 | केवली - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> केवलज्ञान के पश्चात् शरीर 5000 धनुष ऊपर चला जाता है।–देखें [[ केवली#2 | केवली - 2]]।</li> | ||
<li> तीर्थंकरों का शरीर मृत्यु के पश्चात् कर्पूरवत् उड़ जाता है।–देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकरों का शरीर मृत्यु के पश्चात् कर्पूरवत् उड़ जाता है।–देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li> [[#1.7 | हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.7 | हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है। ]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> तीर्थंकर एक काल में एक क्षेत्र में एक ही होता है। तीर्थंकर उत्कृष्ट 170 व जघन्य 20 होते हैं।–देखें [[ विदेह#1 | विदेह - 1]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर एक काल में एक क्षेत्र में एक ही होता है। तीर्थंकर उत्कृष्ट 170 व जघन्य 20 होते हैं।–देखें [[ विदेह#1 | विदेह - 1]]।</li> | ||
<li> दो तीर्थंकरों का परस्पर मिलाप संभव नहीं है।–देखें [[ शलाका पुरुष#1 | शलाका पुरुष - 1]]।</li> | <li class="HindiText"> दो तीर्थंकरों का परस्पर मिलाप संभव नहीं है।–देखें [[ शलाका पुरुष#1 | शलाका पुरुष - 1]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li> [[#1.8 | तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव है। ]] | <li class="HindiText"> [[#1.8 | तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव है। ]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> तीर्थंकर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते हैं।–देखें [[ छेदोपस्थापना#5 | छेदोपस्थापना - 5]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते हैं।–देखें [[ छेदोपस्थापना#5 | छेदोपस्थापना - 5]]।</li> | ||
<li> प्रथम व अंतिम तीर्थों में छेदोपस्थापना चारित्र की प्रधानता।–देखें [[ छेदोपस्थापना ]]।</li> | <li class="HindiText"> प्रथम व अंतिम तीर्थों में छेदोपस्थापना चारित्र की प्रधानता।–देखें [[ छेदोपस्थापना ]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="9"> | <ol start="9"> | ||
<li> [[#1.9 | सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में अणुव्रती हो | <li class="HindiText"> [[#1.9 | सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में अणुव्रती हो जाते हैं। ]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में 11 अंग का ज्ञान प्राप्त किया था।–देखें [[ वह वह तीर्थंकर ]]।</li> | <li class="HindiText"> सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में 11 अंग का ज्ञान प्राप्त किया था।–देखें [[ वह वह तीर्थंकर ]]।</li> | ||
<li> स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं।–देखें [[ वेद#7.9 | वेद - 7.9]]।</li> | <li class="HindiText"> स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं।–देखें [[ वेद#7.9 | वेद - 7.9]]।</li> | ||
<li> तीर्थंकरों के गुण अतिशय 1008 लक्षणादि।–देखें [[ अर्हंत#1 | अर्हंत - 1]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकरों के गुण अतिशय 1008 लक्षणादि।–देखें [[ अर्हंत#1 | अर्हंत - 1]]।</li> | ||
<li> तीर्थंकरों के साता-असाता के उदयादि संबंधी।–देखें [[ केवली#4 | केवली - 4]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकरों के साता-असाता के उदयादि संबंधी।–देखें [[ केवली#4 | केवली - 4]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>[[#2 |तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[#2 |तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#2.1 | तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण।]] | <li class="HindiText"> [[#2.1 | तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण।]] | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | ||
<li> तीर्थंकर प्रकृति के बंध योग्य परिणाम−देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर प्रकृति के बंध योग्य परिणाम−देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]।</li> | ||
<li> दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएँ−देखें [[ | <li class="HindiText"> दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएँ−देखें [[दर्शनविशुद्धि]], [[विनयसंपन्नता]], [[शीलव्रतेश्वनतिचार]], [[अभीक्ष्णज्ञानोपयोग]], [[संवेग]], [[शक्तितस्त्याग]], [[शक्तितस्तप]], [[साधुसमाधि]], [[वैयावृत्त्य]], [[अर्हद्भक्ति]], [[आचार्यभक्ति]], [[बहुश्रुत भक्ति]], [[प्रवचन भक्ति]], [[आवश्यकापरिहाणि]], [[मार्गप्रभावना]], [[वात्सल्य#4 | प्रवचन वात्सल्य]] ।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li> [[#2.2 | इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही होता है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.2 | इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही होता है।]]</li> | ||
<li> [[#2.3 | परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.3 | परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं।]]</li> | ||
<li> [[#2.4 | मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.4 | मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है।]]</li> | ||
<li> [[#2.5 | अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.5 | अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है।]]</li> | ||
<li> [[#2.6 | तीर्थंकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरें भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.6 | तीर्थंकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरें भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।]]</li> | ||
<li> [[#2.7 | तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व।]]</li> | <li class="HindiText"> [[#2.7 | तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li> तीर्थंकर व आहारक दोनों प्रकृतियों का युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं−देखें [[ सत्त्व#2 | सत्त्व - 2]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर व आहारक दोनों प्रकृतियों का युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं−देखें [[ सत्त्व#2 | सत्त्व - 2]]।</li> | ||
<li> तीर्थंकर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियों का भी उल्लेख क्यों नहीं किया।–देखें [[ नामकर्म ]]।</li> | <li class="HindiText"> तीर्थंकर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियों का भी उल्लेख क्यों नहीं किया।–देखें [[ नामकर्म ]]।</li> | ||
<li> तीर्थंकर प्रकृति व उच्चगोत्र में अंतर।–देखें [[ | <li class="HindiText"> तीर्थंकर प्रकृति व उच्चगोत्र में अंतर।–देखें [[ वर्ण व्यवस्था#1.6 | वर्ण व्यवस्था - 1.6]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><strong>[[#3 |तीर्थंकर प्रकृति बंध में | <li class="HindiText"><strong>[[#3 |तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम ]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#3.1 | तीर्थंकर प्रकृति बंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.1 | तीर्थंकर प्रकृति बंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम। ]]</li> | ||
<li> [[#3.2 | प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.2 | प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम। ]]</li> | ||
<li> [[#3.3 | नरक तिर्यंचगति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.3 | नरक तिर्यंचगति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.4 | इसके साथ केवल देवगति बँधती है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.4 | इसके साथ केवल देवगति बँधती है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.5 | इसके बंध के स्वामी। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.5 | इसके बंध के स्वामी। ]]</li> | ||
<li> [[#3.6 | मनुष्य व तिर्यगायु का बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.6 | मनुष्य व तिर्यगायु का बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.7 | सभी सम्यक्त्व में तथा 4-8 गुणस्थानों में बँधने का नियम। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.7 | सभी सम्यक्त्व में तथा 4-8 गुणस्थानों में बँधने का नियम। ]]</li> | ||
<li> [[#3.8 | तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.8 | तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव। ]]</li> | ||
<li> [[#3.9 | बद्ध नरकायुष्क मरणकाल में सम्यक्त्व से च्युत होता है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.9 | बद्ध नरकायुष्क मरणकाल में सम्यक्त्व से च्युत होता है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.10 | उत्कृष्ट | <li class="HindiText"> [[#3.10 | उत्कृष्ट आयु वाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते। ]]</li> | ||
<li> [[#3.11 | नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.11 | नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते। ]]</li> | ||
<li> [[#3.12 | वहाँ भी अंतिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.12 | वहाँ भी अंतिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.13 | तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.13 | तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है। ]]</li> | ||
<li> [[#3.14 | नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#3.14 | नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं। ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<br /> | <br /> | ||
<li><strong>[[#4 |तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[#4 |तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान ]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#4.1 | मनुष्य गति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों? ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.1 | मनुष्य गति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों? ]]</li> | ||
<li> [[#4.2 | केवली के पादमूल में ही बँधने का नियम क्यों? ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.2 | केवली के पादमूल में ही बँधने का नियम क्यों? ]]</li> | ||
<li> [[#4.3 | अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.3 | अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है। ]]</li> | ||
<li> [[#4.4 | तिर्यंचगति में उसके बंध पर सर्वथा निषेध क्यों? ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.4 | तिर्यंचगति में उसके बंध पर सर्वथा निषेध क्यों? ]]</li> | ||
<li> [[#4.5 | नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है? ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.5 | नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है? ]]</li> | ||
<li> [[#4.6 | कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों? ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.6 | कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों? ]]</li> | ||
<li> [[#4.7 | प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि-भेद। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#4.7 | प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि-भेद। ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<br /> | <br /> | ||
<li><strong>[[#5 |तीर्थंकर परिचय सूची ]]</strong> | <li class="HindiText"><strong>[[#5 |तीर्थंकर परिचय सूची ]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#5.1 | भूत, भावी तीर्थंकर परिचय। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#5.1 | भूत, भावी तीर्थंकर परिचय। ]]</li> | ||
<li> [[#5.2 | वर्तमान चौबीसी के पूर्वभव नं. 2 का परिचय। ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#5.2 | वर्तमान चौबीसी के पूर्वभव नं. 2 का परिचय। ]]</li> | ||
<li> [[#5.3 | वर्तमान चौबीसी के वर्तमान भव का परिचय (सामान्य) ]]</li> | <li class="HindiText"> [[#5.3 | वर्तमान चौबीसी के वर्तमान भव का परिचय (सामान्य) ]]</li> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> [[#5.3.1 | | <li class="HindiText"> [[#5.3.1 | गर्भावतरण ]] </li> | ||
<li> [[#5.3.2 | | <li class="HindiText"> [[#5.3.2 | जन्मावतरण ]] </li> | ||
<li> [[#5.3.3 | दीक्षा | <li class="HindiText"> [[#5.3.3 | दीक्षा धारण ]] </li> | ||
<li> [[#5.3.4 | | <li class="HindiText"> [[#5.3.4 | ज्ञानावतरण ]] </li> | ||
<li> [[#5.3.5 | निर्वाण- | <li class="HindiText"> [[#5.3.5 | निर्वाण-प्राप्ति ]] </li> | ||
<li> [[#5.3.6 | संघ ]] </li> | <li class="HindiText"> [[#5.3.6 | संघ ]] </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li> [[#5.4 | वर्तमान चौबीसी के आयुकाल का | <li class="HindiText"> [[#5.4 | वर्तमान चौबीसी के आयुकाल का विभाग परिचय ]]</li> | ||
<li> [[#5.5 | वर्तमान चौबीसी के तीर्थकाल व तत्कालीन | <li class="HindiText"> [[#5.5 | वर्तमान चौबीसी के तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध पुरुष ]]</li> | ||
<li> [[#5.6 | विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का | <li class="HindiText"> [[#5.6 | विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का परिचय ]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 122: | Line 122: | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText" id="1"><strong>तीर्थंकर निर्देश</strong> <br /></span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText" id="1.1"><strong> तीर्थंकर का लक्षण</strong> <br /></span> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1 गाथा 44/58 </span> <span class="SanskritText">सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठै:। विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वे चतु:षष्टि:।44। </span> | |||
<span class="HindiText">=जिनके ऊपर चंद्रमा के समान धवल चौसठ चंवर ढुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर | <span class="HindiText">=जिनके ऊपर चंद्रमा के समान धवल चौसठ चंवर ढुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर कहलाते हैं।</span><br> | ||
< | <span class="GRef"> भगवती आराधना/302/516 </span><span class="PrakritText">तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि। </span> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/302/516/7 </span><span class="SanskritText">श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकर:। ...मार्गो रत्नत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति।</span> | |||
<span class="HindiText">=मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ऐसे चार ज्ञानों के धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकों में चतुर्णिकाय देवों से जो पूजे गये हैं, जिनकी नियम से मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधर को भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।...अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग को जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।</span> | <span class="HindiText">=मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ऐसे चार ज्ञानों के धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकों में चतुर्णिकाय देवों से जो पूजे गये हैं, जिनकी नियम से मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधर को भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।...अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग को जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।</span><br> | ||
<span class="GRef"> समाधि शतक/टीका/2/222/24 </span><span class="SanskritText">तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवत:।</span> | |||
<span class="HindiText"> =संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं, उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/686 </span><span class="PrakritText">सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहिं चामरेहिं चउसट्ठिहिं विज्जमाणो सो।686।</span> | |||
<span class="HindiText"> =जो सकल लोक का एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुंदे का फूल के समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थंकर जानना।</span> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText" id="1.2"><strong>तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/14/165 </span><span class="SanskritText">धाव्यो नियोजिताश्चास्य देव्य: शक्रेण सादरम् । मज्जने मंडने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च।165।</span> | |||
<span class="HindiText"> =इंद्र ने आदर सहित भगवान् को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीर के संस्कार करने और खिलाने के कार्य करने में अनेकों देवियों को धाय बनाकर नियुक्त किया था।165।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.3"><strong>गृहस्थावस्था में ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_43#78|हरिवंशपुराण - 43.78]] </span><span class="SanskritText">योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन। जानन्नपि न स ब्रू यान्न विद्मो केन हेतुना।78।</span> | |||
<span class="HindiText"> =[कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के धूमकेतु नामक असुर द्वारा चुराये जाने पर नारद कृष्ण से कहता है]...यहाँ जो तीन ज्ञान के धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे। किस कारण से नहीं कहेंगे ? यह मैं नहीं जानता।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.4"><strong>तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/6 </span><span class="SanskritText">अथ तृतीयभवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बद्धवा देवो भवेत् तस्य पंचकल्याणानि स्यु:। यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणदयश्च भवंति।</span> | |||
<span class="HindiText"> =तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधैं तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसकै छ: महीना अवशेष रहैं मनुष्यायु का बंध होइ अर पंच कल्याणक ताकैं होइ। बहुरि जाकै मिथ्यादृष्टि विषैं नरकायु का बंध भया था अर तीर्थंकर का सत्त्व होई तौ वह जीव नरक पृथ्वीविषैं उपजै तहाँ नरकायु सहित एक सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होई अर नारक उपसर्ग का निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई।<span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 )</span></span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.5"><strong>कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव हैं</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 </span><span class="SanskritText">तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणा संयमदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे।</span> | |||
<span class="HindiText> =तीर्थंकर बंध का प्रारंभ चरम शरीरीनिकैं असंयत देशसंयत गुणस्थानविषैं होइ तो तिनकैं तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होंइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विषैं होई तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/5 )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.6"><strong>तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> बोधपाहुड़/टीका /32/98 पर उद्धृत− </span><span class="PrakritText">तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्को य अद्धचक्की य। देवा य भूयभूमा आहारो णत्थि नीहारो।1। तथा तीर्थकराणां स्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुंतलास्तु भवंति।</span> | |||
<span class="HindiText> =तीर्थंकरों के, उनके पिताओं के, बलदेवों के, चक्रवर्ती के, अर्धचक्रवर्ती के, देवों के तथा भोगभूमिजों के आहार होता है परंतु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थंकरों के मूछ-दाढी नहीं होती परंतु शिर पर बाल होते हैं। </span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.7"><strong>हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/1620 </span><span class="PrakritText">सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो।1620।</span> | |||
<span class="HindiText>=(हुंडावसर्पिणी काल में) सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है।<span/></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.8"><strong>तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1617 </span><span class="PrakritText">तक्काले जायंते पढमजिणो पढमचक्की य।1617। </span> | |||
<span class="HindiText> =(हुंडावसर्पिणी) काल के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।1617।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="1.9"><strong>सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में देशव्रती हो जाते हैं</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/53/35 </span><span class="SanskritText">स्वायुराद्यष्टवर्षेभ्य: सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयम:।35।</span> | |||
<span class="HindiText> =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है।</span></li></ol></li> | |||
<li class="HindiText" id="2"><strong>तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश</strong><br /></span> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText" id="2.1"><strong>तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/7 </span><span class="SanskritText">आर्हंत्यकारणं तीर्थकरत्वनाम।</span> | |||
<span class="HindiText"> =आर्हंत्य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/11/40/580); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/12) </span> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,30/67/1 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम।</span> | |||
<span class="HindiText"> =जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,101/366/7 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरणामं।</span> | |||
<span class="HindiText"> =जिस कर्म के उदय से जीव पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है।</span><br /></li> | |||
<li class="HindiText" id="2.2"><strong> इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/111/15 </span><span class="SanskritText">स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् ।</span> | |||
<span class="HindiText">=स्त्रीवेदी अर नपुंसकवेदी कैं तीर्थंकर अर आहारक द्विक का उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के होइ अर बंध होने विषै किछु विरोध नाहीं।<br /> | |||
देखें [[ वेद#7.9 | वेद - 7.9]] षोडशकारण भावना भाने वाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता।</span><br /></li> | |||
<li class="HindiText" id="2.3"><strong>परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/111/98/6 </span><span class="SanskritText">कल्पस्त्रोषु च तीर्थबंधाभावात्।</span> | |||
<span class="HindiText">=कल्पवासिनी देवांगना के तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव नाहीं <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/112/99/13 )</span></span>।</li> | |||
<li class="HindiText" id="2.4"><strong>मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef">महाबंध/2/70/257/8</span> <span class="PrakritText">तित्थयरं उक्क.टि्ठदि. कस्स। अण्णद. मणुसस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स सागार-जागार. तप्पाओग्गस्स. मिच्छादिटि्ठमुहस्स।</span> | |||
<span class="HindiText"> =<strong>प्रश्न</strong>–तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी कौन है ? <strong>उत्तर</strong>−जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संक्लेश परिणाम वाला है और मिथ्यात्व के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="2.5"><strong>अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef">महाबंध/1/187/132/4</span> <span class="PrakritText">किण्णणीलासु तित्थयरं-सयुतं कादव्वं।</span> | |||
<span class="HindiText"> =कृष्ण और नील लेश्याओं में तीर्थंकर...को संयुक्त करना चाहिए।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 </span><span class="SanskritText">अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । बद्धनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्यो: कपोतलेश्ययैव गमनात् ।</span> | |||
<span class="HindiText"> =अशुभ लेश्या विषैं तीर्थंकर का प्रारंभ न होय बहुरि जाकैं नरकायु बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="2.6"><strong> तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे भव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/75/1 </span><span class="PrakritText">पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो।</span> | |||
<span class="HindiText"> =जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="2.7"><strong>तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef">[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#24|हरिवंशपुराण - 2.24]] </span><span class="SanskritText">प्रच्छन्नोऽभासयद्गर्भस्तां रवि: प्रावृषं यथा।24।</span> | |||
<span class="HindiText">=जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतु को सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणी को वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था।</span><br> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/12/96-97,163 </span><span class="SanskritText">षण्मासानिति सापप्तत् पुण्ये नाभिनृपालये। स्वर्गावतरणाद् भर्त्तु: प्राक्तरां द्युम्नसंतति:।96। पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता। अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविन:।97। तदा प्रभृति सुत्रामशासनात्ता: सिषेविरे। दिक्कुमार्योऽनुचारिण्य: तत्कालोचितकर्मभि:।163।</span> | |||
<span class="HindiText">=कुबेर ने स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा की थी।96। और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है।97। उसी समय से लेकर इंद्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान मरुदेवी की सेवा करने लगीं।163। और भी−देखें [[ कल्याणक ]]।</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText" id="3"><strong>तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम</strong><br /></span> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText" id="3.1"><strong>तीर्थंकर प्रकृतिबंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम</strong><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,40/78/7 </span><span class="PrakritText">तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंधपारं भो होदि, ण अण्णत्थेत्ति। ...केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो।</span> | |||
<span class="HindiText"> =मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ होता है, अन्यत्र नहीं। ...क्योंकि अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/7 )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.2"><strong>प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/4 </span><span class="PrakritText">णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे संते अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो।</span> | |||
<span class="HindiText">=बंध इस प्रकृति का निरंतर है, क्योंकि अपने कारण के होने पर कालक्षय से बंध का विश्राम नहीं होता।</span><br> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 </span><span class="SanskritText">न च तिर्यग्वर्जितगतित्रये तीर्थबंधाभावोऽस्ति तद्बंधकालस्य उत्कृष्टेन अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षोनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात्।</span> | |||
<span class="HindiText"> =तिर्यंच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृति का बंध है। ताकौ प्रारंभ कहिये तिस समयतैं लगाय समय समय विषै समयप्रबद्ध रूप बंध विषै तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध हुआ करै है। सो उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोय कोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाणकाल पर्यंत बंध हो है <span class="GRef">(गोमम्टसार कर्मकाण्ड/भाषा/745/905/15)</span>; <span class="GRef">(गोमम्टसार कर्मकाण्ड/भाषा/367/529/8)</span>। </span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.3"><strong>नरक व तिर्यंच गति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/5 </span><span class="PrakritText">तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो।</span> | |||
<span class="HindiText">=तीर्थंकर प्रकृति के बंध का नरक व तिर्यंच गतियों के बंध के साथ विरोध है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.4"><strong>इसके साथ केवल देवगति बँधती है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/6 </span><span class="PrakritText">उवरिमा देवगइसंजुत्तं, मणुसगइट्ठिदजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगइं मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोहादो।</span> | |||
<span class="HindiText">=उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों के तीर्थंकर प्रकृति के बंध का देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.5"><strong>इसके बंध के स्वामी</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/7 </span><span class="PrakritText">तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो।</span> =<span class="HindiText">तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बंध के स्वामी हैं, क्योंकि तिर्यग्गति के साथ तीर्थंकर के बंध का अभाव है। </span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.6"><strong>मनुष्य व तिर्यगायु बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/366/524/11 </span><span class="SanskritText">बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावात् ।...देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध ...संभवात्।</span> =<span class="HindiText">मनुष्यायु तिर्यंचायु का पहले बंध भया होइ ताकैं तीर्थंकर का बंध न होइ। ...देवनारकी विषै तीर्थंकर का बंध संभवै है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.7"><strong>सभी सम्यक्त्वों में तथा 4-8 गुणस्थानों में बंधने का नियम</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/93/78 </span><span class="PrakritText">पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदगंते।93।</span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/92/77/12 </span><span class="SanskritText">तीर्थबंध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागांतसम्यग्दृष्टिष्वेव।</span> =<span class="HindiText">प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयततैं लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध को प्रारंभ करे है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंयमते लगाई अपूर्वकरण का छटा भाग पर्यंत सम्यग्दृष्टि विषै ही हो है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.8"><strong>तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/743/3 </span><span class="SanskritText">प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात्। | |||
</span> =<span class="HindiText">देवायु का बंध सहित तीर्थंकर बंधवालै के जैसे सम्यक्त्वतैं भ्रष्टता न होइ तैसैं अबद्धायु देव के भी न होइ।<br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/6 </span><span class="SanskritText">प्रारब्धतीर्थबंधस्यांयत्र बद्धनरकायुष्कात्सम्यक्त्वाप्रच्युतिर्नेति तीर्थबंधस्य नैरंतर्यात् ।</span> =<span class="HindiText">तीर्थंकर बंध का प्रारंभ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बंध बिना सम्यक्त्व तैं भ्रष्टता न होइ अर तीर्थंकर का बंध निरंतर है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.9"><strong>बद्ध नरकायुष्क मरण काल में सम्यक्त्व से च्युत होता है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,54/105/5 </span><span class="PrakritText">तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। </span> =<span class="HindiText">तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने वाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते।</span><br> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/336/487/3 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुद्वेल्य नरकायुर्बध्वाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्धवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्यादृष्टिर्भंवति। </span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्व गुणस्थान में आय आहारकद्विक का उद्वेलन किया, पीछै नरकायु का बंध किया, तहाँ पीछै असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थंकर प्रकृति का बंध कीया पीछै दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीकौं जाने का कालविषैं मिथ्यादृष्टी भया।</span><br> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/725/18 </span><span class="SanskritText">बंशामेघयो: सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा। </span> =<span class="HindiText">वंशा मेघा विषै तीर्थंकर सत्त्व सहित जीव सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वकौं छोडि सम्यग्दृष्टि होइ।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.10"><strong>उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/4 </span><span class="PrakritText">ण चउक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अत्थि, तहोवएसाभावादो। </span> =<span class="HindiText">उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.11"><strong>नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/3 </span><span class="PrakritText">तत्थ हेटि्ठमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढ़वीए उक्कस्साउदंसणादो। </span> =<span class="HindiText">(तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवी की उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। <span class="GRef">( धवला 8/3,54/105/6 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 )</span>।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.12"><strong>वहाँ अंतिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/195 </span><span class="PrakritText">तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयंति सुरा। छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालंको।195। </span> =<span class="HindiText">तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले जीव के नरकायु विषै छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विषैं छह महीना आयु अवशेष रहे माला का मलिन होना चिन्ह न हो है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 </span><span class="SanskritText">यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: ...तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवंति। </span> =<span class="HindiText">=जिस जीव के नरकायु का बंध तथा तीर्थंकर का सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होइ अर नारक उपसर्ग का निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई।</span></li> | |||
< | <li class="HindiText" id="3.13"><strong>तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है</strong> <br /></span> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="GRef"> धवला 6/1-9-8,12/247/17 विशेषार्थ</span><br> | ||
<span class="HindiText">−पूर्वोक्त व्याख्यान का अभिप्राय यह है कि सामान्यत: तो जीव दुषम-सुषम काल में तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्वी के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारंभ करते हैं, किंतु जो उसी भव में तीर्थंकर या जिन होने वाले हैं वे तीर्थंकरादि की अनुपस्थिति में तथा सुषमदुषम काल में भी दर्शनमोह का क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ−कृष्णादि व वर्धनकुमार।</span></li> | |||
<span class="PrakritText"><span class="GRef"> | <li class="HindiText" id="3.14"><strong>नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं</strong> <br /></span> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र 220,229</span> <span class="PrakritText">मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति...।220। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति।229। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा...णो तित्थयरमुप्पाएंति। </span> =<span class="HindiText">ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।220। देवगति से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।229। भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य होकर...तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।233। [इसी प्रकार तिर्यंच व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियों से मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।] </span> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/6/7/169/2 </span><span class="SanskritText">उपरि तिसृभ्य उद्वर्तिता...मनुष्येषूत्पन्ना: ... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयंति। </span> =<span class="HindiText">तीसरी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText" id="4"><strong>तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान</strong><br /></span> | |||
<ol> | |||
<li class="HindiText" id="4.1"><strong>मनुष्यगति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,40/78/8 </span><span class="PrakritText">अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते−ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। </span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−मनुष्यगति के सिवाय अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>−अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 </span><span class="SanskritText">नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् ।</span> =<span class="HindiText">बहुरि मनुष्य कहने का अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थंकर बंध का प्रारंभ न करैं जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्री का अभाव है सो प्रारंभ तौ मनुष्य विषै ही है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.2"><strong>केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/11 </span><span class="SanskritText">केवलिद्वयांते एवेति नियम: तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् । </span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों? <strong>उत्तर</strong>−बहुरि केवलि के निकट कहने का अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाहीं, जिसतैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ होई।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.3"><strong>अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/524/12 </span><span class="SanskritText">देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध: कथं। सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतंनिरंतरबंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षंयूनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभवात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−जो मनुष्य ही विषैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविषैं तीर्थंकर बंध कैसे कहा ? <strong>उत्तर</strong>−जो पहिलैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछें जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अंतर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यंत उत्कृष्टपनै तीर्थंकर प्रकृति का बंध समयप्रबद्धविषैं हुआ करै तातै देव नारकी विषैं भी तीर्थंकर का बंध संभवै है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.4"><strong>तिर्यंचगति में उसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों</strong><br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,38/74/8 </span><span class="PrakritText">मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेसुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते−ण, बद्धतिरिक्खमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं। </span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−तिर्यग्गति में तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है। किंतु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायु को बांध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणों के प्राप्त हो जाने से तीर्थंकर कर्म को बांधकर पुन: तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर तीर्थंकर के बंध का स्वामीपना पाया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>−ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच व मनुष्यायु का बंध कर लिया है उन जीवों के नरक व देव आयुओं के बंध से संयुक्त जीवों के समान तीर्थंकर कर्म के बंध का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>–वह भी कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong>−क्योंकि जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्वयुक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। परंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की तृतीय भव में मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध के स्वामी हैं।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.5"><strong>नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है।</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/742/20 </span><span class="SanskritText">नन्वविरदादिचंत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति। तन्न। प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात्। </span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−‘‘अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते’’ इस वचन तै अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विककैं निकटि तीर्थंकर बंध के प्रारंभक कहे नरक विषैं कैसे तीर्थंकर का बंध है ? <strong>उत्तर</strong>−जिनके पूर्वे नरकायु का बंध होइ, प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थंकर का बंध प्रारंभ मनुष्य करै पीछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहां शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्व को पाई समय प्रबद्ध विषैं तीर्थंकर का भी बंध करै है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.6"><strong>कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/332/3 </span><span class="PrakritText">तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। ...तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। </span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>−[कृष्ण, नीललेश्या में इसका बंध क्यों संभव नहीं है।] <strong>उत्तर</strong>−नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। ...अथवा नारकियों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थंकर की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 )</span></span></li> | |||
<li class="HindiText" id="4.7"><strong>प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि भेद</strong> <br /></span> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/8 </span><span class="SanskritText">अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकांतर्मुहूर्तकालत्वात् षोडशभावनासमृद्धयभावात् तद्बंधप्रारंभो न इति केषांचित्पक्षं ज्ञापयति।</span> =<span class="HindiText">इहां प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जुदा कहने का अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशम का काल थोरा अंतर्मुहूर्त मात्र है तातैं षोडश भावना भाई जाइ नाहीं, तातै प्रथमोपशम विषैं तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ नाहीं है।</span></li> | |||
</ol> | |||
</li> | |||
<span class="HindiText"> | |||
<li><strong name="5" id="5"> तीर्थंकर परिचय सारणी</strong> | |||
<ol> | |||
<li><strong name="5.1" id="5.1"><span class="HindiText">भूत भावी तीर्थंकर परिचय</span></strong> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="1008"> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p> </p></td> | |||
<td width="880" colspan="8" valign="top"><p align="center" class="HindiText"><strong>जंबू द्वीप भरत क्षेत्रस्थ चतुर्विंशति तीर्थंकरों का परिचय</strong> </p></td> | |||
<td width="90" valign="top"><p class="HindiText"><strong>अन्य द्वीप व अन्य क्षेत्रस्थ </strong> </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p> </p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText"><strong>1. भूतकालीन</strong> </p></td> | |||
<td width="660" colspan="6" valign="top"><p align="center" class="HindiText"><strong>2. भावि कालीन का नाम निर्देश</strong> </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText"><strong>3. भावि तीर्थंकरों के पूर्व अनंत भव के नाम</strong> </p></td> | |||
<td width="90" valign="top"><p class="HindiText"><strong>तीर्थंकरों का परिचय</strong> </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText"><strong>नं.</strong> </p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText"><strong>जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/470-493 </strong></p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText"><strong> तिलोयपण्णत्ति/4/1579-1581 </strong> </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText"><strong> त्रिलोकसार/873-875 </strong> </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText"><strong> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#558|हरिवंशपुराण - 60.558-562]] </strong> </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText"><strong> महापुराण/76/476-480 </strong> </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText"><strong>जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/520-543</strong> </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText"><strong> तिलोयपण्णत्ति/4/1583-1586 </strong> </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText"><strong> महापुराण/76/471-475 </strong> </p></td> | |||
<td width="90" valign="top"><p class="HindiText"><strong> तिलोयपण्णत्ति/4/2366 </strong> </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText">निर्वाण </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">महापद्म </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText">महापद्म </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText">महापद्म </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText">महापद्म </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">महापद्म </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">श्रेणिक </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">श्रेणिक </p></td> | |||
<td width="90" rowspan="24" valign="top"><p class="PrakritText">णवरि विसेसो तस्सिं सलागापुरिसा भवंति जे कोई। ताणं णामापहुदिसु उवदेसो संपइ पण्णट्ठो।2366।</p> <br /> | |||
<p class="HindiText"> विशेष यह कि उस (ऐरावत) क्षेत्र में जो कोई शलाका पुरुष होते हैं उनके नामादि विषयक उपदेश नष्ट हो चुका है।</p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText">सागर </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">सुरदेव </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText">सुरदेव </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText">सुरदेव </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText">सुरदेव </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">सुरप्रभ </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">3</p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText">महासाधु </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText">सुपार्श्व </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">सुप्रभ </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">उदंक </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">उदंक </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText">विमलप्रभ </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">स्वयंप्रभ </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText">स्वयंप्रभ </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText">स्वयंप्रभ </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText">स्वयंप्रभ </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">स्वयंप्रभ </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">प्रोष्ठिल </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">प्रोष्ठिल </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | |||
<td width="100" valign="top"><p class="HindiText">शुद्धाभदेव </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">सर्वप्रभ </p></td> | |||
<td width="96" valign="top"><p class="HindiText">सर्वात्मभूत </p></td> | |||
<td width="103" valign="top"><p class="HindiText">सर्वात्मभूत </p></td> | |||
<td width="113" valign="top"><p class="HindiText">सर्वात्मभूत </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">सर्वायुध </p></td> | |||
<td width="114" valign="top"><p class="HindiText">कृतसूय </p></td> | |||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">कटप्रू </p></td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td width="38" valign="top"><p class="HindiText">6</ | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 233: | Line 4,514: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: त]] | [[Category: त]] | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । <span class="GRef"> महापुराण 2.117 </span>अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । <span class="GRef"> महापुराण 2.127-133 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.18, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 </span>इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 43.78 </span>उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । <span class="GRef"> महापुराण 76.477-481, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.558-562 </span></p> | <p> धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । <span class="GRef"> महापुराण 2.117 </span>अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । <span class="GRef"> महापुराण 2.127-133 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#18|हरिवंशपुराण - 2.18]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 </span>इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_43#78|हरिवंशपुराण - 43.78]] </span>उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । <span class="GRef"> महापुराण 76.477-481, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_66#558|हरिवंशपुराण - 66.558-562]] </span></p> | ||
Line 247: | Line 4,527: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: त]] | [[Category: त]] | ||
[[Category: प्रथमानुयोग]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 12:38, 21 August 2024
सिद्धांतकोष से
संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में वे 24 होते हैं। उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पाँच अवसरों पर महान् उत्सव होते हैं जिन्हें पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बनने के संस्कार षोडशकारण रूप अत्यंत विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बँधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थंकर वा केवली के पादमूल में होने संभव है। ऐसे व्यक्ति प्राय: देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और पीछे तीर्थंकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनंतर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
- तीर्थंकर निर्देश
- तीर्थंकर का लक्षण।
- तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते।
- गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते।
- तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं।
- तीर्थंकर के जन्म पर रत्नवृष्टि आदि ‘अतिशय’।–देखें कल्याणक ।
- कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् प्रकृति का बंध करके उसी भव से मुक्त हो सकता है ?
- तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ।
- केवलज्ञान के पश्चात् शरीर 5000 धनुष ऊपर चला जाता है।–देखें केवली - 2।
- तीर्थंकरों का शरीर मृत्यु के पश्चात् कर्पूरवत् उड़ जाता है।–देखें मोक्ष - 5।
- तीर्थंकर एक काल में एक क्षेत्र में एक ही होता है। तीर्थंकर उत्कृष्ट 170 व जघन्य 20 होते हैं।–देखें विदेह - 1।
- दो तीर्थंकरों का परस्पर मिलाप संभव नहीं है।–देखें शलाका पुरुष - 1।
- तीर्थंकर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते हैं।–देखें छेदोपस्थापना - 5।
- प्रथम व अंतिम तीर्थों में छेदोपस्थापना चारित्र की प्रधानता।–देखें छेदोपस्थापना ।
- सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में 11 अंग का ज्ञान प्राप्त किया था।–देखें वह वह तीर्थंकर ।
- स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं।–देखें वेद - 7.9।
- तीर्थंकरों के गुण अतिशय 1008 लक्षणादि।–देखें अर्हंत - 1।
- तीर्थंकरों के साता-असाता के उदयादि संबंधी।–देखें केवली - 4।
- तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश
- तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- तीर्थंकर प्रकृति के बंध योग्य परिणाम−देखें भावना - 2।
- दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएँ−देखें दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेश्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचन वात्सल्य ।
- इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही होता है।
- परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं।
- मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है।
- अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है।
- तीर्थंकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरें भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
- तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व।
- तीर्थंकर व आहारक दोनों प्रकृतियों का युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं−देखें सत्त्व - 2।
- तीर्थंकर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियों का भी उल्लेख क्यों नहीं किया।–देखें नामकर्म ।
- तीर्थंकर प्रकृति व उच्चगोत्र में अंतर।–देखें वर्ण व्यवस्था - 1.6।
- तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम
- तीर्थंकर प्रकृति बंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम।
- प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम।
- नरक तिर्यंचगति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है।
- इसके साथ केवल देवगति बँधती है।
- इसके बंध के स्वामी।
- मनुष्य व तिर्यगायु का बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है।
- सभी सम्यक्त्व में तथा 4-8 गुणस्थानों में बँधने का नियम।
- तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव।
- बद्ध नरकायुष्क मरणकाल में सम्यक्त्व से च्युत होता है।
- उत्कृष्ट आयु वाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते।
- नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते।
- वहाँ भी अंतिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है।
- तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है।
- नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं।
- तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान
- मनुष्य गति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों?
- केवली के पादमूल में ही बँधने का नियम क्यों?
- अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है।
- तिर्यंचगति में उसके बंध पर सर्वथा निषेध क्यों?
- नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है?
- कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों?
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि-भेद।
- तीर्थंकर परिचय सूची
- तीर्थंकर निर्देश
- तीर्थंकर का लक्षण
धवला 1/1,1,1 गाथा 44/58 सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठै:। विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वे चतु:षष्टि:।44। =जिनके ऊपर चंद्रमा के समान धवल चौसठ चंवर ढुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर कहलाते हैं।
भगवती आराधना/302/516 तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि। भगवती आराधना / विजयोदया टीका/302/516/7 श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकर:। ...मार्गो रत्नत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति। =मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ऐसे चार ज्ञानों के धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकों में चतुर्णिकाय देवों से जो पूजे गये हैं, जिनकी नियम से मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधर को भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।...अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग को जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं।
समाधि शतक/टीका/2/222/24 तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवत:। =संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं, उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर है।
त्रिलोकसार/686 सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहिं चामरेहिं चउसट्ठिहिं विज्जमाणो सो।686। =जो सकल लोक का एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुंदे का फूल के समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थंकर जानना। - तीर्थंकर माता का दूध नहीं पीते
महापुराण/14/165 धाव्यो नियोजिताश्चास्य देव्य: शक्रेण सादरम् । मज्जने मंडने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च।165। =इंद्र ने आदर सहित भगवान् को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीर के संस्कार करने और खिलाने के कार्य करने में अनेकों देवियों को धाय बनाकर नियुक्त किया था।165। - गृहस्थावस्था में ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते
हरिवंशपुराण - 43.78 योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन। जानन्नपि न स ब्रू यान्न विद्मो केन हेतुना।78। =[कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के धूमकेतु नामक असुर द्वारा चुराये जाने पर नारद कृष्ण से कहता है]...यहाँ जो तीन ज्ञान के धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे। किस कारण से नहीं कहेंगे ? यह मैं नहीं जानता। - तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/6 अथ तृतीयभवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बद्धवा देवो भवेत् तस्य पंचकल्याणानि स्यु:। यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणदयश्च भवंति। =तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधैं तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसकै छ: महीना अवशेष रहैं मनुष्यायु का बंध होइ अर पंच कल्याणक ताकैं होइ। बहुरि जाकै मिथ्यादृष्टि विषैं नरकायु का बंध भया था अर तीर्थंकर का सत्त्व होई तौ वह जीव नरक पृथ्वीविषैं उपजै तहाँ नरकायु सहित एक सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होई अर नारक उपसर्ग का निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई।( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 ) - कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव हैं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/546/708/11 तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणा संयमदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे। =तीर्थंकर बंध का प्रारंभ चरम शरीरीनिकैं असंयत देशसंयत गुणस्थानविषैं होइ तो तिनकैं तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होंइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विषैं होई तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/5 )। - तीर्थंकरों के शरीर की विशेषताएँ
बोधपाहुड़/टीका /32/98 पर उद्धृत− तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्को य अद्धचक्की य। देवा य भूयभूमा आहारो णत्थि नीहारो।1। तथा तीर्थकराणां स्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुंतलास्तु भवंति। =तीर्थंकरों के, उनके पिताओं के, बलदेवों के, चक्रवर्ती के, अर्धचक्रवर्ती के, देवों के तथा भोगभूमिजों के आहार होता है परंतु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थंकरों के मूछ-दाढी नहीं होती परंतु शिर पर बाल होते हैं। - हुंडावसर्पिणी में तीर्थंकरों पर कदाचित् उपसर्ग भी होता है
तिलोयपण्णत्ति/6/1620 सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराणं च उवसग्गो।1620। =(हुंडावसर्पिणी काल में) सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है। - तीसरे काल में भी तीर्थंकर की उत्पत्ति संभव
तिलोयपण्णत्ति/4/1617 तक्काले जायंते पढमजिणो पढमचक्की य।1617। =(हुंडावसर्पिणी) काल के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं।1617। - सभी तीर्थंकर आठ वर्ष की आयु में देशव्रती हो जाते हैं
महापुराण/53/35 स्वायुराद्यष्टवर्षेभ्य: सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयम:।35। =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है।
- तीर्थंकर का लक्षण
- तीर्थंकर प्रकृति बंध सामान्य निर्देश
- तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/7 आर्हंत्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। =आर्हंत्य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/40/580); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/12) धवला 6/1,9-1,30/67/1 जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम। =जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है।
धवला 13/5,101/366/7 जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरणामं। =जिस कर्म के उदय से जीव पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है। - इसका बंध तीनों वेदों में संभव है पर उदय केवल पुरुष वेद में ही
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/111/15 स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् । =स्त्रीवेदी अर नपुंसकवेदी कैं तीर्थंकर अर आहारक द्विक का उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के होइ अर बंध होने विषै किछु विरोध नाहीं।
देखें वेद - 7.9 षोडशकारण भावना भाने वाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता। - परंतु देवियों के इसका बंध संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/111/98/6 कल्पस्त्रोषु च तीर्थबंधाभावात्। =कल्पवासिनी देवांगना के तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव नाहीं ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/112/99/13 )। - मिथ्यात्व के अभिमुख जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है
महाबंध/2/70/257/8 तित्थयरं उक्क.टि्ठदि. कस्स। अण्णद. मणुसस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स सागार-जागार. तप्पाओग्गस्स. मिच्छादिटि्ठमुहस्स। =प्रश्न–तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी कौन है ? उत्तर−जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संक्लेश परिणाम वाला है और मिथ्यात्व के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है। - अशुभ लेश्याओं में इसका बंध संभव है
महाबंध/1/187/132/4 किण्णणीलासु तित्थयरं-सयुतं कादव्वं। =कृष्ण और नील लेश्याओं में तीर्थंकर...को संयुक्त करना चाहिए।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । बद्धनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्यो: कपोतलेश्ययैव गमनात् । =अशुभ लेश्या विषैं तीर्थंकर का प्रारंभ न होय बहुरि जाकैं नरकायु बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये। - तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे भव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है
धवला 8/3,38/75/1 पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो। =जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। - तीर्थंकर प्रकृति का महत्त्व
हरिवंशपुराण - 2.24 प्रच्छन्नोऽभासयद्गर्भस्तां रवि: प्रावृषं यथा।24। =जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतु को सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणी को वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था।
महापुराण/12/96-97,163 षण्मासानिति सापप्तत् पुण्ये नाभिनृपालये। स्वर्गावतरणाद् भर्त्तु: प्राक्तरां द्युम्नसंतति:।96। पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता। अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविन:।97। तदा प्रभृति सुत्रामशासनात्ता: सिषेविरे। दिक्कुमार्योऽनुचारिण्य: तत्कालोचितकर्मभि:।163। =कुबेर ने स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा की थी।96। और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है।97। उसी समय से लेकर इंद्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान मरुदेवी की सेवा करने लगीं।163। और भी−देखें कल्याणक ।
- तीर्थंकर प्रकृति का लक्षण
- तीर्थंकर प्रकृति बंध में गति, आयु व सम्यक्त्व संबंधी नियम
- तीर्थंकर प्रकृतिबंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम
धवला 8/3,40/78/7 तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंधपारं भो होदि, ण अण्णत्थेत्ति। ...केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ होता है, अन्यत्र नहीं। ...क्योंकि अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/7 )। - प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरंतर बंध रहने का नियम
धवला 8/3,38/74/4 णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे संते अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो। =बंध इस प्रकृति का निरंतर है, क्योंकि अपने कारण के होने पर कालक्षय से बंध का विश्राम नहीं होता।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 न च तिर्यग्वर्जितगतित्रये तीर्थबंधाभावोऽस्ति तद्बंधकालस्य उत्कृष्टेन अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षोनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात्। =तिर्यंच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृति का बंध है। ताकौ प्रारंभ कहिये तिस समयतैं लगाय समय समय विषै समयप्रबद्ध रूप बंध विषै तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध हुआ करै है। सो उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोय कोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाणकाल पर्यंत बंध हो है (गोमम्टसार कर्मकाण्ड/भाषा/745/905/15); (गोमम्टसार कर्मकाण्ड/भाषा/367/529/8)। - नरक व तिर्यंच गति नामकर्म के बंध के साथ इसके बंध का विरोध है
धवला 8/3,38/74/5 तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो। =तीर्थंकर प्रकृति के बंध का नरक व तिर्यंच गतियों के बंध के साथ विरोध है। - इसके साथ केवल देवगति बँधती है
धवला 8/3,38/74/6 उवरिमा देवगइसंजुत्तं, मणुसगइट्ठिदजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगइं मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोहादो। =उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों के तीर्थंकर प्रकृति के बंध का देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है। - इसके बंध के स्वामी
धवला 8/3,38/74/7 तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। =तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बंध के स्वामी हैं, क्योंकि तिर्यग्गति के साथ तीर्थंकर के बंध का अभाव है। - मनुष्य व तिर्यगायु बंध के साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/366/524/11 बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावात् ।...देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध ...संभवात्। =मनुष्यायु तिर्यंचायु का पहले बंध भया होइ ताकैं तीर्थंकर का बंध न होइ। ...देवनारकी विषै तीर्थंकर का बंध संभवै है। - सभी सम्यक्त्वों में तथा 4-8 गुणस्थानों में बंधने का नियम
गोम्मटसार कर्मकांड/93/78 पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदगंते।93। गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/92/77/12 तीर्थबंध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागांतसम्यग्दृष्टिष्वेव। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयततैं लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध को प्रारंभ करे है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंयमते लगाई अपूर्वकरण का छटा भाग पर्यंत सम्यग्दृष्टि विषै ही हो है। - तीर्थंकर बंध के पश्चात् सम्यक्त्व च्युति का अभाव
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/743/3 प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात्। =देवायु का बंध सहित तीर्थंकर बंधवालै के जैसे सम्यक्त्वतैं भ्रष्टता न होइ तैसैं अबद्धायु देव के भी न होइ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/745/6 प्रारब्धतीर्थबंधस्यांयत्र बद्धनरकायुष्कात्सम्यक्त्वाप्रच्युतिर्नेति तीर्थबंधस्य नैरंतर्यात् । =तीर्थंकर बंध का प्रारंभ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बंध बिना सम्यक्त्व तैं भ्रष्टता न होइ अर तीर्थंकर का बंध निरंतर है। - बद्ध नरकायुष्क मरण काल में सम्यक्त्व से च्युत होता है
धवला 8/3,54/105/5 तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। =तीर्थंकर प्रकृति को बाँधने वाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/336/487/3 मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुद्वेल्य नरकायुर्बध्वाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्धवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्यादृष्टिर्भंवति। =मिथ्यात्व गुणस्थान में आय आहारकद्विक का उद्वेलन किया, पीछै नरकायु का बंध किया, तहाँ पीछै असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थंकर प्रकृति का बंध कीया पीछै दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीकौं जाने का कालविषैं मिथ्यादृष्टी भया।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/725/18 बंशामेघयो: सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा। =वंशा मेघा विषै तीर्थंकर सत्त्व सहित जीव सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वकौं छोडि सम्यग्दृष्टि होइ। - उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते
धवला 8/3,258/332/4 ण चउक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अत्थि, तहोवएसाभावादो। =उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है। - नरक में भी तीसरे नरक के मध्यम पटल से आगे नहीं जाते
धवला 8/3,258/332/3 तत्थ हेटि्ठमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढ़वीए उक्कस्साउदंसणादो। =(तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवी की उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। ( धवला 8/3,54/105/6 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 )। - वहाँ अंतिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है
त्रिलोकसार/195 तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयंति सुरा। छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालंको।195। =तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले जीव के नरकायु विषै छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विषैं छह महीना आयु अवशेष रहे माला का मलिन होना चिन्ह न हो है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/381/546/7 यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्व: ...तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवंति। ==जिस जीव के नरकायु का बंध तथा तीर्थंकर का सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयु का अवशेष रहे मनुष्यायु का बंध होइ अर नारक उपसर्ग का निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई। - तीर्थंकर संतकर्मिक को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति स्वत: हो जाती है
धवला 6/1-9-8,12/247/17 विशेषार्थ
−पूर्वोक्त व्याख्यान का अभिप्राय यह है कि सामान्यत: तो जीव दुषम-सुषम काल में तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्वी के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारंभ करते हैं, किंतु जो उसी भव में तीर्थंकर या जिन होने वाले हैं वे तीर्थंकरादि की अनुपस्थिति में तथा सुषमदुषम काल में भी दर्शनमोह का क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ−कृष्णादि व वर्धनकुमार। - नरक व देवगति से आये जीव ही तीर्थंकर होते हैं
षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र 220,229 मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति...।220। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा ...केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति।229। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा...णो तित्थयरमुप्पाएंति। =ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।220। देवगति से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य...कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।229। भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य होकर...तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।233। [इसी प्रकार तिर्यंच व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियों से मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीर्थंकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं।] राजवार्तिक/3/6/7/169/2 उपरि तिसृभ्य उद्वर्तिता...मनुष्येषूत्पन्ना: ... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयंति। =तीसरी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले कोई तीर्थंकरत्व उत्पन्न करते हैं।
- तीर्थंकर प्रकृतिबंध की प्रतिष्ठापना संबंधी नियम
- तीर्थंकर प्रकृति संबंधी शंका-समाधान
- मनुष्यगति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों
धवला 8/3,40/78/8 अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते−ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। =प्रश्न−मनुष्यगति के सिवाय अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ क्यों नहीं होता ? उत्तर−अन्य गतियों में इसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/10 नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् । =बहुरि मनुष्य कहने का अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थंकर बंध का प्रारंभ न करैं जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्री का अभाव है सो प्रारंभ तौ मनुष्य विषै ही है। - केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/11 केवलिद्वयांते एवेति नियम: तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् । =प्रश्न−केवली के पादमूल में ही बंधने का नियम क्यों? उत्तर−बहुरि केवलि के निकट कहने का अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाहीं, जिसतैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ होई। - अन्य गतियों में तीर्थंकर का बंध कैसे संभव है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/524/12 देवनारकासंयतेऽपि तद्बंध: कथं। सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतंनिरंतरबंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षंयूनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभवात् । =प्रश्न−जो मनुष्य ही विषैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविषैं तीर्थंकर बंध कैसे कहा ? उत्तर−जो पहिलैं तीर्थंकर बंध का प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछें जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अंतर्मुहूर्त अधिक आठवर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यंत उत्कृष्टपनै तीर्थंकर प्रकृति का बंध समयप्रबद्धविषैं हुआ करै तातै देव नारकी विषैं भी तीर्थंकर का बंध संभवै है। - तिर्यंचगति में उसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों
धवला 8/3,38/74/8 मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेसुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते−ण, बद्धतिरिक्खमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं। =प्रश्न−तिर्यग्गति में तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है। किंतु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायु को बांध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणों के प्राप्त हो जाने से तीर्थंकर कर्म को बांधकर पुन: तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर तीर्थंकर के बंध का स्वामीपना पाया जाता है ? उत्तर−ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच व मनुष्यायु का बंध कर लिया है उन जीवों के नरक व देव आयुओं के बंध से संयुक्त जीवों के समान तीर्थंकर कर्म के बंध का अभाव है। प्रश्न–वह भी कैसे संभव है ? उत्तर−क्योंकि जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ किया है उससे तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्वयुक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। परंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की तृतीय भव में मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध के स्वामी हैं। - नरकगति में उसका बंध कैसे संभव है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/742/20 नन्वविरदादिचंत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति। तन्न। प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात्। =प्रश्न−‘‘अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते’’ इस वचन तै अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विककैं निकटि तीर्थंकर बंध के प्रारंभक कहे नरक विषैं कैसे तीर्थंकर का बंध है ? उत्तर−जिनके पूर्वे नरकायु का बंध होइ, प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थंकर का बंध प्रारंभ मनुष्य करै पीछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहां शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्व को पाई समय प्रबद्ध विषैं तीर्थंकर का भी बंध करै है। - कृष्ण व नील लेश्या में इसके बंध का सर्वथा निषेध क्यों
धवला 8/3,258/332/3 तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। ...तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। =प्रश्न−[कृष्ण, नीललेश्या में इसका बंध क्यों संभव नहीं है।] उत्तर−नील लेश्या युक्त अधस्तन इंद्रक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति का अभाव है। ...अथवा नारकियों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थंकर की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/8 ) - प्रथमोपशम सम्यक्त्व में इसके बंध संबंधी दृष्टि भेद
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/93/78/8 अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकांतर्मुहूर्तकालत्वात् षोडशभावनासमृद्धयभावात् तद्बंधप्रारंभो न इति केषांचित्पक्षं ज्ञापयति। =इहां प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जुदा कहने का अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशम का काल थोरा अंतर्मुहूर्त मात्र है तातैं षोडश भावना भाई जाइ नाहीं, तातै प्रथमोपशम विषैं तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ नाहीं है।
- मनुष्यगति में ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों
- तीर्थंकर परिचय सारणी
- भूत भावी तीर्थंकर परिचय
जंबू द्वीप भरत क्षेत्रस्थ चतुर्विंशति तीर्थंकरों का परिचय
अन्य द्वीप व अन्य क्षेत्रस्थ
1. भूतकालीन
2. भावि कालीन का नाम निर्देश
3. भावि तीर्थंकरों के पूर्व अनंत भव के नाम
तीर्थंकरों का परिचय
नं.
जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/470-493
तिलोयपण्णत्ति/4/1579-1581
त्रिलोकसार/873-875
महापुराण/76/476-480
जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/520-543
तिलोयपण्णत्ति/4/1583-1586
महापुराण/76/471-475
तिलोयपण्णत्ति/4/2366
1
निर्वाण
महापद्म
महापद्म
महापद्म
महापद्म
महापद्म
श्रेणिक
श्रेणिक
णवरि विसेसो तस्सिं सलागापुरिसा भवंति जे कोई। ताणं णामापहुदिसु उवदेसो संपइ पण्णट्ठो।2366।
विशेष यह कि उस (ऐरावत) क्षेत्र में जो कोई शलाका पुरुष होते हैं उनके नामादि विषयक उपदेश नष्ट हो चुका है।
2
सागर
सुरदेव
सुरदेव
सुरदेव
सुरदेव
सुरप्रभ
सुपार्श्व
सुपार्श्व
3
महासाधु
सुपार्श्व
सुपार्श्व
सुपार्श्व
सुपार्श्व
सुप्रभ
उदंक
उदंक
4
विमलप्रभ
स्वयंप्रभ
स्वयंप्रभ
स्वयंप्रभ
स्वयंप्रभ
स्वयंप्रभ
प्रोष्ठिल
प्रोष्ठिल
5
शुद्धाभदेव
सर्वप्रभ
सर्वात्मभूत
सर्वात्मभूत
सर्वात्मभूत
सर्वायुध
कृतसूय
कटप्रू
6
श्रीधर
देवसुत
देवपुत्र
देवदेव
देवपुत्र
जयदेव
क्षत्रिय
क्षत्रिय
7
श्रीदत्त
कुलसुत
कुलपुत्र
प्रभोदय
कुलपुत्र
उदयप्रभ
पाविल
श्रेष्ठी
8
सिद्धाभदेव
उदंक
उदंक
उदंक
उदंक
प्रभादेव
शंख
शंख
9
अमलप्रभ
प्रौष्ठिल
प्रौष्ठिल
प्रश्नकीर्ति
प्रौष्ठिल
उदंक
नंद
नंदन
10
उद्धारदेव
जयकीर्ति
जयकीर्ति
जयकीर्ति
जयकीर्ति
प्रश्नकीर्ति
सुनंद
सुनंद
11
अग्निदेव
मुनिसुव्रत
मुनिसुव्रत
सुव्रत
मुनिसुव्रत
जयकीर्ति
शशांक
शशांक
12
संयम
अर
अर
अर
अरनाथ
पूर्णबुद्धि
सेवक
सेवक
13
शिव
अपाप
निष्पाप
पुण्यमूर्ति
अपाप
नि:कषाय
प्रेमक
प्रेमक
14
पुष्पांजलि
नि:कषाय
नि:कषाय
नि:कषाय
नि:कषाय
विमलप्रभ
अतोरण
अतोरण
15
उत्साह
विपुल
विपुल
विपुल
विपुल
बहुलप्रभ
रैवत
रैवत
16
परमेश्वर
निर्मल
निर्मल
निर्मल
निर्मल
निर्मल
कृष्ण
वासुदेव
17
ज्ञानेश्वर
चित्रगुप्त
चित्रगुप्त
चित्रगुप्त
चित्रगुप्त
चित्रगुप्ति
सीरी
भगलि
18
विमलेश्वर
समाधिगुप्त
समाधिगुप्त
मनाधिगुप्त
समाधिगुप्त
समाधिगुप्ति
भगलि
वागलि
19
यशोधर
स्वयंभू
स्वयंभू
स्वयंभू
स्वयंभू
स्वयंभू
विगलि
द्वैपायन
20
कृष्णमति
अनिवर्तक
अनिवर्तक
अनिवर्तक
अनिवर्तक
कंदर्प
द्वीपायन
कनकपाद
21
ज्ञानमति
जय
जय
जय
विजय
जयनाथ
माणवक
नारद
22
शुद्धमति
विमल
विमल
विमल
विमल
विमल
नारद
चारुपाद
23
श्रीभद्र
देवपाल
देवपाल
दिव्यपाद
देवपाल
दिव्यवाद
सुरूपदत्त
सत्यकिपुत्र
24
अनंतवीर्य
अनंतवीर्य
अनंतवीर्य
अनंतवीर्य
अनंतवीर्य
अनंतवीर्य
सत्यकिपुत्र
एक कोई अन्य
- वर्तमान चौबीसी के पूर्व भव नं.2 (देव से पूर्व) का परिचय
1. वर्तमान का नाम निर्देश
2. पूर्व भव नं.2 (देवगति से पूर्व) के नाम
3. क्या थे
4. पिताओं के नाम
5. पूर्व भव के देश व नगर के नाम
नं.
प्रमाण (देखें अगली सूची )
महापुराण सर्ग/श्लो.नाम
महापुराण/सर्ग/श्लोक
1. पद्मपुराण - 20.14-17; 2 . हरिवंशपुराण - 60.142-149
महापुराण/सर्ग/श्लो.प्रमाण
विशेष
1
ऋषभनाथ
47/357
वज्रनाभि
वज्रनाभि
वज्रनाभि
11/55
चक्रवर्ती
वज्रसेन
वज्रसेन
11/8
जंबू वि.पुंडरीकिणी
2
अजितनाथ
48/54
विमलवाहन
विमलवाहन
विमल
48/4
मंडलेश्वर
महातेज
अरिंदम
48/4
” ” सुसीमा
1
पुंडरीकिणी
3
संभवनाथ
49/59
विमलवाहन
विपुलख्याति
विपुलवाहन
49/2
मंडलेश्वर
रिपुंदम
स्वयंप्रभ
49/2
” ” क्षेमपुरी
1-2
1. ”
2. रत्नसंचय4
अभिनंदन
50/69
महाबल
विपुलवाहन
महाबल
50/3
मंडलेश्वर
स्वयंप्रभ
विमलवाहन
50/3
” ” रत्नसंचय
1
सुसीमा
5
सुमतिनाथ
51/86
रतिषेण
महाबल
अतिबल
51/3
मंडलेश्वर
विमलवाहन
सीमंधर
51/3
धात.वि.पुंडरीकिणी
1
सुसीमा
6
पद्मप्रभु
52/70
अपराजित
अतिबल
अपराजित
52/2
मंडलेश्वर
सीमंधर
पिहितास्रव
52/2
धात.वि.सुसीमा
7
सुपार्श्व
53/56
नंदिषेण
अपराजित
नंदिषेण
53/2
मंडलेश्वर
पिहितास्रव
अरिंदम
53/2
धात.वि.क्षेमपुरी
8
चंद्रप्रभ
54/276
पद्मनाभ
नंदिषेण
पद्म
54/143
मंडलेश्वर
अरिंदम
युगंधर
54/130
धात.वि.रत्नसंचय
1
क्षेमा
9
पुष्पदंत
55/62
महापद्म
पद्म
महापद्म
55/2
मंडलेश्वर
युगंधर
सर्वजनानंद
55/2
पुष्कर.वि.पुंडरीकिणी
1
क्षेमा
10
शीतलनाथ
56/62
पद्मगुल्म
महापद्म
पद्मगुल्म
56/2
मंडलेश्वर
सर्वजनानंद
उभयानंद
56/2
पुष्कर.वि.सुसीमा
1
रत्नसंचयपुरी
11
श्रेयांस
57/66
नलिनप्रभ
पद्मोत्तर
नलिनगुल्म
57/3
मंडलेश्वर
अभयानंद
वज्रदत्त
57/2
पुष्कर.वि.क्षेमपुरी
1
रत्नसंचयपुरी
12
वासुपूज्य
58/58
पद्मोत्तर
पंकजगुल्म
पद्मोत्तर
58/2
मंडलेश्वर
वज्रदंत
वज्रनाभि
58/2
पुष्कर.वि.रत्नसंचय
13
विमलनाथ
59/61
पद्मसेन
नलिनगुल्म
पद्मासन
59/3
मंडलेश्वर
वज्रनाभि
सर्वगुप्त
59/3
धात.विदेह महानगर
14
अनंतनाथ
60/48
पद्मरथ
पद्मासन
पद्म
60/3
मंडलेश्वर
सर्वगुप्ति
त्रिगुप्त
60/2
धात.विदेह अरिष्टा
15
धर्मनाथ
61/54
दशरथ
पद्मरथ
दशरथ
61/3
मंडलेश्वर
गुप्तिमान्
चित्तरक्ष
61/2
धात.विदेह सुसीमा
1-2
1.सुमाद्रिका 2. मद्रिलपुर
16
शांतिनाथ
63/504
मेघरथ
दृढरथ
मेघरथ
63/384
मंडलेश्वर
चिंतारक्ष (घनरथ तीर्थंकर 164)
विमलवाहन
63/142
जंबू वि.पुंडरीकिणी
17
कुंथुनाथ
64/54
सिंहरथ
महामेघरथ
सिंहरथ
64/3
मंडलेश्वर
विपुलवाहन
घनरथ
64/2
जंबू वि.सुसीमा
2
रत्नसंचय
18
अरहनाथ
65/50
धनपति
सिंहरथ
धनपति
65/2
मंडलेश्वर
घनरव
संवर
65/2
जंबू वि.क्षेमपुरी
19
मल्लिनाथ
66/66
वैश्रवण
वैश्रवण
वैश्रवण
66/2
मंडलेश्वर
धीर
वरधर्म
66/2
जंबू वि.वीतशोका
20
मुनिसुव्रत
67/60
हरिवर्मा
श्रीधर्म
श्रीधर्म
67/2
मंडलेश्वर
संवर
सुनंद
67/2
जंबू भरत चंपापुरी
21
नमिनाथ
69/71
सिद्धार्थ
सुरश्रेष्ठ
सिद्धार्थ
69/9-10
मंडलेश्वर
त्रिलोकीय
नंद
68/2
जंबू भरत कौशांबी
22
नेमिनाथ
72/277
सुप्रतिष्ठ
सिद्धार्थ
सुप्रतिष्ठ
70/54
मंडलेश्वर
सुनंद
व्यतीतशोक
70/50
जंबू भरत हस्तनागपुर
1
नागपुर
23
पार्श्वनाथ
73/169
आनंद
आनंद
आनंद
73/61
मंडलेश्वर
डामर
दामर
73/41
जंबू भरत अयोध्या
24
वर्द्धमान
74/243
नंद
सुनंद
नंदन
74/243
मंडलेश्वर
प्रौष्ठिल
प्रौष्ठिल
74/242
जंबू भरत छत्रपुर
- वर्तमान चौबीसी के वर्तमान भव का परिचय−(सामान्य)
1. नाम निर्देश
2. पूर्व भव का स्थान (देव भव)
3. वर्तमान भव की जन्म नगरी
4. चिह्न
5. यक्ष
6.यक्षिणी
1. तिलोयपण्णत्ति/4/512-514
2. पद्मपुराण/20/8-10
3. हरिवंशपुराण - 60.138-1411. तिलोयपण्णत्ति/4/522-525
2. पद्मपुराण - 20.31-35
3. हरिवंशपुराण - 60.164-1681. तिलोयपण्णत्ति/4/526-549
2. पद्मपुराण - 20.36-60
3. हरिवंशपुराण - 60.182-205तिलोयपण्णत्ति/4/604
तिलोयपण्णत्ति/4/934-936
तिलोयपण्णत्ति/4/937-939
4. महापुराण सर्ग/श्लो.
सामान्य नाम
विशेष
महापुराण सर्ग/श्लो.
सामान्य नाम
विशेष
महापुराण सर्ग/श्लो
सामान्य नाम
विशेष
प्रमाण नं
नाम
प्रमाण नं
नाम
प्रमाण नं
नाम
1
14/160
ऋषभ
11/111
सर्वार्थसिद्धि
12/82
अयोध्या
1
विनीता
बैल
गोवदन
चक्रेश्वरी
2
48/1
अजित
48/13
विजय
2
वैजयंत
48/20
अयोध्या
1,2
साकेता
गज
महायक्ष
रोहिणी
3
49/1
संभव
49/9
अ.ग्रैवेयक
49/14
श्रावस्ती
अश्व
त्रिमुख
प्रज्ञप्ति
4
50/1
अभिनंदन
50/13
विजय
2
वैजयंत
50/16
अयोध्या
1
साकेता
बंदर
यक्षेश्वर
वज्रशृंखल
5
51/1
सुमति
51/15
वैजयंत
1
जयंत
51/19-20
अयोध्या
1,2
साकेता
चकवा
तुंबुरव
वज्रांकुशा
6
52/1
पद्मप्रभु
52/14
ऊ.ग्रैवेयक
52/18
कौशांबी
2
वत्स
कमल
मातंग
अप्रतिचक्रेश्वरी
7
53/1
सुपार्श्व
53/15
म.ग्रैवेयक
53/18
काशी
1
वाराणसी
नंद्यावर्त
विजय
पुरुषदत्ता
8
54/1
चंद्रप्रभु
54/162
वैजयंत
54/163
चंद्रपुर
अर्धचंद्र
अजित
मनोवेगा
9
55/1
सुविधि
1
पुष्पदंत
55/20
प्राणत
1,3
आरण 2 अपराजित
55/23
काकंदी
मगर
ब्रह्म
काली
10
56/1
शीतलनाथ
56/18
आरण
1,3
अच्युत
56/24
भद्रपुर
3
भद्रिल
स्वस्तिक
ब्रह्मेश्वर
ज्वालामालिनी
11
57/1
श्रेयान्सनाथ
3
श्रेयोनाथ
57/14
पुष्पोत्तर
57/17
सिंहपुर
3
सिंहनादपुर
गैंडा
कुमार
महाकाली
12
58/1
वासुपूज्य
58/13
महाशुक्र
2
कापिष्ठ
58/17
चंपा
भैंसा
शन्मुख
गौरी
13
59/1
विमलनाथ
59/9
सहस्रार
1,3
शतार 2. महाशुक्र
59/14
कांपिल्य
शूकर
पाताल
गांधारी
14
60/2
अनंतनाथ
3
अनंतजित
60/12
पुष्पोत्तर
2
सहस्रार
60/16
अयोध्या
2
विनीता
सेही
किन्नर
वैरोटी
15
61/1
धर्मनाथ
61/12
सर्वार्थसि.
2
पुष्पोत्तर
61/13
रत्नपुर
वज्र
किंपुरुष
सोलसा (अनंत.)
16
62/1
शांतिनाथ
63/337
सर्वार्थसि.
63/363
हस्तनागपुर
हरिण
गरुड
मानसी
17
64/1
कुंथुनाथ
64/10
सर्वार्थसि.
64/12
हस्तनागपुर
छाग
गंधर्व
महामानसी
18
65/1
अरनाथ
65/8
जयंत
1
2अपारजित सर्वार्थसिद्धि
65/14
हस्तनागपुर
मत्स्य
कुबेर
जया
19
66/1
मल्लिनाथ
66/14
अपराजित
2
विजय 1. अपराजित
66/20
मिथिला
कलश
वरुण
विजया
20
67/1
मुनिसुव्रत
1,2
सुव्रतनाथ
67/15
प्राणत (1 आनत)
2
3अपराजित सहस्रार
67/20
राजगृह
2-3
कुशाग्रनगर
कूर्म
भुकुटि
अपराजिता
21
69/1
नमिनाथ
68/16
अपराजित
2
प्राणत
69/19
मिथिला
उत्पल (नीलकमल)
गोमेध
बहुरूपिणी
22
70/1
नेमिनाथ
70/57
जयंत
1
2अपराजित
आनत71/28
द्वारावती
1-3
शौरीपुर
शंक
पार्श्व
कूष्मांडी
23
73/1
पार्श्वनाथ
73/68
प्राणत
2
3वैजयंत
सहस्रार73/75
बनारस
1-3
वाराणसी
सर्प
मातंग
पद्मा
24
74/1
वर्द्धमान
2,3
महावीर
74/246
पुष्पोत्तर
74/152
कुंडलपुर
1-3
कुंडपुर
सिंह
गुह्यक
सिद्धयिनी
- गर्भावतरण
- जन्मावतरण
- दीक्षा धारण
- ज्ञानावतरण
- निर्वाण प्राप्ति
- संघ
7. पिता का नाम
8. माता का नाम
9. वंश
10.गर्भ-तिथि
11.गर्भ-नक्षत्र
12.गर्भ-काल
नं.
4. महापुराण/सर्ग/श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/526-549
2. महापुराण/20/36-60
3. हरिवंशपुराण - 60.182-2051. तिलोयपण्णत्ति/4/526-549
2. महापुराण/27/36-60
3. हरिवंशपुराण - 60.182-2054. महापुराण पूर्ववत् सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
4. महापुराण पूर्ववत् सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
तिलोयपण्णत्ति/4/550
त्रिलोकसार/848-849
महापुराण पूर्ववत् सामान्य
महापुराण पूर्ववत् सामान्य
महापुराण पूर्ववत् सामान्य
1
12/146-163
नाभिराय
मरुदेवी
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
आषाढ कृ.2
उत्तराषाढा
2
48/18-25
जितशत्रु
विजयसेना
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
ज्येष्ठ कृ.15
रोहिणी
ब्रह्ममुहूर्त
3
49/14-16
दृढराज्य
1-3
जितारि
सुषैणा
1-3
सेना
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
फा.शु.8
मृगशिरा
प्रात:
4
50/16-18
स्वयंवर
1-3
संवर
सिद्धार्था
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
वैशा.शु.6
पुनर्वसु
5
51/19-21
मेघरथ
1-3
मेघप्रभ
मंगला
2-3
सुमंगला
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
श्रा.शु.2
मघा
6
52/18-19
धरण
सुसीमा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
माघ कृ.6
चित्रा
प्रात:
7
53/18-20
सुप्रतिष्ठ
पृथ्वीषैणा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
भाद्र शु.6
विशाखा
8
54/164-166
महासेन
लक्ष्मणा
1
लक्ष्मीमती
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
चैत्र कृ.5
...
पिछली रात्रि
9
55/24-25
सुग्रीव
जयरामा
1-3
रामा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
फा.कृ.9
मूल
प्रभात
10
56/24-26
दृढरथ
सुनंदा
1
नंदा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
चैत्र कृ.8
पूर्वाषाढा
अंतिम रात्रि
11
57/17-19
विष्णु
सुनंदा
1
2,3वेणुश्री
विष्णुश्रीइक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
ज्येष्ठ कृ.6
श्रवण
प्रात:
...12
58/17-18
वसुपूज्य
जयावती
1
विजया
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
आषा.कृ.6
शतभिषा
अंतिम रात्रि
13
59/14-17
कृतवर्मा
जयश्यामा
2-3
शर्मा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
ज्येष्ठ कृ.10
उत्तरभाद्रपदा
प्रात:
14
60/16-18
सिंहसेन
जयश्यामा
1-3
सर्वश्यामा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
कार्ति.कृ.1
रेवती
15
61/13-15
भानु
2
भानुराज
सुप्रभा
1-3
सुव्रता
कुरु
इक्ष्वाकु
वैशा.शु.13
रेवती
16
63/384-386
विश्वसेन
ऐरा
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
भाद्र कृ.7
भरणी
अंतिम रात्रि
17
64/13-14
सूरसेन
3
सूर्य
श्रीकांता
1-3
श्रीमती
कुरु
इक्ष्वाकु
श्रा.कृ.10
कृत्तिका
अंतिम रात्रि
18
65/15-16
सुदर्शन
मित्रसेना
कुरु
इक्ष्वाकु
फा.कृ.3
रेवती
अंतिम रात्रि
19
66/20-22
कुंभ
प्रजावती
1
2,3प्रभावती
रक्षिताइक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
चैत्र शु.1
अश्विनी
प्रात:
20
67/20-21
सुमित्र
सोमा
1-3
पद्मावती
यादव
हरिवंश
श्रा.कृ.2
श्रवण
21
69/19,25,26
विजय
महादेवी
2-3
1वप्रा वप्रिला
इक्ष्वाकु
इक्ष्वाकु
आश्वि.कृ.2
अश्विनी
अंतिम रात्रि
22
71/30-31
समुद्रविजय
शिवदेवी
यादव
हरिवंश
कार्ति.शु.6
उत्तराषाढा
अंतिम रात्रि
23
73/75-76
विश्वसेन
1-3
अश्वसेन
ब्राह्मी
1-3
2-3वर्मिला(नामा)
वर्माउग्र
उग्र
वैशा.कृ.2
विशाखा
प्रात:
24
74/252-254
सिद्धार्थ
प्रियकारिणी
नाथ
नाथ
आषा.शु.6
उत्तराषाढा
अंतिम रात्रि
नं.
13 जन्म तिथि
14 जन्म नक्षत्र
15 योग
16 उत्सेध
17 वर्ण
महापुराण/सर्ग/ श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/526-549
2. हरिवंशपुराण - 60.169-1801. तिलोयपण्णत्ति/4/526-549
2. पद्मपुराण - 20.36-60
3. हरिवंशपुराण - 60.182-205
4. महापुराण/पूर्ववत्1. महापुराण/जन्म तिथिवत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/585-587
2. त्रिलोकसार/804
3. पद्मपुराण - 20.112-115
4.हरिवंशपुराण - 60.304-305
5. महापुराण/ पर्व/श्लो.1. तिलोयपण्णत्ति/4/588-589
2. त्रिलोकसार/847-848
3. पद्मपुराण - 20.63-66
4. हरिवंशपुराण - 60.210-213
5. महापुराण/ उत्सेधवत्सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
धनुष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
1
13/2
चैत्र कृ.9
उत्तराषाढा
500 धवला
स्वर्ण
2
48/25
माघ शु.10
रोहिणी
प्रजेशयोग
48/28-31
450 ध.
स्वर्ण
3
49/18-19
कार्ति.शु.15
1-2
मार्ग.शु.15
ज्येष्ठा
2
4पूर्वाषाढा
मृगशिरासाम्ययोग
49/26-28
400 ध.
स्वर्ण
4
50/19
माघ शु.12
पुनर्वसु
अदितियोग
50/26-27
350 ध.
स्वर्ण
5
बालचंद्र
5
51/22
चैत्र शु.11
1-2
श्रा.शु.11
मघा
4
चित्रा
पितृ
51/26
300 ध.
स्वर्ण
6
52/21
कार्ति.कृ.13
1
आश्वि.कृ.13
चित्रा
त्वष्ट्रयोग
52/35
250 ध.
रक्त
7
53/22
ज्येष्ठ शु.12
1
विशाखा
अग्निमित्र
53/25
200 ध.
हरित
2
नील
8
54/170
पौष कृ.11
अनुराधा
शक्र
54/179
150 ध.
धवल
9
55/27
मार्ग.शु.1
मूल
जैत्र
55/30
100 ध.
धवल
10
56/28
माघ कृ.12
पूर्वाषाढा
विश्व
56/31
90 ध.
स्वर्ण
11
57/21
फा.कृ.11
श्रवण
विष्णु
57/38
80 ध.
स्वर्ण
12
58/19-20
फा.कृ.14
1
फा.शु.14
विशाखा
2,3
शतभिषा
वारुण
58/24
70 ध.
रक्त
13
59/21 (प्रति.ख.ग.)
माघ शु.4 माघ शु.14
1-2
माघ शु.14
पूर्वभाद्रपदा
2-3
उत्तरा भाद्रपदा
अहिर्बुध्न
59/24
60 ध.
स्वर्ण
14
60/21
ज्येष्ठ कृ.12
रेवती
पूषा
60/24
50 ध.
स्वर्ण
15
61/18
माघ शु.13
पुष्य
गुरु
61/23
45 ध.
स्वर्ण
16
63/397
ज्येष्ठ कृ.14
1
ज्येष्ठ शु.12
भरणी
याम्य
63/413
40 ध.
स्वर्ण
17
64/22
वैशा.शु.1
कृत्तिका
आग्नेय
64/26
35 ध.
स्वर्ण
18
65/21
मार्ग.शु.14
रोहिणी
4
पुष्य
65/26
30 ध.
स्वर्ण
19
66/31
मार्ग.शु.11
अश्चिनी
66/37
25 ध.
स्वर्ण
20
67/41
1,2
2/16/12आश्वि.शु.12 माघ कृ.12
श्रवण
67/29
20 ध.
नील
2
कृष्ण
21
69/30
आषा.कृ.10
1
आषा.शु.10
अश्विनी
4
स्वाति
69/33
15 ध.
स्वर्ण
22
71/38
श्रा.शु.6
1-2
वैशा.शु.13
चित्रा
ब्रह्म
71/50
10 ध.
नील
2
कृष्ण
23
73/90
पौष कृ.11
विशाखा
अनिल
73/95
9 हाथ
हरित
2-4
नील, श्यामल
24
74/262
चैत्र शु.13
उत्तरा-फाल्गुनी
अर्यमा
74/280
7 हाथ
स्वर्ण
18. वैराग्य कारण
19. दीक्षा तिथि
20. दीक्षा नक्षत्र
21. दीक्षा काल
22. दीक्षोपवास
नं.
तिलोयपण्णत्ति/4/607-611
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/644-667
2. हरिवंशपुराण - 60.226-236तिलोयपण्णत्ति/ 4/644-667
महापुराण दीक्षा तिथिवत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/644-667
2. हरिवंशपुराण - 60.217-218
3. महापुराण/ दीक्षा तिथिवत्तिलोयपण्णत्ति/4/644-657
महापुराण/सर्ग/श्लो.
विषय
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं
विशेष
1
नीलांजना मरण
17/18
नीलांजना मरण
17/203
चैत्र कृ.9
उत्तराषाढा
उत्तराषाढा
अपराह्न
3
सायंकाल
षष्ठोपवास
बेला
2
उल्कापात
48/32
उल्कापात
48/37-39
माघ शु.9
रोहिणी
रोहिणी
अपराह्न
3
सायंकाल
अष्ट भक्त
बेला
3
मेघ
46/36-37
1,2
मार्ग.शु.15
ज्येष्ठा
अपराह्न
तृतीय उप.
बेला
4
गंधर्व नगर
50/45
मेघ
50/51-54
माघ शु.12
पुनर्वसु
पूर्वाह्न
2-3
अपराह्न सायंकाल
तृतीय उप.
बेला
5
जातिस्मरण
51/70-72
वैशा.शु.9
मघा
मघा
पूर्वाह्न
3
प्रात:
तृतीय उप.
तेला
6
जातिस्मरण
52/51-54
कार्ति कृ.13
चित्रा
चित्रा
अपराह्न
2
संध्या
तृतीय भक्त
बेला
7
पतझड़
53/37
ऋतु परिवर्तन
53/41-43
ज्येष्ठ शु.12
विशाखा
विशाखा
पूर्वाह्न
2-3
अपराह्न संध्या
तृतीय भक्त
बेला
8
तड़िद्
54/37
ऋतु परि.
54/216-218
पौष कृ.11
अनुराधा
अनुराधा
अपराह्न
3
तृतीय उप.
बेला
9
उल्का
55/37
उल्कापात
55/46-48
मार्ग.शु.1
1
पौष शु.11
अनुराधा
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
10
हिमनाश
56/36
हिम
56/44-47
मार्ग.कृ.12
मूल
पूर्वाषाढा
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय उप.
बेला
11
पतझड़
57/43
बसंत-वि.
57/48-50
फा.कृ.11
श्रवण
श्रवण
पूर्वाह्न
3
प्रात:
तृतीय भक्त
बेला
12
जातिस्मरण
58/30
चिंतवन
58/37-40
फा.कृ.14
विशाखा
विशाखा
अपराह्न
3
सायंकाल
एक उप.
1 उपवास
13
मेघ
59/32
हिम
59/40/42
माघ शु.4
उ.भाद्रपदा
उ.भाद्रपदा
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय उप.
बेला
14
उल्कापात
60/26
उल्कापात
60/32-34
ज्येष्ठ कृ.12
रेवती
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
15
उल्कापात
61/30
उल्कापात
61/37-40
माघ शु.13
1
भाद्र शु.13
पुष्य
पुष्य
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
16
जातिस्मरण
63/462
दर्पण
63/470-479
ज्येष्ठ कृ.14
2
ज्येष्ठ कृ.13
भरणी
भरणी
अपराह्न
तृतीय उप.
बेला
17
जातिस्मरण
64/36
जातिस्मरण
64/38-41
वैशा.शु.1
कृत्तिका
कृत्तिका
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
18
मेघ
65/31
मेघ
65/33-35
मार्ग.शु.10
रेवती
रेवती
अपराह्न
3
संध्या
तृतीय भक्त
बेला
19
तड़िद्
66/40
जातिस्मरण
66/47-50
मार्ग.शु.11
2
मार्ग.शु.1
अश्विनी
अश्चिनी
पूर्वाह्न
3
सायंकाल
षष्ठ भक्त
तेला
20
जातिस्मरण
67/37
हाथी का संयम
67/41-45
वैशा.कृ.10
2
वैशा.कृ.9 श्रा.शु.7 16+56
श्रवण
श्रवण
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय उप.
बेला
21
जातिस्मरण
39/45
जातिस्मरण
69/53-56
आषा.कृ.10
2
श्रा.शु.4
अश्विनी
अश्विनी
अपराह्न
3
सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
22
जातिस्मरण
71/164
पशुक्रंदन
71/169-176
श्रा.शु.6
1
माघ शु.11
चित्रा
अपराह्न
2-3
पूर्वाह्न सायंकाल
तृतीय भक्त
बेला
23
जातिस्मरण
73/124
जातिस्मरण
73/127-133
पौष कृ.11
विशाखा
पूर्वाह्न
3
प्रात:
षष्ठ भक्त
एक उपवास
24
जातिस्मरण
74/297
जातिस्मरण
74/302-304
मार्ग.कृ.10
उत्तरा फा.
उत्तरा फा.
अपराह्न
3
संध्या
तृतीय भक्त
बेला
23. दीक्षा वन
24. दीक्षा वृक्ष
25. सह दीक्षित
26. केवलज्ञान तिथि
27.केवलज्ञान नक्षत्र
28.केवलोत्पत्ति काल
नं.
तिलोयपण्णत्ति/4/644-667
महापुराण दीक्षा तिथि वत् देखें नं - 19
महापुराण दीक्षा तिथि वत् देखें नं - 19
1.तिलोयपण्णत्ति/4/668
2. हरिवंशपुराण - 60.350
3. महापुराण दीक्षा तिथि वत् देखें नं - 19महापुराण/सर्ग/श्लो.
तिलोयपण्णत्ति/4/679-701
महापुराण/ पूर्ववत्
तिलोयपण्णत्ति/4/679-701
महापुराण/ पूर्ववत्
तिलोयपण्णत्ति/4/679-701
महापुराण/ पूर्ववत्
1
सिद्धार्थ
सिद्धार्थ (17/182)
वट
4000
20/268
फा.कृ.11
फा.कृ.11
फा.कृ.11
उत्तराषाढा
उत्तराषाढा
पूर्वाह्न
पूर्वाह्न
2
सहेतुक
सहेतुक
सप्तवर्ण
सप्तवर्ण
1000
48/42
पौष शु.14
फा.कृ.11
पौष शु.11
रोहिणी
रोहिणी
अपराह्न
अपराह्न
संध्या
3
सहेतुक
सहेतुक
शाल
शाल्मलि
1000
49/40-41
का.कृ.5
का.कृ.5
का.कृ.4
ज्येष्ठा
मृगशिरा
अपराह्न
अपराह्न
संध्या
4
उग्र
अग्रोद्यान
सरल
असन
1000
50/56
का.शु.5
पौष शु.15
पौष शु.14
पुनर्वसु
पुनर्वसु
अपराह्न
अपराह्न
संध्या
5
सहेतुक
सहेतुक
प्रियंगु
प्रियंगु
1000
51/75
पौष शु.15
चैत्र शु.10
चैत्र शु.11
हस्त
हस्त
अपराह्न
अपराह्न
सूर्यास्त
6
मनोहर
मनोहर
प्रियंगु
प्रियंगु
1000
52/56-50
वैशा.शु.10
चैत्र शु.10
चैत्र शु.15
चित्रा
चित्रा
अपराह्न
अपराह्न
अपराह्न
7
सहेतुक
सहेतुक
श्रीष
श्रीष
1000
53/45
फा.कृ.7
फा.कृ.7
फा.कृ.6
विशाखा
विशाखा
अपराह्न
अपराह्न
सायं
8
सर्वार्थ
सुवर्तक
नाग
नाग
1000
54/223-224
फा.कृ.7
फा.कृ.7
फा.कृ.7
अनुराधा
अनुराधा
अपराह्न
अपराह्न
सायं
9
पुष्प
पुष्पक
साल
नाग
1000
55/49
का.शु.3
का.शु.3
का.शु.2
मूल
मूल
अपराह्न
अपराह्न
सायं
10
सहेतुक
सहेतुक
प्लक्ष
बेल
1000
56/48-49
पौष कृ.14
पौष कृ.14
पौष कृ.14
पूर्वाषाढा
पूर्वाषाढा
अपराह्न
अपराह्न
सायं
11
मनोहर
मनोहर
तेंदु
तुंबुर
1000
57/51-52
माघ कृ.15
माघ कृ.15
माघ कृ.15
श्रवण
श्रवण
अपराह्न
पूर्वाह्न
सायं
12
मनोहर
मनोहर
पाटला
कदंब
606
58/42
माघ शु.2
माघ शु.2
माघ शु.2
विशाखा
विशाखा
अपराह्न
अपराह्न
सायं
13
सहेतुक
सहेतुक
जंबू
जंबु
1000
59/44-45
पौष शु.10
पौष शु.10
माघ शु.6
उत्तराषाढा
उत्तराभाद्रा
अपराह्न
अपराह्न
सायं
14
सहेतुक
सहेतुक
पीपल
अश्वत्थ
1000
60/35-36
चैत्र कृ.15
चैत्र कृ.15
चैत्र कृ.15
रेवती
रेवती
अपराह्न
अपराह्न
सायं
15
शालि
शाल
दधिपर्ण
सप्तच्छद
1000
61/42-43
पौष शु.15
पौष शु.15
पौष शु.15
पुष्य
पुष्य
अपराह्न
अपराह्न
सायं
16
आम्रवन
सहस्राम्र
नंद
नंद्यावर्त
1000
63/481-482
पौष शु.11
पौष शु.11
पौष शु.10
भरणी
अपराह्न
अपराह्न
सायं
17
सहेतुक
सहेतुक
तिलक
तिलक
1000
64/42-43
चैत्र शु.3
चैत्र शु.3
चैत्र शु.3
कृत्तिका
कृत्तिका
अपराह्न
अपराह्न
सायं
18
सहेतुक
सहेतुक
आम्र
आम्र
1000
65/37-38
का.शु.12
का.शु.12
का.शु.12
रेवती
रेवती
अपराह्न
अपराह्न
सायं
19
शालि
श्वेत
अशोक
अशोक
300
66/51-52
फा.कृ.12
फा.कृ.12
मार्ग.शु.11
अश्विनी
अश्विनी
अपराह्न
पूर्वाह्न
प्रात:
20
नील
नीलोद्यान
चंपक
चंपक
2000
67/46-47
फा.कृ.6
मार्ग.शु.5 (16/64)
चैत्र कृ.10
श्रवण
श्रवण
पूर्वाह्न
अपराह्न
सायं
21
चैत्र
चैत्रोद्यान
बकुल
बकुल
2000
66/57-59
चैत्र शु.3
चैत्र शु.3
मार्ग.शु.11
अश्विनी
अपराह्न
अपराह्न
सायं
22
सहकार
सहस्रार
मेषशृंग
बांस
2000
71/179-181
आश्वि.शु.1
आश्वि.शु.1
आश्वि.कृ.1
चित्रा
चित्रा
पूर्वाह्न
पूर्वाह्न
प्रात:
23
अश्वत्थ
अश्ववन
धव
देवदारु
300
73/134-143
चैत्र कृ.4
चैत्र कृ.4
चैत्र कृ.13
विशाखा
विशाखा
पूर्वाह्न
पूर्वाह्न
प्रात:
24
नाथ
षंडवन
साल
साल
एकाकी
74/350
वै.शु.10
वै.शु.10
वै.शु.10
मघा
हस्त व उत्तराफागुनी
अपराह्न
अपराह्न
अपराह्न
नं꠶
महापुराण/सर्ग/श्लो.
२९. केवल स्थान
३०. केवल वन
३१.केवल वृक्ष(अशोकवृक्ष)
३२.समवसरण
३३. योग निवृत्ति काल
महापुराण/पूर्ववत्
तिलोयपण्णति/४/६७९-७०१
महापुराण/पूर्ववत्
१.तिलोयपण्णति/४/९९५-९९८ २.हरिवंशपुराण - 60.182-205
महापुराण/पूर्ववत्
तिलोयपण्णति/४/७१६-७१९
महापुराण/सर्ग/श्लो.
तिलोयपण्णति/४/१२०९
१
२०/२१९-२२०
पूर्वतालका
पुरिमताल
पुरिमताल
शकट
न्यग्रोध
वट
१२ योजन
४७/३३६
१४ दिन पूर्व
१४ दिन पूर्व
२
४८/४०
अयोध्या
साकेत
सहेतुक
×
सप्तपर्ण
×
११½ योजन
४८/५१
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
३
४९/३८-४१
श्रावस्ती
श्रावस्ती
सहेतुक
×
शाल
शाल्मलि
११ योजन
४९/५५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
४
५०/५४-५५
अयोध्या
अयोध्या
उग्रवन
×
सरल
असन
१० ½ योजन
५०/६५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
५
५१/७४
अयोध्या
×
सहेतुक
सहेतुक
प्रियंगु
प्रियंगु
१० योजन
५१/८४
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
६
५२/५३
कौशाम्बी
वर्धमान व.
मनोहर
×
प्रियंगु
×
९ ½ योजन
५२/६५-६६
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
७
५३/४३-४४
काशी
×
सहेतुक
सहेतुक
श्रीष
श्रीष
९ योजन
५३/५२
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
८
५४/२२३
चन्द्रपुरी
×
सर्वार्थ
सुवर्तक
नाग
नाग
८ ½ योजन
५४/२७०
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
९
५५/५०
काकन्दी
×
पुष्प
पुष्प
अक्ष (बहेड़ा)
नाग
८ योजन
५५/५४-५५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१०
५६/४८
भद्रिल
×
सहेतुक
×
धूलीशाल
बेल
७ ½ योजन
५६/५६-५७
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
११
५७/५१
सिंहनादपुर
×
मनोहर
मनोहर
तेन्दू
तुम्बुर
७ योजन
५७-६०
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१२
५८/४१-४२
चम्पापुरी
×
मनोहर
मनोहर
पाटल
कदम्ब
६ ½ योजन
५८/५१
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१३
५९/४४
कम्पिला
×
सहेतुक
सहेतुक
जम्बू
जम्बू
६ योजन
५९/५४
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१४
६०/३५
अयोध्या
×
सहेतुक
सहेतुक
पीपल
पीपल
५ ½ योजन
६०/४४
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१५
६१/४२
रत्नपुर
×
सहेतुक
शाल
दधिपर्ण
सप्तच्छद
५ योजन
६१/५१
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१६
६३/४८१
हस्तनागपुर
×
आम्रवन
सहस्राम्र
नन्दी
नन्दी
४ ½ योजन
६३/४९६
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१७
६४/४२
हस्तनागपुर
×
सहेतुक
सहेतुक
तिलक
तिलक
४ योजन
६४/५१
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१८
६५/३७
हस्तनागपुर
×
सहेतुक
सहेतुक
आम्र
आम्र
३ ½ योजन
६५/४५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
१९
६६/५१
मिथिला
×
मनोहर
श्वेत
कंकेलि (अशोक)
अशोक
३ योजन
६६/६१
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
२०
६७/४६
कुशाग्रनगर
×
नील
नील
चम्पक
चम्पक
२ ½ योजन
६७/५५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
२१
६९/५७
मिथिला
×
चित्र
चित्र
बकुल
बकुल
२ योजन
६९/६७
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
२२
७१/१७९-१८०
गिरनार
गिरनार
सहस्रार
मेषशृंग
बांस
१ ½ योजन
७३/२७३
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
२३
७३/१३४
आश्रमकेस
×
अश्ववन
धव
देवदारु
१ ¼ योजन
७३/१५५
१ मास पूर्व
१ मास पूर्व
२४
७४/३४९-३५०
ऋजुकूला
ऋजुकूला
षण्डवन
शाल
शाल
१ योजन
७४/५१०
दो दिन पूर्व
१ मास पूर्व
नं.
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
34. निर्वाण तिथि
35. निर्वाण नक्षत्र
36. निर्वाण काल
37.निर्वाण क्षेत्र
38. सह मुक्त
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1185-1208
2.हरिवंशपुराण - 60.266-275
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1185-1208
2. हरिवंशपुराण - 60.207-208
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1185-1208
2. हरिवंशपुराण - 60.276-279
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1185-1208
2. पद्मपुराण/20/61
3. हरिवंशपुराण - 60.182-205
4. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1185-1200
3. महापुराण/ पूर्ववत्
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
1
47/336-338
माघ. कृ.14
उत्तराषाढ़ा
3
अभिजित्
पूर्वाह्न
3
सूर्योदय
कैलास
10,000
10,000
2
48/51-53
चैत्र शु.5
भरणी
2,3
रोहिणी
पूर्वाह्न
3
प्रात:
सम्मेद
1000
1000
3
49/55-56
चैत्र शु.6
ज्येष्ठा
3
मृगशिरा
अपराह्न
3
सूर्यास्त
सम्मेद
1000
1000
1000
4
50/65-66
वै.शु.7
3
वै.शु.6
पुनर्वसु
पूर्वाह्न
3
प्रात:
सम्मेद
1000
1000
अनेक
5
51/84
चैत्र शु.10
3
चै.शु.11
मघा
पूर्वाह्न
3
संध्या
सम्मेद
1000
1000
1000
6
52/65-68
फा.कृ.4
चित्रा
अपराह्न
3
×
सम्मेद
324
3800
1000
7
53/52-53
फा.कृ.6
3
फा.शु.7
अनुराधा
3
विशाखा
पूर्वाह्न
3
सूर्योदय
सम्मेद
500
500
1000
8
54/269-271
भाद्र.शु.7
3
फा.शु.7
ज्येष्ठा
पूर्वाह्न
3
सायंकाल
सम्मेद
1000
1000
1000
9
55/58-59
आश्वि.शु.8
2,3
भाद्र.शु.8
मूल
अपराह्न
3
सायंकाल
सम्मेद
1000
1000
1000
10
56/57-58
का.शु.5
2
3आश्वि.शु.5 आश्वि.शु.8
पूर्वाषाढा
धनिष्ठापूर्वाह्न
3
सायंकाल
सम्मेद
1000
1000
1000
11
57/60-61
श्रा.शु.15
पूर्वाह्न
3
सायंकाल
सम्मेद
1000
1000
1000
12
58/50-53
फा.कृ.5
3
भाद्र.शु.14
अश्विनी
3
विशाखा
अपराह्न
सायंकाल
चंपापुर
601
601
94
13
59/54-55
आषा.शु.8
चैत्र कृ.15पूर्व भाद्रपद
2
3उत्तराभाद्र. उत्तराषाढा
सायं
3
प्रात:
सम्मेद
600
6000
8600
14
60/43-44
रेवती
सायं
सम्मेद
7000
7000
6100
15
61/51-52
ज्येष्ठकृ.14
2,3
ज्येष्ठ शु.4
पुष्य
प्रात:
3
अंतिम रात्रि
सम्मेद
801
801
900
16
63/496-501
ज्येष्ठकृ.14
भरणी
सायं
सम्मेद
900
900
9000
17
64/51-52
वै.शु.1
कृत्तिका
सायं
सम्मेद
1000
1000
1000
18
65/45-46
चैत्र कृ.15
रोहिणी
3
रेवती
प्रात:
3
पूर्व रात्रि
सम्मेद
1000
1000
1000
19
66/61-62
फा.कृ.5
3
फा.शु.7
भरणी
सायं
सम्मेद
500
500
5000
20
67/55-56
फा.कृ.12
2
3माघ शु.13 16/76
श्रवण
2, 3
पुष्य 16/76
सायं
3
2अपर रात्रि
अपराह्न 16/76सम्मेद
1000
1000
1000
21
69/67-68
वै.कृ.14
अश्विनी
प्रात:
3
अंतिम रात्रि
सम्मेद
1000
1000
1000
22
72/271-272
आषा.कृ.8
2
3आषा.शु.8 आषा.शु.7
चित्रा
सायं
उर्जयंत
536
536
533
23
73/156-157
श्रा.शु.7
विशाखा
सायं
3
प्रात:
सम्मेद
36
536
36
24
76/510-512
का.कृ.14
स्वाति
प्रात:
3
अंतिम रात्रि
पावापुरी
एकाकी
36
नं.
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
39. पूर्वधारी
40. शिक्षक
41. अवधिज्ञानी
42. केवली
43. विक्रियाधारी
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण - 60.358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण - 60.358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण - 60.358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण - 60.358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण - 60.358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
1
47/290-294
4750
4150
9000
20000
20600
2
48/43-48
3750
21600
9400
20000
20400
2
320450 20400
3
49/43-49
2150
129300
9600
15000
19800
2
19850
4
50/57-63
2500
230050
9800
16000
19000
5
51/76-81
2400
254350
11000
13000
18400
6
52/58-64
2300
269000
10000
12000
2
16800
2
16300
7
53/46-51
2030
244920
9000
11000
2
11300
15300
2
15150
8
54/244-248
4000
2,3
2000
210400
2,3
200400
2000
2,3
8000
18000
2,3
10000
600
2
310400 14000
9
55/52-57
1500
2
5000
155500
8400
7500
3
7000
13000
10
56/50-55
1400
59200
7200
7000
12000
11
57/54-59
1300
48200
6000
6500
11000
12
58/44-49
1200
39200
5400
6000
10000
13
59/48-53
1100
38500
4800
5500
9000
14
60/37-42
1000
39500
4300
5000
8000
15
61/44
900
40700
3600
4500
7000
16
63/479-495
800
41800
3000
4000
6000
17
64/44-49
700
43150
2500
3200
5100
18
65/39-43
610
35835
2800
2800
4300
19
66/53-59
550
2
750
29000
2200
2200
2
2650
2900
2
1400
20
67/49-53
500
21000
1800
1800
2200
21
69/60-65
450
12600
1600
1600
1500
22
71/182-187
400
11800
1500
1500
1100
23
73/149-153
350
10900
1400
1000
1000
24
74/373-378
300
9900
1300
700
900
नं.
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
44. मन:पर्ययज्ञानी
45. वादी
46. सर्व ऋषि संख्या
47. गणधर संख्या
48. मुख्य गणधर
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण/60/358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1098-1161
2. हरिवंशपुराण/60/358-431
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1092-1097
2. हरिवंशपुराण/60/352-356
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/961-963
2. हरिवंशपुराण/60/341-345
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/964-966
2. हरिवंशपुराण/60/346-349
3. महापुराण/ पूर्ववत्
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
1
47/290-294
12750
12750
84000
3
84084
84
ऋषभसेन
2,3
3वृषभसेन
” 24/1722
48/43-48
12450
2
12400
12400
100000
90
केसरिसेन
2,3
सिंहसेन
3
49/43-49
12150
12000
12000
2
12100
200000
105
चारुदत्त
3
चारुसेन
4
50/57-63
21650
2,3
11650
1000
2,3
11650 11000
300000
103
वज्रचमर
2,3
वज्र, वज्रनाभि
5
51/76-81
10400
10450
320000
116
वज्र
2,3
चमर,अमर
6
52/58-64
10300
2
10600
9600
2
9000
330000
111
3
110
चमर
2
3वज्रचमर चामर
7
53/46-51
9150
2
9600
8600
2
8000
300000
95
बलदत्त बलिदत्त
2,3
बलि, बल
8
54/244-248
8000
7000
2,3
7600
250000
93
वैदर्भ
2,3
दत्तक,दत्त
9
55/52-57
7500
2
6500
6600
2
7600
200000
88
नाग(अनगार)
2,3
वैदर्भ,वि
10
56/50-55
7500
5700
100000
87
2,3
81
कुंथु
2,3
अनगार
11
57/44-49
6000
5000
84000
77
धर्म
2,3
कुंथु
12
58/44-49
6000
4200
72000
66
मंदिर
2,3
सुधर्म,धर्म
13
59/48-53
5500
2
9000
3600
68000
55
जय
2,3
मंदरार्य, मंदर
14
60/37-42
5000
3200
66000
50
अरिष्ट
2,3
जय
15
61/44
4500
2800
64000
43
सेन
2,3
अरिष्टसेन
16
63/479-495
4000
2400
62000
36
चक्रायुध
17
64/44-49
3350
3
3300
2000
3
2050
60000
35
स्वयंभू
18
65/39-43
2055
1600
50000
30
कुंभ
2
कुंथु
19
66/53-59
1750
2
2200
1400
2
2200
40000
28
विशाख
20
67/49-53
1500
1200
30000
18
मल्लि
21
69/60-65
1250
1000
20000
17
सप्रभ
2
सोमक
22
71/182-187
900
800
18000
11
वरदत्त
23
73/149-153
750
600
16000
10
स्वयंभू
24
74/373-378
500
400
14000
11
इंद्रभूति
नं.
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
49. आर्यिका संख्या
50. मुख्य आर्यिका
51. श्रावक संख्या
52. श्राविका संख्या
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1166-1176
2. हरिवंशपुराण/60/432-440
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1178-1180
2. महापुराण/ पूर्ववत्1. तिलोयपण्णत्ति/4/1181-1182
2. हरिवंशपुराण/60/441
3. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1183
2. हरिवंशपुराण/60/442
3. महापुराण/ पूर्ववत्
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
सामान्य
प्रमाण नं.
विशेष
1
47/290-294
350000
ब्राह्मी
300000
500000
2
48/43-48
320000
प्रकुब्जा
2
कुब्जा
300000
500000
3
49/43-49
330000
3
320000
धर्मश्री
2
धर्मार्या
300000
500000
4
50/57-63
330600
3
330000
मेरुषेणा
300000
500000
5
51/76-81
330000
अनंता
2
अनंतमती
300000
500000
6
52/58-64
420000
रतिषेणा
500000
7
53/46-51
330000
मीना
2
मीनार्या
500000
8
54/244-248
380000
वरुना
300000
500000
9
55/52-57
380000
घोषा
2
घोषार्या
200000
400000
3
500000
10
56/50-55
380000
धरणा
200000
400000
11
57/54-49
130000
2,3
120000
चारणा
2
धारणा
200000
400000
12
58/44-49
106000
वरसेना
2
सेना
200000
400000
13
59/48-53
103000
पद्मा
200000
400000
14
60/37-42
108000
सर्वश्री
200000
400000
15
61/44
62400
सुव्रता
200000
400000
16
3/479-495
60300
हरिषेणा
200000
400000
17
64/4
60350
भाविता
100000
300000
18
65/39-43
60000
कुंथुसेना
2
यक्षिता
100000
3
160,000
300000
19
66/53-59
55000
मधुसेना
2
बंधुसेना
100000
300000
20
67/49-53
50000
पूर्वदत्ता
2
पुष्पदंता
100000
300000
21
69/60-65
45000
मार्गिणी
2
मंगिनी
100000
300000
22
71/182-187
40000
यक्षिणी
2
राजमती
100000
300000
23
73/149-153
38000
3
36000
सुलोका
2
सुलोचना
100000
300000
24
74/373-378
36000
2
35000
चंदना
100000
300000
- वर्तमान चौबीसी के आयुकाल का विभाग परिचय
ला.=लाख; को.=कोड़ि; सा.=सागर; प.=पल्य
नं.
53. आयु
54. कुमारकाल
55. विशेषता
56. राज्यकाल
57. छद्मस्थ काल
58. केवलिकाल
1. तिलोयपण्णत्ति/4/579-582
2. त्रिलोकसार/805-806
5. महापुराण/ सर्ग/श्लो.
3. पद्मपुराण - 20.118-122
4. हरिवंशपुराण/60/312-316
1. तिलोयपण्णत्ति/4/583-584
2. हरिवंशपुराण/60/325-331
3. महापुराण/ सर्ग/श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/590-603
2. त्रिलोकसार/848
4. हरिवंशपुराण/60/209
3. पद्मपुराण - 20.62-67
1. तिलोयपण्णत्ति/4/590-603
2. हरिवंशपुराण/60/325-331
3. महापुराण/ सर्ग/श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/675-678
2. हरिवंशपुराण/330/337-340
3. महापुराण/ सर्ग/श्लो.
1. तिलोयपण्णत्ति/4/943-960
2. हरिवंशपुराण/60/335-340सर्ग/श्लो.
सामान्य
सर्ग/श्लो.
सामान्य
विवाह
राज्य
सर्ग/श्लो.
सामान्य
सर्ग/श्लो.
सामान्य
सामान्य
1
84 ला.पूर्व
16/129
20 ला.पूर्व
मंडलीक
16/267
63 ला.पूर्व
1000 वर्ष
1 ला.पू.–1000 वर्ष
2
48/28-31
72 ला.पूर्व
48/31
18 ला.पूर्व
मंडलीक
48/28-31
53 ला.पूर्व+1 पूर्वांग
48/42
12 वर्ष
1 ला.पू.–(1 पूर्वांग12 वर्ष)
3
49/26-28
60 ला.पूर्व
49/26-28
15 ला.पूर्व
मंडलीक
49
44 ला.पूर्व+4 पूर्वांग
49/40-41
14 वर्ष
1 ला.पू.–(4 पूर्वांग 14 वर्ष)
4
50/26-27
50 ला.पूर्व
50/28
12.5 ला.पूर्व
मंडलीक
50/45
36.5 ला.पूर्व+8 पूर्वांग
50/55
18 वर्ष
1 ला.पू.–(8 पूर्वांग 18 वर्ष)
5
51/26
40 ला.पूर्व
51/55
10 ला.पूर्व
मंडलीक
51/68
29 ला.पूर्व+12 पूर्वांग
51/74
20 वर्ष
1 ला.पू.–(12 पूर्वांग 20 वर्ष)
6
52/35
30 ला.पूर्व
52/35-36
7.5 ला.पूर्व
मंडलीक
52/
21.5 ला.पूर्व+16 पूर्वांग
52/55
6 मास
1 ला.पू.–(16 पूर्वांग 6 मास)
7
53/25
20 ला.पूर्व
53/26
5 ला.पूर्व
मंडलीक
53/37
14 ला.पूर्व+20 पूर्वांग
53/44
9 वर्ष
1 ला.पू.–(20 पूर्वांग 9 वर्ष)
8
54/179
10 ला.पूर्व
54/195
2.5 ला.पूर्व
मंडलीक
54/202
6.5 ला.पूर्व+24 पूर्वांग
54/223
3 मास
1 ला.पू.–(24 पूर्वांग 3 मास)
9
55/30
2 ला.पूर्व
55/30
50000 पूर्व
मंडलीक
55/36
0.5 ला.पूर्व+28 पूर्वांग
55/49
4 वर्ष*
1 ला.पू.–28 पूर्वांग 4 वर्ष*
10
56/31
1 ला.पूर्व
56/32
25000 पूर्व
मंडलीक
56/35
50,000 पूर्व
56/48
3 वर्ष*
25000 र्पू.–3 वर्ष*
11
57/36
84 ला.वर्ष
57/38
21 ला.वर्ष
मंडलीक
57/43
42 ला.वर्ष
57/51
2 वर्ष*
2099998 वर्ष*
12
58/24
72 ला.वर्ष
58/30
18 ला.वर्ष
कुमारश्रमण
त्याग
58/
58/41
1 वर्ष*
5399999 वर्ष*
13
59/24
60 ला.वर्ष
59/25
15 ला.वर्ष
मंडलीक
59/31
30 ला.वर्ष
59/44
3 वर्ष*
1499997 वर्ष*
14
60/24
30 ला.वर्ष
60/25
7.5 ला.वर्ष
मंडलीक
60/26
15 ला.वर्ष
60/35
2 वर्ष*
749998 वर्ष*
15
61/22
10 ला.वर्ष
61/23
2.5 ला.वर्ष
मंडलीक
61/30
5 ला.वर्ष
61/42
1 वर्ष*
249999 वर्ष*
16
63/413
1 ला.वर्ष
63/455
25000 वर्ष
चक्रवर्ती
63/457, 461
मंडलेश+चक्रवर्ती
25000+2500063/485
16 वर्ष
24984 वर्ष
17
64/26
95000 वर्ष
64/27
23750 वर्ष
चक्रवर्ती
64/28,35
23750+23750
64/41
16 वर्ष
23734 वर्ष
18
65/25
84000 वर्ष
65/29
21000 वर्ष
चक्रवर्ती
65/29-30
21000+21000
65/36
16 वर्ष
20984 वर्ष
19
66/37
55000 वर्ष
66/38
100 वर्ष
कुमारश्रमण
त्याग
66/
66/51
6 दिन
54900 वर्ष–6 दिन
20
67/29
30000 वर्ष
67/30
7500 वर्ष
मंडलीक
67/31
15000 वर्ष
67/46
11 मास
7499 वर्ष +1मास
21
69/33
10000 वर्ष
69/34
2500 वर्ष
मंडलीक
69/35
5000 वर्ष
69/57
9 वर्ष
2491 वर्ष
22
71/50
1000 वर्ष
71/170
300 वर्ष
कुमारश्रमण
त्याग
71/
71/179
56 दिन
699 वर्ष 10 मास 4 दिन
23
73/94
100 वर्ष
73/119
30 वर्ष
कुमारश्रमण
त्याग
73/134
4 मास
69 वर्ष 8 मास
24
74/280
72 वर्ष
74/296
30 वर्ष
कुमारश्रमण
त्याग
74/348
12 वर्ष
30 वर्ष
*हरिवंश-पुराण में सर्वत्र इन स्थानों में वर्ष की जगह मास दिये हैं।
नं.
महापुराण/ सर्ग/श्लो.
59. जन्म अंतराल
60. केवलोत्पत्ति अंतराल
61. निर्वाण अंतराल
1. तिलोयपण्णत्ति/4/553-577
2. त्रिलोकसार/807-8814. महापुराण/ पूर्ववत्
1. तिलोयपण्णत्ति/4/702-703
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1240-1249
2. त्रिलोकसार/807
3. हरिवंशपुराण/60/467-472
चौथे काल में 84 ला.पू.3 वर्ष 8File:JSKHtmlSample clip image002 0073.gifमास शेष रहने पर उत्पन्न हुए।
1
48/26
50 ला.को.सा.+12 ला.पू.
50 ला.को.सा.
50 ला.को.सा.
50 ला.को.सा.+8399012 वर्ष
50 ला.को.सा.
2
49/26
30 ला.को.सा.+12 ला.पू.
30 ला.को.सा.
30 ला.को.सा.
30 ला.को.सा.+3 पूर्वांग 2 वर्ष
30 ला.को.सा.
3
50/26
10 ला.को.सा.+10 ला.पू.
20 ला.को.सा.
10 ला.को.सा.
10 ला.को.सा.+4 पूर्वांग 4 वर्ष
10 ला.को.सा.
4
51/25
9 ला.को.सा.+10 ला.पू.
9 ला.को.सा.
9 ला.को.सा.
9 ला.को.सा.+4 पूर्वांग 2 वर्ष
9 ला.को.सा.
5
52/34
90,000 को.सा.+10 ला.पू.
90,000 को.सा.
90,000 को.सा.
90,000 को.सा.+3 पूर्वांग 8399980File:JSKHtmlSample clip image002 0074.gif वर्ष
90,000 को.सा.
6
53/24
9000 को.सा.+10 ला.पू.
9000 को.सा.
9000 को.सा.
9000 को.सा.+4 पूर्वांग 8File:JSKHtmlSample clip image002 0075.gif वर्ष
9000 को.सा.
7
54/178
900 को.सा.+10 ला.पू.
900 को.सा.
900 को.सा.
900 को.सा.+3 पूर्वांग 839991File:JSKHtmlSample clip image002 0076.gif वर्ष
900 को.सा.
8
55/29
90 को.सा.+8 ला.पू.
90 को.सा.
90 को.सा.
90 को.सा.+4 पूर्वांग 3File:JSKHtmlSample clip image002 0077.gif वर्ष
90 को.सा.
9
56/30
9 को.सा.+1 ला.पू.
9 को.सा.
9 को.सा.
9 को.सा.74999 पूर्व 839991 पूर्वांग 8399999 वर्ष
9 को.सा.
10
57/36
1 को.सा.+1 ला.पू.–(100 सा.+15026000 वर्ष)
1 को.सा.–100 सा.
1 क.सा.–(100 सा.+6626000 वर्ष)
9999900 सा. 24999 पूर्व 70559991273999 वर्ष
3373900 सा.
11
58/23
54 सा.+12 ला.वर्ष
54 सा.
54 सा.
54 सा.3300001 वर्ष
54 सा.
12
59/23
30 सा.+12 ला.वर्ष
30 सा.
30 सा.
30 सा.3900002 वर्ष
30 सा.
13
60/23
9 सा.+30 ला.वर्ष
9 सा.
9 सा.
9 सा.749999 वर्ष
9 सा.
14
61/20
4 सा.+20 ला.वर्ष
4 सा.
4 सा.
4 सा.499999 वर्ष
4 सा.
15
63/411
(3 सा. 9 ला.वर्ष)–3/4 पल्य
3 सा.–3/4 पल्य
3 सा.–3/4 पल्य
3 सा.225015 वर्ष–3/4 पल्य
3 सा.–3/4 पल्य
16
64/25
1/2 पल्य+5000 वर्ष
1/2 पल्य
1/2 पल्य
1/2 पल्य 1250 वर्ष
1/2 पल्य
17
65/24
1/4 पल्य+9999989000 वर्ष
1/4 प.–1000 को. वर्ष
1/4 प.–100 को. वर्ष
1/4 प.–9999997250 वर्ष
1/4 प.–1000 को. वर्ष
18
66/36
10000029000 वर्ष
1000 को.सा.–6584000 वर्ष
1000 को.वर्ष
9999966084 वर्ष 6 दिन
1000 को.वर्ष
19
67/27
5425000 वर्ष
5400000 वर्ष
5400000 वर्ष
5447400 वर्ष 10 मास 24 दिन
54 ला. वर्ष
20
69/32
620,000 वर्ष
600000 वर्ष
60,00,000 वर्ष(?)
605008 वर्ष 1 मास
6 ला.वर्ष
21
71/49
509000 वर्ष
50,000 वर्ष
500,000 वर्ष
501791 वर्ष 56 दिन
5 ला.वर्ष
22
73/93
84650 वर्ष
84000 वर्ष
83750 वर्ष
84380 वर्ष 2 मास 4 दिन
83750 वर्ष
23
74/279
278 वर्ष
250 वर्ष
250 वर्ष
279 वर्ष 8 मास
250 वर्ष
24
चतुर्थकाल में 75 वर्ष 8File:JSKHtmlSample clip image002 0078.gifमास शेष रहने पर उत्पन्न हुए थे।
- वर्तमान चौबीसी के तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध पुरुष
संकेत=ला.=लाख, को.=कोड़ि, सा.=सागर, प.=पल्य
नं.
62. तीर्थकाल
63. तीर्थ व्युच्छित्ति
64. सामयिक शलाका पुरुष
65. मुख्य श्रोता
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1250-1274
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1279
2. त्रिलोकसार/814
3. हरिवंशपुराण/60/474-475
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1283-1286,1411-1443
2. त्रिलोकसार/842-846, 3 . हरिवंशपुराण/60/294-301महापुराण/76/529-533
4. महापुराण/ सर्ग/श्लो.
काल
नाम तीर्थंकर
चक्रवर्ती
बलदेव
नारायण
प्रतिनारायण
रुद्र
मुख्य
1
50 ला.को.सा.+1 पूर्वांग
×
अज्ञात
1 ऋषभ
भरत
×
×
×
भीमावलि
भरत
2
30 ला.को.सा.+3 पूर्वांग
×
अज्ञात
2 अजित
सगर
×
×
×
जितशत्रु
सगर
3
10 ला.को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
3 संभव
×
×
×
×
×
सत्यवीर्य
4
9 ला.को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
4 अभिनंदन
×
×
×
×
×
मित्रभाव
5
90,000 को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
5 सुमति
×
×
×
×
×
मित्रवीर्य
6
9,000 को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
6 पद्मप्रभु
×
×
×
×
×
धर्मवीर्य
7
900 को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
7 सुपार्श्व
×
×
×
×
×
दानवीर्य
8
90 को.सा.+4 पूर्वांग
×
अज्ञात
8 चंद्रप्रभु
×
×
×
×
×
मघवा
9
(9 को.सा.–1/4 प.)+(1 ला.पूर्व–28 पूर्वांग)
56/30
1/4 पल्य
9 पुष्पदंत
×
×
×
×
रुद्र
बुद्धिवीर्य
10
1 को.सा.–{(100 सा.–1/2 प.)+(25000 पूर्व–6626000 वर्ष)}
57/36
1/2 पल्य
10 शीतल
×
×
×
×
वैश्वानर
सीमंधर
11
(54 सा.+21 ला.वर्ष)–3/4 पल्य
58/23
(1/3?) 3/4प.
11 श्रेयांस
×
विजय
त्रिपृष्ठ
अश्वग्रीव
सुप्रतिष्ठ
त्रिपृष्ठ
12
(30 सा.+54 ला.वर्ष)–1 पल्य
59/23 (टिप्पणी)
1 पल्य
12वासुपूज्य
×
अचल
द्विपृष्ठ
तारक
अचल
स्वयंभू
13
(9 सा.+15 ला.वर्ष)–3/4 पल्य
60/23
3/4 पल्य
13 विमल
×
धर्म
स्वयंभू
मेरक
पुंडरीक
पुरुषोत्तम
14
(4 सा.+750000वर्ष)–3/4 पल्य
61/20
1/2 पल्य
14 अनंत
×
सुप्रभ
पुरुषोत्तम
मधु कै.
अजितंधर
पुरुष पुंडरीक
15
3 सा.+250000 वर्ष)–1 पल्य
63/411
1/4 पल्य
15 धर्म
×
सुदर्शन
पुरुषसिंह
निशुंभ
अजितनाभि
सत्यदत्त
मघवा
×
×
×
×
×
सनत्कुमार
×
×
×
×
×
16
1/2 पल्य+1250 वर्ष
×
अज्ञात
16 शांति
स्वयं
×
×
×
पीठ
कुनाल
17
1/4 प.–9999997250 वर्ष
×
अज्ञात
17 कुंथु
स्वयं
×
×
×
×
नारायण
18
9999966100 वर्ष
×
अज्ञात
18 अर
स्वयं
×
×
×
×
×
सुभौम
×
×
×
×
सुभौम
×
नंदी
पुंडरीक
बलि
×
×
19
5447400 वर्ष
×
अज्ञात
19 मल्लि
×
×
×
×
×
सार्वभौम
×
नंदिमित्र
पुष्पदत्त
प्रहरण
×
×
पद्म
×
×
×
×
×
20
605000 वर्ष
×
अज्ञात
20 सुव्रत
×
×
×
×
×
अजितंजय
हरिषेण
×
×
×
×
×
×
राम
लक्ष्मण
रावण
×
×
21
501800 वर्ष
×
अज्ञात
21 नमि
×
×
×
×
×
विजय
जयसेन
×
×
×
×
×
22
84380 वर्ष
×
अज्ञात
22 नेमि
×
पद्म
कृष्ण
जरासिंध
×
उग्रसेन
ब्रह्मदत्त
×
×
×
×
×
23
278 वर्ष
×
अज्ञात
23 पार्श्व
×
×
×
×
×
महासेन
24
21042 वर्ष
×
अज्ञात
24 वर्द्धमान
×
×
×
×
सात्यकि
श्रेणिक
- विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का परिचय
1. जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/545-564
1. त्रिलोकसार/681
2. महापुराण/76/496
3.जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/565
1. नाम
2. चिह्न
3. नगरी
4. पिता
5. माता
6. विदेहस्थ तीर्थंकरों की संख्या
1
सीमंधर
ऋषभ
पुंडरीकणी
हंस
सित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुहवरेण अवरेण। बीसं बीसं सयले खेत्ते सत्तरिसयं वरदो।681।
तीर्थंकर पृथक्-पृथक् एक एक विदेह देशविषै एक एक होइ तब उत्कृष्टपनै करि एकसौ साठि होइ। बहुरि जघन्यपने करि सीता सीतोदा का दक्षिण उत्तर तट विषै एक एक होइ ऐसे एक मेरु अपेक्षा च्यारि होहि। सब मिलि करि पंच मेरु के विदेह अपेक्षाकरि बीस हो है।2
युगमंधर
श्री रुह
3
बाहु
हरिण
सुसीमा
सुग्रीव
विजया
4
सुबाहु
अबध्यदेश
सनंदा
5
संजात
सूर्य
अलकापुरी
देवसेन
6
स्वयंप्रभ
चंद्रमा
मंगला
7
ऋषभानन
सुसीमा
वीरसेना
8
अनंतवीर्य
9
सूरिप्रभ
ऋषभ
10
विशालप्रभ
इंद्र
पुंडरीकणी
वीर्य
विजया
11
वज्रधर
शंख
पद्मरथ
सरस्वती
12
चंद्रानन
गो
पुंडरीकणी
दयावती
13
चंद्रबाहू
कमल
रेणुका
14
भुजंगम
चंद्रमा
महाबल
15
ईश्वर
सुसीमा
गलसेन
ज्वाला
16
नेमिप्रभ
सूर्य
17
वीरसेन
पुंडरीकणी
भूमिपाल
वीरसेना
18
महाभद्र
विजया
देवराज
उमा
19
देवयश
सुसीमा
स्तवभूति
गंगा
20
अजितवीर्य
कमल
कनक
पुराणकोष से
धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस-चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । महापुराण 2.117 अवसर्पिणी काल में हुए चौबीस तीर्थंकर ये हैं― वृषभ, अजित, शंभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व और महावीर (सन्मति और वर्धमान) । महापुराण 2.127-133 हरिवंशपुराण - 2.18, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-108 इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छ: मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । महापुराण 12. 96-97, 163, 14. 165, 53.35, हरिवंशपुराण - 43.78 उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा काल में भी जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे हैं― महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनंतवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा । अंतिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहना पांच सौ धनुष ऊँची होगी । महापुराण 76.477-481, हरिवंशपुराण - 66.558-562
- भूत भावी तीर्थंकर परिचय