पद्म: Difference between revisions
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<p id="8" class="HindiText">(8) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह का देश । <span class="GRef"> महापुराण 73.31 </span></p> | <p id="8" class="HindiText">(8) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह का देश । <span class="GRef"> महापुराण 73.31 </span></p> | ||
<p id="9" class="HindiText">(9) भविष्यत्कालीन ग्यारहवाँ कुलकर । <span class="GRef"> महापुराण 76.465 </span></p> | <p id="9" class="HindiText">(9) भविष्यत्कालीन ग्यारहवाँ कुलकर । <span class="GRef"> महापुराण 76.465 </span></p> | ||
<p id="10">(10) भविष्यत्कालीन आठवां चक्रवर्ती । <span class="GRef"> महापुराण 76.483 </span></p> | <p id="10" class="HindiText">(10) भविष्यत्कालीन आठवां चक्रवर्ती । <span class="GRef"> महापुराण 76.483 </span></p> | ||
<p id="11">(11) व्यवहार काल का एक भेद । यह चौरासी लाख पद्मांग प्रमाण होता है । यह संख्या का भी एक भेद है । <span class="GRef"> महापुराण 3.118, 223, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#27|हरिवंशपुराण - 7.27]] </span></p> | <p id="11" class="HindiText">(11) व्यवहार काल का एक भेद । यह चौरासी लाख पद्मांग प्रमाण होता है । यह संख्या का भी एक भेद है । <span class="GRef"> महापुराण 3.118, 223, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#27|हरिवंशपुराण - 7.27]] </span></p> | ||
<p id="12">(12) सौधर्म स्वर्ग का एक पटल एवं विमान । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_6#46|हरिवंशपुराण - 6.46]] </span>देखें [[ सौधर्म ]]</p> | <p id="12" class="HindiText">(12) सौधर्म स्वर्ग का एक पटल एवं विमान । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_6#46|हरिवंशपुराण - 6.46]] </span>देखें [[ सौधर्म ]]</p> | ||
<p id="13">(13) पुष्करवर द्वीप का रक्षक देव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#639|हरिवंशपुराण - 5.639]] </span></p> | <p id="13" class="HindiText">(13) पुष्करवर द्वीप का रक्षक देव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#639|हरिवंशपुराण - 5.639]] </span></p> | ||
<p id="14">(14) कुंडलगिरिवामी देव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#631|हरिवंशपुराण - 5.631]] </span></p> | <p id="14" class="HindiText">(14) कुंडलगिरिवामी देव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#631|हरिवंशपुराण - 5.631]] </span></p> | ||
<p id="15">(15) हिमवत् कुलाचल का सरोवर । एक हजार योजन लंबा, पाँच सौ योजन चौड़ा और सवा सौ योजन गहरा है । इसके पूर्व द्वार से गंगा, पश्चिम द्वार से सिंधु और उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है । <span class="GRef"> महापुराण 32.121-124, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#121|हरिवंशपुराण - 5.121]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_126#132|126.132]] </span></p> | <p id="15" class="HindiText">(15) हिमवत् कुलाचल का सरोवर । एक हजार योजन लंबा, पाँच सौ योजन चौड़ा और सवा सौ योजन गहरा है । इसके पूर्व द्वार से गंगा, पश्चिम द्वार से सिंधु और उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है । <span class="GRef"> महापुराण 32.121-124, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#121|हरिवंशपुराण - 5.121]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_126#132|126.132]] </span></p> | ||
<p id="16">(16) कृष्ण का एक योद्धा । इसने कृष्ण-जरासंध युद्ध में भाग लिया था । <span class="GRef"> महापुराण 71.73-77 </span></p> | <p id="16" class="HindiText">(16) कृष्ण का एक योद्धा । इसने कृष्ण-जरासंध युद्ध में भाग लिया था । <span class="GRef"> महापुराण 71.73-77 </span></p> | ||
<p id="17">(17) अनंतनाथ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#153|हरिवंशपुराण - 60.153]] </span></p> | <p id="17" class="HindiText">(17) अनंतनाथ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#153|हरिवंशपुराण - 60.153]] </span></p> | ||
<p id="18">(18) चंद्रप्रभ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#152|हरिवंशपुराण - 60.152]] </span></p> | <p id="18" class="HindiText">(18) चंद्रप्रभ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#152|हरिवंशपुराण - 60.152]] </span></p> | ||
<p id="19">(19) हस्तिनापुर के राजा महापद्म का पुत्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_20#14|हरिवंशपुराण - 20.14]] </span></p> | <p id="19" class="HindiText">(19) हस्तिनापुर के राजा महापद्म का पुत्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_20#14|हरिवंशपुराण - 20.14]] </span></p> | ||
<p id="20">(20) तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थकाल में उत्पन्न नवम चक्रवर्ती । तीसरे पूर्वभव में ये सुकच्छ देश में श्रीपुर नगर के प्रजापाल नामक नृप थे । आयु पूर्ण कर अंतत स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से च्युत होकर काशी देश की वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्मनाभ के इस नाम के पुत्र हुए । इनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी, शारीरिक ऊँचाई बाईस धनुष, वर्ण-स्वर्ण के समान देदीप्यमान था । पुण्योदय से इन्होंने चक्रवर्तित्व प्राप्त किया था । पृथिवी, सुंदरी आदि -इनकी आठ पुत्रियां थी जो सुकेतु विद्याधर के पुत्रों को दी गयी थी । अंत में मेघों की क्षणभंगुरता देखकर ये विरक्त हो गई । पुत्र को राज्य सौंपा, सुकेतु आदि के साथ समाधिगुप्त जिनसे संयमी हुए और घातिया कर्मों के क्षय से ये परम पद में अधिष्ठित हुए । <span class="GRef"> महापुराण 66.67-100, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#178|पद्मपुराण - 20.178-184]] </span></p> | <p id="20" class="HindiText">(20) तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थकाल में उत्पन्न नवम चक्रवर्ती । तीसरे पूर्वभव में ये सुकच्छ देश में श्रीपुर नगर के प्रजापाल नामक नृप थे । आयु पूर्ण कर अंतत स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से च्युत होकर काशी देश की वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्मनाभ के इस नाम के पुत्र हुए । इनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी, शारीरिक ऊँचाई बाईस धनुष, वर्ण-स्वर्ण के समान देदीप्यमान था । पुण्योदय से इन्होंने चक्रवर्तित्व प्राप्त किया था । पृथिवी, सुंदरी आदि -इनकी आठ पुत्रियां थी जो सुकेतु विद्याधर के पुत्रों को दी गयी थी । अंत में मेघों की क्षणभंगुरता देखकर ये विरक्त हो गई । पुत्र को राज्य सौंपा, सुकेतु आदि के साथ समाधिगुप्त जिनसे संयमी हुए और घातिया कर्मों के क्षय से ये परम पद में अधिष्ठित हुए । <span class="GRef"> महापुराण 66.67-100, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#178|पद्मपुराण - 20.178-184]] </span></p> | ||
<p id="21">(21) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल में उत्पन्न शलाका पुरुष एवं आठवें बलभद्र । ये तीर्थंकर मुनिसुव्रत और नमिनाथ के मध्यकाल में राजा दशरथ और उनकी रानी अपराजिता से उत्पन्न हुए थे । इनका नाम माता-पिता ने पद्म रखा । पर लोक में से राम के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#232|पद्मपुराण - 20.232-241]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#22|25.22]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#123|123]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#151|151]] </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-111 </span>इनकी आयु सत्रह हजार वर्ष तथा ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी । दशरथ को सुमित्रा रानी का पुत्र लक्ष्मण, कैकेयी रानी का पुत्र भरत, और सुप्रभा रानी का पुत्र शत्रुघ्न इनके अनुज थे । इन्हें और इनके सभी भाइयों को एक बाह्मण ने अस्त्र-विद्या सिखायी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#23|पद्मपुराण - 25.23-26]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#35|35-36]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#54|54-56]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#142|123.142]] </span>राजा जनक और मयूरमाल नगर के राजा आंतरंगतम के बीच हुए युद्ध में इन्होंने जनक की सहायता की थी, जिसके फलस्वरूप जनक ने इन्हें अपनी पुत्री जानकी को देने का निश्चय किया । विद्याधरों के विरोध करने पर सीता की प्राप्ति के लिए वज्रावर्त धनुष चढ़ाना आवश्यक माना गया । पद्म ने धनुष चढ़ाकर सीता प्राप्त की थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_18#169|पद्मपुराण - 18.169-171]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_18#240|240-244]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_27#7|27.7]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_27#78|78-92]] </span>कैकेयी के द्वारा भरत के लिए राज्य माँगे जाने पर राजा दशरथ ने इनके समक्ष अपनी चिंता व्यक्त की । इन्होंने उनसे सत्य व्रत की रक्षा करने के लिए साग्रह निवेदन किया । ये लक्ष्मण और सीता के साथ घर से निकलकर वन की ओर चले गये । भरत ने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया । भरत और कैकेयी दोनों ने इन्हें वन से लौटकर अयोध्या आने के लिए बहुत आग्रह किया किंतु इन्होंने पिता की वचन-रक्षा के लिए आना उचित नहीं समझा । वन में इन्होंने बालखिल्य को बंधनों से मुक्त कराया, देशभूषण और कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर किया और सुगुप्ति तथा गुप्ति नाम के मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#115|पद्मपुराण - 31.115-125]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#188|188]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#201|201]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#116|32.116-133]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_34#95|34.95-97]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_39#70|39.70-74]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_39#222|222-225]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#13|41.13-16]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#22|22-31]], </span>वन में एक गिध पक्षी इन्हें बहुत प्रिय रहा । इन्होंने उसका नाम जटायु रखा । चंद्रनखा के प्रयत्न करने पर भी ये शील से विचलित नहीं हुए । लक्ष्मण के द्वारा संदूक के मारे जाने से इन्हें खरदूषण से युद्ध करना पड़ा । रावण खरदूषण की सहायता के लिए आया । वन में सीता को देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया तथा उसे हर ले गया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#164|पद्मपुराण - 41.164]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_43#46|43.46-62]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_43#107|107-111]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_44#78|44.78-90]] </span>रावण सीता को हरकर ले गया है, यह सूचना रत्नजटी से पाकर,ये सेना सहित लंका गये ,वहाँ इन्होंने भानुकर्ण को नागपाश से बाँधा और रावण को छ: बार रथ से गिराया । विभीषण रावण से तिरस्कृत होकर इनसे मिल गया था । शक्ति लगने से लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर, ये भी मूर्च्छित हो गये थे । विशल्या के स्पर्श से लक्ष्मण की शक्ति के दूर होने पर ही इनका दुःख दूर हुआ । बहुरूपिणी विद्या की साधना में रत रावण को वानरों ने कुपित करना चाहा था, किंतु इन्होंने वानरों को ऐसा करने से रोका था । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के पश्चात् रावण ने पुन: युद्ध करना आरंभ किया । लक्ष्मण ने चक्र चलाकर रावण का वध किया । इस प्रकार रण में इन्हीं की विजय हुई । <span class="GRef"> महापुराण 62. 66-67, 83.95, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_76#33|पद्मपुराण - 76.33-34]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_55#71|55.71-73]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_63#1|63.1-2]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_65#37|65.37-38]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_70#8|70.8-9]], </span>इनके लंका में सीता से मिलने पर देवों ने पुष्पवृष्टि की थी । लंका में ये लक्ष्मण और सीता के साथ छ: वर्ष तक रहे । पश्चात् लंका से ये पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आये । अयोध्या आकर इन्होंने माताओं को प्रणाम किया । माताओं ने इन्हें आशीर्वाद दिया । इनके आते ही भरत दीक्षित हो गये । इन्हें अयोध्या का राजा बनाया गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_79#54|पद्मपुराण - 79.54-57]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_80#123|80.123]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#1|82.1]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#18|82.18-19]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#56|56-58]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_86#8|86.8-9]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_88#32|88.32-33]] </span>वन से लौटकर आने पर इन्होंने सीता की अग्नि-परीक्षा भी ली, किंतु लोकापवाद नहीं रुका, और इन्हें सीता का परित्याग करना राजोचित प्रतीत हुआ । कृतांतवक्त्र को आदेश देकर इन्होंने गर्भवती होते हुए भी सीता को वन में भिजवा दिया । इनके वन में दो पुत्र हुए अनंगलवण और लवणांकुश । इनसे इन्हें युद्ध भी करना पड़ा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_96#29|पद्मपुराण - 96.29-51]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_97#50|97.50-140]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_102#177|102.177-182]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#57|105.57-58]] </span>लक्ष्मण के प्रति उनके हृदय में कितना अनुराग है यह जानने के लिए स्वर्ग के दो देव आये । उन्होंने विक्रियाऋद्धि से लक्ष्मण की निष्प्राण कर दिया । लक्ष्मण के मर जाने पर भी ये लक्ष्मण की मृत देह को छ: मास तक साथ-साथ लिये रहे । जटायु और कृतांतवक्त्र के जीव देव हो गये थे । वे आये और उन्होंने इनको समझाया तब इन्होंने लक्ष्मण का अंतिम संस्कार किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_118#29|पद्मपुराण - 118.29-30]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_118#40| | <p id="21" class="HindiText">(21) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल में उत्पन्न शलाका पुरुष एवं आठवें बलभद्र । ये तीर्थंकर मुनिसुव्रत और नमिनाथ के मध्यकाल में राजा दशरथ और उनकी रानी अपराजिता से उत्पन्न हुए थे । इनका नाम माता-पिता ने पद्म रखा । पर लोक में से राम के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#232|पद्मपुराण - 20.232-241]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#22|25.22]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#123|123]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#151|151]] </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-111 </span>इनकी आयु सत्रह हजार वर्ष तथा ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी । दशरथ को सुमित्रा रानी का पुत्र लक्ष्मण, कैकेयी रानी का पुत्र भरत, और सुप्रभा रानी का पुत्र शत्रुघ्न इनके अनुज थे । इन्हें और इनके सभी भाइयों को एक बाह्मण ने अस्त्र-विद्या सिखायी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#23|पद्मपुराण - 25.23-26]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#35|35-36]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_25#54|54-56]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#142|123.142]] </span>राजा जनक और मयूरमाल नगर के राजा आंतरंगतम के बीच हुए युद्ध में इन्होंने जनक की सहायता की थी, जिसके फलस्वरूप जनक ने इन्हें अपनी पुत्री जानकी को देने का निश्चय किया । विद्याधरों के विरोध करने पर सीता की प्राप्ति के लिए वज्रावर्त धनुष चढ़ाना आवश्यक माना गया । पद्म ने धनुष चढ़ाकर सीता प्राप्त की थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_18#169|पद्मपुराण - 18.169-171]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_18#240|240-244]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_27#7|27.7]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_27#78|78-92]] </span>कैकेयी के द्वारा भरत के लिए राज्य माँगे जाने पर राजा दशरथ ने इनके समक्ष अपनी चिंता व्यक्त की । इन्होंने उनसे सत्य व्रत की रक्षा करने के लिए साग्रह निवेदन किया । ये लक्ष्मण और सीता के साथ घर से निकलकर वन की ओर चले गये । भरत ने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया । भरत और कैकेयी दोनों ने इन्हें वन से लौटकर अयोध्या आने के लिए बहुत आग्रह किया किंतु इन्होंने पिता की वचन-रक्षा के लिए आना उचित नहीं समझा । वन में इन्होंने बालखिल्य को बंधनों से मुक्त कराया, देशभूषण और कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर किया और सुगुप्ति तथा गुप्ति नाम के मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#115|पद्मपुराण - 31.115-125]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#188|188]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#201|201]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#116|32.116-133]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_34#95|34.95-97]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_39#70|39.70-74]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_39#222|222-225]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#13|41.13-16]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#22|22-31]], </span>वन में एक गिध पक्षी इन्हें बहुत प्रिय रहा । इन्होंने उसका नाम जटायु रखा । चंद्रनखा के प्रयत्न करने पर भी ये शील से विचलित नहीं हुए । लक्ष्मण के द्वारा संदूक के मारे जाने से इन्हें खरदूषण से युद्ध करना पड़ा । रावण खरदूषण की सहायता के लिए आया । वन में सीता को देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया तथा उसे हर ले गया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#164|पद्मपुराण - 41.164]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_43#46|43.46-62]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_43#107|107-111]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_44#78|44.78-90]] </span>रावण सीता को हरकर ले गया है, यह सूचना रत्नजटी से पाकर,ये सेना सहित लंका गये ,वहाँ इन्होंने भानुकर्ण को नागपाश से बाँधा और रावण को छ: बार रथ से गिराया । विभीषण रावण से तिरस्कृत होकर इनसे मिल गया था । शक्ति लगने से लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर, ये भी मूर्च्छित हो गये थे । विशल्या के स्पर्श से लक्ष्मण की शक्ति के दूर होने पर ही इनका दुःख दूर हुआ । बहुरूपिणी विद्या की साधना में रत रावण को वानरों ने कुपित करना चाहा था, किंतु इन्होंने वानरों को ऐसा करने से रोका था । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के पश्चात् रावण ने पुन: युद्ध करना आरंभ किया । लक्ष्मण ने चक्र चलाकर रावण का वध किया । इस प्रकार रण में इन्हीं की विजय हुई । <span class="GRef"> महापुराण 62. 66-67, 83.95, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_76#33|पद्मपुराण - 76.33-34]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_55#71|55.71-73]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_63#1|63.1-2]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_65#37|65.37-38]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_70#8|70.8-9]], </span>इनके लंका में सीता से मिलने पर देवों ने पुष्पवृष्टि की थी । लंका में ये लक्ष्मण और सीता के साथ छ: वर्ष तक रहे । पश्चात् लंका से ये पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आये । अयोध्या आकर इन्होंने माताओं को प्रणाम किया । माताओं ने इन्हें आशीर्वाद दिया । इनके आते ही भरत दीक्षित हो गये । इन्हें अयोध्या का राजा बनाया गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_79#54|पद्मपुराण - 79.54-57]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_80#123|80.123]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#1|82.1]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#18|82.18-19]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_82#56|56-58]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_86#8|86.8-9]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_88#32|88.32-33]] </span>वन से लौटकर आने पर इन्होंने सीता की अग्नि-परीक्षा भी ली, किंतु लोकापवाद नहीं रुका, और इन्हें सीता का परित्याग करना राजोचित प्रतीत हुआ । कृतांतवक्त्र को आदेश देकर इन्होंने गर्भवती होते हुए भी सीता को वन में भिजवा दिया । इनके वन में दो पुत्र हुए अनंगलवण और लवणांकुश । इनसे इन्हें युद्ध भी करना पड़ा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_96#29|पद्मपुराण - 96.29-51]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_97#50|97.50-140]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_102#177|102.177-182]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#57|105.57-58]] </span>लक्ष्मण के प्रति उनके हृदय में कितना अनुराग है यह जानने के लिए स्वर्ग के दो देव आये । उन्होंने विक्रियाऋद्धि से लक्ष्मण की निष्प्राण कर दिया । लक्ष्मण के मर जाने पर भी ये लक्ष्मण की मृत देह को छ: मास तक साथ-साथ लिये रहे । जटायु और कृतांतवक्त्र के जीव देव हो गये थे । वे आये और उन्होंने इनको समझाया तब इन्होंने लक्ष्मण का अंतिम संस्कार किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_118#29|पद्मपुराण - 118.29-30]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_118#40|118.40-113]] </span>अंत में संसार से विरक्त होकर इन्होंने अनंगलवण को राज्य दिया और स्वयं सुव्रत नामक मुनि के पास दीक्षित हो गये । इनका दीक्षा का नाम पद्ममुनि था । इनके साथ कुछ अधिक सोलह हजार राजा मुनि और सत्ताईस हजार स्त्रियाँ आर्यिका हुई थीं । इन्हें माघ शुक्ल द्वादशी की रात्रि के पिछले प्रहर में केवलज्ञान हुआ था । सीता के जीव स्वयंप्रभ देव ने इनकी पूजा कर क्षमा-याचना की । अंत में ये सिद्ध हुए । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_119#12|पद्मपुराण - 119.12-33]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_119#41|41-47]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_119#54|54]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_122#66|122.66-73]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#144|123.144-147]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 20:44, 29 November 2023
(1) तीर्थंकर सुविधिनाथ के पूर्व जन्म का नाम । पद्मपुराण - 20.20-24
(2) एक सरोवर । कुंभकर्ण के विमोचन का आदेश राम ने यहीं दिया था । महापुराण 63. 197, पद्मपुराण - 78.8-9
(3) नव निधियों में पाँचवीं निधि । इससे रेशमी, सूती आदि सभी प्रकार के वस्त्र तथा रत्न आदि इच्छित वस्तुएँ प्राप्त होती है । महापुराण 37.73, 73, 79, 38.21, हरिवंशपुराण - 11.121, 59.63, देखें नवनिधि
(4) सौमनस नगर का राजा । इसने तीर्थंकर सुमतिनाथ को आहार दिया था । महापुराण 51.72
(5) वसुदेव तथा रानी रोहिणी का पुत्र । यह नवम बलभद्र था । महापुराण 70. 318-319
(6) वसुदेव और पद्मावती का पुत्र । यह पद्मक का अग्रज था । हरिवंशपुराण - 48.58
(7) कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का बड़ा भाई । यह सुप्रकारपुर के राजा शंबर और रानी श्रीमती का पुत्र तथा ध्रुवसेन का भाई था । महापुराण 71. 409-410
(8) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह का देश । महापुराण 73.31
(9) भविष्यत्कालीन ग्यारहवाँ कुलकर । महापुराण 76.465
(10) भविष्यत्कालीन आठवां चक्रवर्ती । महापुराण 76.483
(11) व्यवहार काल का एक भेद । यह चौरासी लाख पद्मांग प्रमाण होता है । यह संख्या का भी एक भेद है । महापुराण 3.118, 223, हरिवंशपुराण - 7.27
(12) सौधर्म स्वर्ग का एक पटल एवं विमान । हरिवंशपुराण - 6.46 देखें सौधर्म
(13) पुष्करवर द्वीप का रक्षक देव । हरिवंशपुराण - 5.639
(14) कुंडलगिरिवामी देव । हरिवंशपुराण - 5.631
(15) हिमवत् कुलाचल का सरोवर । एक हजार योजन लंबा, पाँच सौ योजन चौड़ा और सवा सौ योजन गहरा है । इसके पूर्व द्वार से गंगा, पश्चिम द्वार से सिंधु और उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है । महापुराण 32.121-124, हरिवंशपुराण - 5.121,126.132
(16) कृष्ण का एक योद्धा । इसने कृष्ण-जरासंध युद्ध में भाग लिया था । महापुराण 71.73-77
(17) अनंतनाथ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । हरिवंशपुराण - 60.153
(18) चंद्रप्रभ तीर्थंकर के पूर्वभव का नाम । हरिवंशपुराण - 60.152
(19) हस्तिनापुर के राजा महापद्म का पुत्र । हरिवंशपुराण - 20.14
(20) तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थकाल में उत्पन्न नवम चक्रवर्ती । तीसरे पूर्वभव में ये सुकच्छ देश में श्रीपुर नगर के प्रजापाल नामक नृप थे । आयु पूर्ण कर अंतत स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से च्युत होकर काशी देश की वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्मनाभ के इस नाम के पुत्र हुए । इनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी, शारीरिक ऊँचाई बाईस धनुष, वर्ण-स्वर्ण के समान देदीप्यमान था । पुण्योदय से इन्होंने चक्रवर्तित्व प्राप्त किया था । पृथिवी, सुंदरी आदि -इनकी आठ पुत्रियां थी जो सुकेतु विद्याधर के पुत्रों को दी गयी थी । अंत में मेघों की क्षणभंगुरता देखकर ये विरक्त हो गई । पुत्र को राज्य सौंपा, सुकेतु आदि के साथ समाधिगुप्त जिनसे संयमी हुए और घातिया कर्मों के क्षय से ये परम पद में अधिष्ठित हुए । महापुराण 66.67-100, पद्मपुराण - 20.178-184
(21) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल में उत्पन्न शलाका पुरुष एवं आठवें बलभद्र । ये तीर्थंकर मुनिसुव्रत और नमिनाथ के मध्यकाल में राजा दशरथ और उनकी रानी अपराजिता से उत्पन्न हुए थे । इनका नाम माता-पिता ने पद्म रखा । पर लोक में से राम के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । पद्मपुराण - 20.232-241, 25.22, 123, 151 वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-111 इनकी आयु सत्रह हजार वर्ष तथा ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी । दशरथ को सुमित्रा रानी का पुत्र लक्ष्मण, कैकेयी रानी का पुत्र भरत, और सुप्रभा रानी का पुत्र शत्रुघ्न इनके अनुज थे । इन्हें और इनके सभी भाइयों को एक बाह्मण ने अस्त्र-विद्या सिखायी थी । पद्मपुराण - 25.23-26,35-36, 54-56, 123.142 राजा जनक और मयूरमाल नगर के राजा आंतरंगतम के बीच हुए युद्ध में इन्होंने जनक की सहायता की थी, जिसके फलस्वरूप जनक ने इन्हें अपनी पुत्री जानकी को देने का निश्चय किया । विद्याधरों के विरोध करने पर सीता की प्राप्ति के लिए वज्रावर्त धनुष चढ़ाना आवश्यक माना गया । पद्म ने धनुष चढ़ाकर सीता प्राप्त की थी । पद्मपुराण - 18.169-171, 240-244, 27.7,78-92 कैकेयी के द्वारा भरत के लिए राज्य माँगे जाने पर राजा दशरथ ने इनके समक्ष अपनी चिंता व्यक्त की । इन्होंने उनसे सत्य व्रत की रक्षा करने के लिए साग्रह निवेदन किया । ये लक्ष्मण और सीता के साथ घर से निकलकर वन की ओर चले गये । भरत ने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया । भरत और कैकेयी दोनों ने इन्हें वन से लौटकर अयोध्या आने के लिए बहुत आग्रह किया किंतु इन्होंने पिता की वचन-रक्षा के लिए आना उचित नहीं समझा । वन में इन्होंने बालखिल्य को बंधनों से मुक्त कराया, देशभूषण और कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर किया और सुगुप्ति तथा गुप्ति नाम के मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । पद्मपुराण - 31.115-125, 188, 201, 32.116-133, 34.95-97, 39.70-74, 222-225, 41.13-16, 22-31, वन में एक गिध पक्षी इन्हें बहुत प्रिय रहा । इन्होंने उसका नाम जटायु रखा । चंद्रनखा के प्रयत्न करने पर भी ये शील से विचलित नहीं हुए । लक्ष्मण के द्वारा संदूक के मारे जाने से इन्हें खरदूषण से युद्ध करना पड़ा । रावण खरदूषण की सहायता के लिए आया । वन में सीता को देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया तथा उसे हर ले गया । पद्मपुराण - 41.164, 43.46-62, 107-111, 44.78-90 रावण सीता को हरकर ले गया है, यह सूचना रत्नजटी से पाकर,ये सेना सहित लंका गये ,वहाँ इन्होंने भानुकर्ण को नागपाश से बाँधा और रावण को छ: बार रथ से गिराया । विभीषण रावण से तिरस्कृत होकर इनसे मिल गया था । शक्ति लगने से लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर, ये भी मूर्च्छित हो गये थे । विशल्या के स्पर्श से लक्ष्मण की शक्ति के दूर होने पर ही इनका दुःख दूर हुआ । बहुरूपिणी विद्या की साधना में रत रावण को वानरों ने कुपित करना चाहा था, किंतु इन्होंने वानरों को ऐसा करने से रोका था । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के पश्चात् रावण ने पुन: युद्ध करना आरंभ किया । लक्ष्मण ने चक्र चलाकर रावण का वध किया । इस प्रकार रण में इन्हीं की विजय हुई । महापुराण 62. 66-67, 83.95, पद्मपुराण - 76.33-34, 55.71-73, 63.1-2, 65.37-38, 70.8-9, इनके लंका में सीता से मिलने पर देवों ने पुष्पवृष्टि की थी । लंका में ये लक्ष्मण और सीता के साथ छ: वर्ष तक रहे । पश्चात् लंका से ये पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आये । अयोध्या आकर इन्होंने माताओं को प्रणाम किया । माताओं ने इन्हें आशीर्वाद दिया । इनके आते ही भरत दीक्षित हो गये । इन्हें अयोध्या का राजा बनाया गया था । पद्मपुराण - 79.54-57, 80.123, 82.1, 82.18-19, 56-58, 86.8-9, 88.32-33 वन से लौटकर आने पर इन्होंने सीता की अग्नि-परीक्षा भी ली, किंतु लोकापवाद नहीं रुका, और इन्हें सीता का परित्याग करना राजोचित प्रतीत हुआ । कृतांतवक्त्र को आदेश देकर इन्होंने गर्भवती होते हुए भी सीता को वन में भिजवा दिया । इनके वन में दो पुत्र हुए अनंगलवण और लवणांकुश । इनसे इन्हें युद्ध भी करना पड़ा । पद्मपुराण - 96.29-51, 97.50-140, 102.177-182, 105.57-58 लक्ष्मण के प्रति उनके हृदय में कितना अनुराग है यह जानने के लिए स्वर्ग के दो देव आये । उन्होंने विक्रियाऋद्धि से लक्ष्मण की निष्प्राण कर दिया । लक्ष्मण के मर जाने पर भी ये लक्ष्मण की मृत देह को छ: मास तक साथ-साथ लिये रहे । जटायु और कृतांतवक्त्र के जीव देव हो गये थे । वे आये और उन्होंने इनको समझाया तब इन्होंने लक्ष्मण का अंतिम संस्कार किया था । पद्मपुराण - 118.29-30,118.40-113 अंत में संसार से विरक्त होकर इन्होंने अनंगलवण को राज्य दिया और स्वयं सुव्रत नामक मुनि के पास दीक्षित हो गये । इनका दीक्षा का नाम पद्ममुनि था । इनके साथ कुछ अधिक सोलह हजार राजा मुनि और सत्ताईस हजार स्त्रियाँ आर्यिका हुई थीं । इन्हें माघ शुक्ल द्वादशी की रात्रि के पिछले प्रहर में केवलज्ञान हुआ था । सीता के जीव स्वयंप्रभ देव ने इनकी पूजा कर क्षमा-याचना की । अंत में ये सिद्ध हुए । पद्मपुराण - 119.12-33, 41-47, 54, 122.66-73, 123.144-147