कविवर श्री दौलतरामजी कृत भजन: Difference between revisions
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* [[जगदानंदन जिन अभिनंदन]] | * [[जगदानंदन जिन अभिनंदन]] | ||
* [[पद्मसद्म पद्मापद पद्मा]] | * [[पद्मसद्म पद्मापद पद्मा]] |
Latest revision as of 06:23, 10 February 2008
- अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन
- हे जिन तेरो सुजस उजागर
- हे जिन तेरे मैं शरणै आया
- मैं आयौ, जिन शरन तिहारी
- जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे
- हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै
- आज मैं परम पदारथ पायौ
- जिनवर-आनन-भान निहारत
- त्रिभुवन आनन्दकारी जिन छवि
- निरखत जिनचन्द्र-वदन
- निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द
- मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो
- दीठा भागनतैं जिनपाला
- शिवमग दरसावन रावरो दरस
- जिन छवि तेरी यह
- प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी
- जिन छवि लखत यह बुधि भयी
- ध्यान कृपान पानि गहि नासी
- भविन-सरोरूहसूर भूरिगुनपूरित अरहंता
- प्रभु थारी आज महिमा जानी
- और अबै न कुदेव सुहावै
- उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे
- सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके
- जय जय जग-भरम-तिमिर
- थारा तो वैना में सरधान घणो छै
- जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी
- सुन जिन वैन श्रवन सुख पायौ
- जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई
- और सबै जगद्वन्द मिटावो
- जिनवानी जान सुजान रे
- नित पीज्यौ धीधारी, जिनवानि
- धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी
- अब मोहि जानि परी
- ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै
- ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै
- कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर
- गुरु कहत सीख इमि बार बार
- जिन रागद्वेष त्यागा वह सतगुरु हमारा
- धनि मुनि जिन की लगी लौ शिवओरनै
- धनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना
- धनि मुनि निज आतमहित कीना
- देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है!
- जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा
- भज ऋषिपति ऋषभेश
- मेरी सुध लीजै रिषभ स्वाम!
- जगदानंदन जिन अभिनंदन
- पद्मसद्म पद्मापद पद्मा
- चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के
- भाखूँ हित तेरा, सुनि हो मन मेरा
- आतम रूप अनूपम अद्भुत
- चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे
- आप भ्रमविनाश आप
- चेतन यह बुधि कौन सयानी
- चेतन कौन अनीति गही रे
- चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो
- चेतन अब धरि सहजसमाधि
- चिदरायगुन सुनो मुनो
- चित चिंतकैं चिदेश कब
- राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो
- मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी
- ज्ञानी ऐसी होली मचाई
- मेरो मन ऐसी खेलत होरी
- जिया तुम चालो अपने देश
- मत कीज्यौ जी यारी
- मत कीज्यौ जी यारी
- मत राचो धीधारी
- हे मन तेरी को कुटेव यह
- मानत क्यों नहिं रे
- जानत क्यौं नहिं रे
- छांडि दे या बुधि भोरी
- छांडत क्यौं नहिं रे
- लखो जी या जिय भोरे की बातैं
- सुनो जिया ये सतगुरु की बातैं
- मोही जीव भरम तमतैं नहिं
- ज्ञानी जीव निवार भरमतम
- अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ
- जीव तू अनादिहीतैं भूल्यौ शिवगैलवा
- शिवपुर की डगर समरससौं भरी
- तोहि समझायो सौ सौ बार
- न मानत यह जिय निपट अनारी
- हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई
- अरे जिया, जग धोखे की टाटी
- हम तो कबहूँ न हित उपजाये
- हम तो कबहुँ न निजगुन भाये
- हम तो कबहुँ न निज घर आये
- हे हितवांछक प्रानी रे
- विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे
- कुमति कुनारि नहीं है भली रे
- घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन
- जम आन अचानक दावैगा
- तू काहेको करत रति तनमें
- निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना
- निजहितकारज करना भाई!
- मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन
- मोहिड़ा रे जिय!
- सौ सौ बार हटक नहिं मानी