Category:भावपाहुड
From जैनकोष
भावशुद्धि पर विशेष बल देनेवाले एक सौ पैंसठ गाथाओं के विस्तार में फैले इस भावपाहुड का सार `आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार' नामक ग्रन्थ में सुव्यवस्थित रूप से दिया गया है, जिसका संक्षिप्त रूप इसप्रकार है -
बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है, परन्तु रागादि अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य त्याग निष्फल ही है; क्योंकि अंतरंग भावशुद्धि बिना करोड़ों वर्ष तक भी बाह्य तप करें, तब भी सिद्धि नहीं होती । अत: मुक्तिमार्ग के पथिकों को सर्वप्रथम भाव को ही पहिचानना चाहिए ।
हे आत्मन् ! तूने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप तो अनेक बार ग्रहण किये हैं, पर भावलिंग बिना-शुद्धात्मतत्त्व की भावना बिना चतुर्गति में भ्रण करते हुए अनन्त दु:ख उठाये हैं । नरकगति में सर्दी, गर्मी, आवासादि के; तिर्यंचगति में खनन, ज्वलन, वेदना व्युच्छेदन, निरोधन आदि के; मनुष्यगति में आगन्तुक, मानसिक, शारीरिक आदि एवं देवगति में वियोग, हीन भावना आदि के दु:ख भोगे हैं । अधिक क्या कहें, आत्मभावना के बिना तू माँ के गर्भ में महा अपवित्र स्थान में सिकुड़ के रहा । आजतक तूने इतनी माताओं का दूध पिया है कि यदि उसे इकट्ठा किया जावे तो सागर भर जावे । तेरे जन्म-मरण से दु:खी माताओं के अश्रुजल से भी सागर भर जावे । इसीप्रकार तूने इस अनंत संसार में इतने जन्म लिये हैं कि उनके केश, नख, नाल और अस्थियों को इकट्ठा करें तो सुेरु पर्वत से भी बड़ा ढेर हो जावे ।
हे आत्मन् ! तूने आत्मभाव रहित होकर तीन लोक में जल, थल, अग्नि, पवन, गिरि, नदी, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर सर्वत्र सर्व दु:ख सहित निवास किया; सर्व पुद्गलों का बार-बार भक्षण किया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई । इसीप्रकार तृषा से पीड़ित होकर तीन लोक का समस्त जल पिया, तथापि तृषा शान्त न हुई । अत: अब समस्त बातों का विचार कर, भव को समाप्त करनेवाले रत्नत्रय का चिन्तन कर । हे धीर ! तुने अनन्त भवसागर में अनेकबार उत्पन्न होकर अपरिमित शरीर धारण किये व छोड़े हैं, जिनमें से मनुष्यगति में विषभक्षणादि व तिर्यंचगति में हिमपातादि द्वारा कुमरण को प्राप्त होकर महादु:ख भोगे हैं । निगोद में तो एक अन्तर्मुहूर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण किया है । हे जीव ! तूने रत्नत्रय के अभाव में दु:खमय संसार में अनादिकाल से भ्रण किया है, अत: अब तुआत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप रत्नत्रय की प्राप्ति करो, ताकि तुम्हारा मरण कुमरण न बनकर सुरण बन जाए और शीघ्र ही शाश्वत सुख को प्राप्त करो ।
अब आचार्य भावरहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करने के पश्चात हुए दु:खों का वर्णन करते हैं ।
हे मुनिवर ! तीन लोक में कोई ऐसा स्थल शेष नहीं है, जहाँ तूने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म-मरण धारण न किया हो । न ही कोई पुद्गल ऐसा बचा है, जिसे तूने ग्रहण कर छोड़ा न हो; फिर भी तेरी मुक्ति नहीं हुई, अपितु भावलिंग न होने से अनंतकाल तक जन्म-जरा आदि से पीड़ित होते हुए दु:खों को ही भोगा है । अधिक क्या कहें, इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में ९६-९६ रोग होते हैं, फिर सम्पूर्ण शरीर के रोगों का तो कहना ही क्या है ? पूर्वभवों में उन समस्त रोगों को तूने सहा है एवं आगे भी सहेगा ।
हे मुनि ! तू माता के अपवित्र गर्भ में रहा । वहाँ माता के उच्छिष्ट भोजन से बना हुआ रस रूपी आहार ग्रहण किया । फिर बाल अवस्था में अज्ञानवश अपवित्र स्थान में, अपवित्र वस्तु में लेटा रहा व अपवित्र वस्तु ही खाई । हे मुनि ! यह देहरूपी घर मांस, हाड़, शुक्र, रुधिर, पित्त, अंतड़ियों, खसिर (रुधिर के बिना अपरिपक्व मल) वसा और पूय (खराब खून) - इन सब मलिन वस्तुओं से भरा है, जिसमें तू आसक्त होकर अनन्तकाल से दु:ख भोग रहा है । समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे धीर ! जो सिर्फ कुटुम्बादि से मुक्त हुआ, वह मुक्त नहीं है; अपितु जो आभ्यंतर की वासना छोड़कर भावों से मुक्त होता है, उसी को मुक्त कहते हैं - ऐसा जानकर आभ्यन्तर की वासना छोड़ । भूतकाल में अनेक ऐसे मुनि हुए हैं, जिन्होंने देहादि परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ रूप धारण किया, किन्तु मानादिक नहीं छोड़े; अत: सिद्धि नहीं हुई । जब निर्मान हुए, तभी मुक्ति हुई ।
द्रव्यलिंगी उग्रतप करते हुए अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त कर लेता है, किन्तु क्रोधादि के उत्पन्न होने के कारण उसकी वे ऋद्धियाँ स्व-पर के विनाश का ही कारण होती हैं, जैसे बाहु और द्वीपायन मुनि ।
भावशुद्धि बिना एकादश अंग का ज्ञान भी व्यर्थ है; किन्तु यदि शास्त्रों का ज्ञान न हो और भावों की विशुद्धता हो तो आत्मानुभव के होने से मुक्ति प्राप्त हुई है । जैसे - शिवभूति मुनि ।
उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भाव रहित नग्नत्व अकार्यकारी है । भाव सहित द्रव्यलिंग में ही कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है । हे धीरमुनि ! इसप्रकार जानकर तुझे आत्मा की ही भावना करना
चाहिए ।
जो मुनि देहादिक परिग्रह व मानकषाय से रहित होता हुआ आत्मा में लीन होता है, वह भावलिंगी है । भावलिंगी मुनि विचार करता है कि मैं परद्रव्य व परभावों से ममत्व को छोड़ता हूँ । मेरा स्वभाव ममत्व रहित है, अत: मैं अन्य सभी आलम्बनों को छोड़कर आत्मा का आलम्बन लेता हूँ । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, योग - ये सभी भाव अनेक होने पर भी एक आत्मा में ही हैं । संज्ञा, संख्यादि के भेद से भी उन्हें भिन्न-भिन्न कहा जाता है । मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वरूप शाश्वत आत्मा ही हूँ; शेष सब संयोगी पदार्थ परद्रव्य हैं, मुझसे भिन्न हैं । अत: हे आत्मन् ! तु यदि चार गति से छूटकर शाश्वत सुख को पाना चाहते हो तो भावों से शुद्ध होकर अतिनिर्मल आत्मा का चिन्तन करो । जो जीव ऐसा करता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है ।
जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्ट-संस्थान व चेतना गुणवाला है । चैतन्यमयी ज्ञानस्वभावी जीव की भावना कर्मक्षय का कारण होती है ।
भाव की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रावकत्व व मुनित्व के कारणभूत भाव ही हैं । भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मो का नाश होता है । यदि नग्नत्व से ही कार्यसिद्धि हो तो नारकी, पशु आदि सभी जीवसमूह को नग्नत्व के कारण मुक्ति प्राप्त होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु वे महादु:खी ही हैं । अत: यह स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व से दु:खों की ही प्राप्ति होती है, संसार में ही भ्रण होता है ।
बाह्य में नग्न मुनि पैशून्य, हास्य, भाषा आदि कार्यो से मलिन होता हुआ स्वयं अपयश को प्राप्त करता है एवं व्यवहार धर्म की भी हंसी कराता है; इसलिए आभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर ही निर्ग्रन्थ बाह्यलिंग धारण करना चाहिए ।
भावरहित द्रव्यलिंग की निरर्थकता बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस मुनि में धर्म का वास नहीं है, अपितु दोषों का आवास है, वह तो इक्षुफल के समान है, जिसमें न तो मुक्तिरूपी फल लगते हैं और न रत्नत्रयरूप गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं । अधिक क्या कहें, वे तो नग्न होकर भी नाचनेवाले भांड के समान ही हैं ।१४
अत: हे आत्मन् ! पहले मिथ्यात्वादि आभ्यन्तर दोषों को छोड़कर, भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर, बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग धारण करना चाहिए । शुद्धात्मा की भावना से रहित मुनियों द्वारा किया गया बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरिकन्दरादि का आवास, ज्ञान, अध्ययन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं । इसलिए हे मुनि ! लोक का मनोरंजन करनेवाला मात्र बाह्यवेष ही धारण न कर, इन्द्रियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूपी बन्दर को वश में कर, मिथ्यात्व, कषाय व नव नोकषायों को भावशुद्धिपूर्वक छोड़, देव-शास्त्र-गुरु की विनय कर, जिनशास्त्रों को अच्छी तरह समझकर शुद्धभावों की भावना कर; जिससे तुझे क्षुधा-तृषादि वेदना से रहित त्रिभुवन चूड़ामणी सिद्धत्व की प्राप्ति होगी ।
हे मुनि ! तू बाईस परीषहों को सह; बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना कर; भावशुद्धि के लिए नवपदार्थ, सप्ततत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की नाम-लक्षणादिकपूर्वक भावना कर; दशप्रकार के अब्रह्मचर्य को छोड़कर नवप्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रगट कर । इसप्रकार भावपूर्वक द्रव्यलिंगी मुनि ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप को प्राप्त करता है, भावरहित द्रव्यलिंगी तो चारों गतियों में अनंत दु:खों को भोगता है ।
हे मुनि ! तू संसार को असार जानकर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्मल सम्यग्दर्शन सहित दीक्षा लेने की भावना कर, भावों से शुद्ध होकर बाह्यलिंग धारण कर, उत्तम गुणों का पालन कर । जीव, अजीव, आस्रव, बंध और संवरतत्त्व का चिन्तन कर, मन-वचन-काय से शुद्ध होकर आत्मा का चिन्तन कर; क्योंकि जबतक विचारणीय जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करेगा, तबतक अविनाशी पद की प्राप्ति नहीं होगी ।
हे मुनिवर ! पाप-पुण्य बंधादि का कारण परिणाम ही है । मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योगरूप भावों से पाप का बंध होता है । मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव पुण्य को बाँधता हैं । अत: तु ऐसी भावना करो कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से आच्छादित हूँ, मैं इन्हें समाप्त कर निज स्वरूप को प्रकट करूँ । अधिक कहने से क्या ? तू तो प्रतिदिन शील व उत्तरगुणों का भेद-प्रभेदों सहित चिन्तन कर ।
हे मुनि ! ध्यान से मोक्ष होता है । अत: तु आर्त्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म व शुक्ल ध्यान को धारण करो । द्रव्यलिंगी के धर्म व शुक्ल ध्यान नहीं होता, अत: वह संसाररूप वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं है । जिस मुनि के मन में रागरूप पवन से रहित धर्मरूपी दीपक जलता है, वही आत्मा को प्रकाशित करता है, वही संसाररूपी वृक्ष को ध्यानरूपी कुल्हाड़ी से काटता है । ज्ञान का एकाग्र होना ही ध्यान है । ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है, जिससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, अत: भावश्रमण तो सुखों को प्राप्त कर तीर्थंकर व गणधर आदि पदों को प्राप्त करते हैं;
पर द्रव्यश्रमण दु:खों को ही भोगता है । अत: गुण-दोषों को जानकर तु भाव सहित संयमी बनो । भावश्रमण विद्याधरादि की ऋदि्घयों को नहीं चाहता, न ही वह मनुष्य-देवादि के सुखों की वांछा
करता है । वह चाहता है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र आत्महित कर लूँ ।
हे धीर ! जिसप्रकार गुड़मिश्रित दूध के पीने पर भी सर्प विषरहित नहीं होता, उसीप्रकार अभव्य जीव जिनधर्म के सुनने पर भी अपनी र्दुत से आच्छादित बुद्धि को नहीं छोड़ता । वह मिथ्या धर्म से युक्त रहता हुआ मिथ्या धर्म का पालन करता है, अज्ञान तप करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता हुआ संसार में भ्रण करता है; अत: तुझे ३६३ पाखण्डियों के मार्ग को छोड़कर जिनधर्म में मन लगाना चाहिए ।
सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार लोक में जीव रहित शरीर को `शव' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष चल शव है । शव लोक में अपूज्य होता है और सम्यग्दर्शन रहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है । मुनि व श्रावक धर्मो में सम्यक्त्व की ही विशेषता है । जिसप्रकार ताराओं के समूह में चन्द्रमा सुशोभित होता है, पशुओं में मृगराज सुशोभित होता है; उसीप्रकार जिनमार्ग में जिनभक्ति सहित निर्मल सम्यग्दर्शन से युक्त तप-व्रतादि से निर्मल जिनलिंग सुशोभित होता है ।
इसप्रकार सम्यक्त्व के गुण व मिथ्यात्व के दोषों को जानकर गुणरूपी रत्नों के सार मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करना चाहिए ।
जिसप्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय-कषायों में लिप्त नहीं होता । आचार्यदेव कहते हैं कि जो भावसहित सम्पूर्ण शील-संयमादि गुणों से युक्त हैं, उन्हें ही हम मुनि कहते हैं । मिथ्यात्व से मलिन चित्तवाले बहुत दोषों के आवास मुनिवेष धारी जीव तो श्रावक के समान भी नहीं हैं ।
जो इन्द्रियों के दमन व क्षमारूपी तलवार से कषायरूपी प्रबल शत्रु को जीतते हैं, चारित्ररूपी खड्ग से पापरूपी स्तंभ को काटते हैं, विषयरूपी विष के फलों से युक्त मोहरूपी वृक्ष पर चढ़ी मायारूपी बेल को ज्ञानरूपी शस्त्र से पूर्णरूपेण काटते हैं; मोह, मद, गौरव से रहित और करुणाभाव से सहित हैं; वे मुनि ही वास्तविक धीर-वीर हैं । वे मुनि ही चक्रवर्ती, नारायण, अर्धचक्री, देव, गणधर आदि के सुखों को और चारण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण शुद्धता होने पर अजर, अमर, अनुपम, उत्तम, अतुल, सिद्ध सुख को भी प्राप्त करते हैं ।
भावपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि सर्वज्ञदेव कथित इस भावपाहुड को जो भव्य जीव भलीभांति पढ़ते हैं, सुनते हैं, चिन्तन करते हैं, वे अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त
करते हैं । इसप्रकार हम देखते हैं कि भावपाहुड में भावलिंग सहित द्रव्यलिंग धारण करने की प्रेरणा दी गई है । प्रकारान्तर से सम्यग्दर्शन सहित व्रत धारण करने का उपदेश दिया गया है ।
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